Tuesday, January 26, 2010

हिमालय में हैंड ग्लाइडिंग, नहीं पहाड़ में हिचकोले खाती जिंदगानी हरदम




3

जल जीवन की अनंत काया

(मंडी के पुराने शहर की बावड़ी पर दिल कुर्बान)

एक

खींचकर लाई पहाड़ों की जड़ों से

बहाई सदियों से अजस्र जलधार

हद बाहर रहे आए कुएं बाबड़ियां

नगर हुआ बेहद्द कुछ इस तरह

गलियों मकानों छज्जे चौबारों के बीच

ला बिठाई बावली पुरानी


एक एक सीढ़ी उतरता हूं

एक एक पीढ़ी पीछे मुड़ता हूं

अंजुरी में जल धरता हूं

अंतहीन जीवन हथेली में धरता हूं


घड़े घड़ोलू या बोतल में ढक्कन बंद

लुकी हई रहती है बावड़ी प्यारी

जैसे पोतों पड़पोतों के बीच दादी सजल मुस्काती है


आहाते में लोकनियों की सदियों से चलती पंची चहक रही है

छप-छपाक-छप धोने की है गमक गंभीर

सीलन सिहरन फिसलन में संतुलन अद्भुत

अनुभव विचार और दर्शन सारे पछीट कर सुखाए पहनाए

कुनबों के कुनबों को तमीज और तहजीब सिखलाई


एक एक सीढ़ी ऊपर चढ़ता हूं

समय में एक एक पीढ़ी आगे बढ़ता हूं


घूंट घूंट जल पीता हूं

अनंत समय को यूं नम होकर जीता हूं


दो

न जाने किस नीड़ से

प्यासे पखेरू सा

हजारों मील दूर से

उड़ता आता हूं

बावड़ी है

जल है

जल का स्पर्श है

स्पर्श की स्मृति है

जितना उड़ा अब तक

उड़ने का

उतना ही संकल्प

और भरता हूं

2 comments:

  1. छप-छपाक-छप धोने की है गमक गंभीर
    सीलन सिहरन फिसलन में संतुलन अद्भुत
    अनुभव विचार और दर्शन सारे
    पछीट कर सुखाए पहनाए
    कुनबों के कुनबों को तमीज और तहजीब सिखलाई

    ....................
    दोनों कविताएं अद्भुत हैं अनूप जी।

    ReplyDelete
  2. अरुण जी, कविताएं आपको अच्‍छी लगीं, आभारी हूं. नए उपन्‍यास के लिए बधाई.

    ReplyDelete