Friday, January 22, 2010

कुल्‍लू और मनाली के बीच नग्‍गर में निकोलिस रोरिक के खुले संग्रहालय में रखे लोकशिल्‍प



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रोहतांग से दुनिया में वापसी


हवा कुछ बची है चोटियों पर
सांस भरो, हल्का कर देती है

पैदल चल कर आए थे
पंख लगा कर टहलाती है
बची हुई फीकी गदगद हरियाली
खुश्बू पत्तों की
अनछुई चांदी शिखरों की

लहराती महकाती उतराती
ले चलती जैसे पंछी उड़ता है

सोलंग नाले को निरखा
भीड़ भरे वशिष्ठ कुँड को परखा
नग्गर की तरफ उड़ चले
निकोलिस रोरिक के घर जा बैठे
कुछ देवी देवता आए
चंद्रखणी की तरफ जमलू को सीस नवाया
गर्म धुंध का झोंका मणिकर्ण से आया
भरी उडारी ब्यास के जल को अंजुरी में धारा
पतली कूल में सेबों का बाग निहारा

कुल्लू में पंखधरों के टिकने का ठौर नहीं मिलता
समशी, भूंतर, औट, बजौरा सब बेगाने से
पर्वत पाखी को मुक्त आकाश नहीं मिलता

भारी होते डैनों को पंडोह झील में अर्पित करके
वापस दुनिया में आना पड़ता है
मानुस जैसे पैरों पे चलके ॥

इसमें भी कुछ नाम और जगहें अपरिचित लग सकती हैं. उनके बारे में टिप्‍पणी श्रृंखला के अंत में दूंगा, इंतजार कीजिए.

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