पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिबल में आशीष नंदी के एक बयान से शुरू हुआ विवाद मीडिया में दूध में उबाल की तरह उफना जिससे जरा सी तपन हुई और दुनिया उसी रफतार से चलती रही. इस तरह की घटनाओं का घटित होना हमारे समय में हो रहे आमूल परिवर्तनों के लक्षणों के उभर आने के जैसा है, जिससे आपको मर्ज को पहचानने में मदद मिल सकती है. इस प्रसंग में कथाकार, चित्रकार, प्रसारणकार प्रभु जोशी ने नई दुनिया में दो टिप्पणियां लिखी हैं, जिन्हें हम बारी बारी से यहां पढ़ेंगे.
यह लगभग गरेबान पकड़ने वाली सचाई है
कि जब से भारत में 'वित्तीय पूंजी का युग आया है,
भ्रष्टाचार का संस्थागत' दायरा विस्तृत हुआ है। 'वित्त' और 'हिंसा', अब सत्ता की अनिवार्य अर्हता है। दोनों के गठबंधन ने राजनीति
को 'लाभकारी निवेश' में बदल दिया है। वह युग बिदा हो चुका है, जब एक ‘गुलाबी-चनाकाण्ड‘ या ‘टाट-पट्टी काण्ड‘
सत्ता की चूलें हिला देता था और पार्टी के रसातल में
जाने की चिंता से घबरा कर ‘हाई-पावर कमेटी‘
तुरन्त उस मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन लेती थी। लेकिन,
राजनीति में जब से ‘वित्तीय-पूंजी‘ का वर्चस्व बढ़ा है, प्रदेशों की सरकारों के मुखियाओं की पुरानी ‘भ्रष्ट-भीरूता‘ खत्म हो गयी है।
अब ‘अधिकतम भ्रष्ट’ पार्टी का दुलार पाता है। उसे पार्टी के ‘सी.एम.‘ से ऊपर उठकर ‘एटीएम‘ का अलंकरण मिल जाता है। क्योंकि अब
पार्टी के प्राण नीतियों नहीं, वित्तीय-पूंजी
में है। यह स्थिति उस ‘विकेन्द्रीकरण‘ की देन है, जो राजनीति में ‘एकदलीय वर्चस्व के विघटन‘ से आया है।
यहीं से ‘राजनीतिक भ्रष्टाचार‘ सत्ता की गारण्टी
बनने लगा। ‘गठबंधन‘ की व्यवस्था ने प्रदेशों को राजनीति सूबेदारों की मिल्कियत में बदल दिया।
ऐसे में विधायक और सांसद सौदे में बदले। यह नया ‘पावर-स्ट्रक्चर‘ कहलाया, जिसमें दमित और वंचित अस्मिताओं को अपने शक्ति-संतुलन का आधार
मिला। इससे ‘वित्तीय पूंजी‘ का दबदबा बढ़ा और बढ़ते ही जाने में सत्ता की सुरक्षा दिखी।
यहीं से मीडिया में भ्रष्टाचार की
नई-नई व्याख्यायें जन्म लेने लगीं। उसे ‘स्पीड-मनी‘
कहा जाने लगा। अर्थशास्त्री इसे ‘वर्गान्तरण के वैकल्पिक रास्ते‘ के रूप
में परिभाषित करने लगे। भ्रष्टाचार ‘सामाजिक उन्नयन‘
के मार्ग की वैधता का दावा करने लगा। कहा जाने लगा कि यह
वंचित और दमित अस्मिताओं के ‘उदयकाल‘ की नैसर्गिक घटना है, इसलिये
इसे लेकर नैतिक-रुदन की आवश्यकता नहीं है। यह पॉवर स्ट्रक्चर के एक ऐतिहासिक
उलटफेर का युग है, जो पांच हजार वर्ष बाद संभव हो सका
है। अतः उसकी निंदा अपने आप में भद्रलोक की भड़ास भर है। कहने की जरूरत नहीं कि यह
एक प्रकार से राजनीति से नैतिक-विमर्ष के विसर्जन का श्रीगणेश बना।
इसी सामाजिक विष्लेषण के आधार पर कहा
जा रहा है कि भारतीय समाज का एक ‘विभक्त राष्ट्र
और विभक्त समय’ का साक्षी हो रहा है। वह हर जगह ‘हम‘ और ‘वे‘ में बंट चुका है।
ये उत्तर- औपनिवेशिक बायोनरी अपोजिसंस है-धर्म और धर्म के। जाति और जाति के। शहर
और गांव के। वर्ग और वर्ग के। अब ‘अतियों‘ की नई व्याख्याएं आ रही हैं। वर्ग और समुदाय की संतुष्टि के
सामने सब कुछ स्वाहा है। यह समाज के एक बड़े वर्टिकल-डिवीजन‘ की दरार है। वर्ण-अवर्ण, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक
जैसे सामासिक-पद ‘द्वन्द्व-युद्ध’ के प्रतीक हैं। और यह द्वन्द्व अब समुदाय का प्रतिष्ठा मूल्य
है। इसी के चलते अल्पसंख्यक की साम्प्रदायिकता का ‘सम्मान‘ हो जाता है, और वंचितों का भ्रष्टाचार ‘क्षम्य‘ बन जाता है।
जबकि, हकीकतन, यह एक ‘व्याधिग्रस्त‘ समय और समाज के लक्षण हैं, जिसके परिणाम हम ‘निकट भविष्य‘
नहीं, सुदूर भविष्य में
देखेंगे। क्योंकि, अब मूल्य-दृष्टि ही भ्रष्ट हो चुकी
है। आज मूल्यों की स्थिति यह है कि वह ‘शाश्वत हो
या सापेक्ष’, ‘परम्परागत हो या परिवर्तनशील‘,
ये सब हमारे विरूपित समय की विसंगतियां हैं, जो एक दूसरे से भिड़ रही हैं। अतः ‘नैतिकता‘ चाहे वह वर्ग, समाज या
संस्था की हो- पूर्णतः प्रश्नांकित है। ‘नैतिकता‘ की एक निर्लज्ज
अनसुनी चल रही है। उससे प्रतिबद्धता को ‘मॉरल-फोबिया‘
कहा जाने लगा है। मसला चाहे फिर व्यक्ति का हो या समष्टि
का। अब निजी पूंजी ही नैतिक और निर्णायक है। उसके वर्चस्व के अपराजेय चरण की शुरुआत
है कि एक गरीब देश से दुनिया के अमीरों की फेहरिस्त में दर्ज लोगों की संख्या बढ़
गयी है। वे राष्ट्रीय गौरव बन रहे हैं। यहां हमें उस मीडिया की भूमिका को भी याद
कर लेना चाहिए, जो बड़े ‘संवेदनशीलता‘ के साथ ज्वलन्त-प्रश्नों को उठाता
है। वह एक ‘विजन-मिक्सर‘ की तकनीक से, ‘विमर्श‘ के किसी अंश को सन्दर्भच्युत करके
’बयान’ बना देता है। बयान भी नहीं केवल ‘बाइट‘। और, यह ‘बाइट‘ ही, वह चिनगारी है, जो टीआरपी की लपट
उठाती है। उसकी टीआरपी के ज्वलन्त में, धीरे-धीरे
सब समाने लगते हैं। लाय, बलाय बनकर ‘अस्मिता की राजनीति‘ के
विस्फोट का महत्वपूर्ण कारक बन जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि ‘आशीष नंदी‘ वाले विवाद को
इसी ‘मीडिया-युक्ति‘ के सर्वाधिक सफल पुनराभ्यास के रूप में ही देखा जाना चाहिए। यह पूरी तरह
लेखकों और सृजनधर्मियों के लिए सूचना है कि अब विमर्श और वाद-विवाद, भारतीय ‘पीनलकोड‘ के आतंक के बीच होंगे। क्योंकि, अब विमर्श केवल खबर है। यह ‘सरलीकरण द्वारा
सम्प्रेषण की धंधई’ चतुराई है जो, ‘असहमति‘ के बजाय ‘गिरफ्तारी‘ की मांग को ‘तुरन्ता‘ बना रही थी। अतः,
यह उचित ही है कि आशीष नंदी प्रकरण को देश के सर्वोच्च
न्यायालय में ले जाया गया है अन्यथा उसकी परिणति ठीक वैसी ही हो जाती, जैसे कि हुसैन की, जिसके
अन्तर्गत देशभर में शहर-दर-शहर थानों में प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। दरअस्ल,
हमारा मीडिया एक ‘सार्वदेशीय संवेदना का एकीकरण‘ नहीं कर
रहा है, बल्कि स्पष्टतः ‘अस्मिता आधारित‘ उसी तरह की ‘सांस्कृतिक-राजनीति‘ कर रहा है,
जैसी कि अर्से से भारतीय राजनीति में ‘धर्म-निरपेक्षता‘ को लेकर
चलती रही आयी है। यह घाव में तिनका डालने का हिंस्र-आनन्द भी है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का मंसूबा और मर्म भी है।
अंत में प्रश्न उठता है कि क्या
भ्रष्टाचार को इस नये ‘पैराडाइम शिफ्ट‘ के दौर में ‘पदेन-आय‘ कह के वर्ग-निरपेक्ष बना दिया जाये। मुझे आज से ढाई हजार वर्ष
पूर्व कौटिल्य की दी गई, उस परिभाषा को
याद करना जरूरी लग रहा है, जब उसने कहा था
कि ‘राज्य निर्धारित सार्वजनिक पद का निजी लाभ
के लिए उपयोग‘ ही भ्रष्टाचार है। चाणक्य ने चीनी
यात्री से भेंट के समय, पुराना दीया बुझाकर नया जलाया और इस
पर जब पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया तो चाणक्य ने चीनी यात्री को कहा कि ‘अभी तक मैं राज्य का काम निबटा रहा था, अतः उसे बुझा दिया, क्योंकि उसमें
राज्य का तेल था। यह भेंट निजी है, अतः अब अपने तेल
का दिया जला लिया है।‘
यह ‘नैतिकता‘ अब ‘व्यवहारवादी-दृष्टि‘ के लिए एक
निरर्थक और अनुर्वर किस्म का उपहासात्मक उपदेश है। अब एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था
में ‘भ्रष्टाचार‘ पर हर नागरिक का हक और दावा, सोशल-जस्टिस है।
भ्रष्टाचार से असमानताओं का अंत होता है, नतीजतन,
गैर-बराबरी के निवारण की इस प्रक्रिया की भर्त्सना नहीं
हो। विडम्बना यही है कि नीरा-राडिया प्रकरण ने जिस मीडिया के चेहरे पर भी दाग दिखा
दिये थे, वही ‘शुचिता‘ का बढ़-चढ़ कर दावा करता है। वह विवाद
को विराट बना कर,उसकी लपटों की रौशनी में अन्ततः क्या
देखना, दिखना चाहता है, असहमति को या कि अराजकता को ?
prabhu.joshi@gmail.com
किसी भी दर्शन में धन का जोड़ हर कोई लगाने लगा है, भ्रष्टाचार सबको जोड़े हुये हैं।
ReplyDeleteघाव में तिनका डालने का हिंस्र आनन्द आ रहा सबको
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