Monday, February 25, 2013

बयान और बाइट में बदलता विमर्श






पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिबल में आशीष नंदी के एक बयान से शुरू हुआ विवाद मीडिया में दूध में उबाल की तरह उफना जिससे जरा सी तपन हुई और दुनिया उसी रफतार से चलती रही. इस तरह की घटनाओं का घटित होना हमारे समय में हो रहे आमूल परिवर्तनों के लक्षणों के उभर आने के जैसा है, जिससे आपको मर्ज को पहचानने में मदद मिल सकती है. इस प्रसंग में कथाकार, चित्रकार, प्रसारणकार प्रभु जोशी ने नई दुनिया में दो टिप्‍पणियां  लिखी हैं, जिन्‍हें हम बारी बारी से यहां पढ़ेंगे.   

यह लगभग गरेबान पकड़ने वाली सचाई है कि जब से भारत में 'वित्तीय पूंजी का युग आया है, भ्रष्टाचार का संस्थागत' दायरा विस्तृत हुआ है। 'वित्त' और 'हिंसा', अब सत्ता की अनिवार्य अर्हता है। दोनों के गठबंधन ने राजनीति को 'लाभकारी निवेश' में बदल दिया है। वह युग बिदा हो चुका है, जब एक गुलाबी-चनाकाण्डया टाट-पट्टी काण्डसत्ता की चूलें हिला देता था और पार्टी के रसातल में जाने की चिंता से घबरा कर हाई-पावर कमेटीतुरन्त उस मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन लेती थी। लेकिन, राजनीति में जब से वित्तीय-पूंजीका वर्चस्व बढ़ा है, प्रदेशों की सरकारों के मुखियाओं की पुरानी भ्रष्ट-भीरूताखत्म हो गयी है। अब अधिकतम भ्रष्टपार्टी का दुलार पाता है। उसे पार्टी के सी.एम.से ऊपर उठकर एटीएमका अलंकरण मिल जाता है। क्योंकि अब पार्टी के प्राण नीतियों नहीं, वित्तीय-पूंजी में है। यह स्थिति उस विकेन्द्रीकरणकी देन है, जो राजनीति में एकदलीय वर्चस्व के विघटनसे आया है।

यहीं से राजनीतिक भ्रष्टाचारसत्ता की गारण्टी बनने लगा। गठबंधनकी व्यवस्था ने प्रदेशों को राजनीति सूबेदारों की मिल्कियत में बदल दिया। ऐसे में विधायक और सांसद सौदे में बदले। यह नया पावर-स्ट्रक्चरकहलाया, जिसमें दमित और वंचित अस्मिताओं को अपने शक्ति-संतुलन का आधार मिला। इससे वित्तीय पूंजीका दबदबा बढ़ा और बढ़ते ही जाने में सत्ता की सुरक्षा दिखी।

यहीं से मीडिया में भ्रष्टाचार की नई-नई व्याख्यायें जन्म लेने लगीं। उसे स्पीड-मनीकहा जाने लगा। अर्थशास्त्री इसे वर्गान्तरण के वैकल्पिक रास्तेके रूप में परिभाषित करने लगे। भ्रष्टाचार सामाजिक उन्नयनके मार्ग की वैधता का दावा करने लगा। कहा जाने लगा कि यह वंचित और दमित अस्मिताओं के उदयकालकी नैसर्गिक घटना है, इसलिये इसे लेकर नैतिक-रुदन की आवश्‍यकता नहीं है। यह पॉवर स्ट्रक्चर के एक ऐतिहासिक उलटफेर का युग है, जो पांच हजार वर्ष बाद संभव हो सका है। अतः उसकी निंदा अपने आप में भद्रलोक की भड़ास भर है। कहने की जरूरत नहीं कि यह एक प्रकार से राजनीति से नैतिक-विमर्ष के विसर्जन का श्रीगणेश बना।

इसी सामाजिक विष्लेषण के आधार पर कहा जा रहा है कि भारतीय समाज का एक विभक्त राष्ट्र और विभक्त समयका साक्षी हो रहा है। वह हर जगह हमऔर वेमें बंट चुका है। ये उत्तर- औपनिवेशिक बायोनरी अपोजिसंस है-धर्म और धर्म के। जाति और जाति के। शहर और गांव के। वर्ग और वर्ग के। अब अतियोंकी नई व्याख्याएं आ रही हैं। वर्ग और समुदाय की संतुष्टि के सामने सब कुछ स्वाहा है। यह समाज के एक बड़े वर्टिकल-डिवीजनकी दरार है। वर्ण-अवर्ण, बहुसंख्यक-अल्पसंख्यक जैसे सामासिक-पद द्वन्द्व-युद्धके प्रतीक हैं। और यह द्वन्द्व अब समुदाय का प्रतिष्ठा मूल्य है। इसी के चलते अल्पसंख्यक की साम्प्रदायिकता का सम्मानहो जाता है, और वंचितों का भ्रष्टाचार क्षम्यबन जाता है।

जबकि, हकीकतन, यह एक व्याधिग्रस्तसमय और समाज के लक्षण हैं, जिसके परिणाम हम निकट भविष्यनहीं, सुदूर भविष्य में देखेंगे। क्योंकि, अब मूल्य-दृष्टि ही भ्रष्ट हो चुकी है। आज मूल्यों की स्थिति यह है कि वह शाश्वत हो या सापेक्ष’, ‘परम्परागत हो या परिवर्तनशील‘, ये सब हमारे विरूपित समय की विसंगतियां हैं, जो एक दूसरे से भिड़ रही हैं। अतः नैतिकताचाहे वह  वर्ग, समाज या संस्था की  हो- पूर्णतः प्रश्नांकित है। नैतिकताकी एक निर्लज्ज अनसुनी चल रही है। उससे प्रतिबद्धता को मॉरल-फोबियाकहा जाने लगा है। मसला चाहे फिर व्यक्ति का हो या समष्टि का। अब निजी पूंजी ही नैतिक और निर्णायक है। उसके वर्चस्व के अपराजेय चरण की शुरुआत है कि एक गरीब देश से दुनिया के अमीरों की फेहरिस्त में दर्ज लोगों की संख्या बढ़ गयी है। वे राष्ट्रीय गौरव बन रहे हैं। यहां हमें उस मीडिया की भूमिका को भी याद कर लेना चाहिए, जो बड़े संवेदनशीलताके साथ ज्वलन्त-प्रश्नों को उठाता है। वह एक विजन-मिक्सरकी तकनीक से, ‘विमर्शके  किसी अंश को सन्दर्भच्युत करके बयानबना देता है। बयान भी नहीं केवल बाइट। और, यह बाइटही, वह चिनगारी है, जो टीआरपी की लपट उठाती है। उसकी टीआरपी के ज्वलन्त में, धीरे-धीरे सब समाने लगते हैं। लाय, बलाय बनकर अस्मिता की राजनीतिके विस्फोट का महत्वपूर्ण कारक बन जाती है। कहने की जरूरत नहीं कि आशीष नंदीवाले विवाद को इसी मीडिया-युक्तिके सर्वाधिक सफल पुनराभ्यास के रूप में ही देखा जाना चाहिए। यह पूरी तरह लेखकों और सृजनधर्मियों के लिए सूचना है कि अब विमर्श और वाद-विवाद, भारतीय पीनलकोडके आतंक के बीच होंगे। क्योंकि, अब विमर्श केवल खबर है। यह सरलीकरण द्वारा सम्प्रेषण की धंधईचतुराई है जो, ‘असहमतिके बजाय गिरफ्तारीकी मांग को तुरन्ताबना रही थी। अतः, यह उचित ही है कि आशीष नंदी प्रकरण को देश के सर्वोच्च न्यायालय में ले जाया गया है अन्यथा उसकी परिणति ठीक वैसी ही हो जाती, जैसे कि हुसैन की, जिसके अन्तर्गत देशभर में शहर-दर-शहर थानों में प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। दरअस्ल, हमारा मीडिया एक सार्वदेशीय संवेदना का एकीकरणनहीं कर रहा है, बल्कि स्पष्टतः अस्मिता आधारितउसी तरह की सांस्कृतिक-राजनीतिकर रहा है, जैसी कि अर्से से भारतीय राजनीति में धर्म-निरपेक्षताको लेकर चलती रही आयी है। यह घाव में तिनका डालने का हिंस्र-आनन्द भी है, जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का मंसूबा और मर्म भी है।

अंत में प्रश्न उठता है कि क्या भ्रष्टाचार को इस नये पैराडाइम शिफ्टके दौर में पदेन-आयकह के वर्ग-निरपेक्ष बना दिया जाये। मुझे आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व कौटिल्य की दी गई, उस परिभाषा को याद करना जरूरी लग रहा है, जब उसने कहा था कि राज्य निर्धारित सार्वजनिक पद का निजी लाभ के लिए उपयोगही भ्रष्टाचार है। चाणक्य ने चीनी यात्री से भेंट के समय, पुराना दीया बुझाकर नया जलाया और इस पर जब पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया तो चाणक्य ने चीनी यात्री को कहा कि अभी तक मैं राज्य का काम निबटा रहा था, अतः उसे बुझा दिया, क्योंकि उसमें राज्य का तेल था। यह भेंट निजी है, अतः अब अपने तेल का दिया जला लिया है।

यह नैतिकताअब व्यवहारवादी-दृष्टिके लिए एक निरर्थक और अनुर्वर किस्म का उपहासात्मक उपदेश है। अब एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचारपर हर नागरिक का हक और दावा, सोशल-जस्टिस है। भ्रष्टाचार से असमानताओं का अंत होता है, नतीजतन, गैर-बराबरी के निवारण की इस प्रक्रिया की भर्त्सना नहीं हो। विडम्बना यही है कि नीरा-राडिया प्रकरण ने जिस मीडिया के चेहरे पर भी दाग दिखा दिये थे, वही शुचिताका बढ़-चढ़ कर दावा करता है। वह विवाद को विराट बना कर,उसकी लपटों की रौशनी में अन्ततः क्या देखना, दिखना चाहता है, असहमति को या कि अराजकता को ?













prabhu.joshi@gmail.com

2 comments:

  1. किसी भी दर्शन में धन का जोड़ हर कोई लगाने लगा है, भ्रष्टाचार सबको जोड़े हुये हैं।

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  2. घाव में तिनका डालने का हिंस्र आनन्‍द आ रहा सबको

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