Friday, February 15, 2013

तकनीक और मनुष्य




यहां आप 'रमाकान्त-श्रीवास्तव कथा पुरस्कार' के बारे में, न‍िर्णायक दिनेश खन्‍ना का वक्‍तव्‍य, युवा कथाकार ओमा शर्मा की कहानी मेमना और उनका आत्‍मकथ्‍य पढ़ चुके हैं. अब इस प्रसंग की अंतिम कड़ी के तौर पर कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी का वक्‍तव्‍य पढ़िए जो उन्‍होंने पुरस्‍कार समारोह में बतौर अध्यक्ष दिया था. यह थोड़े भिन्‍न्‍ा पाठ के साथ और कहानीकार का आत्‍मकथ्‍य कथादेश मासिक में छपे हैं.   

सर्वप्रथम तो युवा कहानीकार ओमा शर्मा को इस 'कथा-पुरस्कार' के प्राप्त करने पर मेरी ओर से बधाई। कहना न होगा कि वे यह पुरस्कार ग्रहण करने के बाद कथा-संसार के 'विदा हुए वंशज' की परम्परा की नयी और स्वीकृत-सम्मानित कड़ी हो गये हैं। और निश्चय ही वह चमकती हुई कड़ी भी हैं। वैसे, मेरा मानना यह भी है कि किसी भी ईमानदार सर्जक के लिए सम्मान की ज़रूरत उसको खुद के लिये नहीं होती, क्योंकि उसके लिये सबसे बड़ा सम्मान या पारितोषिक तो उसकी 'लिखने की निरन्तरता' को जीवित बनाये रखना ही होता है। दरअस्ल, उसे 'सम्मान' की ज़रूरत तो उन लोगों के लिए पड़ती है, जो उसकी 'असफलता' के लिए बहु-प्रतीक्षित होते हैं। नतीजतन ऐसे सम्मानों से सिर्फ एक चतुर्दिक-स्वीकृति की सामान्य-सी तसल्ली भर मिलती है। लेकिन, जब वह कोई 'नई रचना' करने में मुब्तिला हो जाता है तो वह तसल्ली भी पीछे छूट जाती है। क्योंकि सबसे बड़ी तसल्ली उसे अपनी 'रचनात्मकता' से नई-नई मुठभेड़ करने में मिलती है- और क्योंकि वह तब वहां वही योद्धा होता है और वही शत्रु भी। और अंत तो विजय के बाद मुकुट ही बदल जाता है। सम्मान उसमें उसे एक मोरपंख की तरह होता है। जो धीरे-धीरे एक दिन मुकुट से निकाल कर अलग रख दिया जाता है।

बहरहाल जब मुझे यह सूचना मिली कि ओमा की ताजा कथादेश में प्रकाशित कहानी 'दुश्मन-मेमना' का इस कथा-सम्मान के लिए चयन हुआ है तो मुझे यकीन हो गया कि चयनकर्ताओं में निश्चय ही समकालीन विवेक से सम्पृक्त ऐसे लोग हैं, जो 'तकनीक और मनुष्य' के इस उत्तर-आधुनिक द्वैत को लेकर 'सृजनात्मकता' में उसके वाजिब उत्तर खोजना चाहते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि वरिष्ठ कहानीकार पंकज विष्ट की कहानी 'बच्चे गवाह नहीं होते' सूचना-तकनीक की खामोशी से फैलती 'संवेदनहीनता' को बच्चे की मासूमियत के बरअक्स रख कर लिखी गई पहली कहानी थी, जो टेलिविजन के आगमन के समय उसे उसकी रूपकात्मकता के सहारे विकृत यथार्थ को कलात्मक दक्षमा के साथ रखती है।

बाद इसके 'दुश्मन-मेमना' हिन्दी की ऐसी दूसरी कहानी है, जो मोबाइल-तकनॉलाजी के आगमन के बाद किशोरवय की मन:स्थिति में धंसकर अराजक होकर किये गये तोड़फोड़ को जिस कला कौशल के साथ दर्ज करती है. वह समूची कथाकृति को पाठकीय विश्वसनीयता से नालबद्ध कर देती है। इस कहानी में आरंभ से अंत तक धीरे-धीरे महानगरीय उच्चमध्यवर्गीय परिवार की बच्ची किस तरह अपने एक ऐसे जटिल परसोना का निर्माण कर लेती है- जो उसे अपने आसपास के यथार्थ से काट कर, 'देखे जा रहे' के बजाय 'अनदेखे' और दूरस्थ के आभासी यथार्थ में ले जा कर छोड़ देता है। शनै: शनै: वह घर की सदस्य होने के बावजूद इस को छोड़ कर उस दूर के आभासी संसार की नागरिकता हासिल कर लेती है, जो उसकी पकड़ से बाहर है। लेकिन, वह दूरस्थ यथार्थ उसकी भावनाओं, आशाओं और विषादों का कारक और निर्धारणकर्ता भी है। यहां तकनीक उसे अपने वर्चस्व के जरिए अधिक 'सार्वभौमिक मानव' की तरह गढ़ने के बजाय उल्टा उसे 'मिस्टिक रिक्लूज' बना देती है, जिसके चलते वह एक अबोध आत्म-ध्वंस के निकट पहुंच जाता है।

कहानी में लेखक विवरणों के जरिए छोटी-छोटी और एक के बाद एक सूक्ष्म-सी घटनाओं का ऐसा विश्वसनीय स्थापत्य खड़ा करता है कि लगने लगता है, कोई अदृश्य लाक्षागृह है, जिसमें बच्ची अपनी अबोधता में अकेली और असहाय सी धंसती जा रही है, लेकिन उसे लगता है, उसका घर यातना-शिविर में बदल गया है। मां और पिता ही उसके सर्वाधिक निकट शत्रु हैं। वह आभासी संसार घर से निकल कर किसी ज्यादा बड़े और खुले संसार में जीने का पर्याय बन जाता है। मोबाइल टेक्नोलॉजी एक किस्म की 'मार्केट इंडिजुवलिज्म' में फंसा देती है। उस इंडिजुवलिज्म में उसको अपना मोबाइल एक स्वतन्त्र कमरा लगता है। वह अपनी प्राइवेसी का परकोटा बना लेती है। उसे लगने लगता है जैसे वह 'निजता' के धीरे-धीरे कठोर अभेद्य दुर्ग में पहुंच गयी है। वह निर्विघ्न और निरापद है। वह अपने परिवार से विखण्डित और अकेली होती जाती है। इस पूरी कहानी में महानगरीय जीवन का दाम्पत्य और पारिवारिक परिवेश है और वही विपर्यय बनाता है।

कहना न होगा कि अपने अंत तक पहुंचते कहानी एक गहरी 'प्रश्नात्मकता' से भर उठती है।

मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में इसके पहले सूचना-तकनीक के द्वारा जो 'कल्चरल-हेजार्ड्स' सामने प्रकट हो रहे है, उसको लेकर किसी लेखक ने इतनी निष्कलंक कथा-दक्षता के साथ रखा हो। हालांकि, कहानी लम्बी है, लेकिन मुझे पढ़ते हुए हर बार यही लगा कि इसमें एक सुगठित छोटे उपन्यास हो जाने की भरपूर संभावना थी। लेकिन यह एक विराट कथा स्थिति का समय पूर्व हो जाने वाला सर्जिकल प्रसव है। हो सकता हो ओमा को कोई अन्य कथा-स्थिति उतावली के लिये विवशता पैदा कर रही हो। मुझे डायलन थामस की एक छोटी कहानी याद आती रही, जिसमें एक बच्चा त्रासद प्रतिसंसार में खो जाता है।

खैर, यहां मुझे इस कहानी पुरस्कार के बहाने साहित्य और तकनोलॉजी के अन्तर्सबन्धों पर अपने कुछ विचार रखने का अवसर बरामद हुआ है। तो सबसे पहले मैं अपनी बात अल्डुअस हक्सले के एक कथन से शुरू करना चाहता हूं। उसने कहा था 'तकनीक शनै: शनै: मनुष्य के अंत:करण के 'स्वत्व' के 'सार' को लील लेती है। यह मनुष्य की मानवीयता के विघटन का आरंभ है। वह एक 'तैयार शुदा' माल के सहारे 'सृजनात्मकता' को बंजर बनाती है।' आज से लगभग पचहत्तर वर्ष पूर्व जो चिंता उसने 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड' में व्यक्त की थी वह अब हमारा दैनंदिन यथार्थ होने लगा है। तकनीक-प्रसूत स्वैर कल्पनाओं ने हमारे जीवन के यथार्थ को लील लिया है। इस विजय में तकनीक अपने वास्तविक और निष्ठुर चेहरे के साथ बेलिहाज होकर आ गयी है। ऐसे में निश्चय ही हम 'टेक्नोरियलिस्ट' होकर ही इसका समुचित सामना करने में सक्षम हो सकेंगे।

इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हमारे युग के पैराडाक्सेस में एक सबसे बड़ा पैराडक्स यही है कि 'तकनीक' अपनी संरचनागत सामर्थ्य से मानव विरोधी बन कर उसकी चेतना में प्रविष्ट हो चुकी है। 'वाइसेस ऑफ साइंस', जो कि डेविड लॉक की पुस्तक थी, जब 1990 में आयी थी तो लोगों ने कहा था कि इस तकनीक के सहारे विज्ञान अपनी ऑफिशियल आवाज में बोल रहा है- और इस आवाज को कान लगा कर धैर्य से नहीं सुना गया तो वह हमें विनष्ट कर देगी। 'स्टीवर्ट ब्रोण्ड' भी प्रकारन्तर से शायद यही कह रहे थे कि जब आज नई तकनालाजी अपने सार्वभौमिक वर्चस्व के साथ हमारे सामाजिक जीवन में धड़धड़ाती हुई आ गयी है और यदि आप उसके भाग नहीं होंगे तो आप सड़क का हिस्सा बन जाने के लिए तुरन्त तैयार हो जाइये।

यह कथन तकनीक का नहीं, तकनीक के साथ नालबद्ध उस 'संस्थागत-विचार' का है, जो अपने हितों की एक अनंत श्रृंखला के छोर पर निर्द्वन्द्व खड़ा है। वह विज्ञान से नहीं, पूंजी से प्रकट हुआ है। इसीलिए धीरे-धीरे वह मनुष्य को और उसके यथार्थ को भी बिम्बों और चिन्हों में बदल रहा है। ताकि वह सम्पूर्ण मनुष्यता को पूरी तरह निगल ले। यही वजह है कि आपका हर्ष और आपका विषाद आपकी तमाम भावनाएं, आशा या निराशा सभी यंत्राधीन हो जाने हैं। जब एप्पल ने अपना मोबाइल लांच किया था, तो कहा गया था कि 'हमने आपकी कल्पनाओं पर विजय पा ली है।'

लेकिन, साहित्य ऐसे व्यायसायिक आप्तप्रवाक्यों के प्रतिरोध में खड़ा होता है। क्योंकि, तकनीक बाजार के साथ अपनी दुरभि:सन्धि या गठजोड़ से कितना ही बड़ा समानान्तर यथार्थ रच दे, वह मनुष्य की कल्पना से हमेशा ही बौनी ही रहेगी। मनुष्य के भीतर की 'अनश्वर कल्पना' अपनी अनुपमता में अपराजेय है। ब्रेडा लावेल ने कम्प्यूटर की दुनिया द्वारा कल्पना में किये जा रहे हस्तक्षेप को अंतत: प्रकृति के विराट रहस्यों के समक्ष एक बहुत छोटा-सा बिन्दु कहा।

आज बॉयो और नेनो टेक्नोलाजी ने निश्चय ही मनुष्य को भीतर से 'संरचना' के स्तर पर बदल डालने की प्रतिज्ञा प्रकट कर दी है। स्प्रीचुअल मशीन्स और नैनो-रोबोट मनुष्य के चेतन-अवचेतन के भीतर धंसकर उस पर नियंत्रण कर लेने की स्थिति में आ गये हैं। वे न्यूरान्स में उतर रहे हैं। क्या वे मनुष्य की आत्मा को उलट देगें ? या कि कितना बदलेंगे- यह अनागत और अकाल्पनिक है। प्रश्न उठता है कि जब जीरो-चिप टेक्नोलॉजी अपनी थ्योरीटिकल संभावना के निकट होगी, तब क्या मनुष्य, वह 'साइबोर्ग' होगा ? न्यूरोमेंन्सर्स में बदल जायेगा..? क्या फिजिक्स मेटाफिजिक्स की जगह लेने के लिए कूच कर देगा...? क्योंकि, पिछले दिनों जिस बोसोन कण का हल्ला मचा था, क्या वह मनुष्य और उसके होने के तमाम रहस्यों और भेदों को खोल देगा...? क्योंकि 'डार्क मेटर' की गुत्थी सुलझते ही मनुष्य के लिये ब्रह्माण्ड भी रहस्य नहीं रह जायेगा। लेकिन, एकाध महीने पहले ही अमेरिका के एरिजोना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और वैज्ञानिक डॉ. हेमराफ ने जो अवधारणा सिद्ध करने की कोशिश की वह निश्वय ही हमें विचारने पर मजबूर करती है। चेतना मृत्यु के बाद भी माइक्रोटयूबुल्स की शक्ल में ब्रह्माण्ड में रह जाती है- वही मनुष्य होना है। मेटर होने के बावजूद मनुष्य होना। यानी पदार्थ और चेतना का द्वन्द्व अपना पुराना वैमनस्य छोड़ने के लिये तैयार हो रहा है।

कहते हैं, इक्वेशनस डू नॉट एक्सप्लोड। निश्चय ही यह विस्फोट यदि होता है तो राजनीति के कारण होता है। इसलिए, नियंत्रण तकनोलाजी पर नहीं मनुष्य पर होना चाहिए। साहित्य मनुष्य और उसकी किस्म को पहचानने का विवेक देता है। सन् 90 के आसपास रिचर्ड रोड्स की पुस्तक आयी थी 'बिजनेस ऑफ टेक्नोलॉजी'। उसने वे ही प्रश्न उठाये थे जो मनुष्य के मनुष्य होने और बने रहने की चिंता पर एकाग्र थे। इसलिए, समाज 'उत्तर-विज्ञान' का नहीं, उत्तर-मानव का होगा। हालांकि, घड़ी जैसा छोटा उपकरण मनुष्य के घर के ताक या दीवार पर आया और उसने मनुष्य और उसके समय को अपने प्रबंधन के तहत लेकर मनुष्य को मातहत बनाया। और अब वह सम्पूर्ण विश्व के समय-प्रबन्धन का उपकरण है- लेकिन, मनुष्य बावजूद उसके प्रबंधन के- समय, काल, ईश्वर और मृत्यु से भिड़ता ही है। यह भिड़न्त ही उसे 'मनुष्यवत' बनाये रखती है, इसीलिए सिद्धांन्तिकियां डिकंस्ट्रक्ट तो होगी और होती रहेंगी- मनुष्य नहीं। एक पेसमेकर लग जाने के बावजूद मनुष्य-हृदय ने अपनी संवेदनाएं नहीं खोईं। अब भी बावजूद एक पेसमेकर लग जाने के किसी मासूम की मौत पर रक्तचाप की लय गड़बड़ा जाती है और आंसुओं की ग्रंथि में से पानी छूट आता है। वह पानी ही हमारे रेटीना को सुरक्षित रखता है। दृष्टि को 'साफ' रखता है। अत: संवेदनाएं जब तक हैं, विचार आते-जाते रहेंगे। वे खण्डित और विखण्डित भी होते रहेंगे - लेकिन, मनुष्य अपनी दृष्टि को संवेदना के जल से साफ करता हुआ, चीजों को उनके असली होने में देख ही लेगा। मनुष्य हर बार उनके दायरों से बाहर आकर खड़ा हो जाएगा। फिर कोई आंख यथार्थ को अपनी संवेदनशीलता के साथ देख कर प्रश्न भी करेगी । एक आदमी गरीब क्यों है.....। एक अमीर क्यों है?एक गरीब क्यों ? एक कमजोर क्यों है और एक ताकतवर क्यों है..? तकनीक पूंजी के आश्रय के बगैर विराट नहीं हो सकती और पूंजी का चरित्र तय होगा तो उसके साथ तकनीक का चरित्र भी तय हो जायेगा। और इन द्वन्द्वों के उत्तर मिलने लगेंगे।

अंत में मुझे उम्मीद है कि तकनीक कितनी ही अपराजेय लगे और हो भी जाये। वह मनुष्य को हमेशा के लिए नष्ट करने का संकल्प कर ले - लेकिन, वह बचा रहेगा। अंत में फ्रेडरिक ब्राऊन की इस पंक्ति के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं-- 'पृथ्वी का आखिरी आदमी कमरे में अकेला था और दरवाजे पर दस्तक हुई।' यह दस्तक ही साहित्य का नाम है।

बहरहाल, विलम्ब काफी हो चुका है। मैं भी जो बातें करना चाहता था और बहस को जितनी बौद्धिक उत्तेजना से परिपूर्ण करना चाहता था, उसका समय नहीं रह गया है। ओमा शर्मा और रमाकान्त श्रीवास्तव कथा-सम्मान के प्रसंग के आयोजक भाई महेश दर्पण का भी आभार मानता हूं कि उन्होंने इस अवसर पर मुझे आमंत्रित किया..। बहरहाल ओमा शर्मा को फिर से बधाई और शुभकामनाएं कि वे जल्दी ही किसी बड़ी कृति के साथ हमारे सामने आयेंगे। 
prabhu.joshi@gmail.com

1 comment:

  1. यूं तो पीढ़ीयों में अंतराल रहता ही है पर टेक्‍नोलॉजी ने इसे बहुत बड़ा कर दिया है। बड़ी ही असामाजिक दुनिया है सोशल साईट्स की। वर्तमान की बड़ी ही दुखती नब्‍ज पर हाथ रखा है ओमा शर्मा ने। पर हाथ ही रखा है। टेक्‍नोलॉजी की गति और मेमनों की उड़ानों का कोई अंत नहीं है और गडरिये मजबूर हैं।

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