Saturday, November 9, 2013

नीरवता, साहित्‍य व संगीत

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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।


14/05/98 प्रात: 8:20

जब से मैत्रेयी पुष्पा का उपन्यास चाक पढ़ कर खत्‍म किया है मन इतना भरा-भरा रहा है कि डायरी लिखना चाहता रहा हूं। चाक से कुछ ही दिन पहले इदन्‍मम् पढा़ था। दोनों ने बहुत उद्वेलित किया था। चार्ज किया था। लेकिन जीवन का ढर्रा ऐसा है कि वक्‍त निकल नहीं पाया। कल आजकल में पं.जसराज के भजनों की कैसेट की समीक्षा पढी़। शाम को कैसेट खरीद भी ली। रात से सुन रहा हूं। अभी जो भजन चल रहा था वह भी वैसे ही चार्ज कर रहा था। सोचा कम से कम यह बात तो दर्ज कर दूं। रह जाएगी तो रिस जाएगी। विस्तार से बाद में लिखूंगा इन पिछले दिनों की मन: स्थिति के बारे में। नीरवता के आनंद के बारे में। साहित्य की सहचरता के बारे में। संगीत के राग के बारे में।

 
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रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल


साहित्य साहचर्य

16/05/98 शाम 5 बजे मथुरा, मुंबई अमृतसर स्वर्ण मंदिर मेल में

बाहर गर्मी बहुत है। भीतर (ए सी में) शांति है। पिछले दिनों की साहित्य साहचर्य की बातें दिमाग में हैं। पता नहीं आज भी लिखी जाएंगी या नहीं। गाडी़ हिचकोले जम के ले रही है।

इदन्‍मम् में राजनैतिक कार्यनीति की एक रूपरेखा उभरती है। वही उसकी रीढ़ है। हालांकि भाषा की गुंझलक ज्यादा है। जनता के बीच से जनता का आदमी (बल्कि औरत) दु:खों से तप के निकले (जनता में भी किसान) और जागरण या आंदोलन की अगुआई करे। मानवीय रहते हुए, सहज साधारण रहते हुए, इच्‍छा-शक्ति को संजोए रखते हुए। मंदाकिनी ऐसी ही युवती है।

चाक भी सुंदर प्रभावशाली उपन्यास है। सारंग नैनी के चरित्र में बहुत उठान है। राजनिति की धक्‍कमपेल प्रत्‍यक्ष है। प्रधान, प्रधान पद के प्रत्‍याशी, जातिवाद, भ्रष्टाचार, आदर्श पर अडिग अध्‍यापक। इस सारे चहबच्‍चे के बीच सारंग का चरित्र विकल्प के रूप में उभरता है। सच्चाई का पक्षधर। पति से भी लोहा ले लेने वाली। संबंधों की अंतर्धाराएं, सभी चरित्रों की गजब की हैं।

उपन्यास में पाठक को धर दबोचने की शक्ति भी है। क्या यह राजनैनिक कथा-वस्‍तु के कारण है, चारित्रिक सघनता के कारण है, समाज की बेहतरी के विचार के कारण है, पूरी लेखन कला के कारण है? शायद इन सभी कारणों से है।

एक और मकनातीसी कारण है। सारंग और श्रीधर मास्‍टर का प्रेम। श्रीधर अपने कर्तव्य के प्रति अडिग है। सारंग अन्याय से लड़ने के लिए हर बार श्रीधर से ही ताकत पाती है। तथाकथित सामाजिक नैतिकता से ऊपर उठा हुआ प्रेम-पाश है। यह भी पाठक को बांधता है। इन दोनों चरित्रों के कारण एक ऊर्जा प्रवाहित होती है। बाहरी स्तर पर नाटकीयता भी बनती है।

पं. जसराज के कंठ में सरस्‍वती है। भजन बडे़ सुंदर गाए हैं। आह्लादित करते हैं। संगीत में ताल मेरी पकड़ में पहले आती है, शायद इसलिए भी ये भजन आकर्षक लगे हों। देह उस ताल के वशीभूत होने लगती है। बहुत साल पहले रेडियो से फिलर के रूप में शहनाई का एक टुकडा़ बजा। मैंने रिकार्ड कर लिया। बाद में पता नहीं, उसे कितनी बार सुना। जितनी बार सुना, उतनी बार उसने देह को पिघला दिया। पता नहीं वैसे संगीत का कैसा असर होता है कि देह वश में नहीं रहती। खो जाती है। ये शब्द भी उस मन:स्थिति के लिए उपयुक्‍त नही लग रहे। पूरी तरह प्रकट नहीं कर पा रहे। फिर से जसराज के ये कृष्ण भजन सुने जाएं, तो पता नहीं कैसे लगें।

इदनमम् और चाक से पहले नरक कुंड में बास (जगदीश चंद्र), पांचवा पहर (गुरदयाल सिंह, पजांबी) अनुभूति (हेमांगिनी रानाडे) उपन्यास पढे़ थे। नरक कुंड में बास दलि‍त चेतना का बडा़ निर्मम यथार्थवादी उपन्यास है। सारे वर्णन बडी़ निर्ममता से किए गए हैं। एक दूरी, एक ठंडेपन से। अतिरिक्‍त भावुकता के बिना। पाठक चमडे़ के कारखाने के जीवन के चित्रण से दहलता चला जाता है। शिल्प की परवाह जगदीश चंद्र ज्यादा नहीं करते।

पांचवा पहर तो साधारण उपन्यास है। अनुभूति भी। यह मुंबई के पारसी समुदाय पर है। एक समाप्त होती हुई जाति की कहानी। बिन मां-बाप की एक संघर्षशील लड़की की कहानी। हेमांगिनी जी को भाषा और वर्णन के लिए और मेहनत करने की जरूरत है। (ये बात अगर उनको पता चले तो वे दुखी हो जाएं। मेरी पिटाई भी हो जाए।) इस उपन्यास के बाद पहल में मैत्रेयी पुष्‍पा की कहानी राय प्रवीण पढी़ थी। बडा़ प्रभावशाली वर्णन। आलोड़ित कर देने वाला। वह कहानी आधी पढ़ ली थी, कुछ पंक्तियां सुमनि‍का को सुनाने लगा तो ऐसा समा बंधा कि सारी कहानी ही सुना डाली। अंत तक पहुंचते-पहुंचते उसने द्रवि‍त कर दिया। सहज मनोदशा में लौटने में वक्‍त लगा। भावुकता का उद्रेक पेश करना क्‍या कहानी की कमजोरी है?

ट्रेन में शिव प्रसाद सिंह का गली भागे मुड़ती है पढ़ना शरू किया। उपन्यास में वैसी ताकत नहीं है। लगा मैत्रेयी के उपन्‍यासों के प्रभाव को अगर दर्ज नहीं करुंगा तो काशी की बाढ़ में ये धुल जाएंगे। यह अभी तक साधारण उपन्यास लगता है। बहुत पहले इन की लिखी हुई श्री अरविंद की जीवनी उत्तर योगी पढी़ थी। बडी़ अच्छी लगी थी।

1 comment:

  1. डायरी लेखन भी गद्य-साहित्य की एक विधा है । यहाँ भी ऐसा ही है । मैत्रेयी पुष्पा अद्भुत लेखिका है , वर्ण्य-विषय की दृष्टि से नही बल्कि अपने कथा शिल्प और चित्रण की सजीवती व गहनता के कारण । उनकी अनेक कहानियों में से गोमा हँसती है एक अद्भुत कहानी है । अन्य में ललमनिया ,रिजक जैसी रचनाएं लिखना आसान नही है ।

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