सलमान मासाल्हा की कविताएं
एल मुनुस्वामी की चित्रकृति |
जाल
हर बार मैं चलता हूं उस रास्ते पर
जा पहुंचता है जो दूर के सहरा में
आसमान मेरे सिर पर करता है बूंदाबांदी। और मैं
बरसात की यादों से भीग जाता हूं। कोशिश करता हूं
हाथ निकाल लूं जेब से
महसूस कर सकूं बरौनियों के अवशेष
छूट गईं जो मेरे धूप के चश्में में,
कोई इलाज नहीं सूझता मेरे भूखे हाथ
या मेरी भूखी आंखों के वास्ते। कुछ नहीं मिलता मुझे जो
इस जाल से निकाले मुझे।
सबसे ज्यादा यह, कि मैं लौटा नहीं सकता अपना हाथ
जेब में, जो है खाली बेहाथ।
इस बीच, मुझे नहीं परवाह
क्या आया रास्ते में
जो मेरे दिमाग में सनसनाता है
एक पल नहीं लगता यह पता लगने में कि
मैं हजार साल पहले
फेंक दिया गया रास्ते के किनारे,
वतन के वादे की धुंधली चाहतों में लिपटा हुआ।
अगर मैं आइने में एकटक देखूं खुद को
मैं देखूंगा वहां पियक्कड़, नशे में धुत्त, क्या
कर डाला है मेरे हाथों ने। एक जली हुई सिगरेट
मेरे होठों में दबी हुई। और धुंआ
निकलता मेरे सारे खीसों से
खुले हुए।
वाह ।
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