ठियोग शहर और कवि मधुकर भारती के बारे में मैंने कुछ लिखा था जो प्रसिद्ध वेब पत्रिका समालोचन में आज प्रकाशित हुआ है। उसे आप यहां भी पढ़िए।
कठिन लोक में साहित्य का कच्चा ठीहा
वीरवार
22 जून, 2023 को मोहन साहिल ने वट्सऐप के सर्जक
समूह पर एक कविता शेयर की। यह कवि मधुकर भारती की टीसती याद को ताजा कर रही थी।
हिमाचल प्रदेश की राजधानी और सैलानियों से लदे हुए और तमाम तरह की गतिविधियों में
लिप्त चमचमाते शिमला शहर से घंटा भर दूरी पर स्थित ठियोग (कस्बा जो अब नगर ही बन
गया होगा) का साहित्यिक सांस्कृतिक नक्शा भी इस कविता में साकार हो रहा था। मधुकर
भारती ने सच्चे दिल से ठियोग में अलख जगाई। हिन्दी साहित्य समाज उसे जान ही नहीं
पाया। उसका अपना हिमाचल प्रदेश उसकी तरफ आंखें मूंदे रहा। फिर भी। मधुकर भारती था।
उसकी कविता विद्यमान है। इस कवि की याद में मोहन साहिल की कविता यह है-
तुम्हारे बाद
नहीं आती अब कस्बे की सड़क से
रात को जागने के लिए मजबूर करतीं
कुर्म के जूतों की आवाजें
स्ट्रीट लाईटें जलती हैं यूहीं
एक चेहरा देखे महीनों हो गए
पहाड़ियों की चिंता में डूबा हुआ
कठिन लोक की फिजाओं में तैरती
एक तस्वीर
कहीं दूर से देखती होगी
अपने अधूरे सपनों को
बिखरे हुए यहां वहां
रावग के सेब लदे बागीचे में
ज्ञान चंदेल के भवन के तल में बने उदास
खाली कमरे में
चंडीगढ़ के एक क्वार्टर में
सिंगापुर के एक आबाद घर में
कहां कहां धड़कता होगा वह
शिमला में हर उंगली पकड़ने वाले
चेहरे को गौर से देखती
शार्विन के पास
रावग में लाठी ढूंढ़ते
वृद्ध पिता के करीब
या घर की रसोई में
लगातार रोटियां पकाती
धोए हुए कपड़ों को दोबारा तिबारा धोती
अपने आप में खोई सिमटी
एक गृहणी के समीप
छेईधाला में एक टुकड़ा जमीन
बरसों के इंतजार में दरकती जा रही है
कुछ ग्रामीणों के पास समस्याओं का
लग गया है अंबार
कई कवियों को प्रंशसा पाए
महीनों बीत गए हैं
लिखी नहीं गईं कई काव्यसंग्रहों की समीक्षाएं
अखबारें लेख ढूंढ़ रही हैं ज्वलंत मुद्दों पर
हर रचनाकर्मी को
ध्यान से सुनने वाली एक कुर्सी
खाली पड़ी है साहित्य सामारोहों में
कितनी ही घटनाएं बिना बहस
चुपचाप भुलाई जा चुकी हैं
मशवरे की तलाश में बिना निष्कर्ष
तुम्हारे दोस्त की
चाय से मिठास गायब हो गई है
सिगरेट का धुआं डराता है
प्रतीक्षा करता है वह अकेले बैठ
तुम्हारे होने के अहसास की
उसने कई दिनों से
कविता नहीं लिखी है
(मोहन साहिल)
साहिल
ने यह कविता उस दिन दोपहर 2.46 पर डाली। मोहन
ठियोग में रहते हैं, कवि हैं,
पत्रकार हैं। और चाय की दुकान चलाते हैं। बरसों से। हालांकि दुकान
को अब भतीजे संभालने लगे हैं पर मोहन भी जाते हैं। ठियोग की यह दुकान साहित्यिक
अड्डा रही है। मधुकर भारती के जमाने से ही। मैंने इस दुकान में अड्डेबाजी का मजा
लिया है। मधुकर के डेरे पर भी रहा हूं। पास के गांव भेखल्टी में मोहन के घर भी गया
हूं। एक बार इन लोगों ने नवोदय विद्यालय में गोष्ठी रखी थी। सुमनिका रिफ्रेशर
कोर्स के लिए शिमला गईं थीं। मैं और बेटी भी साथ हो लिए। शिमला से ठियोग गोष्ठी
में भी गया। वहां विक्रम मुसाफिर से मुलाकात हुई। कुल्लू से अजेय और ईषिता गिरीश, चंडीगढ़ से अरुण आदित्य भी आए थे। शिमला और ठियोग के और भी कई मित्र थे।
लगभग सारी रात गप्प-गोष्ठी चलती रही। उस रात अरुण आदित्य की गीतिरस भरी कविताओं ने
खूब सराबोर किया। बहरहाल!मधुकर भारती
मोहन
साहिल की कविता के थोड़ी देर बाद 3.25 पर मैंने अपनी एक कविता डाली, जो हाल ही में लिखी थी और संयोग से मोहन साहिल को ही संबोधित
थी-
मोहन साहिल बतलाओ
क्या राजू छोले उबालता है
समोसे तलता है
रोज सुबह
ठियोग में तुम्हारी चाय की दुकान पर
अब भी?
या लग गया है
सरकारी या किसी ठेकेदार की चाकरी में?
तुम भी चाय उबालते हो तीस साल से
अब भी?
मैंने भी नौकरी बजाई
हजार मील दूर तीस साल
सड़कें नापीं पटड़ियां लांघी
गोडे भन्ने
रह गए आखिर
अन्हे के अन्हे
क्या तुम पा गए हो कोई
ज्ञान महाज्ञान अंतर्ज्ञान महान?
देखती रही दुनिया आगे बढ़ती रही
यहां भी एक राजू था मेरी गली में
सुबह शाम सब्जी बेचता तराज़ू में
शहर ने कर ली तरक्की जबरदस्त इतनी
कि राजू का धंधा बैठ गया
अब घाम में नींबू पानी बेचता है स्टेशन पर आते जाते कामों
को
उसकी आंखों के सूने डोडे देख कर डर लगता है
जो उसके गाहक हैं
उनके भी कंठ के कौए उभरे
पैर लटपटाते हैं
तुम्हारे यहां भी बन गई फोर लेन पहाड़ों के सीने चीरती
यहां चल पड़ीं सड़कों के ऊपर सड़कें
उनके ऊपर रेलें
सफल लोगों की अजीबो गरीब खेलें
इस तरक्की ने कितनों के
किस किस तरीके से
बोरिया बिस्तर बन्हे
खबर लगे तो बतलाना ।
(अनूप सेठी)
मोहन साहिल |
मैं - मुझसे वह कविता छूट गई। संभव
हो तो शेयर कीजिए।
मोहन साहिल - जी ढूंढ़कर भेजूंगा जरूर
इसके
बाद उसी दिन 3.45 पर मोहन जी ने अपनी एक दूसरी कविता सांझा की-
दिनचर्या
हमें जीवन वैसे ही गुजारना था
गुजर रहा था जैसे
मसलन सुबह उठकर
गढ्ढों भरी सड़क पर करना था बस का इंतजार
दुकान पहुंचकर उबलने थे आलू
बनाने थे समोसे मटर और पकौड़े
चाय का पतीला मांजना था
पोछा मारकर साफ करने थे टेबल
और करनी थी
बोहनी के लिए पहले ग्राहक की प्रतीक्षा
हमें बड़े सपने नहीं देखने थे
टीवी पर जहर घोलती
बहसों से दूर रहना था
अपनी छोटी सी दुकान का माहौल
बनाए रखना था अच्छा
मसलन पुराने रेडियो पर
रफी और लता के गीत जरूरी थे
तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा
बार बार बजना चाहिए था
हमें अपने बच्चों को घर लौट कर
राजा रानियों की नहीं
मेहनतकश मजदूरों की कहानियां सुनानी थीं
उन्हें ईमान और मेहनत के अर्थ बताने थे
उन्हें सुकून हासिल करने का जादुई मंत्र देना था
जो पसीने से लथपथ होने के बाद
ईमान की रोटी खाते हुए मिलता है
और साहिर का एक गीत गुनगुनाना था
न सर झुका के जियो
और न मुंह छुपा के जियो
उन्हें बताना था बड़े आदमी और
असली आदमी के बीच का फर्क
उन्हें आगाह करना था
धरती को नर्क बनाने वालों से
पैसों और ऐशोआराम के लिए
नीचता की सीमाएं लांघने वालों से
अमीरी के नशे में गरीबी का
अपमान करने वालों से
उन्हें बताना था जीवन
पनपता है
खेत बगीचों की मिट्टी में
युद्ध के बर्बाद मैदानों में नहीं
हर मौसम में
हमें अच्छी नहीं
सच्ची बातें करनी थीं
हमें क्या करना था जीवन में
बस यही करते हुए जीना था
(मोहन साहिल)
फिर
सोमवार 26 जून, 2023 को 2.45 बजे मोहन साहिल ने वह कविता शेयर की जिसका जिक्र उन्होंने पहले किया था।
और जो उन्होंने राजू के पिता और अपने बड़े भाई के निधन के बाद लिखी थी।
बड़ा भाई
कहां है रौशनी जिसे ढूंढ़ने में
लगा दिया पूरा जीवन
पूछता है मरणासन्न बड़ा भाई
ये रात कब ढलेगी
कहता हूं बाहर सूरज चमक रहा है
हमारे आंगन में भी प्रकाश है
वह संतुष्ट नहीं है मगर
वह योद्धा जिसने लड़ी सारी उम्र रोटी की लड़ाई
जिसकी पिंडलियों को चारकोल और बर्फ ने बना दिया वज्र
जिसके फेफड़ों में फंस गया है बीड़ियों के धुंए का ढेर
मेरे आश्वासनों पर भरोसा नहीं करता
उसका मन आज भी विचरता है
लोकनिर्माण विभाग की सड़कों पर
वह योद्धा इस युद्ध के बीच में
छूट जाने से खिन्न है
उसकी टांगों से बहता मवाद
जिसने घर की हर ईंट को मजबूती से जोड़ा
अपने अतीत से डरा डरा जा रहा है
पूछ रहा है घर में आटा है क्या
हम सब बाहर प्रकाश देख रहे हैं
तरक्की के इस दौर को लाने वाला
बड़ा भाई आज सड़क पर काम करने नहीं
हमेशा के लिए जा रहा है आशंकित सा।
(मोहन साहिल)
समूह पर दो लोगों ने इस कविता की तारीफ की। तो साहिल ने लिखा- क्योंकि ये मेरे अपने जीवन से ही तो निकली है।
जाहिर है कविता जीवन से ही निकलती है। जैसा जीवन हम जीते हैं वैसी ही कविता बनती है।
फिर
मैंने साहिल से अलग से पूछा - मोहन जी यह बताइए कि आपकी दुकान अभी भी चल रही है? आप वहां जाते हो तो कितनी देर बैठते हो? अगर नहीं तो कौन चलाता है?
मोहन साहिल
मोहन साहिल - मैं जाता हूं सप्ताह में
तीन दिन। सुबह से दोपहर बाद तक। मेरे तीन भतीजे हैं वे बाकी समय दुकान चलाते हैं।
मेरे सहित चार हैं हम। बराबर पैसे बांट लेते हैं महीने में। बेटा विक्रांत एक
स्कूल में वोकेशनल ट्रेनर है। जब कोई भतीजा कहीं व्यस्त होता है तो मैं लगातार
दूकान जाता हूं।
मैंने
वहां के एक और साथी सुनील ग्रोवर को मोहन साहिल की दुकान की तस्वीरें भेजने के लिए
कहा और पूछा - ठियोग की साहित्यिक सांस्कृतिक यात्रा में मोहन साहिल की दुकान की
क्या भूमिका रही है?
सुनील ग्रोवर - मोहन साहिल की दुकान में राजनीति पर अंतहीन बहसों के बीच चाय की चुस्कियों और सिग्रेट के अंतहीन उड़ते धुँए के बीच हरेक विचार का स्वागत होता था। इस जगह पर उम्र नहीं बल्कि विचार को अधिक महत्व दिया जाता था। बहस में युवा अपने लिये आधार ढूँढ़ते हुए नई साहित्यिक ज़मीन ढूँढ़ने को आतुर जान पड़ते थे। इसी वजह से ठियोग में साहित्यिक गतिविधियों को नये आयाम मिले। आपातकाल से लेकर सोवियत संघ के विघटन, सिग्मन फ़्राइड, मंटो, अरबिन्दो, गीता, मार्क्स, स्टीव हकीन्स, मीर, ग़ालिब, सत्यजीत रे, गुलज़ार, खलील ज़िब्रान और न जाने कौन कौन महफ़िलों की जान बन जाते और बहसों में घुस कर जीवन पर अदृश्य रूप से दखल देने के लिये आमंत्रित किए जाते। हाशिये के अंतिम आदमी के दर्द को महसूस करने की प्रेरणा इन्हीं महफ़िलों से दिल में घर कर जाती। साहिल की दुकान ठियोग में कामरेड विचारधारा को प्रबल करने का काम कर गई। ठियोग में साहित्य की भूमि को संवारने और नई पौध के लिये ज़मीन तैयार करने में साहिल की दुकान का बहुत बड़ा हाथ है। किसी भी विचारधारा का चिंतक उनकी दुकान में कभी भी आ कर अपनी बात रख सकता था और उसे अपने पक्ष और विपक्ष के दूसरे साथी आसानी से मिल जाते और सारा दिन व्यापार के साथ साहित्य का ओज सबके चेहरों पर चमकता था। साहिल अख़बार के लिए काम करते थे और ग्रामीण लोग अपनी परेशानी साझा करने और सरकार और तन्त्र तक अपनी बात पहुँचाने की आशा में यहाँ आते और इन बहसों में, समाज के बदलते व्यवहार के प्रति अपनी राय रखते जिससे किताबों के ज्ञान के साथ साथ ख़ालिस ज़मीन से जुड़ी बात भी चर्चा में शामिल हो जाती।
सब के
पास समय था और एक माहौल भी था। रात रात साहिल जी की दुकान पर टेबल और चारपाई पर भी
रात गुजर जाती थी। कई बार बहसों का खुमार इतना लंबा होता था कि नींद नहीं आती थी।
दुबारा लट्टू जला कर नये शेर और कविताओं की रचना हो जाती थी। उस समय कविताएँ लिखी
नहीं जाती थीं बल्कि स्वतः आ जाती थीं। बस सब लोग माध्यम होते थे। ऐसी रातों में
बने पुलाव और चाय में बेहद स्वाद होता था।
मैंने पूछा - साहिल की दुकान पर इन
बहसों में नियमित रूप से शामिल होने वालों के नाम याद आ रहे हैं?
सुनील ग्रोवर - मधुकर भारती, अमर वर्मा, अश्वनी रमेश, अरुणजीत ठाकुर, रणवीर गुलेरिया, वीरेंद्र कँवर… ओम भारद्वाज, विदित वरनीश, मुंशी शर्मा, पीआर रमेश, रतन निर्झर का काफ़ी आना जाना था। अनियमित रूप से ज्ञान
चंदेल,
महेंद्र झारायिक, केशव भारद्वाज, नारायण सिंह, मनोहर शर्मा सहित बहुत से लोग अपने समय की सुविधा के अनुसार
बहसों में शामिल होते थे। साहिल की दुकान सभी के लिए सुविधा अनुसार खुली रहती थी।
तभी तो साहित्यिक माहौल अपने उफान पर था। सभी शामिल हो सकते थे
मैं – सुरेश शांडिल्य, ओम भारद्वाज, प्रकाश बादल, तुलसी रमण ? क्या ये ठियोग की धरती से निकले कहे जा सकते हैं?
सुनील ग्रोवर - तुलसी रमन बेशक ठियोग के
हैं लेकिन उनकी यात्रा शिमला से निकली मानी जाती है। सुरेश शांडिल्य, ओम भारद्वाज के साहित्यिक पिता के रूप में मधुकर भारती माने
जा सकते हैं। प्रकाश बादल जुब्बल से हैं। लेकिन सर्जक से उनका काफ़ी पुराना रिश्ता
है। भारती जी जब जुब्बल में नौकरी में थे तभी से दोनों का साथ रहा। बादल भाई को
पत्रकारिता और गजल लेखन में भारती जी का सानिध्य मिलता रहा। सर्जक एक ऐसा मंच है
जिसमें कोई भी अपनी किसी भी कला को निखारने का उचित और प्रेरणादायक वातावरण मिलता
रहा।मधुकर भारती
मैं – और विक्रम मुसाफिर?
सुनील ग्रोवर - वे उड़ता परिंदा हैं।
ठियोग के हैं लेकिन उनकी यात्रा यहाँ से जुदा है।
मैं – आप अपनी बात जारी रखिए।
सुनील ग्रोवर - समय के साथ साहिल की
कच्ची दुकान पक्की होती गई और विचारशीलता पक्की होते होते इतनी पक गई कि झड़ ही
गई। दुकान में साहिल के भतीजों ने काम शुरू कर दिया और अब साहिल भाई बहुत कम समय
के लिये आते हैं। अब सब कुछ पहले जैसा नहीं रहा जैसा कि प्रकृति का नियम है।
पहले
साहिल जी पारिवारिक बोझ तले इन सबसे दूर होते गये। भारती जी के जाने के बाद तो
ताबूत में आख़िरी कील लग चुकी प्रतीत होती है। जिसकी कमी मेरी दुकान ने पूरी कर दी
थी लेकिन अब सब कुछ बंद है।
मोहन साहिल का यह वाक्य भी दिल तोड़ने वाला था- लेकिन अब दुकान में साहित्यिक गतिविधियां नहीं हैं जैसी भारती के समय थीं।
मैंने उनसे दुकान की ताजा तस्वीरें मंगवाईं। तस्वीरों के साथ साहिल ने भी लिखा- जब से दुकान पक्की हुई तब से कविता यहां कम आती है।
यह बात यूं तो टोने-टोटके जैसी लगती है, लेकिन यह सच्चाई तो पता चलती है कि पहले जैसी अड्डेबाजी अब नहीं है। कोई केंद्रीय व्यक्ति नहीं है जो एक जैसा सोचने वाले लोगों को जोड़े। मधुकर उस इलाके को ‘कठिन लोक’ कहते थे। यूं तो आम जीवन में सुविधाएं बढ़ी हैं, लेकिन जिंदगी की कठिनाइयां भी पहले से बढ़ी ही हैं, जटिलताएं भी। चुनौतियां भी उसी अनुपात में बढ़ी हैं। साहित्यिक अड्डेबाजी में यह शिथिलता सिर्फ ठियोग जैसे दूर-दराज़ के इलाके में ही नहीं आर्इ है, नगरों, महानगरों के अधिक तेजस्वी, यशस्वी और जीवंत केंद्र भी एक समय के बाद थक गए और निस्पंद हो गए। जैसे एक दौर था जो गुज़र गया। अब तो सोशल मीडिया ने जैसे सारे स्पेस ही लील लिए हैं।
इसी तरह का एक लघु पत्रिकाओं का दौर था। यह कहना तो उचित नहीं है कि लघु पत्रिकाओं का दौर भी गुजर चुका है, क्योंकि अब तो जो भी हैं लघु पत्रिकाएं ही हैं। बड़े घरानों की साहित्यिक पत्रिकाएं तो कब की बिला गईं। लेकिन यह सच्चाई है कि इधर संपादक नामक संस्था में गंभीर परिवर्तन आए हैं। संपादकों की संलग्नता, लेखकों से उनका जुड़ाव, नए लेखकों पर नजर, पत्रिका को अपने मानकों पर श्रेष्ठ बनाने की धुन जैसे जज्बे आज क्षीण से होते प्रतीत होते हैं। एक जमाने में नए लेखक संपादक के अस्वीकृति पत्र तक की प्रतीक्षा करते थे। कई संपादक रचनाओं पर सलाह देते थे या टिप्पणी करते थे। अब तो रचना की पावती, स्वीकृति-स्वीकृति विरले ही मिलती है। रचना छप जाए तो यह भी हो सकता है कि पत्रिका की प्रति लेखक तक पहुंचे ही नहीं। पहले संपादकों की तरफ से अप्रकाशित रचना भेजने का आग्रह रहता था। अब रचना कई जगह और कई बार छप जाती है। हालांकि इसमें लेखक का अति उत्साह ज्यादा काम करता है। पर संपादक भी इस बात को नजरअंदाज करते हैं। कई संपादक खुद ही पूर्व प्रकाशित रचना छाप लेते हैं और बहुत बार पूर्व प्रकाशन का उल्लेख भी जरूरी नहीं समझा जाता।
अड्डेबाजी और
ठियोग के प्रसंग में यह बात इसलिए ध्यान में आ गई क्योंकि ठियोग से ही 1995 में सर्जक
नाम की पत्रिका निकली थी। उसके सूत्रधार भी मधुकर भारती ही थे। पत्रिका के पांच ही
अंक निकले। पत्रिका ठीक-ठाक थी। हालांकि वृहद् हिंदी समाज में शायद ही उसका नोटिस लिया
गया। जैसे कि ठियोग जैसे पहाड़ी कस्बे को ही कौन जानता है। पर संपादक की दृष्टि, प्रयत्न और जोश में कोई खोट नहीं था। इस
बात का पता एक पत्र से चलता है। मधुकर भारती ने मुझे पत्रिका की योजना के बारे में
लिखा। प्रत्युत्तर में मैंने ढेर से प्रश्न कर दिए। मेरा अपना पत्र तो जाहिर है
मेरे पास नहीं है, पर उस पर
मधुकर भारती का उत्तर मुझे पुराने कागजों में मिल गया। इस पत्र से एक संपादक की
संपूर्ण दृष्टि का भान हो जाता है। यह भी पता चल जाता है कि सपना छोटा हो चाहे
बड़ा, कहीं भी देखा जा सकता है। संसाधन हों
चाहे न हों, सपना पूरा हो या
अधूरा रह जाए; फर्क नहीं पड़ता।
यह पत्र आज भी एक स्वस्थ संपादकीय दृष्टि के लिए एक मानक का काम देगा। यह रहा वह
पत्र-
सर्जक
[ उच्चतर मानवीय चेतना की अभिव्यक्ति का मंच ]
पुनीत भवन, बाजार जिला हि. प्र. ठियोग- 171 201
क्रमांक दिनांक,
सर्जक के बारे तुम्हारी इतनी जिज्ञासाएं जानकर आश्वस्त हुआ कि हमारे इस आयोजन को तुम्हारा पूरा सहयोग मिलेगा। जो प्रश्न तुमने अपने पत्र में लिखे हैं, उनमें से कई तो हमारे पारस्परिक विमर्श में मथे गए हैं पर कई प्रश्न सर्वथा नए और हमारी सोच बाहर के हैं। तुमने इस ओर ध्यान दिलाया तो हम निश्चय ही सजग हुए हैं। तुम्हारा यह पत्र हमारे अनुभवों में वृद्धिदायक सिद्ध हुआ है। मैं समझता हूं कि इन प्रश्नों का उत्तर क्रमवार देना ठीक रहेगा। उत्तर संक्षिप्त ही हो सकते हैं- उनमें विस्तार तुम्हारी कल्पना कर सकती है या फिर मिलने पर बातचीत में यह विस्तार प्रकट हो सकता है। पत्र का स्थान सीमित ही होता है, फिर भी...
1. पत्रिका केवल कविता को समर्पित नहीं होगी हालांकि जैसा मैंने तुम्हें पहले बताया था कि इच्छा यही है कि पत्रिका विशुद्ध कविता की हो परन्तु फिलहाल इसमें गद्य भी रहेगा।
2. गद्य की
जिन विधाओं की रचनाएँ हमें उपलब्ध होंगी - वह सब छापेंगे। विशेषकर ऐसी उपेक्षित
विधाओं को अधिमान मिलेगा जिनकी ओर कम लेखक प्रवृत्त हैं जैसे साहित्यिक रिपोर्ताज,
शब्द-चित्र या व्यक्ति-चित्र, निबंध संस्मरण
आदि।
3. मानवीय रचना संसार की ललित कलाओं के लिए यथेष्ट स्थान होगा बशर्ते रचनाओं का जुगाड़ हो सके।
4. विषय-क्षेत्र
की क्या सीमा हो सकती है? परन्तु राजनीति, मनोरंजन, सत्यकथाएं (आपराधिक) निरा हास्य आदि से
हमारा सरोकार नहीं है।
5. अलबत्ता
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से जीवन की छानबीन
करने वाला गद्य स्वीकार्य होगा बशर्ते कि वह सामुग्री निरुद्देश्य न हो।
० सामुग्री चयन के ठोस वस्तुपरक आधार हैं कि भले ही पाठकवर्ग सीमित रहे पर वही
रचनाएं इसमें जाएंगी जिनमें पर्याप्त गाम्भीर्य हो और वह या तो स्पष्ट वैचारिक
दृष्टि से सम्पन्न हो या जीवनानुभव से ओतप्रोत हो।
० ज्ञान विज्ञान के उन्नत संधान की अभिलाषा किसे नहीं होगी - यदि हम ऐसे
क्रियाकलापों में किसी प्रकार से सहयोगी बन सकें तो हम अपने को गौरवान्वित महसूस
करेंगे। पर इतना बड़ा फलक शायद यह पत्रिका अभी सम्भाल न पाए। आखिर इसका प्रसार या
हमारे सम्पर्क ही कितने हैं ? भविष्य तो भविष्य है।
० राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक दखल की बात करना तो अभी बचकाना सोच समझी जाएगी, ऐसा कोई
दावा हमारा नहीं हो सकता। हमें अपनी सीमाएं मालूम हैं। यूं कालान्तर में सीमाओं का
अतिक्रमण करने की दबी इच्छाएं हर मन में रहती हैं,
परन्तु अभी इस तरह की सोच हमारे पास नहीं है।
० हां, हर सम्पादक अपनी पत्रिका को सांस्कृतिक या साहित्यिक संसार का
दस्तावेज बनाना चाहता है। कई तो दावे तक कर जाते हैं, कई
पत्रिकाएं ऐसे दस्तावेज़ होती भी हैं परंतु जहाँ तक 'सर्जक'
का सम्बन्ध है - अभी यह दस्तावेज़ नहीं बन पाएगी। कारण साफ है-
साधनों और सम्पर्कों का अभाव। समुचित पारिश्रमिक देने की क्षमता नहीं है, न हमारे कहने से कोई लेखक/कवि अभी हमारे सम्पर्क में आएगा। अभी तो उपलब्ध लेखकीय दायरे से ही मोती चुनने का कार्य है। पत्रिका के
पहले तीन अंक संकेत भर ही देंगे कि अगली दिशा क्या है। इसपर फिलहाल ज्यादा सोचा भी
नहीं है।
० हां, यह अवश्य है कि प्रगतिशील जनचेतना का प्रतिनिधित्व करने वाली
रचनाओं को प्रमुखता देने का विचार है। हालांकि साहित्यिक रचनाओं के पाठक केवल
साहित्यकार ही हैं। भले ही वे रचनाएं जनचेतना को बखूबी उजागर कर रही हों पर हताशा
का स्वर 'सर्जक' का नहीं होगा।
० हमारा अपना दायरा गैर-अकादमिक है इसलिए हम मौलिक और ललित सृजन को प्राथमिकता
देंगे। दस पुस्तकों की सूची बनाकर जो 'शोध' लेख लिखा होगा -
वह हमारे काम का नहीं होगा। इसके बरक्स प्रेम जैसे नैसर्गिक विषय पर दस पंक्तियों
की मौलिक कविता का हम स्वागत करेंगे।
० हम स्वागत करेंगे वैचारिक मौलिकता से सम्पन्न रचनाओं का, जाहिर है
चयन तो वही होगा जो हमारे सीमित ज्ञान-क्षेत्र की पकड़ में आएगा। हम क्योंकि ज्यादा
शिक्षित भी नहीं हैं - इसलिए हमारी सीमाएँ भी तो बड़ी पुख्ता हैं। यह हो सकता है कि
'सर्जक' के लिए आने वाली रचनाएं ही
हमारे अज्ञान की सीमाओं को उखाड़ फेंकें और हम अनुभव करें कि हमारा कद कुछ बढ़ा
है। पत्रिका शुरु करने के उद्देश्यों में एक यह तो है ही कि हमारी साहित्यिक (व
किसी सीमा तक सांस्कृतिक) सक्रियता बढ़े और हमारा ज्ञानक्षेत्र भी कुछ बढ़ सके।
० शब्दों के बीहड़ समेटे हुए नहीं होगी यह पत्रिका। छपाई और ले-आऊट की बात तो
यहाँ बेमानी है। छपाई का अनुमान तो तुमने इस लेटरहेड से लगा लिया होगा। पत्रिका
में कोई फोटो या चित्र 'खपाने' की भी सामर्थ्य नहीं है हमारे
पास। यहाँ तो मात्र शब्द होंगे, शब्द; केवल
सादे कागजों पर अंकित।
० हमारे दुराग्रह कुछ नहीं हैं। हम किसी भी प्रकार के आरक्षण के हिमायती नहीं
है। चालू शैली की समीक्षाएं भी हम नहीं देंगे और अध्यापकीय पिष्टपेषण का हम अर्थ
ही नहीं जानते।
० अलबत्ता विधाएं तो प्रचलित जो हैं वही हैं। नई विधा क्या हो सकती है? यह मैंने
ऊपर स्पष्ट कर दिया है कि उपेक्षित विधाओं को अधिमान दिया जाएगा। अब यह तो प्रकाशित अंक ही साबित करेगा कि यह पत्रिका है
या चूं चूं का मुरब्बा। विधाओं की बात तो कानून की जैसी बात है। हर अपराध
से निबटने के लिए कानून है फिर भी अपराधी चकमा दे जाते हैं कानून को। नए से नए
कानून बनते हैं- पुराने कानूनों के शब्द-परिवर्तन या भाषा-परिवर्तन करके - पर फिर
वही ढांक के तीन पात। प्रचलित विधा में भी मौलिक और ताज़ा ढंग से बात लोग करते
हैं।
० पत्रिका कोई पारिवारिक परिवेश नहीं बनाना चाहती। तमाम लेखकवर्ग, चिन्तकवर्ग
या बुद्धिजीवी वर्ग हमारा परिवार है।
० फिलहाल तो 'सर्जक' से सम्बद्ध मित्रों की जेबें ही खाली होंगी। फिर स्थानीय सम्पन्न लोगों से मदद मांगी जाएगी। तब तक शायद कुछ ग्राहकवर्ग भी बन पाएगा या तो सकता है कि हम कुछ विज्ञापन भी जुटा सकें, चाहे उससे एक चौथाई खर्चा ही पूरा हो।
सुरजीत पातर की कविताओं के अनुवाद यदि कहीं न भेजे हों या कहीं भेजने का वादा न किया हो तो 'सर्जक' के लिए सुरक्षित रखें या हो सके तो इधर भेजो। हम दूसरे अंक में (जनवरी 95) में देना चाहेंगे।
'लोकप्रिय साहित्य बनाम गंभीर साहित्य' विषय पर बहस के लिए आधार लेख तुम्हीं तैयार करो और परिचर्चा के लिए अपने सम्पर्क वाले मित्रों से उस पर विचार मंगवाओ। हम इधर उस आधार-लेख को अपने सम्पर्कों में सर्कुलेट करके कुछ विचार मंगवा लेते हैं। यह अगामी किसी अंक के लिए अच्छी सामग्री होगी।
रचनाकारों के चुनाव के आधार क्या होंगे- यह स्पष्ट कर दूं। अभी तो अपने लेखक मित्रों को पत्र देंगे कि रचनाएं भेजो। दो-तीन पत्र लिखे भी हैं। रचना की उत्कृष्टता मूल कसौटी है। नाम शोहरत भी उनका होता है जो कुछ करते हैं (वर्ना मेरा भी होता)। जो कुछ करते हैं, वह कुछ 'सर्जक' के लिए भी करें तो बुरा क्या है। रचनाकार के सरोकार तो उसकी रचनाओं से पता चलते हैं। कई बार छप-छप करने वाला बाजीगर भी अच्छी बाज़ीगरी कर लेता है। यदि 'अच्छी बाजीगरी' का कोई नमूना 'सर्जक' में भी दिखे तो क्या आश्चर्य! कई बार ऐसी रचनाएं पत्रिका को रोचक बना देती हैं। पत्रिका का कोई लेखक-समूह नहीं बनेगा। न बनाने की कोशिश होगी। इतना जरूर होता है कि मित्रों की रचनाओं को स्थान देना पड़ता है। फिर भी रचना की उत्कृष्टता की कसौटी तो है ही, (हां, उत्कृष्टता का पैमाना पहले कुछ अंकों में बरकरार नहीं रह सकेगा क्योंकि सामग्री जुटाना कोई आसान काम नहीं है। पत्रिका के दो-तीन अंक जब तक न आ जाएं तब तक लेखकवर्ग भी सांशकित रहता है। और यह भी अक्सर होता है जो रचना मेरी नज़र में उत्कृष्ट है, वह तुम्हारी नज़र में न हो।)
यह सब बातें धीरे-धीरे खुलती रहेंगी पर अभी तो प्रसव वेदना ही कड़ी है। तुम्हारी कविताएँ भी कागज पर नहीं उतर सकीं। अशोक चक्रधर ने भी नई रचनाएं नहीं भेजीं। द्विजेंद्र द्विज की गजलें व देवेन्द्र धर की कविताएं भी कैसेटों में ही हैं। 'समागम' के विषयों पर प्रतिपूरक सामग्री की भी भी टोह है। हम अक्तूबर में इसे हर हाल में निकालना चाह रहे हैं। मोहन साहिल तो कह रहा है कि कुछ निकालो तो सही- पहला अंक तो निकाल दो। जैसा भी अच्छा बुरा बन पड़े। एक शुरुआत तो हो जाए।
संजय खाती को तुम्हारे हवाले से लिख रहा हूं और डॉ. प्रदीप सक्सेना को भी।
वह धुएं वाला चित्र न भूलना। मुझे एक प्रति तो चाहिए ही।
सुमनिका व अरु को मेरा यथायोग्य अभिवादन दें। माताजी को भी नमस्कार कहना। हम तुम्हारे ठियोग आगमन की तिथि का इन्तजार करेंगे। पत्र अवश्य देना।
शेष फिर।
मोहन साहिल की ओर से आप सब को बहुत बहुत शुभकामनाएं।
तुम्हारा
मधुकर भारती
मोहन साहिल, अनूप सेठी, मधुकर भारती, अजेय, 2008 धर्मशाला |
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