जब हम नाटक देखते हैं तो नाटक के अलावा प्रेक्षगृह, उसके माहौल, उसकी तासीर का असर भी हम पर पड़ता है। इसी साल जुलाई में नए नए बने नीता मुकेश अंबानी केंद्र में नाटक देखा था। वहां के माहौल को भी देखा था। इस बार पृथ्वी को जरा सा उस नजर से देखा है। और नाटक है मोहन का मसाला।
5 अगस्त शनिवार को पृथ्वी थिएटर में हिंदी नाटक 'मोहन का मसाला' देखने का अवसर मिला। नाटक 4 बजे खेला जाने वाला था। पहले तो 6 और 9 बजे के ही शो यहां होते थे। कभी कोई दूसरी तरह का आयोजन किसी दूसरे समय पर होता था लेकिन शायद नाटकों की आमद इधर बढ़ गई होगी इसलिए इस नाटक को 4 बजे का समय दिया गया। हम लोग पौने तीन के करीब घर से निकले। साढ़े तीन बजे पहुंचे तो देखा वहां नाट्यगृह के अंदर जाने वालों की एक कतार पहले से लगी हुई है। बाकी आ रहे लोगों के लिए रस्सियां तान कर बीच में रास्ता बनाया गया है। चूंकि सभागार में सीटों के नंबर नहीं हैं इसलिए कतार में जो पहले है वह अपने हिसाब से बेहतर सीट संभाल लेता है। इसलिए नाटक प्रेमी आधा पौना घंटा पहले आकर इंतजार करने लगते हैं। इस चलन को देखकर थियेटर वालों ने वहां पर कुछ बेंच लगा दिए हैं ताकि लोगों को घंटों खड़े न रहना पड़े।
थिएटर के बाहर पृथ्वी कैफे में भी इतनी ज्यादा गहमागहमी रहती है कि बैठने की जगह पाने के लिए इंतजार करना पड़ता है। लगभग प्रवेश स्थल पर ही एक स्टैंड पर बड़ा सा बार कोड डिसप्ले कर दिया गया है, जिसे स्कैन करके आप वेटिंग लिस्ट में अपना नंबर दर्ज करवा सकते हैं। यहां लगभग सारा दिन ही खानपान चलता रहता है। नाटक देखने वालों की तुलना में खाने का मजा लेने वाले लोगों की तादाद शायद ज्यादा रहती है। और पृथ्वी कैफे में बैठने में एक स्वैग या एटीट्यूड भी रहता है; लोग उसका भी आनंद लेते हैं। यह थोड़ा अप मार्केट अड्डा टाइप जगह है। पुराने जमाने का पृथ्वी थिएटर नहीं है जहां अपनी धज दिखाने के लिए लोग आइरिश कॉफी पीते और पिलाया करते थे। साधारण लोग या कड़के नाट्यप्रेमी कटिंग चाय से ही कम चलाते थे। वैसे अभी भी कैफे के अलावा चाय नाश्ते का काउंटर है। लेकिन वह भी कदाचित नए जमाने का है। चाय की टपरी या बड़ा पाव का ठेला टाइप नहीं। वहां पर आप चाय, कॉफी, बन मस्का, केक, क्रोंजां वगैरा बिना वेटिंग के खा पी सकते हैं। हमने भी यही किया, लेकिन नाटक देखने के बाद। पुराने दिनों की तरह अभी भी नाटक शुरु होने का संकेत घंटा बजा कर किया जाता है। और नाटक तीसरी घंटी के बाद ही शुरु होता है।
नाटक का नाम है 'मोहन का मसाला'। यह ईशान दोशी के मूल अंग्रेजी नाटक का अर्पित जैन द्वारा किया गया अनुवाद है। यह 2015 से अंग्रेजी, गुजराती और हिंदी में खेला जा रहा है। निदेशक हैं मनोज शाह और अभिनेता प्रतीक गांधी। ओटीटी पर जिन लोगों ने हर्षद मेहता पर स्कैम 1992 सीरीज देखी होगी वे प्रतीक गांधी की प्रतिभा से भलीभांति परिचित होंगे। प्रतीक गुजराती रंगमंच और सिनेमा के जाने-माने अभिनेता हैं। कल के हिंदी प्रदर्शन में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया।
जैसा कि नाम से ही अंदाजा लग जाता है कि नाटक बहुत गंभीर नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि यह नाटक गंभीर नहीं है। यह सिर्फ मजाहिया नाटक नहीं है। लेखक और निर्देशक का मकसद अपनी बात को हंसते-खेलते हुए दर्शक तक पहुंचना है। अभिनेता के साथ मिलकर वे तीनों इसमें सफल होते हैं। दर्शकों की बेसाख्ता हंसी और संजीदा पलों में चुप्पी इसका प्रमाण है। आम नाटकों में जैसे ज्वलंत मुद्दों पर पंच मारे जाते हैं वैसे इस नाटक में भी हैं। महात्मा गांधी खुद जिस तरह हमारे जीवन में नायक-खलनायक और सफल-असफल व्यक्ति की तरह व्याप्त रहते हैं; उन पर तरह-तरह के चुटकुले बनते रहते हैं, उसी तरह की चुटकियां इस नाटक का पात्र मोहन खुद पर और अपने महात्मा और बापू जैसे रूप पर लेता रहता है।
नाटक का मुख्य पात्र मोहन यानी मोहनदास करमचंद गांधी है बापू नहीं। न ही वह महात्मा है। मोहन अपने बचपन की तरफ हमें ले जाता है। उन सब प्रसंगों को बहुत ही आत्मीयता से बताता है जिनका आजीवन असर गांधीजी पर रहा। या कहना चाहिए कि जिन प्रसंगों ने गांधीजी को गांधीजी या महात्मा गांधी या बापू बनाया। जैसे श्रवण कुमार की कहानी, सत्यवादी हरिश्चंद्र की कहानी, उनके दादा और पिता और बड़े भाई और खासतौर से उनकी माता का चरित्र। उनकी पत्नी कस्तूरबा का चरित्र, जिसे मोहन बड़े बेलाग तरीके से बिना किसी संकोच या कुंठा के याद करता है। याद ही नहीं करता, उनके प्रभाव को स्वीकार भी करता है। इन्हीं तत्वों की वजह से महात्मा या बापू जैसे चरित्र का निर्माण हुआ है। इसमें इंग्लैंड में कानून की पढ़ाई करने और वहां की जिंदगी की कठिनाइयों के अनुभवों ने भी महात्मा के निर्माण में योगदान किया है। उन्होंने यह जाना की सत्य बोलना ही बेहतर उपाय है। इसी तरह ज्ञान अर्जित करना जरूरी है। गरीबी से घबराने की जरूरत नहीं। और भूखे रहने के बावजूद जिंदा रहा जा सकता है। अफ्रीका में जब अंग्रेज और भारतीयों को कुली और सामी कहकर संबोधित करते हैं; जज उन्हें पगड़ी पहनने की आज्ञा नहीं देता है; रेल के पहले दर्जे से बाहर फेंक दिया जाता है; घोड़ा गाड़ी में भी अंग्रेज उनका अपमान करता है, तब गांधी जी को यह इलहाम होता है - यह शरीर न भी रहे, तो क्या! यह मुझे मार तो सकते हैं, मेरी सम्मति नहीं ले सकते। जो बच्चा कक्षा में खड़ा होकर बोल नहीं पाता था, बैरिस्ट्री करने के बाद अदालत में बहस नहीं कर पाता था, जिसमें आत्मविश्वास की बेहद कमी थी, वह जब देखता है कि अपमान और हिंसा में उसकी जान चली जाएगी, तब भीतरी शक्ति उसे सारे शक्तिमानों के सामने अडिग खड़ा कर देती है।
ये कुछ तत्व हैं जिनसे गांधीजी का व्यक्तित्व निर्मित होता है। नाटक में हल्के-फुल्के अंदाज में उन्हें मसाला कहा गया है। मसाला यानी वे चीजें जिनके मिश्रण से कोई पूर्ण वस्तु निर्मित होती है। यह मसाला ऐसा है कि इनसे कोई व्यक्ति गांधी जैसा भी बन सकता है।
प्रतीक गांधी बड़ी सहजता से मोहन दास के चरित्र को निभाते हैं। लोगों को हंसाते हैं, रुलाते हैं और जिन तत्वों से जीवन बनता है उन्हें दर्शकों तक पहुंचाने में सफल रहते हैं। उन्होंने अपने अभिनय में एक टेक बनाई है कि जब भी किसी मसाले यानी तत्व के वर्णन को पूर्णता तक लाते हैं यानी कि बताते हैं कि मुझे यह नुस्खा मिला, तो अपने ऊपर इतराते हुए गर्दन को दो तीन झटके देते हैं। ऐसे दूसरे या तीसरे झटके के बाद दर्शक उनकी इस अदा पर ताली बजाने लग जाते हैं। दर्शक समझ जाते हैं कि गर्दन का यह झटका कब आने वाला है। यह अभिनेता की खूबी है कि वह दर्शक को अपनी अदाओं के साथ बांध लेता है।
नाटक एकपात्रीय है। सारा दारोमदार प्रतीक गांधी पर ही है। कुछ दृश्यों में प्रतीक खुद दो पात्रों का अभिनय करते हैं। गांव के, परिवार के, अंग्रेजों के साथ के कई दृश्य ध्वनि के माध्यम से रचे गए हैं। उन दृश्यों में रिकॉर्ड की हुई ध्वनियां हैं, लोगों के संवाद हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि कोई बोल रहा है और मंच पर अभिनेता उसका उत्तर दे रहा है। यहां निर्देशक ने एक अलग तरह की तकनीक का प्रयोग किया है। पार्श्व से आपको संवाद सुनाई पड़ते हैं। या कहें ऐसा लगता है कि रेडियो पर कोई दृश्य चल रहा है जो आपको सुनाई ही देता है। उसके बीच में मंच पर गांधी जी की भूमिका निभा रहा चरित्र अपने संवाद बोलता रहता है। एक तरह के अनौपचारिक साउंड इफेक्ट के साथ दृश्य साकार हो जाता है। कई प्रसंगों में गीतों का भी प्रयोग है। यह प्रयोग तो हम प्रायः नाटकों में देखते हैं।
यह सोचना भी दिलचस्प है कि यह एक पात्रीय नाटक है या यह कथा वाचन है? जैसा आजकल कई लोग दास्तानगोई या कहानियों का मंचन करते हैं। यह उस तरह से पूर्व लिखित कहानी पर आधारित नाटक नहीं है। इसे शायद नाटक की तरह ही लिखा गया है और एक ही पात्र को केंद्र में रखकर लिखा गया है। यह जरूर है कि कहानी सुनने और नाटक देखने दोनों के मिले-जुले रूप हमें इसमें मिलते हैं। इस तरह के प्रयोग आजकल अकसर होते हैं। क्योंकि अभिनेता फिल्म, टेलीविजन और ओटीटी वगैरह में व्यस्त रहते हैं। इसलिए रंग मंडलियां ज्यादा अभिनेताओं वाले नाटकों की तुलना में एक या दो पात्रीय नाटकों को चुनना ज्यादा पसंद करते हैं। जो भी हो निर्देशन, लेखन और अभिनय अगर अच्छा हो तो एक पात्रीय नाटक भी आकर्षक हो जाता है।
प्रतीक गांधी ने यह नाटक हिंदी के अलावा गुजराती और अंग्रेजी में भी किया है।
वे मूलत: गुजराती भाषी हैं। हिंदी नाटक में उनके गुजराती भाषी होने की छाया बिल्कुल
दिखाई नहीं देती। जहां गुजरातीपन आता है, जहां जरूरी है, क्योंकि गांधीजी गुजराती ही
थे, उनका परिवेश गुजरात का ही था। अकेला अभिनेता डेढ़ घंटे के नाटक को तीनों भाषाओं
में इतनी सफाई से निभा ले, यह प्रशंसनीय है।
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