बनास जन में छपी
कविताओं में से एक और कविता पढ़िए।
।।हलफनामा।।
फंसा फंसा तो इसलिए लग रहा है
क्योंकि दर्जी ने कमीज तंग सिल दी है
यह कहना खतरे से बाहर नहीं है कि दर्जी किसकी सलाह
पर चला है
रेडीमेड से ही काम चलाना पड़ता है
माप ले के सिलने वाले चलन और जेब से बाहर हैं
हम कंफर्ट फिट वाले स्लिम फिट में कैसे समाएं
इधर उधर की ही हांकनी पड़ेगी
वर्ना मेरी क्या मजाल कि कहूं कैसे वक्त में आ
गए हम
मैं पंतजली का राशन लेता हूं
पहले श्री श्री को सुनता था
अब सदगुरू की राह सद्गती पर हूं
विज्ञापन बेनागा देखता हूं
सोशल मीडिया पर बोलता नहीं
हवा बहुत भर जाती है
तो इशारों इशारों में निकल जाती है
उस पर मेरा कोई बस नहीं डिस्क्लेमर अलबत्ता
लगाए रहता हूं
समझ गया हूं हम कैसे तीसमार खां थे
समझ कुछ रहे थे चल कुछ रहा था
घबराने की इसमें क्या बात! रेलमपेल रुक थोड़ा न जाएगी
सोचना भी अब जरूरी नहीं
न हरिद्वार जाकर नहीं त्यागा सोचना
यूं ही, यहीं, पता नहीं कैसे ? कब्ज की तरह अपने आप
ओंठ सिले (गए) तो सोचना भी बंद हो गया
अब क्या ? अब सब बंद ही है
बंदा है सलामत है
न यह न पूछिए ये बयान लिखवाया गया है
या खुद लिखा है