पिछली बरसात में छाते पर चर्चा चली थी. इस बीच हमारे बड़े भाई तेज जी ने वो पोस्ट देखी और छाते पर यह टिप्पणी भेजी -
तुम्हारे ब्लाग में से मैंने "छाता" पढ़ा तो मुझे छत्तरोड़ू की बड़ी याद आई, वो वचपन की सारी यादें... तुम्हें शायद याद होगा कि नहीं, ग्रामीण लोग "ऒड्डी" भी ओढ़ते थे जो बान्स की चपटियों से बुनी हुई होती थी. सिर के ऊपर बाला सिरा किश्तीनुमा और पीठ तक को ढकने बाला हिस्सा चपटा गोल-कट होता था...
छ्त्तरोड़ू
मैं बचपन की तुम्हें याद दिलाता,
गांव में नहीं दिखता था छाता.
(हर कोई नहीं रख पाता था छाता)
होता था तो बस इक "छत्तरोड़ू",
बान्स की डण्डी, ऊपर सूखा "पाता".
झर-झर बरखा औ धान बुआई,
धंसे कीच में सब ’काम्में’ भाई.
सिर पर ओढ़े बोरी का "ओह्डणू’,
कीच में कीच हुये ’अनदाता’.
हां, जिसके के पास होता था छाता,
वो तो भई "बझिया" कहलाता.
नोट: (हमारे नानू को गांव बाले "बझिया" कहते थे.
क्योंकि उनके पास छाता हुआ करता था)
इस छाता चर्चा के साथ उन्होंने दो चित्र बनाकर भेजे, एक छतरोड़ू का जो ऊपर है और एक मुच्छड़ जो नीचे है.
मुच्छड़ पर और काम
मुदित (भाई साहब का बेटा और मेरा भतीजा जो बैंगलोर में है और रंग रेखा और संगीत का धनी है) को कहा कि इस मुच्छड़ पर काम करो. उसने उसका कायाकल्प कर दिया पर छाता गायब हो गया सिर्फ मुच्छड़ रह गया. मतलब अब बरसात बिना छतरोड़ू के ....
मुदित का और काम उसके ब्लाग the spare time stuff पर देखा जा सकता है.
स्वतंत्रता दिवस की शुभकानाएं
ReplyDeleteनीरज
आपको भी हार्दिक शुभकामनाएं
ReplyDeleteशानदार
ReplyDeleteद्विजेंद्र भाई, धन्यवाद। 13 साल बाद भी यह टिप्पणी पढ़ने लायक लगी इस बात का संतोष है।
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