कवि सुंदर चंद ठाकुर नव भारत टाइम्स के मुंबई संस्करण के संपादक बने तो उन्होंने अखबार में साहित्य कला के लिए थोड़ी जगह निकाली और पुस्तक समीक्षा का कालम भी शुरू किया. इसमें मुझे भी समीक्षा करने का मौका मिला, हालांकि ऐसे कामों में मेरी ज्यादा हिम्मत नहीं पड़ती है. फिर भी...
यहां एक और युवा कवि गीत चतुर्वेदी के संग्रह आलाप में गिरह पर संक्षेप में अपनी बात रख रहा हूं.
मुंबई महानगर को भारत का एकमात्र कास्मोपोलेटिन शहर माना जाता है. ग्लैमरस, अत्याधुनिक और निस्पृह. हालांकि जो लोग यहां रहते हैं, वे इसके देसी रग-रेशे से वाकिफ हैं. इस वाकफियत का पता गीत चतुर्वेदी की एक कविता ‘जब जाऊंगा’ से लगता है. गीत मुंबई के हैं और वो इस कविता में घर को याद कर रहे हैं जिसमें पानी के लिए भटकते पिता हैं, मद्रासी पानवाला है, परदे के दरवाजे के पीछे सुबकी को छिपाती ब्याह दी गर्इ लड़कियां हैं. खंडहर, कटा पेड़, प्याऊ भी उनकी याद की पोटली में है. ये महानगर के किसी भीतरी कस्बे की यादें हैं. ऐसे कई कस्बे इस विराट महानगर में उपनगरों की तरह समाए हुए हैं. गीत उल्हासनगर में रहे हैं जहां सिंधी समुदाय का प्राधान्य है. सिंधियों के साथ विभाजन की त्रासदी जुड़ी हुई है. और इसी त्रासदी में से होती हुई गीत की कविता लंबी यात्राएं करती है. सभ्यता के विकास को खंगालते हुए वे बार-बार युद्ध स्थलों में जा पहुंचते हैं. ‘सभ्यता के खड़ंजे पर’ चल रहा मनुष्य एक कलाकार ही है जो सभ्यता की मरम्मत करने के लिए समय के आर पार तक की यात्रा कर डालना चाहता है. ‘डेटलाइन पानीपत’ कविता में वे पर्यटन स्थल में बदल चुके युद्ध के मैदान की घास, मिट्टी के भीतर घुसते हुए युद्धों और युद्धों के रूप को खंगालते हैं. आज तक चले आते सभ्यता के गुप्त युद्ध कौशलों को भी वे खोलते हैं. गीत की इस तरह की कविताओं में इतिहास और वर्तमान के बीच खूब आवाजाही है. कभी आवेग भरी, कभी दार्शनिक अंदाज में कभी खिलंदड़ी. ‘सिंधु लाइब्रेरी’ में इस उपमहाद्वीप की बेहद दुखती रग (भारत विभाजन) का जिक्र तो है ही, युद्ध के बाद लुटे हुए नागरिकों की अपने जीवन को फिर से खड़े करने की जद्दोजहद भी है. हालांकि यह युद्ध नहीं था आजादी का छल था. सिंधी समुदाय की तकलीफ, किताबों का प्रेम और भूगोल का बदलना एक साथ इस वृत्तांत कविता में चलता रहता है. एक शोकगीत की तरह. विष्णु खरे ने अपने सोलह पेजी लेख में, जो इसी संग्रह के है, और भी कई बातों के साथ साथ यह ठीक ही नोटिस किया है कि इस कवि ने आजाद होते हिंदुस्तान को नहीं देखा, फिर भी उस त्रासदी को अपनी कविता में ढाला. यह शायद गीत के भीतर स्थानीयता की सांद्र उपस्थिति के कारण संभव हुआ है. यही नहीं, ‘लुक्खे’ जैसी देशज माहौल की कविता भी इसी धरती की देन है. इन वृत्तांत कविताओं में शिल्प की मांग के मुताबिक दृश्य प्राधान्य है, सुगठित चरित्र हैं, संवादात्मकता, इतिवृत्तात्मकता और नाटकीयता है. इस वैविध्य के कारण शब्द बाहुल्य बाधक नहीं बनता. इसके अलावा ‘सिंधु लाइब्रेरी’ और ‘लुक्खे’ में करुणा की धारा बहती रहती है. इतिहास और सभ्यता की टोह लेने का काव्य-पुरुषार्थ नम आंख, झुके कंधों, हल्के पांव और नर्म उंगलियों के बिना संभव नहीं हो सकता. अलबत्ता ‘साइकिल के डंडे पर बैठी लड़की’ कविता समाज शास्त्रीय खोजबीन ज्यादा प्रतीत होती है, प्राण-प्रतिष्ठा युक्त कृति कम.
कवि का अपना छोटा शहर ‘अरब सागर’ जैसी कविता में महानगर की पूरी विराटता, विकरालता, पेचीदगी, निष्ठुरता के साथ विस्तार पाता है. ‘नरीमन पाइंट’ भी उसकी एक कड़ी ही है. उसमें भी एक कब्रगाह है जैसे अरब सागर के उदर में कई कुछ समाया हुआ है. अरब सागर और नरीमन पाइंट मिलकर महानगर के छाया रूपक की तरह एक समानांतर सृष्टि करते हैं. यहां भी उदासी और अवसाद है. कस्बे, शहर, महानगर, देश, महाद्वीप, वर्तमान, इतिहास में बेजोड़ (सीमलेस) ढंग से विचरण करने की कविता है ‘इतना तो नहीं’. यह बेजोड़पन गीत की कई कविताओं में है.
संग्रह में अलग अलग तरह की कई अन्य कविताओं के अलावा करीब ग्यारह कविताएं दूसरे कलाकारों कवियों, संगीत, चित्रकृतियों को याद करते हुए लिखी गई हैं. कई कविताएं उन सामान्य लोगों पर भी है जो कवि के प्रत्यक्ष परोक्ष संपर्क में आए. ‘कॉस्मैटिक सर्जरी’, ‘मेरे वक्त का एक अहम सवाल’, ‘कोई और सुर’, ‘आलाप में गिरह’ जैसी कविताओं में कवि, रचनाकार की कशमकश, द्वन्द्व, उहापोह से भी दो चार होता है. संग्रह का शीर्षक भले ही आलाप में गिरह हो पर गीत का काव्य सुर सधा हुआ है.
सिन्धु लाईब्रेरी एक असर छोड़ जाने वाली कविता है..... बार बार पढ़ी जाने वाली कविता.
ReplyDeleteजारी रहिए. आप की आलोचना मे एक अलग रस है.
धन्यवाद बंधु
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