Friday, February 15, 2013

तकनीक और मनुष्य




यहां आप 'रमाकान्त-श्रीवास्तव कथा पुरस्कार' के बारे में, न‍िर्णायक दिनेश खन्‍ना का वक्‍तव्‍य, युवा कथाकार ओमा शर्मा की कहानी मेमना और उनका आत्‍मकथ्‍य पढ़ चुके हैं. अब इस प्रसंग की अंतिम कड़ी के तौर पर कथाकार-चित्रकार प्रभु जोशी का वक्‍तव्‍य पढ़िए जो उन्‍होंने पुरस्‍कार समारोह में बतौर अध्यक्ष दिया था. यह थोड़े भिन्‍न्‍ा पाठ के साथ और कहानीकार का आत्‍मकथ्‍य कथादेश मासिक में छपे हैं.   

सर्वप्रथम तो युवा कहानीकार ओमा शर्मा को इस 'कथा-पुरस्कार' के प्राप्त करने पर मेरी ओर से बधाई। कहना न होगा कि वे यह पुरस्कार ग्रहण करने के बाद कथा-संसार के 'विदा हुए वंशज' की परम्परा की नयी और स्वीकृत-सम्मानित कड़ी हो गये हैं। और निश्चय ही वह चमकती हुई कड़ी भी हैं। वैसे, मेरा मानना यह भी है कि किसी भी ईमानदार सर्जक के लिए सम्मान की ज़रूरत उसको खुद के लिये नहीं होती, क्योंकि उसके लिये सबसे बड़ा सम्मान या पारितोषिक तो उसकी 'लिखने की निरन्तरता' को जीवित बनाये रखना ही होता है। दरअस्ल, उसे 'सम्मान' की ज़रूरत तो उन लोगों के लिए पड़ती है, जो उसकी 'असफलता' के लिए बहु-प्रतीक्षित होते हैं। नतीजतन ऐसे सम्मानों से सिर्फ एक चतुर्दिक-स्वीकृति की सामान्य-सी तसल्ली भर मिलती है। लेकिन, जब वह कोई 'नई रचना' करने में मुब्तिला हो जाता है तो वह तसल्ली भी पीछे छूट जाती है। क्योंकि सबसे बड़ी तसल्ली उसे अपनी 'रचनात्मकता' से नई-नई मुठभेड़ करने में मिलती है- और क्योंकि वह तब वहां वही योद्धा होता है और वही शत्रु भी। और अंत तो विजय के बाद मुकुट ही बदल जाता है। सम्मान उसमें उसे एक मोरपंख की तरह होता है। जो धीरे-धीरे एक दिन मुकुट से निकाल कर अलग रख दिया जाता है।

बहरहाल जब मुझे यह सूचना मिली कि ओमा की ताजा कथादेश में प्रकाशित कहानी 'दुश्मन-मेमना' का इस कथा-सम्मान के लिए चयन हुआ है तो मुझे यकीन हो गया कि चयनकर्ताओं में निश्चय ही समकालीन विवेक से सम्पृक्त ऐसे लोग हैं, जो 'तकनीक और मनुष्य' के इस उत्तर-आधुनिक द्वैत को लेकर 'सृजनात्मकता' में उसके वाजिब उत्तर खोजना चाहते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि वरिष्ठ कहानीकार पंकज विष्ट की कहानी 'बच्चे गवाह नहीं होते' सूचना-तकनीक की खामोशी से फैलती 'संवेदनहीनता' को बच्चे की मासूमियत के बरअक्स रख कर लिखी गई पहली कहानी थी, जो टेलिविजन के आगमन के समय उसे उसकी रूपकात्मकता के सहारे विकृत यथार्थ को कलात्मक दक्षमा के साथ रखती है।

बाद इसके 'दुश्मन-मेमना' हिन्दी की ऐसी दूसरी कहानी है, जो मोबाइल-तकनॉलाजी के आगमन के बाद किशोरवय की मन:स्थिति में धंसकर अराजक होकर किये गये तोड़फोड़ को जिस कला कौशल के साथ दर्ज करती है. वह समूची कथाकृति को पाठकीय विश्वसनीयता से नालबद्ध कर देती है। इस कहानी में आरंभ से अंत तक धीरे-धीरे महानगरीय उच्चमध्यवर्गीय परिवार की बच्ची किस तरह अपने एक ऐसे जटिल परसोना का निर्माण कर लेती है- जो उसे अपने आसपास के यथार्थ से काट कर, 'देखे जा रहे' के बजाय 'अनदेखे' और दूरस्थ के आभासी यथार्थ में ले जा कर छोड़ देता है। शनै: शनै: वह घर की सदस्य होने के बावजूद इस को छोड़ कर उस दूर के आभासी संसार की नागरिकता हासिल कर लेती है, जो उसकी पकड़ से बाहर है। लेकिन, वह दूरस्थ यथार्थ उसकी भावनाओं, आशाओं और विषादों का कारक और निर्धारणकर्ता भी है। यहां तकनीक उसे अपने वर्चस्व के जरिए अधिक 'सार्वभौमिक मानव' की तरह गढ़ने के बजाय उल्टा उसे 'मिस्टिक रिक्लूज' बना देती है, जिसके चलते वह एक अबोध आत्म-ध्वंस के निकट पहुंच जाता है।

कहानी में लेखक विवरणों के जरिए छोटी-छोटी और एक के बाद एक सूक्ष्म-सी घटनाओं का ऐसा विश्वसनीय स्थापत्य खड़ा करता है कि लगने लगता है, कोई अदृश्य लाक्षागृह है, जिसमें बच्ची अपनी अबोधता में अकेली और असहाय सी धंसती जा रही है, लेकिन उसे लगता है, उसका घर यातना-शिविर में बदल गया है। मां और पिता ही उसके सर्वाधिक निकट शत्रु हैं। वह आभासी संसार घर से निकल कर किसी ज्यादा बड़े और खुले संसार में जीने का पर्याय बन जाता है। मोबाइल टेक्नोलॉजी एक किस्म की 'मार्केट इंडिजुवलिज्म' में फंसा देती है। उस इंडिजुवलिज्म में उसको अपना मोबाइल एक स्वतन्त्र कमरा लगता है। वह अपनी प्राइवेसी का परकोटा बना लेती है। उसे लगने लगता है जैसे वह 'निजता' के धीरे-धीरे कठोर अभेद्य दुर्ग में पहुंच गयी है। वह निर्विघ्न और निरापद है। वह अपने परिवार से विखण्डित और अकेली होती जाती है। इस पूरी कहानी में महानगरीय जीवन का दाम्पत्य और पारिवारिक परिवेश है और वही विपर्यय बनाता है।

कहना न होगा कि अपने अंत तक पहुंचते कहानी एक गहरी 'प्रश्नात्मकता' से भर उठती है।

मुझे नहीं लगता कि हिन्दी में इसके पहले सूचना-तकनीक के द्वारा जो 'कल्चरल-हेजार्ड्स' सामने प्रकट हो रहे है, उसको लेकर किसी लेखक ने इतनी निष्कलंक कथा-दक्षता के साथ रखा हो। हालांकि, कहानी लम्बी है, लेकिन मुझे पढ़ते हुए हर बार यही लगा कि इसमें एक सुगठित छोटे उपन्यास हो जाने की भरपूर संभावना थी। लेकिन यह एक विराट कथा स्थिति का समय पूर्व हो जाने वाला सर्जिकल प्रसव है। हो सकता हो ओमा को कोई अन्य कथा-स्थिति उतावली के लिये विवशता पैदा कर रही हो। मुझे डायलन थामस की एक छोटी कहानी याद आती रही, जिसमें एक बच्चा त्रासद प्रतिसंसार में खो जाता है।

खैर, यहां मुझे इस कहानी पुरस्कार के बहाने साहित्य और तकनोलॉजी के अन्तर्सबन्धों पर अपने कुछ विचार रखने का अवसर बरामद हुआ है। तो सबसे पहले मैं अपनी बात अल्डुअस हक्सले के एक कथन से शुरू करना चाहता हूं। उसने कहा था 'तकनीक शनै: शनै: मनुष्य के अंत:करण के 'स्वत्व' के 'सार' को लील लेती है। यह मनुष्य की मानवीयता के विघटन का आरंभ है। वह एक 'तैयार शुदा' माल के सहारे 'सृजनात्मकता' को बंजर बनाती है।' आज से लगभग पचहत्तर वर्ष पूर्व जो चिंता उसने 'ब्रेव न्यू वर्ल्ड' में व्यक्त की थी वह अब हमारा दैनंदिन यथार्थ होने लगा है। तकनीक-प्रसूत स्वैर कल्पनाओं ने हमारे जीवन के यथार्थ को लील लिया है। इस विजय में तकनीक अपने वास्तविक और निष्ठुर चेहरे के साथ बेलिहाज होकर आ गयी है। ऐसे में निश्चय ही हम 'टेक्नोरियलिस्ट' होकर ही इसका समुचित सामना करने में सक्षम हो सकेंगे।

इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि हमारे युग के पैराडाक्सेस में एक सबसे बड़ा पैराडक्स यही है कि 'तकनीक' अपनी संरचनागत सामर्थ्य से मानव विरोधी बन कर उसकी चेतना में प्रविष्ट हो चुकी है। 'वाइसेस ऑफ साइंस', जो कि डेविड लॉक की पुस्तक थी, जब 1990 में आयी थी तो लोगों ने कहा था कि इस तकनीक के सहारे विज्ञान अपनी ऑफिशियल आवाज में बोल रहा है- और इस आवाज को कान लगा कर धैर्य से नहीं सुना गया तो वह हमें विनष्ट कर देगी। 'स्टीवर्ट ब्रोण्ड' भी प्रकारन्तर से शायद यही कह रहे थे कि जब आज नई तकनालाजी अपने सार्वभौमिक वर्चस्व के साथ हमारे सामाजिक जीवन में धड़धड़ाती हुई आ गयी है और यदि आप उसके भाग नहीं होंगे तो आप सड़क का हिस्सा बन जाने के लिए तुरन्त तैयार हो जाइये।

यह कथन तकनीक का नहीं, तकनीक के साथ नालबद्ध उस 'संस्थागत-विचार' का है, जो अपने हितों की एक अनंत श्रृंखला के छोर पर निर्द्वन्द्व खड़ा है। वह विज्ञान से नहीं, पूंजी से प्रकट हुआ है। इसीलिए धीरे-धीरे वह मनुष्य को और उसके यथार्थ को भी बिम्बों और चिन्हों में बदल रहा है। ताकि वह सम्पूर्ण मनुष्यता को पूरी तरह निगल ले। यही वजह है कि आपका हर्ष और आपका विषाद आपकी तमाम भावनाएं, आशा या निराशा सभी यंत्राधीन हो जाने हैं। जब एप्पल ने अपना मोबाइल लांच किया था, तो कहा गया था कि 'हमने आपकी कल्पनाओं पर विजय पा ली है।'

लेकिन, साहित्य ऐसे व्यायसायिक आप्तप्रवाक्यों के प्रतिरोध में खड़ा होता है। क्योंकि, तकनीक बाजार के साथ अपनी दुरभि:सन्धि या गठजोड़ से कितना ही बड़ा समानान्तर यथार्थ रच दे, वह मनुष्य की कल्पना से हमेशा ही बौनी ही रहेगी। मनुष्य के भीतर की 'अनश्वर कल्पना' अपनी अनुपमता में अपराजेय है। ब्रेडा लावेल ने कम्प्यूटर की दुनिया द्वारा कल्पना में किये जा रहे हस्तक्षेप को अंतत: प्रकृति के विराट रहस्यों के समक्ष एक बहुत छोटा-सा बिन्दु कहा।

आज बॉयो और नेनो टेक्नोलाजी ने निश्चय ही मनुष्य को भीतर से 'संरचना' के स्तर पर बदल डालने की प्रतिज्ञा प्रकट कर दी है। स्प्रीचुअल मशीन्स और नैनो-रोबोट मनुष्य के चेतन-अवचेतन के भीतर धंसकर उस पर नियंत्रण कर लेने की स्थिति में आ गये हैं। वे न्यूरान्स में उतर रहे हैं। क्या वे मनुष्य की आत्मा को उलट देगें ? या कि कितना बदलेंगे- यह अनागत और अकाल्पनिक है। प्रश्न उठता है कि जब जीरो-चिप टेक्नोलॉजी अपनी थ्योरीटिकल संभावना के निकट होगी, तब क्या मनुष्य, वह 'साइबोर्ग' होगा ? न्यूरोमेंन्सर्स में बदल जायेगा..? क्या फिजिक्स मेटाफिजिक्स की जगह लेने के लिए कूच कर देगा...? क्योंकि, पिछले दिनों जिस बोसोन कण का हल्ला मचा था, क्या वह मनुष्य और उसके होने के तमाम रहस्यों और भेदों को खोल देगा...? क्योंकि 'डार्क मेटर' की गुत्थी सुलझते ही मनुष्य के लिये ब्रह्माण्ड भी रहस्य नहीं रह जायेगा। लेकिन, एकाध महीने पहले ही अमेरिका के एरिजोना विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और वैज्ञानिक डॉ. हेमराफ ने जो अवधारणा सिद्ध करने की कोशिश की वह निश्वय ही हमें विचारने पर मजबूर करती है। चेतना मृत्यु के बाद भी माइक्रोटयूबुल्स की शक्ल में ब्रह्माण्ड में रह जाती है- वही मनुष्य होना है। मेटर होने के बावजूद मनुष्य होना। यानी पदार्थ और चेतना का द्वन्द्व अपना पुराना वैमनस्य छोड़ने के लिये तैयार हो रहा है।

कहते हैं, इक्वेशनस डू नॉट एक्सप्लोड। निश्चय ही यह विस्फोट यदि होता है तो राजनीति के कारण होता है। इसलिए, नियंत्रण तकनोलाजी पर नहीं मनुष्य पर होना चाहिए। साहित्य मनुष्य और उसकी किस्म को पहचानने का विवेक देता है। सन् 90 के आसपास रिचर्ड रोड्स की पुस्तक आयी थी 'बिजनेस ऑफ टेक्नोलॉजी'। उसने वे ही प्रश्न उठाये थे जो मनुष्य के मनुष्य होने और बने रहने की चिंता पर एकाग्र थे। इसलिए, समाज 'उत्तर-विज्ञान' का नहीं, उत्तर-मानव का होगा। हालांकि, घड़ी जैसा छोटा उपकरण मनुष्य के घर के ताक या दीवार पर आया और उसने मनुष्य और उसके समय को अपने प्रबंधन के तहत लेकर मनुष्य को मातहत बनाया। और अब वह सम्पूर्ण विश्व के समय-प्रबन्धन का उपकरण है- लेकिन, मनुष्य बावजूद उसके प्रबंधन के- समय, काल, ईश्वर और मृत्यु से भिड़ता ही है। यह भिड़न्त ही उसे 'मनुष्यवत' बनाये रखती है, इसीलिए सिद्धांन्तिकियां डिकंस्ट्रक्ट तो होगी और होती रहेंगी- मनुष्य नहीं। एक पेसमेकर लग जाने के बावजूद मनुष्य-हृदय ने अपनी संवेदनाएं नहीं खोईं। अब भी बावजूद एक पेसमेकर लग जाने के किसी मासूम की मौत पर रक्तचाप की लय गड़बड़ा जाती है और आंसुओं की ग्रंथि में से पानी छूट आता है। वह पानी ही हमारे रेटीना को सुरक्षित रखता है। दृष्टि को 'साफ' रखता है। अत: संवेदनाएं जब तक हैं, विचार आते-जाते रहेंगे। वे खण्डित और विखण्डित भी होते रहेंगे - लेकिन, मनुष्य अपनी दृष्टि को संवेदना के जल से साफ करता हुआ, चीजों को उनके असली होने में देख ही लेगा। मनुष्य हर बार उनके दायरों से बाहर आकर खड़ा हो जाएगा। फिर कोई आंख यथार्थ को अपनी संवेदनशीलता के साथ देख कर प्रश्न भी करेगी । एक आदमी गरीब क्यों है.....। एक अमीर क्यों है?एक गरीब क्यों ? एक कमजोर क्यों है और एक ताकतवर क्यों है..? तकनीक पूंजी के आश्रय के बगैर विराट नहीं हो सकती और पूंजी का चरित्र तय होगा तो उसके साथ तकनीक का चरित्र भी तय हो जायेगा। और इन द्वन्द्वों के उत्तर मिलने लगेंगे।

अंत में मुझे उम्मीद है कि तकनीक कितनी ही अपराजेय लगे और हो भी जाये। वह मनुष्य को हमेशा के लिए नष्ट करने का संकल्प कर ले - लेकिन, वह बचा रहेगा। अंत में फ्रेडरिक ब्राऊन की इस पंक्ति के साथ अपनी बात समाप्त करना चाहता हूं-- 'पृथ्वी का आखिरी आदमी कमरे में अकेला था और दरवाजे पर दस्तक हुई।' यह दस्तक ही साहित्य का नाम है।

बहरहाल, विलम्ब काफी हो चुका है। मैं भी जो बातें करना चाहता था और बहस को जितनी बौद्धिक उत्तेजना से परिपूर्ण करना चाहता था, उसका समय नहीं रह गया है। ओमा शर्मा और रमाकान्त श्रीवास्तव कथा-सम्मान के प्रसंग के आयोजक भाई महेश दर्पण का भी आभार मानता हूं कि उन्होंने इस अवसर पर मुझे आमंत्रित किया..। बहरहाल ओमा शर्मा को फिर से बधाई और शुभकामनाएं कि वे जल्दी ही किसी बड़ी कृति के साथ हमारे सामने आयेंगे। 
prabhu.joshi@gmail.com

Sunday, February 10, 2013

कहानीकार का वक्‍तव्‍य

Oma Sharma

रमाकांत पुरस्‍कार से सम्‍मानित कहानी मेमना और उस के निर्णायक का वक्‍तव्‍य आप पढ़ चुके. अब पढ़िए कहानीकार ओमा शर्मा का वक्‍तव्‍य

मैं रमाकांत स्मृति पुरस्कार की संयोजन समिति और इस वर्ष के निर्णायक श्री दिनेश खन्ना का अभारी हूं जिन्होंने इस वर्ष के इस कहानी पुरस्कार के लिए मेरी कहानी ‘दुश्मन मेमना’ को चुना। हिन्दी कहानी के लिए दिये जाने वाले इस इकलौते और विशिष्ठ पुरस्कार की पिछले बरसों में जो प्रतिष्ठा बनी है, उस कड़ी में स्वयं को शामिल होते देख मुझे बहुत प्रसन्नता हो रही है। कोई भी पुरस्कार किसी रचना का निहित नहीं होता है लेकिन उस रचना विशेष को रेखांकित करने में उसकी महत्तवपूर्ण भूमिका होती है जिसे पिछ्ले दिनों व्यक्तिगत तौर पर मैंने महसूस किया है। मेरे प्रिय लेखक निर्मल वर्मा की कही एक बात याद आ रही है। ‘‘जब किसी लेखक को कोई सम्मान मिलता है तो उसे चाहे थोड़ी देर के लिए सही, लगता है कि अब वह दुनिया की आँखों में सम्माननीय हो गया है। उसे लगता है कि उसे अपने ऐसे धन्धे के लिए वैद्यता प्राप्त हो गयी है जो प्लेटो के जमाने से संदिग्ध और बदनाम माना जाता है।’’ ‘संदिग्ध’ आज के सन्दर्भ में एक बीज शब्द हो चला है... जब बड़े पुरस्कार तक संदिग्ध हो रहे हैं, रमाकांत स्मृति पुरस्कार की प्रतिष्ठा संदिग्धता के परे लगती है। पुरस्कार समिति के संयोजक भाई महेश दर्पण ने पुरस्कार की परम्परा के तहत मेरी रचना प्रक्रिया विशेषकर चयनित कहानी की रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालने की अपेक्षा जताई थी जिसके लिए मैं आपसे मुखातिब हूं। 

लेकिन यही से मेरा डर और असमंजश शुरू होता है। रचना प्रक्रिया और उससे जुड़े बिन्दुओं पर कुछ कहने बोलने की काबिलियत और अपेक्षा उस्ताद लेखकों का दायरा है। उन्हें पढ़ना मेरा प्रिय शगल भी है कि जान सकूँ कि वे लोग जिन्होंने अपने कृतित्व से देश-काल की सीमाओं का अतिक्रमण किया, वंचना और प्रवंचनाओं की कन्दराओं के बीच जिन्होंने इन्सानी जिजीविषा की महागाथाएं रचीं, उन्होंने किस आँच से अपने जीवन को तपाया, किन प्रेरणाओं- आदतों, अड़चनों, उलझनों, चुनौतियों और सनकों के बीच वह सब मुमकिन कर दिखाया जिसके समक्ष मानव जाति आज भी कृतज्ञ और प्रफुल्लित महसूस करती है और करती रहेगी। वह व्यक्ति जो साहित्य को एक विद्यार्थी की जिज्ञासा की तरह महसूस भर करता है, उसकी रचना प्रक्रिया क्या होगी और होगी भी किस काम की? यह बात मैं किसी विनम्रतावश नहीं बहुत ईमानदारी से कह रहा हूं क्योंकि विन्रम होने लायक सलाहियत भी अभी मैंने हासिल नहीं की है। मेरी बातों को आप इस अवसर की परम्परा के निर्वहन के लिए की जाने वाली प्रस्तुति के रूप में ही लें। अंग्रेजी में किसी ने कहा भी है : ट्रस्ट द टेल, डॉन्ट ट्रस्ट द टैलर। इसे आप मेरी गुस्ताखी समझकर माफ कर सकें तो मैं अपने जीवन की संक्षिप्त झांकी पेश कर सकता हूं जिसमें जनी सोच शायद परोक्ष रूप से कुछ बयान कर सके। 

मेरा जीवन सामान्य से ज्यादा संघर्षपूर्ण चाहे न रहा हो मगर वैविध्यपूर्ण तो रहा ही है। मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक साधारण किसान परिवार में पैदा और बड़ा हुआ…भैस चराता, कुट्टी(चारा) काटता, हल जोतता, निराई करता, दाँय हाँकता…गाँव के कष्टप्रद, आत्मलीन जीवन में दूसरे तमामों की तरह घिसटता-रमता। पढ़ने-लिखने में कभी प्रतिभाशाली जैसा था नहीं सो सपने भी खास नहीं थे। पिताजी यहीं दिल्ली में नौकरी करते थे। सन 1977 में जब कांग्रेस की जगह जनता पार्टी की केन्द्र में सरकार बनी, उस समय एक दूरदर्शी फैसले के तहत पिताजी ने परिवार को दिल्ली बुला लिया जो मेरे तथा परिवार के भविष्य निर्माण में एक निर्णायक कदम था। ऊब, उमस और त्रस्तपूर्ण ग्रामीण जीवन से निकलकर पूर्वी दिल्ली के एक मौहल्ले में आकर रहना बहुत चिंतामुक्त और आरामदायक लगता था। न किसी खेत-क्यार के सिंचाई की आफत, न किसी पौहे-जैंगरे(जानवर) की रख-रखाई का भार। स्कूल जाओ, पढ़ो, खेलो-कूदो और मौज करो। घर में सबसे छोटा होने के कारण तमाम तरह की आर्थिक-समाजिक जिम्मेवारियों से मुक्त रहने का मुझे अतिरिक्त लाभ और था। मैं विज्ञान का विद्यार्थी था। गणित तथा भौतिकशास्त्र में अधिक रूचि थी लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय के किसी अच्छे कॉलेज में आनर्स कोर्स में दाखिला न मिल पाने के कारण अर्थशास्त्र की तरफ मुड़ गया। लक्ष्य था एक यथासंभव अच्छी सरकारी नौकरी जो एक मध्यवर्गीय परिवार को जाहिर असुरक्षाओं से मुक्त कर दे और जो मुझे छकाने की कगार पर ले जाने को थी। लेकिन लगता है मेरे सौभाग्य को असफलताओं के माध्यम से मेरे पास चलकर आना था (और जो बाद में भी आता रहा है)…मसलन, इंजीनियरिंग के डिप्लोमा कोर्स में मुझे दाखिला नहीं मिला मगर आई आई टी के पढ़े न जाने कितने इंजीनियर बाद में केन्द्रीय सेवा में मेरे सहकर्मी बने। दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में अर्थशास्त्र के अध्ययन ने मुझे मेहनत करने और चीजों को समग्रता में जांचने-परखने का प्रशिक्षण दिया, तन्त्र में आर्थिक शक्तियों की केन्द्रियता समझने का संस्कार दिया, एक से एक विश्वविख्यात और मेधावी शिक्षकों की सोहबत दी और सबसे अहम बात यह कि उसने मुझे स्वतन्त्र होकर सोचने और झुककर चलने का गुरूकुल नवाजा। उसके बाद मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलिज में पढ़ाने तथा अर्थ सम्बंधी छुटपुट लेख लिखने लगा। एकेडेमिक्स का रास्ता जब सरपट होने लगा तभी केन्द्रीय सिविल सेवा में मेरा चयन हो गया। इसी के साथ एक से एक अधुनातन आर्थिक सिद्धान्त और उनकी बारीकियों में पनपती मेरी रूची का पटाक्षेप हो गया। पहले विज्ञान की दुनिया छूटी और अब अर्थशास्त्र भी छूट गया। एक से एक प्रेरणास्पद अध्यापक और एकेडिमिक्स के मुक्त गगन को छोड़ मैं अपनी मध्यमवर्गी मानसिकता के बोझ तले सामाजिक (?) रूप से प्रतिष्ठित एक केन्द्रीय सेवा में अपने करियर की गिनतियां गिनने लगा। भुरभुरी जमीन पर खड़े एक मध्यवर्गीय युवक के पास जब ज्यादा सोचने-करने को कुछ नहीं होता है तो आस-पास के मामूली हासिलों में वह अपना वजूद ही नहीं, अहम-तृप्ति के मार्ग और मुगालते भी तलाशने लगता है। मेरी क्या बिसात थी जब सर्वोच्च और ख्यात संस्थानों से निकले यकीनन मेधावी युवकों की दौड़ सत्ता का पर्याय बनी ऐसी ही नौकरियों में भस्म होने लगती है। आगे अब न पढ़ने-लिखने की जरूरत है और न किशोरावस्था में समाज के लिए कुछ करने के जज्बे को अन्जाम देने के लिए कुछ मशक्कत उठाने की। परिवार और नौकरी को लेकर भविष्य की योजनाएं, पत्नी और बच्चों के साथ घूमने-फिरने का गृहस्थ सुख, यार-दोस्तों के बीच जब तब गपशप-गिटपिट करते हुए अपेक्षाकृत बौद्धिकता के कुल्ले करना, जरूरी निवेशों की लहलहाती फसलों में बाबा भारती सी तसल्ली तथा एक इज्जतमंद सेवानिवृत्ति के स्वर्णकाल की तरफ डकार मारते बढ़ना (इसमें कोई हिकारत भाव नहीं है)...। मैं यदि इस सबकी गिरफ्त से लगभग बच गया तो इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। दोष है मेरे बड़े भाई साहब (जो प्रेमचंद के ‘बड़े भाईसाहब’ नहीं हैं) प्रेमपाल शर्मा का जिनकी उपस्थिति अनजाने ही कई स्तरों पर मुझे प्रेरित और उर्जस्वित करती रही है। जीवन को इतनी ईमानदारी, मेहनत, सादगी और मितव्यता के साथ जीने-बरतने की जो मिसाल और मशाल प्रेमपालजी के रूप में मुझे घर पर मुहैया थी निजी होने के कारण उसका जिक्र यहां मैं हरगिज न करता यदि उसका एक सिरा मेरी रचना प्रक्रिया की शुरूआत से नहीं जुड़ा होता। अपने जीवन से सम्बंधित जिन स्थितियों की तरफ मैंने इशारा किया है, कोई आसानी से समझ सकता है कि उसमें मेरे जैसे सामान्य से व्यक्ति के लेखक बनने की न कोई सम्भावना थी और न आकांक्षा। जब मैं विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था तब वे एक कहानीकार बनने की प्रक्रिया में रहे होंगे। मेरी तरह--अलबत्ता चार पाँच साल पहले-- वे भी गांव से निजात पाकर दिल्ली आए थे। बड़ा होने के कारण उनके संघर्ष और दायित्व मुझसे कहीं ज्यादा रहे होंगे। साहित्य और नौकरी के पायदानों पर वे बिना किसी मदद के चढ़ रहे थे। लेकिन उनका संघर्ष सिर्फ उनका था।दिन भर नौकरी करने के बाद घर आकर वे मेरी प्रोग्रेस रिपोर्ट लेते, जहां तहां डांटते-उकसाते और बाद उसके मरियल रोशनी में किसी संत की एकाग्रता से घंटों यूं ही बैठे पढ़ते रहते। मुझे तो तब पढ़ने का भी शौक नहीं था मगर हैरान होता था कि वे इतने नियम संयम से पढ़ने की ऊर्जा कहां से बटोर लेते हैं। हमारी पारिवारिक स्थितियों से जो मित्र वाकिफ रहे हैं वे इस बात से सहमत होंगे कि प्रेमपालजी की भूमिका किसी अलक्षित पायनियर से कम नहीं रही है। नौकरी, साहित्य और दिल्ली के झाड़-झंखाड़ में वे एक रास्ता बना रहे थे जो यहाँ उपस्थित आपमें से कई महानुभावों ने भी बनाया हो। मेरे कॉलिज से निकलते निकलते यह रास्ता पर्याप्त चलने लायक हो गया था। वे घर में एक-दो साहित्यिक पत्रिकाएं तथा दिल्ली पब्लिक लायब्रेरी से उधार ली गयीं किताबें मंगाते-लाते रहते थे जिन्हें पढ़ने-पलटने की मुझे परोक्ष मनाही थी क्योंकि मेरे समक्ष मेरा करियर मुंह बाए खड़ा था। मुझसे वही नहीं संभलने में आ रहा था तो बाकी किसी चीज की गुंजाइश ही नहीं बचती थी। अलबत्ता उन पत्रिकाओं और पुस्तकों को कभी-कभार उलटने-पलटने का मौका मुझे मिल जाता था जो इकॉनोमैट्रिक्स के पीले-नीले(ब्लू) समीकरणों से घिर आई ऊब से ताल्कालिक निजात पाने से ज्यादा कुछ नहीं होता था। उस दौरान चाय पिलाने वाले लड़के की हैसियत से जब प्रेमपालजी के कुछ लेखक मित्रों –विशेषकर पंकज बिष्ट – की संगत का मौका मिलता तो दिल में हुमक सी उठती कि ये लोग एक प्याली चाय पर कितने जोश-ओ-खरोश से बतियाते हैं। क्या हैं इनके न खत्म होने वाले झगड़े या सरोकार? अर्थशास्त्र की उन्नत सैद्धांतिकी के बरक्स ज्यादा समझ न आते हुए भी वह सब मुझे प्रासंगिक न सही मगर दिलचस्प तो जरूर लगता था। केन्द्र सरकार की नौकरी में आने पर जब मेरे करियर की समस्या सुलट गयी तो चलते-फिरते या खुरचन की तरह आ मिले साहित्य के मेरे शौक को थोड़ी हवा और पूरी वैधता मिल गयी जिसे परिवार पत्तेबाजी, दोस्तखोरी या क्लबिंग जैसे विकल्पों के बरक्स पर्याप्त निरापद ही नहीं सम्मानीय भी मानता था। सभी तरह की रचनाएं पढ़ते-पढ़ते मैंने कैसे कहानी लिखना शुरू किया इसे बताने का अभी अवकाश नहीं है। निरंतर पढ़ना क्रिकेट टीम के बारहवें खिलाड़ी की हैसियत जीना है। लिखना मानो उसके टीम में अगले पड़ाव सा सहज हालाँकि कितनी प्रतिभाएं सिर्फ बारहवें खिलाड़ी की कैफियत पाकर तिरोहित हो जाती हैं। 

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नोबोकोव ने लेखन को विशुद्ध प्रतिभा की बदौलत कहा है। गोगोल की ‘तस्वीर’, स्टीफन स्वाइग की ‘अदृश्य संग्रह’और ‘शतरंज’, प्रेमचन्द की ‘कफन’, रेणु की ‘मारे गए गुलफाम’, दूधनाथ सिंह की ‘धर्मक्षेत्रे-कुरूक्षेत्रे’, प्रभु जोशी की ‘पित्रऋण’, संजीव की ‘अपराध’, रेमण्ड कार्वर की ‘बुखार’ तथा आइजैक सिंगर की ‘पांडुलिपि’ जैसी कहानियों को पढ़कर नोबोकोव की बात सच लगती है लेकिन गल्प-कला किसी एक सत्य का उदघाटन करती दिखती है तो यही कि जीवन में कोई एक या अन्तिम सत्य जैसा कुछ नहीं होता है। सत्य के केवल संस्करण होते हैं। उसके अस्तित्व और आकार-प्रकार के बारे में घपले जैसे हालात चाहे न हों मगर उसकी लोकेशन और आभ्यंतरिकता पर्यवेक्षक और समय सापेक्ष होती है। नोबोकोव बहुत प्रतिभाशाली थे लेकिन मुझे गेटे की यह बात प्रेरणास्पद ढंग से रूचि कि मेहनत और निष्ठा के अभाव में प्रतिभा अक्सर बेकार हो जाती है। भाषा और साहित्य की समझ को अनपेक्षित ढंग से संवारती स्टीफन स्वाइग की आत्मकथा ‘वो गुजरा जमाना’ का अनुवाद करने के सुनहरी दिनों में मुझे गेटे की उक्तियों के विपुल खजाने से हमेशा गांठ बांधकर रखने वाला ऐसा मोती मिल गया जो लेखन के जरिए अपने भीतर के सत्य की पड़ताल करने में किसी रहमदिल मित्र की तरह मेरा साथ देता है। उन्होंने कहा है कि साहित्य में सत्यनिष्ठा से अभिप्राय लेखक के दिल की सदाकत मात्र नहीं हैं; असल बात है कि लिखते समय वह अपनी निजी भावनाओं से बिना डरे या उम्मीद रखे दो-चार होता है या नहीं...क्योंकि यदि वह उनसे डरेगा तो उन्हें छोटा कर देगा और उम्मीद रखेगा तो उन्हें महिमामंडित कर देगा। चैक लेखक कारेल चापेक के एक उपन्यास (एन ऑर्डिनरी लाइफ) का केन्द्रिय विषय यही है कि हमारा जीवन उन बेशुमार नामालूम घटनाओं के निचोड़ या गठजोड़ से मिलकर बना होता है जो हमारे साथ जाने-अनजाने होती रहती हैं...मैं किसी और घर में जन्मा होता, कहीं और पढ़ा होता, जीविका के लिए कुछ और कर रहा होता, किसी और से मेरा विवाह हो गया होता...तब क्या मैं वही होता (यहां सवाल अच्छे-बुरे का नहीं है) जो मैं हूं! पहले विज्ञान और बाद में अर्थशास्त्र के प्रेम के सताए विद्यार्थी को मानवीय बुनावट की तह तक ले जाने वाले ऐसे सीधे-सरल और उद्भट रहस्योदघाटनों ने बरबस अपनी गोद में भींच लिया। बियावान घने जंगल में टिटहरी का दूर से आता छिटपुट नाद मानों किसी मकाम का गुमां दे रहा था। अड़चन थी तो बस यही कि आसपास निबिड़ अंधेरा था...नहीं विसाल मयस्सर तो आरजू ही सही ! बहुत दिनों तक एक कष्टमय कशमकश जीते हुए मैंने अपनी पहली कहानी-‘शुभारम्भ’ पर आजमाइश की जो दरम्यान के इन अठारह बरसों में अपनी बुनियादी प्रक्रिया में अधिक जटिल और चुनौतिपूर्ण हो गयी है। 

‘‘मैं कैसे लिखता हूं?’’ मेरे सन्दर्भ में इस नाबालिग प्रश्न का उत्तर किसी ने पहले ही दे दिया है: बहुत आसान है लिखना। करना ये है कि मेज पर बैठकर खाली कागज को निहारने लगो...जब तक कि पेशानी से खून न चुहचुहाने लगे। मेरे मामले में यह कोई अतिशयोक्ति नहीं, सौ प्रतिशत सच है। कंप्यूटर-लैपटॉप और सॉफ्टवेअर्स के जमाने में मैं हर चीज कागज-कलम से ही लिखता हूं। जानता हूं कि तकनीकी के साथ कदम मिलाकर चलने से बारहा तड़कने की कगार पर पहुंची मेरी उंगलियों को जरूरी दीर्घकालीन राहत मिल सकती है, लेकिन एक लती पत्ताखोर की तरह इस नेक ख्याल को मैं ‘अगली बार’ की परछत्ती में खौंस अपनी पूर्ववत मुद्रा में आ जाता हूं। उलटे, यह भी मानता हूं कि लिखे जा रहे के साथ इससे बेहतर और जैविक ताल्लुक बनता है। पाब्लो नेरूदा इस बाबत मेरी तरफदारी में खड़े होते हैं। वैसे लिखा हुआ अहम है न कि यह कि वह कैसे लिखा गया है। कोई कहानी कैसे बनती है? इस शाश्वत और निष्ठुर प्रश्न पर कितने उस्तादों के तजुर्बे दर्ज होंगे लेकिन शायद ही कोई मेरे काम आया है। कहानी मुझे लेखन कला की सबसे सघन और कलात्मक विधा लगती है। उसके कच्चे माल के लिए दर-दर भटकने या उसकी शान में (अपने मुताबिक) रत्ती भर भी कुछ जोड़ने-संवारने के लिए मेहनत-मशक्कत करने अथवा जो कुछ निवेशित किया जा सकता है वह सब करने में सुकून लगता है। मसलन, अपना एंगल तय हो जाने के बाद ‘भविष्यदृष्टा’ को लिखने में ढाई-तीन साल लग गए क्योंकि ज्योतिषशास्त्र के व्याकरण की बारीकियों से वाकिफ हुए बगैर मैं उस पर हाथ नहीं रख सकता था। ‘घोड़े’ को तो लिखने से पहले ही मैं गधा बन गया था। मेहनत मशक्कत से बनाई कहानी की इस पूर्व पीठिका के बाद वह काम शुरू होता है जिसे दरअसल बहुत पहले शुरू कर देना चाहिए था--यानी कहानी को शब्दों में ढालने का काम। इस बिन्दु पर मेरे व्यक्तित्व की निजता के ऐसे-ऐसे तर्कातीत पहलू उजागर होते हैं जिनका होना मुझे बेबस ढंग से हलकान किये रहता है। फॉकनर की ‘लाइट इन ऑगस्त’ पढ़ लूँ तो कैसा रहे? अपनी आत्मकथा में मार्खेज ने इस किताब की बहुत तारीफ की है। पॉल क्रूगमैन की मन्दी पर आयी किताब का नम्बर क्या अगली मन्दी में लगेगा? ये कुछ दिन तो दफ्तरी दवाब में जाएंगे,इस समय कहानी शुरू की तो कोई फायदा नहीं क्योंकि थकी-माँदी हालत में मुझसे कभी ढंग का नहीं लिखा जाता है। इस सप्ताह बच्चों को फिल्म दिखा लाता हूँ, फिर…। अरे, उस मित्र का फोन आया था, दफ्तर में कुछ बात ही नहीं हो पायी…फोन के बाद आराम से लिखूंगा। सुबह टहलकर आते ही बैठ जाऊंगा। पेपर तो पढ़ लूं, महानगर के अखबार कहानी का नित रोज मसाला परोसते हैं।लाइब्रेरी चला जाता हूँ...कितना और अटूट सिलसिला है उस दिली चाहत से मुंह छिपाने का जबकि पता है कि खुमारी और बेचैनी से सने ऐसे दिन कितने मोहक, मूल्यवान और विरल होते हैं। मन जरा कड़क हो जाए तो कितना कुछ दुरूस्त हो सकता है। आज तक नहीं हुआ तो आगे भी क्यों होगा। ऐसे होते हैं लेखक…जिनके लेखन की आज तक कोई चर्या नहीं बनी। ऊपर से तुर्रा ये कि चौबीसौ घन्टे लेखक की मानसिकता जीता हूं। किसे बनाने चले हो मियाँ? 

बरसों से टूटे-फूटे ऐसे खिड़ंजे पर सौ-डेढ़ सौ किलोमीटर खचड़ा साईकिल चलाने के बाद एक पक्की सड़क मिलती है जिस पर पहुंचकर अभी तक की सारी फिजूलियत का गिला काफूर हो जाता है। लेखकी का सबसे दिलचस्प और चुनौतीपूर्ण पक्ष है तो यही कि ‘दूसरी दुनियाओं’ की ऊभ-चूभ कराते हुए यह आपको सृजन का निजी घरौंदा-सा रच डालने के भरम से भर देती है। परकाया प्रवेश के इस सुख के लिए फ्लावेअर रह-रहकर ईश्वर को धन्यवाद देते हैं जो लेखन के सिवाय अन्यत्र असम्भव है। जीविका के लिए मेरे ऊपर नौकरी का पहरा और बेड़ियां कसी होती हैं लेकिन इसी के जरिए मुझे अनेक दूसरी दुनियाओं को देखने-समझने का अतिरिक्त अवसर मिल जाता है। मेरे पास दूसरे तमाम लेखकों सी कल्पनाशीलता नहीं है। जो है वह भी देखे-जाने यथार्थ से ही कहीं न कहीं जुड़ी होती है। इसलिए अधिकांश वक्त मैं लेखक नहीं, उसका ऐसा मुखबिर होता हूं जो मौका ए वारदात---जब शब्द कागज पर उतर रहे होते हैं---पर लेखक का चपरासी बनकर खुश होने लगता है। अपने वजूद से लेखकी का जामा उतारकर जीवन का विशुद्ध भोक्ता (जिसे बहरुपिया कहना मुफीद हो)--और उसके फौरन बाद मुखबिर--बन जाना ही लेखकीय कला का अजूबा सत्य है। मैं सोचता हूं कि जीवन के अनुभवों को इस नीयत से देखना-जीना कि इन्हें स्मृति द्वार से कभी लेखन में तब्दील होना है, उस देखने-जीने की सम्पूर्णता को एक दर्जा कम कर देता होगा। खिड़की खुली रहने पर जैसे कमरे का वातानकूलन असर में मुकम्मल नहीं हो पाता है। फिर इस देखने जीने पर किसी वाद या दुराग्रह की झिल्ली आ लगे तो पूरा दृश्य ही संकुचित हो जाएगा। इसलिए मैं अपने बहरुपिये को बाल्जाक की इस सलाह के ताप में खड़ा करने में लगा रहता हूं...‘‘सबसे बड़ी बात ये कि अपनी आँखों का इस्तेमाल करो…लेखक के लिए आँखिन देखी से ज्यादा मूल्यवान और कुछ नहीं।’’ कितनी आत्मसम्पन्न और पवित्र नदिया है लेखकी भी ! आप अपने अहं और वाद का जामा उतारकर तो देखें, दुनिया भर के सैकड़ों मजबूत काबिल हाथ अनचाहे ही आपका सम्बल बनने लगते हैं। 

** ** 

‘दुश्मन मेमना’ की रचना प्रक्रिया के बारे में क्या कहूँ? यह ऐसा इलाका है जिसके बारे में अलेक्सैई तोल्सतोय ने कहा है कि किसी स्त्री को एक पुरूष के साथ की अपनी पहली रात का वर्णन नहीं करना चाहिए। मैं सोचता हूं कि जो चीज एक धुंधली चित्रलिपि से ज्यादा कुछ न हो, जो खुद को स्पष्ट न हो वह बताई भी जा सकती है? मगर फिर भी। यकीनन यह मेरी अभी तक की सबसे आत्मकथात्मक कहानी है हालाँकि इसकी चिंगारी कहीं और से मेरे पास पहुँची थी। बेटी के बोर्ड की परीक्षा का परिणाम आने से एक रोज पहले छुट्टी मागने आयी मेरी एक सहकर्मी की उदासी देखते बनती थी…मानो जीवन में कभी हंसने-मुस्कराने की बारी नहीं आएगी।
‘‘ कल दोपहर तीन बजे आएगा न रिजल्ट…तो कल आधे दिन की छुट्टी ले लेना, पूरे सप्ताह की क्यों?’’ मैंने खारिज करने के अन्दाज में हल्के ढंग से पूछा तो उस प्रौढ़ा का चेहरा अवसन्न हो गया। सिर जमीन की तरफ घुसने लगा। किसी तरह खुद पर काबू पाया तो ‘‘रिजल्ट तो पता है…उसके पास होने का चांस कम है…इसलिए मुझे उसके पास रहना होगा…’’ जैसे चन्द अल्फाज मेरी तरफ भटकते पहुँचे। मां-बाप का कितना कुछ बच्चों के लिए जीता-मरता है, इसे बताने की जरूरत नहीं है और न यह आज की कहानी का विषय बनता है। मेरे मन में अलबत्ता यह जरूर आया कि कल जब कितने मां-बाप अपने होनहारों के बोर्ड के नतीजों को लेकर चहक-महक रहे होंगे, उनमें अपवाद स्वरूप कुछ दूसरे भी होंगे। 90-95 प्रतिशत के जमाने में जब 70-75 प्रतिशत को हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन मां-बाप की पीड़ा क्या होगी जिनके बच्चों के पास होने के लाले पड़े हों? और क्या वे बच्चे स्वंय इससे पीड़ित नहीं रहते होंगे? उस सहकर्मी को अपनी नादानी में जब मैंने कोचिंग तथा ट्यूशनों के बारे में सुझाया तो भरी आवाज में भी उसने बताया कि सब कुछ किया था। ‘‘तब क्यों’’ मेरे इस सवाल का जवाब था कि वह एकाग्र नहीं हो पाती है, मोबायल और फेसबुक की वजह से। और तब मुझे लगा कि पिछले छह-आठ महीनों से अपनी चौदह वर्षीय बेटी के लगभग ऐसे रवैए को लेकर मैं जिस गुस्सा मिश्रित लाचारी को ढो रहा हूं उसका हमारे समय की तकनीकी-प्रगति से गहरा सम्बंध है। यह मेरी या उस सहकर्मी की नहीं, एक व्यापक समय सन्नद्ध समस्या है। लेकिन तकनीकी को गरियाने मात्र से कहानी बनती है? हो भी सकता है मगर मुझे लगा कि इसका एक छोर तो मानवीय आचरण के किसी पहलू से जुड़ा होना चाहिए। आज के दौर में जब तकनीकी हमारे बीच सचमुच एक सत्ताधीश के माफिक पसर बैठी है, मुझे उसका वर्चस्व स्वीकारने में हिचक थी। आपने गौर किया हो, कहानी का अन्त कुछ कुहासे भरा है। कई पाठकों और कहानीकार मित्रों ने कहानी को ‘लाइक’ करते हुए तुरन्त मुझसे जानना भी चाहा कि अन्त में क्या हुआ है। मैंने सबको यही कहा कि कहानी के आखिरी दो पन्ने फिर से पढ़ लीजिए। वहां मैंने पर्याप्त संकेत-सूत्र छोड़े हैं। कहानी उस अन्त के बारे में नहीं है मगर अन्त की ऐसी सम्भावित नीयत के बगैर कहानी नहीं बनेगी। ब्रेख्त की कविता की दो पंक्तियां हैं: 

जनरल ये जो तुम्हारा टैंक है
पूरे जंगल को रौंद सकता है
सैकड़ों लोगों को कुचल सकता है
मगर इसकी एक कमजोरी है
चलाने के लिए इसे एक ड्राइवर चाहिए होता है।
 
रमाकांत स्मृति पुरस्कार का पुन: आभार जो मैं आज आपसे मुखातिब हो सका।  

यह वक्‍तव्‍य और कहानी  जानकीपुल ब्‍लॉग पर भी उपलब्‍ध हैं.

Wednesday, February 6, 2013

पढ़ने के बाद याद रहती है कहानी


रमाकांत कहानी पुरस्‍कार से सम्‍मानित कहानी दुश्‍मन मेमना और पुरस्‍कार के बारे में जानकारी के बाद अब पढ़िए इस कहानी के निर्णायक दिनेश खन्‍ना का वक्‍तव्‍य 


ओमा शर्मा की कहानी 'दुश्‍मन मेमना' मुझे एकदम आज की कहानी लगी. आज से मेरा मतलब है हमारे आज के शहर, महानगर में रहते-बसते मध्‍यवर्गीय परिवार में घटित होता यथार्थ. आज के युवाओं और अपने बच्‍चे के भविष्‍य को लेकर थोड़ा ज्‍यादा चिंतित और सचेत रहने वाले माता पिता खासतौर पर मां-बाप और उनकी इकलौती संतान. एक पंद्रह-सोलह साल की लड़की, नए जमाने के संचार माध्‍यम फेसबुक और मॉडर्न गैजेट्स जैसा खिलौना. जो उसे जान से प्‍यारा हो जाए, तब क्‍या होगा!

पेरेंट्स की चिंताएं और लड़की की हर तरह की जिद... कहानी इन तमाम चीजों के साथ मनोवैज्ञानिक जटिलता के बीच आ खड़ी होती है. फिर माता-पिता अपनी बेटी के लिए भावनात्‍मक दबाव महसूस करने लगते हैं. बेटी का लगभग ब्‍लैकमेलिंग जैसा व्‍यवहार और उनके बीच मनाचिकित्‍सकों के लंबे सवाल-जवाब का सिलसिला कहानी को आकार देता है.

कहानी दिलचस्‍प और गंभीर विषय के साथ, कई ढंकी-छिपी मनोवैज्ञानिक परतें खालती है. और फिर शिल्‍प, कलात्‍मकता और विषय की दृष्टि से भी कहानी अनोखी बन पड़ी है. कहानी पढ़ने के बाद बराबर याद रहती है. और मन में कहीं एक अनसुलझा प्रश्‍न छोड़ जाती है.

कहना जरूरी है कि अपने कथारस और ताजगी भरी भाषा के चलते मुझे रमाकांत कहानी पुरस्‍कार के लिए यह रचना सर्वथा उपयुक्‍त लगी.    

इस बारे में जानकारी यहां भी है. 

Monday, February 4, 2013

रमाकांत स्‍मृति कहानी पुरस्‍कार



रमाकांत छठे दशक के महत्वपूर्ण कथाकारों में से एक हैं. दो दिसम्बर १९३१ को जन्मे इस कथाकार के चर्चित कहानी संग्रह हैं- कार्लो हब्शी का संदूक, जिन्दगी भर का झूठ, उसकी लड़ाई, एक विपरीत कथा और कोई और बात. रमाकांत के महत्वपूर्ण उपन्यास हैं जुलूस वाला आदमी, छोटे छोटे महायुद्ध,  उपसंस्कार, खोयी हुयी आवाज़, तीसरा देश, दरवाज़े पर आग, समाधान, टूटते जुड़ते स्वर, बिस्तर और आकाश. सोवियत भूमि के सम्पादक रहे रमाकांत को सोवियत लैंड नेहरू सम्मान तो मिला हीनेल्सन मंडेला के भारत आने पर उनकी कहानी 'कार्लो हब्शी का संदूक' का भीष्म साहनी द्वारा किया गया अनुवाद उन्हें भेंट किया गया था. "क्रासाद" नामक पाक्षिक का सम्पादन और अपनी बेबाक टिप्पणियों के लिए चर्चित रमाकांत युवा रचनाकारों  को सदा प्रोत्साहित करते रहे. उनका निधन ६ दिसम्बर १९९१ को दिल्ली में हुआ.

रमाकांत जी की स्मृति में दिया जाने वाला रमाकांत स्मृति कहानी पुरस्कार अब तक १५ कहानीकारों को प्रदान किया जा चुका है. पन्द्रहवें कथाकार हैं ओमा शर्मा. इसके निर्णायक हैं रंगकर्मी दिनेश खन्‍ना. कथादेश में प्रकाशित 'दुश्‍मन मेमना' 443 कहानियों में से चुनी गई है.  


वर्ष २०१३ के लिए २०१२ में प्रकाशित कहानियां विचारणीय होंगी. इस वर्ष के अंतिम निर्णायक हैं श्री विश्वनाथ त्रिपाठी. संस्तुति और कहानी की फोटोकॉपी १५ मई २०१३ तक भेजना ज़रूरी है. प्रविष्टि इस पते पर भेजी जाए -

महेश दर्पण
संयोजक, रमाकांत कहानी पुरस्‍कार,
सी - 3/51 सादतपुर, 
दिल्‍ली -110094

अब तक पुरस्कृत कथाकार
·         नीलिमा सिन्हा
·         कृपाशंकर
·         अजय प्रकाश
·         मुकेश वर्मा
·         नीलाक्षी सिंह
·         सूरजपाल चौहान
·         पूरन हार्डी
·         अरविन्द कुमार सिंह
·         नवीन नैथानी
·         योगेन्द्र आहूजा
·         उमाशंकर चौधरी
·         मुरारी शर्मा
·         दीपक श्रीवास्तव
·         आकांक्षा पारे काशिव









महेश दर्पण , संयोजक, रमाकांत कहानी पुरस्‍कार

Friday, February 1, 2013

दुश्मन मेमना

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रमाकांत स्‍मृति पुरस्‍कार शायद एकमात्र पुरस्‍कार है जो साल भर के दौरान छपी सिर्फ किसी एक कहानी पर दिया जाता है. पिछले साल का पुरस्‍कार ओमा शर्मा को दुश्‍मन मेमना कहानी पर मिला है. बदलते हुए समाज के रग-रेशे को खोलती यह कहानी आप यहां पढ़िए   
 

वह पूरे इत्मीनान से सोयी पड़ी है। बगल में दबोचे सॉफ्ट तकिए पर सिर बेढंगा पड़ा है। आसमान की तरफ किए अधखुले मुंह से आगे वाले दांतों की कतार झलक रही हैं। होंठ कुछ पपडा़ से गए हैं, सांस का कोई पता ठिकाना नहीं है। शरीर किसी खरगोश के बच्चे की तरह मासूमियत से निर्जीव पड़ा है। मुड़ी-तुडी़ चादर का दो तिहाई हिस्सा बिस्तर से नीचे लटका पड़ा है। सुबह के साढ़े ग्यारह बज रहे हैं। हर छुट्टी के दिन की तरह वह यूं सोयी पड़ी है जैसे उठना ही न हो। एक-दो बार मैंने दुलार से उसे ठेला भी है ... समीरा, बेटा समीरा, चलो उठो ... ब्रेक फास्ट इज़ रेडी ...। मगर उसके कानों पर जूँ नहीं रेंगी है। उसके मुड़े हुए घुटनों के दूसरी तरफ खुली त्रिकोणीय खाड़ी में किसी ठग की तरह अलसाए पड़े कास्पर (पग) ने जरूर आंखें खोली हैं मगर कुछ बेशर्मी उस पर भी चढ़ आयी है। बिगाड़ा भी उसी का है।
वैसे वह सोती हुई ही अच्छी लगती है। उठ कर कुछ न कुछ ऐसा-वैसा जरूर करेगी जिससे अपना जी जलेगा। नाश्ते में परांठे बने हों तो हबक देने की मुद्रा में यूँ ‘ऑक’ करेगी ... कि नाश्ते में परांठे कौन खाता है। दलिया; नो। पोहा; मुझे अच्छा नहीं लगता। सैण्डविच; रोज़ वही। उपमा; कुछ और नहीं है। मैगी; ओके।
‘‘मगर बेटा रोज वही नूडल्स“
‘‘तो ?’’
‘‘पेट खराब होता है’’
‘‘मेरा होगा ना’’
‘‘परेशानी तो हमें भी होगी’’
‘‘आपको क्यों होगी ?’’
‘‘कल आपको मायग्रेन हुआ था ना’’
‘‘तो ?’’
‘‘डॉक्टर ने मैदा, चॉकलेट, कॉफी के लिए मना किया है ना’’
‘‘मैंने कॉफी कहां पी है’’
‘‘नूडल्स तो मांग रही हो’’
‘‘मम्मा!’’ वह चीखी
‘‘इसमें मम्मा क्या करेगी’’
‘‘पापा, व्हाइ आर यू सो इर्रिटेटिंग’’
मैं इर्रिटेटिंग हूँ, यह बात अब मुझे परेशान नहीं करती है। नादान बच्चा है, उसकी बात का क्या। अकेला बच्चा है तो थोड़ा पैम्पर्ड है इसलिए और भी उसकी बातों का क्या।
वैसे उसकी बातें भी क्या खूब होती रही हैं। अभी तक।
हर चीज के बारे में जानना, हर बात के बारे में सवाल।
‘‘पापा हमारी स्किन के नीचे क्या होता है ?’’
‘‘खून’’
‘‘उसके नीचे ?’’
‘‘हड्डी’’
‘‘हड्डी माने ?’’
‘‘बोन’’
‘‘और बोन के नीचे ?’’
‘‘कुछ नहीं’’
‘‘स्किन को हटा देंगे तो क्या हो जाएगा ?’’
‘‘खून बहने लगेगा’’
‘‘खून खत्म हो जाएगा तो क्या होगा ?’’
‘‘आपको बोन दिख जाएगी’’
‘‘ उसको तो मैं खा जाऊंगी’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कास्पर भी तो खाता है’’
‘‘वो तो डॉग है’’
‘‘पापा, वो डॉग नहीं है’’
‘‘अच्छा, तो क्या है’’
‘‘कास्पर’’
‘‘कास्पर तो नाम है, जानवर तो ...’’
‘‘ओ गॉड पापा, यू आर सो ... ’’
उसकी यही नॉनसेंस जिज्ञासाएं हर रात को सुलाए जाने से पूर्व अनिवार्य रूप से सुनाई जाने वाली कहानियों का पीछा करतीं। मुझे बस चरित्र पकड़ा दिए जाते - फॉक्स और मंकी; लैपर्ड, लायन और गोट; पैरट, कैट, एलिफैंट और भालू। भालू को छोड़कर सारे जानवरों को अंग्रेजी में ही पुकारे जाने की अपेक्षा और आदत। कहानी को कुछ मानदंडों पर खरा उतरना पड़ता। मसलन, उसके चरित्र कल्पना के स्तर पर कुछ भी उछल-कूद करें मगर वायवीय नहीं होने चाहिए, कथा जितना मर्जी मोड़-घुमाव खाए मगर एकसूत्रता होनी चाहिए, कहानी का गंतव्य चाहे न हो मगर मंतव्य होना चाहिए, वह रोचक होनी चाहिए और आख़िरी बात यह कि वह लम्बी तो होनी ही चाहिए।
आख़िरी शर्त पर तो मुझे हमेशा गच्चा खाने को मिलता जिसे जीत के उल्लास में उंघते हुए करवट बदल कर वह मुझे चलता कर देती।
मगर अब!
अब तो कितनी बदल गयी है। कितनी तो घुन्ना हो गयी है।
कोई बात कहो तो या तो सुनेगी नहीं या सुनेगी भी तो अनसुने ढंग से।
‘‘आज स्कूल में क्या हुआ बेटा ?’’मैं जबरन कुछ बर्फ पिघलाने की कोशिश में लगा हूं ।
‘‘कुछ नहीं’’ उसका रूखा दो टूक जवाब।
‘‘कुछ तो हुआ होगा बच्चे !’’
Mobile 1
‘‘अरे !, क्या होता ?’’
‘‘मिस बर्नीस की क्लास हुई थी ?’’
‘‘हां’’
‘‘और मिस बालापुरिया की ?’’
‘‘हां, हुई थी’’
‘‘क्या पढ़ाया उन्होंने ?’’
‘‘क्या पढ़ातीं ? वही अपना पोर्शन’’
‘‘निकिता आयी थी’’
‘‘आयी थी’’
‘‘और अनामिका’’
‘‘पापा, व्हाट डू यू वांट?’’ वह तंग आकर बोली।
‘‘जस्ट व्हाट्स हैपनिंग विद यू इन जनरल’’
‘‘नथिंग, ओके’’
‘‘आपके ग्रेड्स बहुत खराब हो रहे हैं बेटा’’
‘‘दैट्स व्हाट यू वांट टू टॉक ?’’
‘‘नो दैट इज ऑलसो समथिंग आई वांट टू टॉक’’
‘‘कितनी बार पापा ! कितनी बार !!’’
‘‘वो बात नहीं है, बात है कि तुम्हें हो क्या रहा है’’
‘‘नथिंग’’
‘‘तो फिर’’
‘‘आई डोन्ट नो’’
‘‘आई नो’’
और वह तमककर दूसरे कमरे में चली गयी-मम्मी से मेरी शिकायत करने। मम्मी समीरा से आजिज़ आ चुकी है मगर ऐसे मौंकों पर उसकी तरफदारी कर जाती है, मुख्यतः घर में शान्ति बनाए रखने की नीयत से वर्ना रिपोर्ट कार्ड या ओपन-डे के अलावा भी ऐसे नियमित मौके आते हैं जब उसे खून का घूँट पीकर रहना पड़ता है।
ट्यूटर के बावजूद पिछली बार मैथ्स में चालीस में से बारह लायी थी।
इस बार आठ हैं।
चलो, आगे मैथ्स नहीं करेगी।
ये आगे या अभी की बात नहीं है। जो क्लास में किया जा रहा है, किताब में है उसे पढ़ने-समझने की बात है।
ज्योग्राफी का भी वही हाल है।
क्या आठवीं की पढ़ाई इतनी मु्श्किल हो गयी है ?
आगे क्या करेगी ?
सबके बच्चे कुछ न कुछ कर लेते हैं, ये भी कर लेगी।
कैसे? सब इतना आसान है ?
इतना मत सोचा करो!
लड़की का पिता होकर मैं नहीं सोचूँगा तो कौन सोचेगा ? आगे कितना मुश्किल समय आने वाला है। अपने पैरों पर खड़े होने के लिए इसे कुछ तो करना पड़ेगा। हम हैं मगर हमेशा थोड़े रहेंगे। पता नहीं वे कौन माँ-बाप होते हैं जिनके बच्चे बोर्ड में टॉप करते हैं। आईआईटी-मेडिसन करते हैं। अखबारों में जिनके सचित्र गुणगान होते हैं। यहां तो पास होने के लाले पड़ते हैं ।
पास तो खैर हो जाती है।
हो जाती है, होम ट्यूशन्स के सहारे।
हमारे घरवालों को सरकारी स्कूल की फीस भारी लगती थी, यहाँ पब्लिक स्कूल में पढ़ते हुए होम ट्यूशन्स के बिना गुजारा नहीं।
तुम उसके मामले को अपनी तरह से क्यों देखते हो ? व्हाई शुड योर अपब्रिंगिंग कास्ट शैडो ऑन हर लाइफ ?
मुझे निःशंक झिड़क दिया जाता है।
मैं स्वयं उस तरफ जाना नहीं चाहता मगर जिस तरह चीजें बिगड़ रही हैं, रहा भी नहीं जाता। ठीक है कि उसे सुख-सुविधाएं नसीब हैं मगर बिगड़े तो नहीं। उस दिन कैमिस्ट्री की मिस रोडरिक्स ने बुलवा लिया। एक जमाना था जब यह उनकी फेवरेट हुआ करती थी। उस दिन तो काट खाने को आ रही थी।
‘‘होम वर्क तो दूर, जर्नल तक पूरा नहीं करती है। क्लास में समीकरण-संतुलन खत्म हो गया है और यह आयरन का सिंबल ‘आई’ बना देती है। फिर आयोडिन कहाँ जाएगी?’’
मुझे समझाते हुए ही मीरा समझदार और संयमी लगती है। जब खुद भुगतती है तो या तो उस पर हाथ उठा देती है या कुछ देर चीख-पुकार मचाकर मेरी नाकामी और तटस्थता को फसाद की जड़ करार देते हुए मुँह फुला लेती है। मैं तो रविवार के दिन बमुश्किल उसका कुछ देख पाता हूँ, रोजमर्रा में तो उसका काम मीरा ही संभालती है।
मगर मीरा भी कहाँ तक संभाले!
स्कूल तैयार होते समय रोज जू्ते और ज़ुर्राबों की खोज मचती है क्योंकि गए रोज स्कूल से लौटकर बिना फीते खोले जूतों को जो उतारा तो एक कहीं फेंका, दूसरा पता नहीं कहां। पानी की बोतल हर हफ्ते के हिसाब से छूटती है। डब्बावाला लगा रखा है कि बच्चे को ताजा़ खाना मिल जाए मगर उसकी भी कोई कदर नहीं। किताबों को तो कबाड़े की तरह रखती है। अपन सेकेन्ड-हैंड किताबों को भी अगले साल वालों को बढ़ा देते थे, ये नवम्बर-दिसम्बर तक नयी किताबों के चिथड़े उड़ा देती है जबकि उनके कवर बाजार से चढ़वाए जाते हैं। ये कौन सा ग्लोबलाइजेशन है कि हर निजी और मामूली चीज को आउटसोर्स कर दो - पहले बदलाव मगर बाद में एक मजबूरी के तहत !
वह सब भी ठीक है मगर बच्चा पढ़ तो ले! ये मैडम तो स्कूल से लौटकर घर में घुसी नहीं कि सीधे फेसबुक पर ऐसे टूटती है जैसे देर से पेशाब का दबाव लगा हो और घंटों उसी पर लगी रहेगी। तब न खाने-पीने की सुध रहती है और न सर्दी-गर्मी लगती है। लोगों के बच्चे होते हैं जो स्कूल से आते ही सब काम छोड़कर होमवर्क में जुट जाते हैं, टीवी तक नहीं देखते और एक हमारी है ...। जब खराब नम्बरों से ही डर नहीं तो होमवर्क की क्या बिसात! मैं तो बस सुनता रहता हूं कि इसके एक हजार से ज्यादा फेसबुक फ्रैंड्स हैं। एक दिन बिना लॉग आउट किए कंप्यूटर बन्द कर दिया होगा। मीरा ने जब उसे चालू किया तो पुराना एकाउंट रीस्टोर हो गया। क्या-क्या तो अजीबोगरीब फोटो डाल रखे हैं। टैक्नोलॉजी ने तीतर के हाथ बटेर पकड़ा दी है। पता नहीं कितने और कहाँ-कहाँ के तो लड़के दोस्त बना रखे हैं। इस उम्र के लड़के भेड़िए होते हैं इसलिए लड़कियों को ही संभल कर चलना होगा। मगर यह तो रत्ती भर नहीं सुनती है। मैं उसके पास जाकर बैठूँ भी तो खट से कंप्यूटर को मिनीमाइज कर देगी या एस्केप बटन दबा देगी। न बेस्ट का मतलब पता है, न फ्रैंड का मगर बेस्ट फ्रेंड दर्जन भर हैं। मैं कुछ समझाने-चेताने लग जाऊँ तो अपनी जरा सी ‘हो गया’ से मुझे झाड़ देगी। मुझे बहला-फुसलाकर एक ब्लैकबैरी हथिया लिया क्योंकि सभी फ्रैंड्स के पास वही है। मैंने सोचा इसके मन की मुराद पूरी हो जाएगी। अकेला बच्चा है, क्यों किसी चीज़ की कमी महसूस करे? आए दिन मोबाइलों के आकर्षक विज्ञापनों की कटिंग अपनी माँ को दिखाती थी। अक्सर मेरे मोबाइल को लेकर ही उलट-पुलट करती रहती थी, कुछ नहीं तो उस पर ‘ब्रिक्स’ या मेरे अजाने क्या-क्या गेम्स खेलती रहती। मगर आज तक हाथ मल रहा हूं। उसके मोबाइल पर हर दम तो अब पासवर्ड का ताला जड़ा होता है। इसी से पता चलता है कि जरूर कुछ भद्दी हरकतों में शामिल होगी। सब कुछ पाक-साफ होता तो पासवर्ड की या उसके लिए इतना पजैसिव होनी की जरूरत क्यों पड़ती?
उस दिन मैं ड्राइंगरूम में अकेला बैठा आइपीएल का मैच देख रहा था कि मीरा मेरे पास आयी और चुप रहने का इशारा करके हौले से बैडरूम में ले गयी। समीरा सो चुकी थी। आज गलती से उसका मोबाइल डाइनिंग टेबल पर छूट गया था। सोते वक्त भी अमूमन वह उसे अपने तकिए के नीचे रखती है। साइलेन्ट मोड में। मुझे या मीरा को अधिकार नहीं है कि मोबाइल जैसी उसकी पर्सनल चीजों के बारे में ताक-झांक या नुक्ताचीं करें। आखिर इससे हमको क्या वास्ता कि वह कब किससे क्या बात करती है? बीबीएम यानी ब्लैकबैरी मैसेन्जर सर्विस चालू करवा लिया है। जितने मर्जी मैसेज, फोटो या वीडियो भेजो। उस दिन के आए-गए सारे संदेश पढ़ने में आ गए। यकीन नहीं हुआ कि अपना बच्चा ऐसी भाषा लिखता है। एक लफ्ज़ की स्पैलिंग ठीक नहीं थी। वासप, लोल, बीटीडब्लू, ओएमजी, टीटीवाइएल और जेके की भरमार थी। मीरा ने बताया कि ये सब क्रमश: व्हाट्स अप, लाफ आउट लाउड, बाइ द वे, ओ माई गॉड, टॉक टू यू लेटर और जस्ट किडिंग के लघु रूप हैं। खैर यह सब तो चलो इस जैनरेशन की व्याकरण है मगर इसके अलावा जो लिखत-पढ़त थी उसे देखकर किसी को घटिया हिन्दी फिल्म के संवाद याद आ जाएं। पहले फरजा़न नाम का कोई लड़का रहा होगा जिसके साथ इसका नाम जुड़ा था। थोड़े दिन पहले उसे चलता कर दिया है। आजकल दो और पकड़ लिए हैं; साहिल और साराँश। फेसबुक की अपनी प्रोफाइल पिक्चर के बारे में उनसे जबरन टिप्पणियाँ मांगती हुई। आधी बातों के सूत्र तो चित्र-संकेतों (स्माइलीज़) में धंसे होते हैं तो वैसे ही कुछ पल्ले नहीं पड़ता। विषय के तौर पर हिन्दी--आवर मदर टंग, यू नो -- बहुत बोरियत भरी फालतू और मुश्किल लगती हो लेकिन संदेशों की अदला-बदली के बीचों-बीच उसकी चुनिंदा देसी गालियों का प्रयोग सारे करते हैं। जैसे यह कोई फैशन या जमानेसाज़ होने की बात हो।
एक बार की बात है जब नवी-मुम्बई के रास्ते शायद मानर्खुद में किसी जगह सुअरों को ढूंढ़-ढूंढ़कर कुछ खाते देखा था। बस शुरू हो गयी।
‘‘पापा, पिग्स क्या खाते हैं ?’’
‘‘पॉटी’’ मैंने एक नजर फिराकर स्टियरिंग पकड़े ही कहा।
‘‘छी! क्यों?’’ एसी गाड़ी में बैठे हुए ही उसने उल्टी करने की मुद्रा बनायी।
‘‘वो उनका खाना होती है ... उसमें उनको बदबू नहीं आती है’’
‘‘उस पॉटी को खाकर जो पॉटी करते हैं उसे भी खा जाते हैं’’
इस पुत्री-पिता संवाद की एकमात्र गवाह श्रीमती मीरा जोशी ने ऐन इस बिन्दु पर अपनी सख्त़ आपत्ती दर्ज़ करते हुए ‘स्टॉप इट’ कहा तो कुछ पलों के लिए उसका सवाल एक नाजा़यज सन्नाटे में टंगा रहा।
‘‘नहीं’’मैंने हौले से ‘ऑब्जैक्शन ओवररूल्ड’ की मुद्रा में जवाब दिया।सूचनाधिकार के युग में मैडम आप सवालों से बच नहीं सकते।
‘‘क्यों पापा ?’’
‘‘अरे, अपनी पॉटी कोई नहीं खाता। गूगल पर सर्च करके देखना - एनिमल्स हू ईट देअर ओन शिट- शायद होते भी हों ...’’ मैंने बात बिगड़ने से पहले बात को रफा-दफा किया।
कोई यकीन करेगा कि दो साल पहले तक ऐसी मासूम शरारती लड़की के भीतर अचानक क्या कचरा घुस गया है कि कुछ समझ में नहीं आ रहा है। कुछ बताती भी तो नहीं है ... जैसे हम इस लायक ही न हों। माँ-बाप अभी न रोकें तो पूरा बिगड़ने में कितनी देर लगती है? पता नहीं और बिगड़ने को क्या रह गया है। मोबाइल के म्यूजिक में फ्लोरिडा, ब्रूनो मार्स, एमेनिम, रिहाना, एनरिके, जस्टिन बीवर, एकॉन और पता नहीं किन-किन फिरंगी रैंक-चन्दों को भर रखा है। जब देखो तब ईयर-प्लग चढ़ाए रहती है। बेबी, टुनाइट आयम लविंग यू, लिप्स लाइक शुगर, डीजे गॉट अस फालिंग इन लव अगेन, इफ यू आर सेक्सी एण्ड यू नो क्लैप योर हैंड्स को सुनने का मतलब क्या है। ज़रा कुछ बोलो तो कहती है इससे एकाग्रता बढ़ती है। एक दिन मैंने घेर-घार के पूछ लिया तो कहती है इनका कोई मतलब नहीं है। ये तो म्यूजिक है। कोई भला आदमी बताए तो मुझे कि इसमें काहे का म्यूजिक है? सारे गानों में वही एक-सा हो-हल्ला। कोई अल्फ़ाज नहीं जो दिल पर ठहरे। कोई सुर नहीं, सब शोर ही शोर।
और देखो, फिर भी किस धड़ल्ले से कह देती है कि जब मुझे कुछ अता-पता ही नहीं है तो फिर मैं ऐसी इर्रिटेटिंग बातें क्यों करता हूं ?
सुबह की सैर पर रोज मिलने वाले एक परिचित बता रहे थे कि गए शुक्रवार की दोपहर को यह ‘ब्लू हैवन’ के लाउंज में किसी हम उम्र लड़के के साथ एक कोने में चाइनीज़ खा रही थी। मैंने घर पर पूछा तो मीरा ने बताया कि स्कूल से आने के बाद यह ‘क्रॉसवर्ड’ बुक स्टोर पर कुछ सहेलियों से मिलने की कहकर गयी थी। उसने वहाँ ड्रॉप भी किया था अब कहाँ ‘क्रॉसवर्ड’ और कहाँ ‘ब्लू हैवन’? जब घर से जाती है तो कतई नहीं चाहती कि हममें से कोई उसे फोन करे। करो तो अक्सर उठाएगी नहीं। बाद में मोबाइल के साइलेन्ट मोड या टैक्सी की खड़-खड़ का बहाना कर देगी।
अपनी तरफ से प्यार-पुचकार के खूब आजमाइश कर चुका हूं मगर नतीजा ? वही ढाक के तीन पात। उस रोज़ बेचैनी के कारण नींद खुल गयी। बिना रोशनी किए समीरा के कमरे की तरफ गया तो देखता हूं मैडम बीबीएम करने पर लगी हैं। रात के ढाई बजे! आग लग गई मेरे। रहा नहीं गया। बस हाथ उठने से रह गया। समझ में आ गया कि हम लोग के लाड़-प्यार का ही नतीजा है यह सब। पता नहीं रात में कब तक यह सब करती है तभी तो रोज़ सुबह उठने में आना-कानी करती है। बस, मैंने मोबाइल ले लिया। मगर इसकी हिमाकत तो देखो! कहती है मैं उसका मोबाइल नहीं देख सकता! क्यों ? टैल मी! व्हाट इज देअर इन दैट व्हिच आई- हर फादर- कैन नॉट सी ? मीरा बीच में आ गई सो उसे अपना कोड-लॉक डालने दिया। किस दबंगी से तो मुंह लग लेती है जबकि सेब काटने की अकल नहीं है। उस दिन काटा तो कलाई में चाकू घुसेड़ दिया।
मुझे एक डर यह भी लगता कि जिन लड़कों के साथ यह बीबीएम पर रहती है, उनसे कहीं स्कूल के बहाने मिलती-जुलती तो नहीं है ? इस उम्र का आकर्षण दिमाग खराब किए रहता है। मैंने कई दफा, स्कूल यूनिफॉर्म में, इसकी उम्र की लड़कियों को मरीन ड्राइव की पट्टी और आइनॉक्स के मॉर्निंग शोज़ से छूटते देखा है। कुछ समाजशास्त्री किस्म के लोग तो इन्हें ‘टीनेज कपल’ तक कहते हैं। इनके माँ-बाप यकीन करेंगे कि उनके पिद्दी से होनहार क्या गुल खिला रहे हैं ?सीक्रेट विडीओ कैमरे से रिकॉर्डिंग करके आए दिन एमएमएस सरक्युलेट होते रहते हैं। एक्सप्रैस में ही पिछले दिनों रिपोर्ट थी कि नवयुग पब्लिक स्कूल की वह लड़की जिसने नौवीं क्लास में लुढ़क जाने के बाद खुदकुशी कर ली थी, पोस्टमार्टम के बाद पता चला कि गर्भ से थी। वह भी तो अपने मां-बाप का इकलौती बच्ची थी। उसके मां-बाप ने भी हमारी तरह पैदाइश-परवरिश के चक्कर में डॉक्टरों की दौड़-धूप की होगी, बढिया से स्कूल में दाखिला दिलाने के लिए खूब ऊपर-नीचे हुए होंगे, स्कूल के ओपन डेज़ पर सब काम छोड़कर टाइगर मदर्स के बीच बारी आने पर क्लास टीचर के सामने किसी प्रविक्षार्थी की तरह डरे-सहमे पेश होते रहे होंगे, बुखार न उतरने या अज्ञात कारणों से पेचिस हो जाने पर दवाइयों के अलावा नजर उतारकर तसल्ली की सांस भरी होगी, मध्य रात्रि में उसके कमरे में हौले से रोशनी करके मच्छरों को चैक किया होगा...।
या फिर, इस दबड़ेनुमा फ्लैट में वे कभी सोच सकते थे कि वे कोई कुत्ता ( कास्पर को कुत्ता कहने में उन्हें समीरा के नाम का झटका लगा) भी पालना मंजूर होगा? जब कास्पर नहीं था, यानी तीन बरस पहले, तब हर गन्दे-शन्दे पिल्ले को खेलने के लिए उठा लाती। एक बादामी रंग की बिल्ली का छौना था जिसे उसकी मां ने छोड़ दिया था या छूट गया था। उसे हमारे घर में शरण मिली। मगर तीन रोज़ में ही जब उसने सोफे के ऊपर, टेबल के नीचे और फ्रिज के पिछवाड़े को तरोताजा होने का ज़रिया बनाया तो मैंने भी हाथ खड़े कर दिए। दो दिन तक तो वह छौना दिखता रहा --- कभी कार पार्किंग के पास तो कभी जैनसैट के पास । मगर तीसरे दिन वह नदारद था। किसी अभियान की तरह मुझे साथ लेकर उसकी ढुंढ़वायी मची।
‘‘छोड़ बेटा, लगता है उसे किसी जानवर ने मार खाया है’’कोशिश नाकाम रहने पर मैंने उसे समझाया।
‘‘पापा,क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह एक रात में वह पूरी बिल्ली बन गया हो? मैंने उसी कलर की बिल्ली बाजू वाली बिल्डिंग में देखी है’’
उसे किसी भी सूरत छौने का न होना या किसी जानवर द्वारा मार डालने का गल्प मंजूर नहीं था।
वो तो इतना छोटा था, उसे कोई क्यों मारेगा भला!
‘‘हां, यह तो हो सकता है। कई बार ऐसा हो जाता है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। अब घर चलें’’ मुझे भरसक उसके साथ होना पड़ा।
इसी कोमल दीवानगी को देखकर ही तो कास्पर को लाना पड़ा। नामकरण के लिए भी कुछ मशक्कत नहीं करनी पड़ी क्योंकि महीने भर के जीव को पहली बार गोदी में दुलारते हुए उसके मुंह से निकला था - पापा, काश इसके ‘पर’ होते, ये उड़ सकता! और नाम हो गया कास्पर !
गूगल के परोसे सारे फिरंग नाम धरे रह गए।
मगर क्या हुआ ?
सिर्फ पागलों की तरह खेलने-पुचकारने के लिए है कास्पर। एक भी दिन उसे रिलीव कराने नहीं ले जाती है। अखबार में अक्सर पढ़ता हूं कि पैट्स बहुत बढ़िया स्ट्रैस बस्टर होते हैं। ख़ाक होते हैं। मेरा तो स्ट्रैस बढ़ता ही जा रहा है। 

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शाम को घर लौटा तो मीरा का मुंह कुछ ज्यादा ही उतरा हुआ था। थोड़े बहुत मूड स्विंग्स तो उसे होते ही रहते हैं तो पहले तो मैं चुप लगा गया। एक चुप्पी लाख सुख की तर्ज़ पर। औरतें किस बात पर कैसे रिएक्ट कर जाएं कोई बता सकता है? मगर कुछ देर बाद उसने खुद ही आढ़े-टेढ़़े रास्ते पकड़ने शुरू कर दिए।
‘‘आज इसके स्कूल गयी थी’’ उसने यूँ कहा जैसे उस हवा के साथ अदावत हो जो मैं ढीठता से ले रहा था।
हवा में सन्नाटा था मगर यह सन्नाटा उस निस्तब्धता से हटकर था जो पति-पत्नी के खालिस अहमों की नीच टकराहट से किसी फांस की तरह रह-रहकर चुभता है। समीरा का अजीबो गरीब ढंग से फिसलता रवैया अब हम दोनों का, शुक्र है, साझा उद्यम-सा बन गया है।
अपने दफ्तर के काम की थकान की ओट में रहकर मैंने उसकी बात पर कुछ नहीं कहा तो उसने जोड़ा
‘‘गई नहीं, इसकी टीचर ने बुलाया था’’
उसके कहे के आगे पीछे एक बोझिल निर्वात तना खड़ा था।
‘‘क्या हुआ ? कोई खास बात ?”
किसी डराती आशंका से मुठभेड़ की तैयारी में मेरा लरजता आत्मविश्वास जाग्रत सा होने लगा।
‘‘इट्स गैटिंग डेन्जरस’’ उसकी भंगिमा पूर्ववत पथरीली थी।
‘‘व्हाट ? व्हाट हैपन्ड! क्या हुआ ?’’
‘‘इसने स्कूल में खुद को मारने की कोशिश की ...’’
‘‘अच्छा, कैसे?’’बढ़ती बदहवासी तले मेरा तेवर तटस्थ होने लगा।
‘‘पैन की नोंक चुभाकर ...’’
मेरे चेहरे से जब जिज्ञासा सूखकर बदरंग हो गयी तो उसने अलापना शुरू कर दिया ... इतनी तो अच्छी टीचर है वह इसकी ... कैमिस्ट्री की मिस उमा पॉल बर्नीस। यूपीबी। कुछ दिन पहले तक वह इसकी फेवरेट थी। अब इसकी दुश्मन हो गयी है। और होगी क्यों नहीं? दो-चार बिगड़ैल लड़कियों के साथ पीछे की सीटों पर बैठकर ये गन्दी-गन्दी पर्चियाँ पास करते थे। आज टीचर ने पकड़ लिया। सबसे ज्यादा इसकी लिखावट में मिलीं ! मैंने खुद अपनी आंखों से देखी हैं। टीचर का नाम ‘अगली पगली बिच’ कर रखा था। बतौज सजा़ इसे क्लास के बाहर पाँच मिनट खड़ा कर दिया। दो और लड़कियाँ थीं । कौन बर्दाश्त करता ? इसमें इसे बड़ी हेठी लगी। बस, अन्दर आने के बाद अपनी हथेली पंक्चर कर ली। डेस्क पर खून की धार गिरी तो हल्ला मचा। मिस बर्नीस घबरा गई और मुझे फोन करके बुलवाया। मैंने टीचर से माफी मांगी और रियायत मांगकर इसे घर ले आयी। घबरायी हुई थी या क्या मगर इसका शरीर तप रहा था सो मैंने एक क्रोशिन देकर सुला दिया। तब से ही सोई पड़ी है। तुम मत कुछ कहना।
अवसन्न सा होकर मैं मीरा को देखता हूं। उसके होंठ खुश्क हुए जा रहे थे। पिछले दिनों लगातार तनावग्रस्त रहने से उसके भीतर का सब कुछ निचुड़ सा गया है। कब से वह खुलकर नहीं हंसी होगी। कभी ये तो कभी वो, कोई न कोई पचड़ा लगा रहता है। इस हालत में वह बोतल से जल्दी जल्दी पानी के घूंट ऐसे निगलती है कि लगता है बोतल डरावनी हिचकियाँ ले रही है। एक बोझिल अवसाद किसी घुलनशील द्रव्य की तरह उसकी शिराओं में उतर गया लगता है। हम दोनों के बीच इन दिनों एक मृतप्राय निष्क्रियता घर किए बैठी रहती है।
मुझे पता है कि इस समय उसका मनोबल बढ़ाते हुए मैंने उसे सहला सा दिया तो वह ढहने लग पड़ेगी।
इसलिए ऊपरी तौर पर ही उकसाता हूं।
‘‘इन टीचर्स को तो बात का बतंगड़ करने में मज़ा आता है। मां-बाप की परेड निकालने में चुस्की लगती है। इसकी उम्र के सारे बच्चे शरारती होते हैं और जो नहीं होते है तो उन्हें डॉक्टर को दिखाना चाहिए। रैदर दैन बीइंग ए स्पोर्ट दे आर देअर ऑनली टू किल द फ्लैम-बॉएंस ऑफ चिल्ड्रन। और ये सब उस स्कूल का हाल है व्हिच इज़ सपोज्ड टू बी अमंग द बेस्ट इन मुम्बई। पिटी।
बाइ द वे, आज डिनर में क्या है ?’’
गृहस्थी का मेरा यह पंद्रह साल का अनुभव है कि खाने-पीने के स्तर पर उतरते ही बहुत सारे छुटपुट मसले अपने आप हवा हो जाते हैं।
मगर मेरे इस प्रोप-अप से वह किंचित और जड़वत हो जाती है और पास में रखी समीरा की नोटबुक का आखिरी पन्ना खोलकर मेरी तरफ बढ़ा देती है।
व्हाट !
सुसाइड नोट !!
एक सदमा किसी संगीन सा मुझमें खूब गया है।
आधा भरा हुआ पेज। उपनाम सहित ऊपर एक तरफ लिखा हुआ पूरा नाम। दूसरे कोने में साल सहित लिखी जन्मतिथि। उसके समांतर ठीक नीचे डेट ऑफ डैथ, जिसके सामने हाइफन लगाकर सिर्फ वर्ष लिखा है - वही जो चल रहा है। बस, ‘फैसले’ के दिन की तारीख भरी जानी है। दो-तीन जगह शब्दों की मामूली काटपीट वर्ना सब कुछ एक उम्दा कम्पोजीशन की तरह सोच समझकर लिखा गया पर्चाः
मैं जीना चाहती थी। मैंने कोशिश भी करी मगर मैं हार गई। क्या फायदा ऐसे जीकर जिसमें आप अपनी मर्जी से जी नहीं सकते। मेरे पापा को तो कभी मुझसे जादा मतलब रहा नहीं। मम्मी भी वैसी हो गई है। सेल्फ ऑबसैस्ड। दोनों को मेरी किसी खुसी से मतलब नहीं। मोबाइल तक छीन लिया। मैं दोस्तों के यहाँ स्लीप-ओवर के लिए नहीं जा सकती हूं। उन सबको कितनी फ्रीडम है। मुझे तो बस पढ़ाई-पढ़ाई करनी होती है। पढ़ाई से मुझे चिढ़ है। मगर किसी को उसकी परवा नहीं। मैं जानती हूं कि ये सब जान लेने की पूरी वजह नहीं है मगर मेरे पास जीने की भी तो वजह नहीं है। अनामिका, यू आर माई BFF आई विल मिस कास्पर।
पढ़ते पढ़ते मेरे भीतर हाहाकार मचता एक दृश्य उभर रहा है ... पहले उसके कमरे के दरवाजे पर समीरा समीरा नाम की घनघोर तड़ातड़ थापें, फिर पूरी वहशत के साथ दरवाजे को धक्के से तोड़ना, बिस्तर के पास औंधी पड़ी कुर्सी, कमरे के बीचों बीच सीलिंग फैन से स्थिर लटका उसका कोमल बेजान शरीर, बेकाबू होकर सिर पटकती दहाड़ मारती मीरा, मिलने वालों का जमघट, ... पुलिस… पोस्टमार्टम ...
‘‘ड्राफ्टिंग तो अच्छी है ... कितनी कम गलती हैं’’
एक चुहुल के साथ जैसे मैं उस भयानक दुःस्वप्न से उबरने की चेष्टा करता हूं। सहारे के लिए मीरा की तरफ फीकी मुस्कान छोड़ता हूं मगर सब बेअसर।
उसकी आँखों में एक गहरा निष्ठुर अजनबीपन तिर आया है। जीवन के हासिल को जैसे कोई बेधमके चट कर गया हो। किसी पहाड़ी ढलान से उतरती गाड़ी के जैसे ब्रेक फेल हो गए हों और सामने एक डरावने, चिंघाड़ते अंधेरे के सिवा कुछ बचा ही न हो ...क्या कोई जीवन इतनी बेवजह,कोई चेतावनी या मौका दिये बगैर इतनी आसानी से नष्ट किया जा सकता है? और क्यों ...?
‘‘सारी टीचर्स और क्लास को इसने डिक्लेयर कर रखा है इसके बारे में ... ’’
वह अपनी मुदर्नी के भीतर से किसी कड़वे गिले की उल्टी करने को हो आई है।
मेरी बोलती बन्द है।
‘‘जिस रोज़ तुमने इसका मोबाइल लिया था उस रात भी इसने किचिन में कलाई काटने की कोशिश की थी जिसे सेब काटते वक्त लगे कट का नाम दे दिया ...’’
उसका अवसाद किसी आवेग मिश्रित उबाल की शक्ल लेने को है।
‘‘आई डोंट बिलीव दिस ... ऐसा कैसे हो सकता है ...’’
पहली दफा मैं मामले की संगीनियत महसूस कर रहा हूं ... सामने कोंचते मनहूस घिनौने तथ्यों के कारण भी और अपने यकीन के बेसहारा और तिलमिलाकर अपदस्थ होने के कारण भी।
‘‘हाथ कंगन को आरसी क्या’’ अधूरा मुहावरा कहकर वह मुझे सोती पड़ी समीरा के पास ले जाती है और हथेली को हौले से खोलकर वह बिन्दु दिखाती है जो एक बुजदिल कोशिश का सरासर प्रमाण है।
यानी उस नामालूम रोज़ - और आज नीमरोज़ - यह हुआ नहीं मगर बा-खूब हो सकता था कि आप अपने जीवन की चकरघिन्नी में शामिल होने के लिए आदतन अल्साए उठते और ‘ब्लैड टू डैथ’ जैसे डॉक्टरी निष्कर्ष तले जिन्दगी भर के लिए हाथ मलते रह जाते।
गॉश!
‘‘मैं पता करके एक काउंसलर से आज मिल भी आई। उसके मुताबिक मामला सीरियस है। हम कोई और चांस नहीं ले सकते हैं ...’’
यानी जो चीज पहले टल गयी, आज टल गई, वह हो सकता है कल न टल पाए!
मैं एक आवेग से भर उठता हूं।
‘‘कोई मुझे बताए तो सही कि हम क्या जुल्म करते हैं इस पर ! स्कूल के दिनों को छोड़ मैडम अपनी मर्जी से दोपहर तक उठती हैं। रात को सोने से पहले ब्रश करना आज तक गवारा नहीं हुआ है। नतीजा, हर महीने दाँतों में कोई न कोई कैविटी लगानी-बदलवानी पड़ती है। उठते ही नैट और फेसबुक। मोबाइल तक में फेसबुक एलर्ट्स हैं। पहले बास्केटबॉल या साइकिलिंग तो कर लेती थी लेकिन अब वह भी नहीं। गेम्स के नाम पर नैट या फिर रोडीज़। हर किताब और खाना बोरिंग लगता है। टॉयलेट जाने का कोई नियम-क्रम आज तक नहीं बना। मैं तो कहता हूं वह सब भी ठीक है। कर लो। मगर यह क्या कि स्कूल के जर्नल तक को पूरा करने की फुर्सत नहीं है आपको। फिसड्डी होते चलने जाने का अफसोस तो दूर, अहसास तक नहीं है। एक हमारा टाइम था जब हमारे बाप को ये तक पता नहीं होता था कि पढ़ कौन सी क्लास में रहे हैं ... सबजैक्ट्स क्या ले रखे हैं ...’’
‘‘सत्या, प्लीज। डोंट गैट इनटू दैट। तुम अपने टाइम से औरों को जज (मतलब हाँकने से है) नहीं कर सकते...’’
वह अपनी पस्त मानसिकता में रहते हुए भी एक परिचित गर्म नश्तर मेरे पनपते गुस्से पर रख देती है। वैसे सही बात तो यह है कि समीरा को लेकर जितनी दौड़-भाग, मेहनत-मशक्कत वह करती है, मैं नहीं। परिवार बड़ा था इसलिए बंटवारे में जो हिस्सा मिला उससे अपनी स्वतंत्र जिन्दगी नहीं चल सकती थी इसलिए अपना काम शुरू किया। काम एकदम नया। अनिलिस्टिड कंपनियों के शेयर बेचने का ... वे जो दसियों बरस से धन्धा तो कर रही हैं मगर जिनकी बेलैंस शीट को देखकर बैंकों और आम निवेशकों के मुंह में पानी नहीं आता है ... जो अपने ईवेंट मैनेजेर अफोर्ड नहीं कर सकती हैं ... कोई उड़ीसा में बॉक्साइट का उत्खनन करती है तो कोई उत्तरांचल में छोटे स्तर पर पन बिजली बना रही है। ज्यादातर कैश स्टार्व्ड इकाइयाँ। बड़ा काम नहीं है मगर आज बाँद्रा में सिर ढंकने को अपनी छत है। रात का खाना रोज़ घर पर होता है। किसके लिए किया यह सब? स्टेट बैंक की चाकरी में या तो मेनेजरी में फंसा रहता या आए रोज ‘रूरल’ कर रहा होता। मीरा क्या जानती नहीं है यह सब। बैंकों के डेबिट-क्रेडिट में चौदह साल खटाए हैं उसने। तीन साल पहले वी आर एस लिया ... कि समीरा पर पूरा ध्यान देगी। दिया भी खूब। कभी अलां-फलां कम्पाउंड की वेलेंसी निकालने का तरीका समझ-समझा रही है तो कभी फैक्टराइजेशन में जान झोंके पड़ी हैं; कभी ऑस्ट्रेलिया में होने वाली बारिश और मिट्टी के वर्गीकरण की सफाई कर रही है तो कभी सवाना की जलवायु को फींच रही होती है।
‘‘अपने टाइम से जज नहीं करूँ तो क्या इसके टाइम से जज करूँ ? गाँव देहात तक के बच्चे एक से एक इंजीनियरिंग-मैनेजमेंट में जा रहे हैं, बिना किसी खानदानी सहारे के नौजवान लड़की-लड़के एक-एक विचार को तकनीकी में पिरोकर नए-नए उद्यम खड़ा कर दे रहे हैं ... बिना मेहनत के हो रहा है यह सब ... बिल गेट्स और आइंसटीन की नजीरों से सांत्वना लेनी है तो बस यही कि उन्होंने भी अपने स्कूलों में कोई किला फतह नहीं किया ... हद है ...’’
‘‘सत्या लिसिन’’ जरा रूक वह फिर बोली ‘‘अभी यह सब कहने सोचने का वक्त नहीं है। अभी तो हमें बस यह देखना है कि कैसे यह रास्ते पर आ जाए ... आए रोज़ तरह-तरह की खबरें पढ़कर आजकल मेरा तो कलेजा बैठने लगा है’’
मुझे अपनी गलती का अहसास होता है।
कितने कम लफ्जों के सहारे दर्द और परवाह अपने गंतव्य पर जा लगते हैं!
कल-परसों ही तो खबर थी ... भारत में खुदकुशी करने वाले बच्चों-विद्यार्थियों की तादाद पिछले पाँच बरसों में दो गुनी हो गयी है। अकेली मुम्बई में हर वर्ष सौ से ज्यादा स्कूली बच्चे अपनी जान ले लेते हैं। किसी विषय या क्लास में नहीं हुए पास तो जीवन समाप्त! डेढ़ करोड़ की आबादी के महानगर में सौ की संख्या मायने न रखती हो मगर सोचो,सौ से ज्यादा परिवारों पर हर वर्ष क्या बीतती होगी? भोली,खिलखिलाती मासूम तस्वीरों के नीचे अखबार के श्रद्धांजली वाले पन्ने पर, कैसी टीस भरती, हाथ मलती ऋचाएं सिरायी जाती है! कैसे अनवर्त्य(इर्रिवरसिबल) ढंग से कुछ जिन्दगियाँ हमेशा के लिए बदल जाती हैं! आसमान तोड़ आर्तनादों को भी सांख्यकी कितनी अन्यमनस्कता से अनसुना रख छोड़ती है!
क्या हम भी उन्हीं में शामिल होने की कगार पर हैं?
मैं समीरा के पास जाकर हौले से लेट जाता हूं। कुछ बरस पहले उसे लुभाने का मेरे पास एक रामबाण था - उसकी कमर खुजला कर।
‘‘पापा खुजली नहीं हो रही थी ... आप करने लगे तो होने लगी। क्यों ?’’ किसी सुकून से लबरेज़ होकर वह कह उठती ।
‘‘ये पापा का जादू है’’
किसी अपने को सुख देना भी कितना सुख देता है।
‘‘बताओ ना पापा, क्यों ?’’
‘‘अरे तुम ‘टेल मी व्हाई’ में देख लेना .... इट्स पापाज़़ मैजिक ...’’
ऐसी कौतुक जीतें मुझे वास्तविक आह्लाद से भर जातीं।
मगर इन दिनों उसके ऊपर मनुहार का हाथ भी मैं तभी रख पाता हूं जब वह बेसुध सो रही हो वर्ना नीमहोशी में भी वह ‘‘पापा डोंट इर्रिटेट मी’’ की चीख से मुझे दफा़ कर देती है।
आज भी कर दिया।
मगर उसकी दुत्कार को जज्ब़ करने के मेरे नजरिए में फर्क़ था।
थोड़ी देर बाद वह उठती है और बिना कुछ बोले बाहर सोफे पर जाकर लेट जाती है।
मैं मीरा से उसकी पसन्द के सारे वाहियात खाने-नूडल्स-बर्गर वगैरा बनाने की ताकी़द करता हूं।
मीरा ने पहले ही पास्ता बना रखा है। 

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हम दोनों मनोचिकित्सक डॉक्टर अशोक बैंकर के केबिन के बाहर इन्तजार में बैठे हैं। समीरा केबिन के अन्दर है। हम तीनों को साथ अन्दर देखकर शायद वे भाँप गए थे कि मामला क्या है।क्या सचमुच?
‘‘समीरा ... आह, योर नेम इज सो लवली ... लाइक यू ... किसने रखा ?“ मुस्कान छिड़कते हुए वे चहके।
‘‘मम्मा ने’’ समीरा सकुचाते हुए फुसफुसाती है।
‘‘सिर्फ मम्मा ने ... पापा ने नहीं’’ जोश के साथ वे हाजिर जवाबी दिखाते हैं। अस्पताल में घुसने और एपॉइंटमेंट के बावजूद इन्तजार करने से आ चिपकी ऊबासी को उन्होंने मिलते ही झाड़-पोंछ़ दिया ... जैसे किसी छतनार वृक्ष के नीचे से गुजरते हुए भी ठंडक महसूस होती है। निमिष भर को मुझे इसकी पैदाइश के बाद का वह वक्त याद आता है जब हमने उन साझे मार्मिक पलों में अपने नामों, ‘सत्य’ और ‘मीरा’, की सहज संधि से इसका नाम ‘समीरा’ सृजित कर लिया था।
‘‘दूसरे का अब क्या नाम रखेंगे ?’’
मैंने मीरा की तरफ कौतुक प्रस्ताव रखा।
‘‘ना बाबा, ना। एक बच्चा बहुत है।’’
शायद सिजेरियन के टांके अभी हरे थे।
लेकिन समीरा के तीन बरस का होते-होते हमने तय कर लिया था कि दूसरा बच्चा नहीं करेंगे। जो है उसी को अपना सब कुछ देंगे।
उस फैसले पर कभी पुनर्विचार नहीं किया।
हां, कभी इन दिनों ये जरूर लगता है कि एक बच्चा ही दूसरे बच्चे की कंपनी होता है। एक भली चंगी बच्ची अचानक घुन्ना हो जाए, पढ़ाई-लिखाई पर तवज्जो़ देने की बजाय इन तथाकथित सोशल नैटवर्किंग साइट्स की गिरफ्त में पड़ जाए और माँ-बाप कुछ कहें तो सीधे खुदकुशी का रास्ता पकड़े तो इससे ज्यादा कम्युनिकेशन गैप और क्या होगा?
खैर, अब जो भी है, जैसा भी है, संभालना है।
एक अच्छे और नामी डॉक्टर की साख में खुशमिज़ाजी कम बड़ी भूमिका नहीं अदा करती होगी।
‘‘ओके। तो समीरा, मुझे वे तीन कारण बताओ ताकि मैं तुम्हारे मम्मी-पापा को शूट कर सकूं?’’ नाटकीय गम्भीरता से वे उससे पूछते हैं।साथ में तीन उंगलियों से संकेतार्थ पिस्तौल सी चलाते हैं।
समीरा समेत हम सबके चेहरे खिल उठते हैं।
‘‘तीन कारण, एक, दो और तीन। बताओ बताओ’’ पहले समीरा कुछ हंसकर रह गयी थी, जवाब नहीं दिया था इसलिए वे उससे बजिद उगलवाने सा लगे।
‘‘मेरा मोबाइल ले लिया’’
साहस और संजीदगी से वह पहला कारण बताती है।
‘‘ये एक हो गया। जोशीजी यह आपको नहीं करना चाहिए था। मोबाइल तो इन दिनों जरूरी खिलौना है।’’
शायद पेशेगत रणनीति के अन्तर्गत उन्होंने निशाना साधते हुए जोड़ा।
‘‘लिया नहीं डॉक साब, बस रात को अलग रखने को कहा है’’
मैं बड़े ताव से अपनी बात कहता हूं - जैसे कोई फै़मिली कोर्ट लगी हो।
‘‘मगर क्यों?’’ वे जोर देकर कहते हैं, मानो समीरा के पेरोकार हों।
समीरा के चेहरे पर एक मीठी जीत उभर आई है।
‘‘क्योंकि यह देर रात तक बीबीएम पर रहती है’’
‘‘ब्लैकबैरी है इसके पास ?“ वे थोड़ा चौंककर पूछते हैं। उसके विज्ञापन ‘‘इट्स नॉट ए फोन, इट्स व्हाट यू आर’’ का असर दिख रहा है।
‘‘क्या करते? इसकी जिद थी ... कि सारे फ्रैंड्स के पास है।’’
मेरी मजबूरी की अनसुना करते हुए वे फिर समीरा की तरफ हो लिए।
‘‘ये तो बड़ी अच्छी बात है। मैं भी बीबीएम पर हूं। इट्स ए ग्रेट फैसिलिटी। मैं तुम्हें अपना पिन दे दूंगा समीरा। विल यू बीबीएम मी ?’’
मित्र होते जा रहे डॉक्टर की बात का वह हामी में गर्दन हिलाकर जवाब देती है।
‘‘सो, दैट्स वन, समीरा ... टैल मी टू अदर रीजन्स टू शूट दैम...’'
इस पर समीरा की पुतलियाँ संकोच में हमारी तरफ घूमकर लौट जाती हैं।
डॉक्टर बैंकर ने बाका़यदा लक्ष्य किया।
‘‘मैं और समीरा जरा अकेले बतियाएंगे ... इफ यू डोंट माइंड ...’’ उन्होंने इरादतन हमें बाहर जाने का इशारा किया।
‘‘जरूर जरूर’’ कहकर मीरा और मैं बाहर आ गए।
बाहर डॉक्टर बैंकर से मिलने वाले मरीजों की अच्छी खासी कतार है। साइकैट्रिक वार्ड रूप-रस-गंध हर लिहाज से दूसरों से कितना अलग होता है। हमारे बाद नौ-दस लोग और होंगे। शाम के सात बज रहे हैं। चमकती आँखोंवाली जो अधेड़ औरत हमसे पहले अन्दर गयी थी - वही जो साथ आए पुरूष के साथ तगड़ी बहस करने में लगी थी - पूरे पौने घन्टे के बाद बाहर निकली। इस हिसाब से तो डॉक्टर को घर जाने में ग्यारह बजेंगे। इस इलाके में जल्दी नहीं चलेगी। एक चालीस छूती गृहस्थिन है, थोड़ी थुलथल, स्लीब-लैस में, खासी ग्लॉसी लिपिस्टिक पोते। चेहरे की हवाइयाँ सी उड़ी हुई एक आधुनिक सी युवती है - गोरी, पतली, थ्री-फोर्थ चिपकाए, कई जगह से कान छिदाए। एक अपेक्षाकृत निम्न मध्यवर्गीय जोड़ा है। इन्हें भी यहां आना पड़ गया? कतार में बच्चा सिर्फ एक और है, अपने पिता के साथ। होगा कोई चक्कर। पहले साइकैट्रिस्ट के पास जाने का मतलब था पागलपन का इलाज़ कराना। अब तो चीजें बदल रहीं हैं हालाँकि एक बेनाम पोशीदगी अभी भी खूब भटकती फिरती है। उस दिन कोई बता रहा था कि मेडिसन में इन दिनों साइकैट्री और न्यूरोलॉजी टॉप पर चल रही हैं। अमरीका में तो सबसे ज्यादा मांग इन्हीं लोगों की है।
‘‘तुमसे तो यह पहले काफी बातें कर लेती थी, अब नहीं करती है’’ मैं थोड़ा ऊंघते हुए मीरा की तरफ एक बात सी रखता हूं।
वह ‘हूं’ सा कुछ कहती है।
मतलब,किसी गैर-जरूरी से सवाल का क्या जवाब देना !
हो सकता है उस माहौल को देखकर उसके भीतर कोई उधेड़बुन शुरू हो गई हो।
‘‘टीचर्स को हमें पहले बताना चाहिए था। मुझे लगता है पेज-थ्री वाले परिवारों के बच्चों की संगत का असर है। अपने बिगड़ैल माँ-बाप की तरह वे भी बड़े ऐबखोर होते हैं…गंदगी को इतनी नज़दीकी से रोज़ जो देखते हैं…दोस्तों के बीच उनके बच्चे मॉं-बाप को ‘दैट वोमेन-दैट मैन’जैसा कहकर बात करते जरा़ नहीं हिचकते हैं…’’
वह फिर चुप रहती है।
अरे, ऐसा क्या हो गया अभी?
मक्खी मारता सा मैं अपनी नजर सामने टंगे टीवी पर लगाता हूं जिस पर सत्तर के दशक की कोई हिन्दी फिल्म चल रही है ... लाकेट, कार रेस, बेलबॉटम और मल्टी हीरो-हीरोइनें। एक अन्तराल के बाद स्मृति के रास्ते साधारण चीजें भी कैसा चुम्बकीय आकर्षण फेंकने लगती हैं। क्या इसी को साधारणता का रोमांस कहेंगे ... एक ऐसी साधारणता जिसमें ऐसी दुर्निवार जटिलताएं नदारद कि... अपने ज़रा से बच्चे से आप खुलकर बात तक न कर पाएं ... उसे लेकर आप सोचते रहते हैं, रणनीति बनाते हैं, परेशान होते रहते हैं मगर कर कुछ नहीं पा रहे होते हैं।उसकी हर नाकाबिले-बरदाश्त चीज़ को सहनीय मान लेते हैं…किसी अपने के साथ एक लाचार दूरी के निर्वात में फंसना कैसा दमघोंटू होता है!
कुछ देर बाद मुस्कराते हुए समीरा बाहर निकली और हमें अन्दर जाने का इशारा किया। दरवाजा भेड़कर संभलते हुए हम डॉक्टर के सामने बैठे और धड़कती उतावली में वस्तुस्थिति जाननी चाही।
‘‘इट्स प्रैटी बैड !’’उन्होंने खासे रूखेपन के साथ कोई तमाचा सा जड़ दिया।
‘‘पता नहीं डॉकसाब। दो साल पहले तक तो सब ठीक-ठाक था उसके बाद इसके रवैए में बहुत बदलाव आ गया...’’
‘‘अरे मैं कुछ पूछ रहा हूं और आप कुछ और बता रहे हैं’’ उन्होंने टोका।
लगा, जैसे ईशान अवस्थी (तारे जमीन पर) के पिता के बतौर में निकम सर से मुखातिब हो गया हूं।
‘‘ऐसा तो कुछ नहीं हुआ कि इसे वह सब करना पड़े जो यह करने की धमकी देती है’’ मीरा ने शाइस्तगी से बात जोड़ी।
‘‘देखिए मिसेज जोशी, यह तो सोचने -सोचने की बात है। जो बच्चे वैसा करते हैं, उनके माँ-बाप भी अपनी निगाह में वैसा कुछ नहीं करते-कहते कि बच्चे को वह कदम उठाना पड़े जो वह उठा लेता है ...’’
उनकी बात से हामी भरते हुए हम चुप बने रहे।
‘‘कल के अलावा पहले भी यह तीन बार कोशिश कर चुकी है’’
‘‘तीन !’’
हम दोनों विस्मय से काँप उठते हैं। एक संभावित त्रासदी से ज्यादा उसके जीवन से बेदखल और फिजू़ल होते अपने जीवन की त्रासदी से।दिन-रात उसकी खुशी के लिए खा़क होते हम जैसे कुछ नहीं…एक अनजान डॉक्टर ज्यादा भरोसेमंद हो गया। चलो,ये भी ठीक!
‘‘हाँ, तीन बार। लेकिन आप लोग उससे इस बाबत कोई बात नहीं करेंगे - अगर उसका भला चाहते हैं तो।‘’ उनके लहजे में संगीन हिदायत है। ‘तो’ को उन्होंने जोर देकर स्पष्ट किया।
‘‘नहीं करेंगे ... लेकिन डॉकसाब हम क्या करें ? पूरी छूट दे रखी है। शायद थोड़ी कम देते तो यह नौबत न आती। इंग्लिश म्यूजि़क, रोडीज़ और फेसबुक की यह ऐसी एडिक्ट हो गयी है कि पढ़ना-लिखना तो छोडिए़ खाना-पीना तक नैगलैक्ट करती है। एक बात नहीं सुनती’’
‘‘नथिंग अनयुज्अल इन दैट’’ वे किसी परमज्ञानी की तरह मेरा मंतव्य समझकर मुझे रोकते हैं और कहते हैं ‘‘टैक्नोलॉजी ने हमारे समाज में इन दिनों बड़ा तहस-नहस मचाया हुआ है। आप और हम इस संक्रामक बीमारी से बचे हुए हैं तो अपनी नाकाबलियत के कारण। ये लोग जिन्हें हम यंग अडल्ट्स कहते हैं, बहुत सक्षम हैं ... ये टैक्नोलॉजी की हर सम्भावनओं को छूना चाहते हैं ... बिना ये जाने-समझे कि उससे क्या होगा। आपकी बच्ची अलग नहीं है। मेरे पास आने वाले दस टीनेज़ पेशेन्ट्स में से आठ इसी से मिले-जुले होते हैं ... ’’
‘‘क्या करें डॉक्साब ? मिडिल क्लास लोग हैं हम ... लड़की का अपने पैरों पर खड़े होना कितना जरूरी है ...’’ एक तबील अनकही के बीच हाँफता सा मैं जैसे अपनी चिंताओं का अर्क उन्हें सौंपने लगता हूं।
‘‘नॉट टू वरी जोशी जी। ये बिल्कुल ठीक हो जाएगी। शी विल बी ऑलराइट शार्टली’’ हमें उबारते हुए वे अपने लैटर हैड पर फ्लूडैक (फ्लैक्सोटिन) का प्रैशक्रिप्शन लिखते हैं जिसे दोपहर खाने के बाद लेना है। थायोराइड सहित दो-चार टैस्ट कराने होंगे और एक काउंसलर, कोई तनाज़ पार्डीवाला, का मोबाइल नम्बर लिखते हैं। हमारे भीतर उगते शंकालु भावों को भाँपते हुए वे कहते हैं ... द सिरप इज जस्ट ए मूड एलिवेटर ... आजकल इस उम्र के बच्चों में विटामिन डी थ्री की कमी बहुत हो रही है ... टीवी-कंप्यूटर पर लगे रहने से…आई जस्ट वांट टू रूल आउट दैट ... पार्डीवाला बहुत अच्छी साइकोथेरेपिस्ट है। उन्होंने बताया कि वे समीरा के फेसबुक फ्रैंड बनने वाले हैं ... टू पीप इनटू हर रीयल माइंडसैट ... बीबीएम है ही ... ।
हमारा दिल अचानक आश्वस्त होने लगा है, मियां की जूती मियाँ के सिर वाले अन्दाज में। तभी उन्होंने बाहर बैठी समीरा को अन्दर बुलाया और बात का सन्दर्भ और लहजा बदल कर घोषणा सी करते बोले ‘‘एक्चुअली, समीरा बहुत टेलेंटिड लड़की है, और बेहद स्वीट भी “ उन्होंने अपनी बात यूं रखी मानो अभी तक की जा रही हमारी गुफ्तगू का वह लब्बोलुआब हो। मैं उनकी जादुई हौसला अफ़जाई का असर देख रहा हूं।
‘‘शी इज ए जैम डॉक्साब बट…’’ बैंकर की राय के समर्थन में परंतुक खोंपते ही मीरा का गला भर्रा उठा और फौरन से पेश्तर वह फफक भी पड़ी। मैं हक्का-बक्का था मगर समीरा ने लपककर उसे पकड़ लिया और कातर मासूमियत से धीमे से बोली ‘‘मम्मा, क्या हुआ?’’
गनीमत रही कि मीरा ने खुद को बिखरने नहीं दिया। 

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ये जो दुनिया है, वही जिसे हम रोज़ गाली देते हैं, दरअसल उतनी खराब है नहीं जितनी हम कभी सोचने लगते हैं। पता लगा कि पार्डीवाला और डॉक्टर बैंकर दोनों समीरा की फेसबुक पर हैं। आपस में बीबीएम करते रहते हैं। यानी वही सब जिसने एक बीमारी की तरह समीरा को घेर रखा था, उसके ओनों-कोनों में झांकने की पगडंडियाँ बने हुए हैं। किसी आम अविवाहित पारसी की तरह पार्डीवाला थोड़ी खब्ती लगती है लेकिन अपने काम में है बड़ी पेशेवर। पहले मीरा से एक के बाद एक ई-मेल लिखवाए, कुछ बिन्दुओं पर स्पष्टीकरण लिए। पूरी जन्मपत्री चाहिए थी उसे समीरा की ... कब कहाँ कैसे पैदा हुई, नॉर्मल या सिजेरियन, गर्भकाल कैसा था, समीरा की पसन्द-नापसन्द, एनी हिस्ट्री ऑफ डिप्रेशन इन फैमिली,परिवार में किसके साथ अटैच्ड है, दादा-दादी, नाना-नानी, बुआ-मौसी के साथ कितनी घुली-मिली है, एनी नोन एपिसोड ऑफ एब्यूज, दोस्त कौन हैं, उनके परिवार और मां-पिता की मुख्तसर जानकारी, हमारा किन लोगों के साथ उठना-बैठना रहता है, पिता के बिजनैस की स्थिति और उसमें आते उतार-चढ़ाव ...।यानी उसे एक से एक जरूरी-गैर-जरूरी तफसील चाहिए थी। कभी तो लगा कि तफसीलों के अंबार में कुछ इस्तेमाल भी होगा या यह सब उलझाने और टाइम-पास करने के लिए है। कहीं पढ़ा था मैंने कि समस्या के बारे में बोल-बतियाकर उससे आधी निजात तो आप वैसे ही पा लेते हैं।
यहां पता नहीं क्या चल रहा है ?
खैर, कर भी क्या सकते हैं!
पार्डीवाला खूब बहुरूपनी है। समीरा के साथ छह सात सेशन कर चुकी है। क्या होता है उन दोनों के बीच वह न समीरा हमें बताती है और न पार्डीवाला। समीरा उसके पास से लौटकर बड़ी खुशी दिखती है। बीबीएम से ही एपॉइन्टमैंट होता है और समीरा को वहाँ छुड़वा दिया जाता है। होमवर्क के तौर पर समीरा को ई-मेल भेजने होते हैं जिनकी विषय-वस्तु से हमें कोई सरोकार नहीं रखना होता है। यहाँ तक तो ठीक है मगर अब यही बात मीरा और पार्डीवाला के बीच चल रहे संचारण पर भी लागू होने लगी है। डॉ. बैंकर और पार्डीवाला समीरा से जुड़ी बातों को लेकर तब्सरा करते रहते हैं। आख़िर हम सबका मकसद तो वही है। समीरा की हालत में कथित तौर पर सुधार हो रहा है हालाँकि आदत से मजबूर मैं रात को उठकर समीरा के कमरे में झाँक लेता हूं कि ठीक-ठाक सो तो रही है या कुछ ... । वैसे इसके मायने क्या समझे जाएं कि मैं उसके साथ ज्यादा क्या, बिल्कुल भी टोका-टाकी न करूँ!
‘‘बिगड़ने दूं’’ तक का भी जवाब सपाट ‘‘हाँ’’ है।
मामला नाजुक है। सब्र से काम लेना पड़ेगा। 

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उतरती दोपहरी को कुछ अप्रवासी निवेशकों के साथ एक कंपनी की विस्तार योजनाओं पर मशवरा कर रहा था कि डॉक्टर बैंकर के फोन को देखकर चौंक पड़ा।
दो महीने के वकफे में मेरा फोन शायद उन्होंने पहली बार बजाया था।
‘‘सत्यपाल जी, आप शाम को छह बजे आ सकते हैं मेरे पास?’’ इधर-उधर की कोई बात किए बगैर उन्होंने पूछा।
‘‘जरूर डॉकसाब जरूर ... मगर आज छह बजे तो समीरा की डांस क्लास है’’
‘‘आई नो दैट। मगर सिर्फ आपको आना है। मीराजी की भी जरूरत नहीं है। ओके ।’’
डॉक्टरों की यह पेशेवर इन्सानियत वाली अदा मुझे अच्छी लगती है। उनके सुलूक में आपको कभी रूखेपन की बू आ सकती है मगर अमलन वे आपकी समस्या को संबोधित रहते हैं। यह नहीं कि किसी राहगीर की तरह ऊपर-ऊपर से हमदर्दी के आँसू बहा लो मगर करो कुछ नहीं और चलते बनो। कॉलिज में जब पढ़ता था तो इस थीम के आसपास किसी यूरोपियन लेखक की किताब भी पढ़ी थी। अब तो कंपनियों के ट्रायल बैलेंस और फायनैंशियल्स ही पढ़ता हूं। मुझे तो डॉक्टर बैंकर का काम बड़ा पसन्द है। समीरा भी उनके साथ ऐसी हिल-मिल गई है कि एक दिन अपनी मम्मी से पूछ रही थी कि साइकैट्रिस्ट बनने के लिए क्या करना पड़ता है। जब उसने बताया तो उसने कहा कि इससे अच्छा तो फिर कांउसलर बनना है - काम वही और मेहनत कम। जो भी है, कम से कम कुछ तो अब वह सोचने लगी है ... कि क्या करना है ... या यह कि कुछ करना भी चाहिए …वर्ना अभी तो हमें उसके बारे में सोचना तक गुनाह था। हमारी किसी भी सीख-तज़वीज़ पर जब देखो तब ‘चिल’ कहकर पल्लू झाड़ लेती है।
यही सब सोचते हुए जब डॉक्टर बैंकर के यहाँ पहुंचा तो सुखद आश्चर्य यही लगा कि ज्यादा भीड़ नहीं थी। उनकी रिसेप्शनिस्ट ने ‘अब’ और ‘अभी’ के बम्बइया गठजोड़ से बने ‘अबी’ का तड़का मारते हुए बताया कि डॉकसाब मुझे याद कर रहे थे।
उनके सामने पेश होते ही उनके मुस्कुराते चेहरे को देख मेरे भीतर किसी गुप्त ऊर्जा का संचरण हो गया।
‘‘कैसे हैं जोशी जी ?’’
प्लास्टिक की पतली सी फाइल में पाँच-सात कागजों को रखते हुए उन्होंने पूछा।
‘‘अच्छा हूं डॉक्साब’’
‘‘समीरा कैसी है ?’’
‘‘कहीं बेहतर ... वैसे आप ज्यादा जानते होंगे’’ मैं डरते-सकुचाते मामले को उन्हीं की तरफ बढा़ देता हूं।
‘‘आई थिंक शी इज़ रेस्पोंडिंग वैल ... बट व्हाट ए सेंसिटिव चाइल्ड शी इज़ ...’’
‘‘ ’’ मैं थोड़ा चकराया।
“दो साल पहले आपका बिजनेस कैसा चल रहा था मिस्टर जोशी?’’ वे सशंकित भाव से लफ्जों को चबा-चबाकर बोलने लगे।
‘‘ठीक ही था ... ग्लोबल मैल्टडाउन का दौर था सो थोड़ी मंदी तो सबकी तरह हमने भी झेली मगर टचवुड, ज्यादा कुछ नहीं हुआ ... ’’
‘‘हाँ, ज्यादा कुछ तो नहीं हुआ मगर जो हुआ वह क्या कम था ...’’
उनकी बातों के मानी कहाँ से कहाँ छलाँग मार गए। मैं जानता था वे मुझे कहाँ जीरो-इन कर रहे हैं।
उनके तौर-तरीके में एक गरिमापूर्ण मिलावट जरूर थी मगर इरादे में एक बेहिचक साफगोई भी थी।
मुझे कुछ कहते ही नहीं बन पड़ रहा था।
और वे आगे जरा भी कुरेदने की नीयत नहीं रखते थे।
उस लज्जास्पद खामोशी के बीच मुझे गहरी लम्बी सांस आयी तो मैंने उनसे एक घूंट पानी की दरकार की।
पानी निगला।
‘‘बट व्हाई ,जोशीजी? यू हैव सच ए ब्यूटीफुल फैमिली ... ’’
यह इंजेक्शन देने से पहले स्प्रिट लगाने से कुछ आगे की बात थी।
‘‘मीरा ने कुछ कहा आपसे ?’’
मेरा अविश्वास किसी टुच्चे गुनाह की तरह बगलें झांकने लगा।
‘‘बिल्कुल नहीं ... नॉट ए श्रेड’’ उन्होंने मुँह बिचकाकर कहा और फिर बोले “ ... और हां ... आइंदा यह मत समझिए कि वह छोटी बच्ची है ... मोबाइलों की कान-उमेठी करने में वह हम-आपसे कहीं आगे वाली जैनरेशन की है ...आपके उस चैप्टर ने उसे गहरे झिंझोडा़ है...’’
मैं उन्हें देखते हुए सुन रहा था या सुनते हुए देख रहा था, नहीं मालूम।
वे अन्तराल दे देकर बोल रहे थे।
मैं मंत्रविद्ध सा था…कि कोई दाग़ कहाँ जाकर इंतकाम ले बैठता है…।
‘‘हैट्स ऑफ टू दैट एंजल ... बहुत संभाला है उसने अपने आपको ...’’ वे चबाते-सोचते पता नहीं क्या-क्या कहे जा रहे थे।
जैसा उन्होंने तभी बताया कि शाम सात बजे उन्हें टीन-एज़ डिप्रेशन पर होने वाले एक सेमिनार में जाना था—कुछ नए नतीजों को संबंधित लोगों से साझा करने।
मुझे पस्त और बोझिल देख वे मेरे पास आए और किसी मसीहा की तरह कन्धे पर हाथ रखकर बोले ‘‘यू हैव कम आउट ऑफ इट ... दिस इज़ द बैस्ट पार्ट ऑफ इट। बट शी हैज नॉट !’’
उनके जाने के बाद मैंने गौर किया कि मेरे आस-पास कितना अंधेरा मंडरा चुका था।
उस पल मैंने एक मुलायम छौने का यकायक बिल्ली हो जाना महसूस किया ।
लुटा-निचुडा़-सा मैं गाड़ी में आ बैठा हूँ।स्टार्ट करने की ऊर्जा नहीं बची है।बस सोचे जा रहा हूँ कि ... बिल्ली को छौने की मुलायमियत कैसे लौटाई जा सकेगी ?
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