Monday, November 2, 2020

खेल

 

कागज पर जलरंग : महेश वर्मा 

यह कविता कोरोना काल से पहले की है। दरअसल कोरोना शरु होने के बाद मुझसे कोई कविता लिखी ही नहीं गई। अलबत्ता दो-एक टिप्पणियां और एक रेडियो नाटक जरूर लिखा। पर सारे लिखने-पढ़ने, सोचने-समझने पर एक धुआंसा सा छाया हुआ है। इस बीच बनास जन में चार कविताएं छपीं। अंक हालांकि ऑनलाइन छपा। यह कविता उन्हीं में से एक है। आज यह कविता पढ़िए। धीरे धीरे चारों कविताएं पढ़वाता हूं। ऊपर जलरंग में चित्रकृति कवि महेश वर्मा की है। हमारे पहाड़ी भाषा के ब्लॉग दयार के लिए उन्होंने कृपापूर्वक अपनी कुछ चित्रकृतियां हमें दी थीं। यह उन्हीं में से एक है।   


                   ।। खेल ।।

 

हिंदूस्‍तानियों के बीच अक्‍सर जाना होता है 
कभी खरीद फरोख्‍त के वास्‍ते कभी सगे संबंधियों से मिलने के वास्‍ते 

इंडियनों के बीच अक्‍सर जाना होता है 
कामकाज के वास्‍ते सगे 

संबंधियों से हाए हैलो के वास्‍ते 

हिंदूस्‍तानियों को भारतीय कहा जाता है जिद की तरह 
इंडियनों को भारतीय कोई नहीं कहता 
मजाक में भी नहीं 
इंडियन को इंडियन ही कहते हैं 

मेरा दिल हिंदूस्‍तानियों में रमता है 
मेरा  दिल इंडियनों में रमता है 
मेरा दिल भारतीयों में रमता है 

फिर मेरा दिल ऊब जाता है 

जब रोज रोज  स्‍टापू  खेलना पड़ता है 
एक टांग उठा कर खानों में छलांगें लगाने का खेल तो 
मेरा दिल डूब जाता है 

इतिहास का मेरा पिछवाड़ा अपने ही भार से धराशाई हो जाता है 
वर्तमान का मेरा धड़ अभी बिल्‍कुल अभी की धक्‍काशाही से दरक जाता है 
भविष्‍य की नोक शुतुरमुर्ग की तरह जमीन में मुंह छिपा लेती है 

                   इस तरह दिन में कई कई बार मैं इस तरह दृश्‍य में होता हूं  
                   इस तरह दिन में कई कई बार दृश्‍य में होते हुए भी मैं अदृश्‍य होता रहता हूं 


बनास जन, जुलाई 2020


4 comments:

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  2. मैंने कविता को पढ़ा। फिर वार वार पढ़ा। मैंने इन्डियनों भारतीयों और हिंदुस्तानियों के फ़रक पर टिप्पणी कर दी। कविता की आत्मा में राजनैतिकता के प्रहार के घाव को समझा। कविता को मैंने फिर पढ़ा और जो मैंने लिखा था उसे मिटा दिया। कविता की अगन के सेंक में हर शब्द पिघल कर ढह गया।

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    1. आपने सही कहा। हर कविता का हर एक के लिए, और हर बार अलग पाठ होता है। एक ही कविता को अगली बार पढ़ने पर कुछ और ही नए से अर्थ निकल आते हैंं।

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  3. शुक्रिया सुशील जी

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