दिव्य हिमाचल से बातचीत |
हिमाचल
प्रदेश के एक दैनिक दिव्य हिमाचल ने लिखने पढ़़ने वालों के साथ बातचीत की एक श्रृंखला शुरू की है। इसमें मेरी बातचीत 18 अगस्त 2018 को प्रकाशित हुई थी जो यहां दी जा रही है।
दिव्य हिमाचल : अपने भीतर के विद्रोह
का संवाद अगर कविता है, तो सामाजिक बेड़ियों का टकराव क्या कहानी की
वजह है या इससे हटकर भाषाई अर्थ का सम्मोहन ही रचना है?
अनूप सेठी : मुझे लगता है रचना के
पीछे कोई एक ही कारक नहीं होता है और रचना चाहे कविता हो कहानी हो या उपन्यास हो, लिखने के क्या कारण
और क्या प्रेरक अथवा उत्प्रेरक तत्व होते हैं उन्हें गिनाना कठिन काम है। भाषा का
उचित प्रयोग अभीष्ट होता है। भाषा का सम्मोहन कलावाद की तरफ ले जाता है या लफ्फाजी
में गर्क होता है।
दिव्य हिमाचल : अभिव्यक्त शिल्प के करीने में सजी कविता क्या अपने द्वंद्व से मुक्त हो रही है या वक्त की विद्रूपता, सृजन की कोख तक हमलावर हो चुकी है?
अनूप सेठी : यह हमेशा ही होता आया
है कि कुछ रचनाकार शिल्प के जाल में फंसे रहते हैं और कुछ विद्रूपता से आक्रांत
रहते हैं। लेकिन मेरी समझ से रचना केवल प्रतिक्रिया नहीं होती। गझिन आंतरिक
प्रक्रिया के बाद ही कविता लिखी जाती है। इस प्रक्रिया की व्याख्या करना कठिन है।
और विषय-वस्तु अपना शिल्प स्वयं चुनती है।
दिव्य हिमाचल : पुरस्कारों के पालने में समय के तेवर सो गए या जख्मी माहौल की खिन्नता में युग से अलग, अपनी धारा में रहने लगा लेखक। क्या लेखन में सहनशीलता बढ़ रही है या कहीं कोई आज भी असंतुष्ट नवप्रयोग की सूली पर असहिष्णु ठहराया जा रहा है?
दिव्य हिमाचल : पुरस्कारों का प्रमाद
कुछ हद तक व्याप्त प्रतीत होता है। लेकिन सारे कुएं में भांग पड़ी हो यह सत्य नहीं
है। लेखक अकेला ही होता है। लेकिन वह अपने युग से अलग नहीं होता। पीछे नजर दौड़ाए
बिना वह अपने युग को पहचान नहीं सकता और अपने युग को पहचाने बिना आगे देख नहीं
सकता। यह संगुंफन उसके एकान्त में भी जारी रहता है। सहनशीलता, असंतोष, नव प्रयोग जैसी
अतियां मुझे नजर नहीं आतीं। अलबत्ता एक तरह की हताशा और चुप्पी का एहसास कभी कभी
होता है।
दिव्य हिमाचल : सामाजिक आलोचना के
भंवर और मनुष्यता के संरक्षण की राह में, वर्तमान कविता की स्थिति, तत्परता तथा ताप को आप
कैसे देखते हैं?
अनूप सेठी : जैसे कि कहा जाता है कि
कविता एक भूमिगत (अंडरग्राउंड) गतिविधि है। समाज में उसकी प्रकट उपस्थिति नहीं
है। यह कहीं कोने अंतरों में गुपचुप संवाद करती मिलेगी। इसका काम बेमालूम ढंग से
चला रहता है। समाज की संवेदना की एक नब्ज़ है कविता। मनुष्यता ही क्यों सम्पूर्ण
प्रकृति ही कविता की चिंता और चिंतना के केंद्र में है। बाहरी तौर पर यह कर्म
नकारा, बेमालूम और निष्प्रभावी
लगता है। लेकिन सभ्यता संस्कृति की दीर्घ यात्राओं में मंद और क्षीण स्वर की भी
उपस्थिति रहती है। और उसे सुनने वाले जिज्ञासु कान भी मौजूद रहते हैं। मात्रा का
महत्व नहीं है। इसका अस्तित्व रहता आया है। अल्पता के समान, सूक्ष्मता के समान
इसका भी अस्तित्व है।
दिव्य हिमाचल : क्या समाज की प्राथमिकताओं से साहित्य की जगह सिमट रही है?
अनूप सेठी : कई बार लगता है कि
सिमट रही है। यह भी लगता है कि निकट अतीत में साहित्य समाज की प्राथमिकताओं में
रहा भी नहीं है। हमारा समाज भाषा को महज प्रेषण का माध्यम समझता आया है, भाषा से उसने प्रेम
नहीं किया। सत्ता की भाषा से वह दबता रहा। साहित्य का संस्कार और पठन पाठन की
जैसी परंपरा बांग्ला, मलयालम, मराठी आदि भाषाओं में रही वैसी हिंदी
प्रदेशों में नहीं रही। तथाकथित भोला-भोला पहाड़ी जनमानस भी इस ओर आकर्षित नहीं हो
पाया। कला और शास्त्रीय संगीत को भी देशनिकाला ही मिला रहा। ललित कलाओं के कोई भी
रूप हमारे दैनंदिन जीवन के अंग नहीं रहे। हम चालू किस्म की संस्कृति के उपभोक्ता
रहे, उसके प्रयोक्ता या
प्रैक्टीशनर नहीं रहे। ऐसे में संस्कृति परजीवी और प्रदर्शनधर्मी वस्तु बन कर
रह जाती है। जिस तरह लोकगीत और लोकसंगीत सामूहिक चित्त में रहा है वैसी जगह साहित्य
और अन्य कलाओं की नहीं बन पाई। लोक गीत-संगीत को फिल्मी संगीत ने पीछे धकेल
दिया। एक तरह से वही नया लोकसंगीत है। और अब अधुनातन सोशल मीडिया पुराने माध्यमों
को आक्रामकता से अपदस्थ करता जा रहा है। सोशल मीडिया की प्रकृति और स्वरूप उसके
जरिए प्रेषित कथ्य को अत्यधिक प्रभावित कर रहा है। यह सामूहिक स्मृति और मूल्य-चेतना
का ध्वंस करने में अग्रणी है। जीवन की प्राथमिकताएं अधिक उपयोगितावादी हुई हैं।
उपयोगिता जहां प्रमुख हो, वहां कोई भी कर्म निर्ब्याज नहीं
होता।
दिव्य हिमाचल : मनुष्यता को सहेजने में कवि की भूमिका। कवि दृष्टि से मानव विरोधी क्या है?
अनूप सेठी : कवि की केंद्रीय चिंता में सम्पूर्ण प्रकृति
है। मनुष्यता उसका एक अंश है। मनुष्य अपनी विकास यात्रा के प्रति ही दिग्भ्रमित
है। वह नष्ट करके ही सीखता प्रतीत होता है। ‘वीर भोग्या वसुंधरा’ जैसी दंभी पुरुषवादी अवधारणा समग्रता
में मनुष्य और मनुष्यता विरोधी अवधारणा है। प्रकृति पर विजय पाना इसका अभीष्ट
है, जबकि जरूरत प्रकृति के साहचर्य की है।
इसलिए यह विनाशकारी अवधारणा प्रतीत होती है।
दिव्य हिमाचल : कविताओं-कहानियों के परिवेश से कितनी भिन्न है रिश्तों की वर्तमान दुनिया?
अनूप सेठी : हम तो यही सुनते आए
हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है। जो जीवन में है वही साहित्य में। मनोरंजन
से आगे बढ़कर सोचने को मजबूर करनेवाला। प्रश्नाकुल करने वाला।
दिव्य हिमाचल : बिकते साहित्य से अलग सृजन की प्रतिबद्धता को कैसे चुनते हैं। प्रश्न जो अब भी कविता के कंधे पर सवार होकर आपसे रूबरू होते हैं?
अनूप सेठी : लिखते समय उसे बेचने
का विचार सामने नहीं होता है। बिकेगा इसलिए लिख लिया जाए, यह बात भी नहीं बनती।
पाठक तक पहुचने की ललक और चिंता अवश्य होती है। रचनात्मकता के अपने ही दबाव होते
हैं। वही लेखन की तरफ ले जाते है। कविता के कंधे पर सवार होकर प्रकट होने वाले
प्रश्नों को पहचानना और उनकी गिनती करना मुश्किल है।
दिव्य हिमाचल : आदमी के खंडहर बनते देर नहीं लगती, तो फिर सृजन के संघर्ष में फरियाद किससे और मुराद किससे?
अनूप सेठी : फरियाद तो खंडहर से ही
करनी होगी। आदमी में प्राण-प्रतिष्ठा करने का काम संस्कृति करती है। उसे खंडहर
भी संस्कृति ही बनाती है। जिस तरह की संस्कृति हम रचेंगे वैसे ही मनुष्य हम
गढ़ेंगे, जीवित और जिंदादिल या
मृत और यंत्रवत्। चुनाव स्पष्ट है – हमें सकारात्मक धारा का वरण करना होगा। यह
हमारा निजी आत्मसंघर्ष भी है, सामूहिक जिम्मेदारी भी।
दिव्य हिमाचल : 'मैं’ के पिंजरे से बाहर कितनी सार्थक है कविता?
अनूप सेठी : कविता भले ही ‘मैं’ से आरंभ होती हो, पर ‘मैं’ का अतिक्रमण किए बिना
संभव नहीं होती। अनुभव निजी होता है, उसे सार्वभौमिकता की राह पर ले जाना होता
है। मैं का विस्तार भी होता है परकाया प्रवेश भी होता है। कितनी सार्थक या कितनी
निरर्थक होती है कविता, यह तो पता नहीं, पर इन माध्यमों से न
सिर्फ व्यापकता आती है, रचना परतदार भी बनती है।
दिव्य हिमाचल : मुंबई में समुद्र या कविता के किनारे आपकी अनुभूति जब पहाड़ की परछाई में पलती है?
अनूप सेठी : हर व्यक्ति के जीवन
में कुछ दौर होते हैं। एक समय था पहाड़ की प्रमुख उपस्थिति थी। उसी तरह समुद्र की
थी। ये दोनों भौगोलिक स्थितियां मेरे लिए भिन्न जीवन शैलियों की परिचायक रही
हैं। समुद्र केवल भौतिक अवस्थिति न होकर महानगरीय जीवन के अथाह विस्तार का रूपक
भी रहा। जैसे पहाड़ सुंदर और कठिन जीवन का रूपक रहा। धीरे धीरे ये उपस्थिति सूक्ष्म
होकर शायद मेरी चेतना का अंग बनी है।
दिव्य हिमाचल : आपके लिए कविता के किस अक्स में जिंदगी का उत्साह परवान चढ़ता है और कहां अधूरेपन की विचित्र परिस्थितियों का स्मरण, अटके संवाद की दीवारों पर कोई विराम लिख जाता है?
अनूप सेठी : चाहे जैसी भी हो, कविता के लिखे जाने
के बाद एक स्फूर्ति और उत्साह का संचार होता है। आरंभ से ही कविता के लिखे जाने
की स्थितियां कम होती रही हैं, अन-लिखे रह जाने की अधिक। वह अधूरापन अधिक
कचोट भरा होता है।
सारे कूऐं में ना भी हो पर कहीं तो पड़ी होती ही है :)
ReplyDeleteसुन्दर।
जी वह तो है ही।
Deleteआपकी बातचीत में मर्म के कई बिंदु है । यह बात दिलचस्प है कि जहां हम रहते है वहां के अनुभव हमारे लिखने में आते है , चाहे पहाड़ हो या समंदर
ReplyDeleteआपके ब्लाग पर तिब्बती कविताएं पढ़ी । निर्वासन का दर्द कैसा होता है , इन कविताओं को पढ़ कर जाना जा सकता है । शुक्रियां अनूप सेठी जी
आपकी बातचीत में मर्म के कई बिंदु है । यह बात दिलचस्प है कि जहां हम रहते है वहां के अनुभव हमारे लिखने में आते है , चाहे पहाड़ हो या समंदर
ReplyDeleteआपके ब्लाग पर तिब्बती कविताएं पढ़ी । निर्वासन का दर्द कैसा होता है , इन कविताओं को पढ़ कर जाना जा सकता है । शुक्रियां अनूप सेठी जी
स्वप्निल भाई आप सही कह रहे हैं। आभार।
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