Thursday, March 9, 2017

एक भाषा की चीख

संजय कुमार


एक भाषा की चीख
भारतीय नौकरशाही और हिन्दी की जगह

मैं 1983 में हिमाचल प्रदेश से आकाशवाणी में कार्यक्रम निष्‍पादक होकर मुंबई आया। हिंदी पढ़ी थी और साहित्‍य से प्रेम किया था, नौकरी भी हिंदी के प्रोग्राम बनाने की मिली थी। कुछ अरसा तो ठीक रहा। परसरकारी ढर्रा रास नहीं आया फिर भी आठ साल रहा। फिर हिंदी की एक और चीमड़ सेवा का मौका मिल गया, हिंदी अफसरी का। आईडीबीआई में। वहां से डेपुटेशन पर यूटीआई में आया बाद में उन लोगों ने वहीं रख लिया। तब किसी को खबर नहीं थी यह यूटीआई अकाल काल कवलित हो जाएगा। 1994 से 2003 तक वहां रहा। जब चला चलाई का वक्‍त आ गया तो डायरी लिखी। यह ज्ञानरंजन जी ने पहल 82 में 2006 में छापी। इस डायरी को  यहां दे रहा हूं। लंबी है पर टुकड़ों में पढ़ी जा सकती है। इससे हमारी हिंदी की हालत आपके सामने उजागर होगी।


भारतीय नौकरशाही और हिन्दी की जगह
एक भाषा की चीख
भारतीय यूनिट ट्रस्ट की स्थापना 1964 में हुई, आम आदमी को पूंजी बाजार यानी शेयर मार्केट का फायदा पहुंचाने के इरादे से। लेकिन सरकार ने पूंजी बाजार के प्रेशर को झेलने के लिए हमेशा यूटीआई को सेफ्टी वाल्व की तरह इस्तेमाल किया। यह संस्था शायद समय से पहले ही बन गई थी। इसका समय तो तब आया जब धीरूभाई अंबानी ने भारतीय समाज में इक्विटी कल्चर का बीज बोया। तभी तो 1964 में आकर यूटीआई की मास्टरशेयर नामक स्कीम बेहद लोकप्रिय हुई। हर्षद मेहता के घोटाले तक आते आते  यह संस्था अपनी निवेशक संख्या के हिसाब से दुनिया की सबसे बड़ी संस्था बन चुकी थी। लेकिन उसके बाद केतन पारिख वाले घोटाले के वक्त तक इसकी जान लगभग निकाली जा चुकी थी। डेथ सर्टिफिकेट ही मिलना बाकी था। जो अब तक किस्तों में मिल रहा है। और शव को ठिकाने लगाने के काम चल रहे हैं।
भारतीय वित्त जगत में यह शायद एकमात्र ऐसी संस्था थी जहां अफसरों की यूनियन कभी बन नहीं पाई। कर्मचारियों की यूनियन खानापूरी और दिखावे के लिए थी। अगर होती तो शायद लगभग 45 फीसदी स्टाफ को वीरआरएस नाम की ठोकर मारना मुश्किल होता। वह भी ऐसे वक्त में जब कर्मचारी की औसत उम्र 36 साल थी। इससे पहले कुछ अधिकारियों को छोटी उम्र में ऊंचे पदों पर बिठा दिया गया था जो बीस बीस साल तक सनक भरी निरंकुश पारियां खेलते रहे।
नई आर्थिक नीति और उदारवाद के दौर में उस संस्था का आंख की किरकिरी की तरह होना लाजिमी था, जो शेयर बाजार में संतुलन बनाए रखने के सरकार के अदृश्य अंकुश की तरह थी। इसे नष्ट करके ही पूंजी बाजार पूरी तरह से आवारगी पर उतर सकता था। संस्था की बनावट और अंदरूनी बीमारियों ने भी इसे भीतर से खोखला बनाया।
मैं इस संस्था में 1994 में आया। तब तक नरसिंही और मनमोहिनी नीतियों को शुरू हुए चार साल हो चुके थे। संस्था सबसे ज्यादा निवेशकों को पोसने के अंतर्राष्ट्रीय स्तर के दंभ में झूम रही थी। सन् 2000 तक किसी को खबर तक नहीं लगी कि नई आर्थिक  नीतियों का असर क्या हो रहा है। बालिकाओं के लिए बनी राजलक्ष्मी यूनिट स्कीम बंद करनी पड़ी क्योंकि वादा 14 प्रतिशत देने का था, कमाई 5 प्रतिशत भी नहीं हो रही थी। यह वित्त जगत के धुरंधरों की दूरदृष्टि का कमाल था। इसी बीच हम भी हिंदी का नगाड़ा बजाते रहे। नगाड़ा इसलिए क्योंकि यहां हिंदी अफसरों की भर्तियां इसी दौर में हुईं। यह दौर इतना छोटा रहा कि अफसरों की नौकरियां पक्की भी नहीं हुईं और उन पर रिटायरमेंट लेने के बाण छोड़ जाने लगे। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती थी!
यहां दी जा रही डायरी में इस संस्था में मेरी नौकरी के अंतिम दौर का जिक्र है। डायरी के साथ कुछ कविताएं भी हैं, कुछ कुछ इसी मन:स्थिति की सी। शायद डायरी से कुछ ज्यादा ही बचकानी। उत्तर आधुनिकता के ढपोरसंख विमर्श में, सूचना क्रांति के ढिंढारे के बीच और बाजारवाद के डंडे से सहमे हुए समय में एक तथाकथित वर्नाकुलर भाषा की चीख कम बचकानी कहां होगी।

19-11-2002 
जब तक बाहरी तौर पर जीविका सुरक्षित थी, मन भाग जाने को आतुर रहता था, कुलांचे भरता था। जब से असुरक्षा की धूल उड़नी शुरू हुई है, सारा रोमान हवा हो गया है, सारा हुआ हो, उसमें से कल्पना तत्व तो सूख ही गया है। व्यवहार के पर्वत उन स्वच्छंद हवाओं के रास्ते में आड़े रहे हैं। कुछ समझ नहीं रहा है। सेवा से निवृत्त हो जाने के बाद धनोपार्जन कैसे होगा। भीतर ही भीतर एक सांय सांय बजती रहती है। निर्जन वन में हवा जैसे गुजरते हुए आवाज करती है। ऐसा लगता है कि नौकरी ही की, और कुछ आता नहीं। जो आता है, उसमें कमाई नहीं। और आजकल के जीवन का ढर्रा ऐसा हो गया है कि धन केंद्रीय तत्व है। उसके बिना कुछ सधता नहीं, संघर्ष घना है।

04-12-2002
आज की अखबार की खबर यह है कि यूटीआई का बिल राज्य सभा में भी पास हो गया। वित्त मंत्री ने कहा कि किसी भी स्टाफ को निकाला नहीं जाएगा। 6 माह का समय दिया जाएगा, या तो वे नये यूटीआई में चले जाएं या रिटायरमेंट ले लें। मतलब दिन गिनती के हैं।

16-01-2003
कल ताबूत में एक कील और गड़ गई। यूटीआई के विभाजन का करारनामा दो पार्टियों के बीच हस्ताक्षरित हो गया। तारीख भी तय हो गई। पहली फरवरी से नए मालिक जाएंगे। तो हिंदी की विदाई आसन्न है। यही प्रतीत होता है। पहले कानून का डंडा थोड़ा  चल जाता था। इच्छा से करने की दुहाई दी जाती थी। अब असली मंशा सामने आने लगी है। सब अंग्रेजी के रंग में रंगा है। वही सुविधाजनक है। उन्हें लगता है हिंदी से क्लटरिंग होती है। उन्हें यह नहीं चाहिए। वे कारोबार भी उसी पढ़े लिखे के साथ करना चाहते हैं जो अंग्रेजीदां हो। केवल भारतीय भाषा जानने वाला, उसका हिमायती धीरे धीरे परिधि के बाहर हो रहा है, जैसे सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कम हैसियत वाला परिधि से बाहर होता जा रहा है।

20-01-2003
खूब बहस है। खदबद है, चिंता दुश्चिंता है। नए प्रबंधन में हिंदी रहेगी या जाएगी। कुछ और काम दे दिया जाएगा। किस काम के योग्य माना जाएगा। सामान्यत: हिंदी वालों को नाकारा माना जाता है, अनुत्पादक, फिजूल-खर्च, व्यर्थ। एक बार परमेश्वरजी ने बताया - ये तो WIFE –Worry Invited For Ever (हमेशा के लिए मोल लिया गया सिरदर्द) है।
हिंदी नौकरी की तरह कम की, मिशन की तरह ज्यादा की। जितना मौका मिला, जहां सेंध लग सकी, हिंदी को रोपने की कोशिश की। शायद जब यह छूट जाएगी तो कष्ट होगा। कुछ टीसता हुआ लगता है। यह व्यवहार-बुद्धि नहीं है। लगता है कि नौकरी, वेतन और उससे जुड़ी सुविधाएं एक तरह की जीवनशैली, उसे अपनाए रखना है या हिंदी के नाम पर उसे होम कर देना है। शायद ऐसा वक्त जल्दी ही आने वाला है कि हिंदी को अलविदा कह के दूसरे काम में लग जाना पड़े। तब क्या किया जाएगा। नौकरी छोड़ देने से वैसी हिंदी होगी। सिर्फ लेखन। बाहर व्यावसायिक हिंदी - जिसका बाजार बड़ा अस्थिर और अविकसित है। यह विकट सवाल है। हिंदी से क्या सोच के जुड़ा था। यह जुड़ाव नौकरी ही बना रहा या उससे कुछ ज्यादा है।
कुछ ज्यादा क्या है? यह एक अलग उलझाव वाला सवाल है। क्योंकि राजभाषा नीति खुद सौ छेदों वाली छलनी है। जिसमें कंकड़ ही ऊपर बचते हैं। सार सब झर जाता है। क्या उसके नाम पर नौकरी का होम कर देना उचित है? लेकिन क्या राजभाषा नीति ही मेरी प्रतिबद्धता थी? या वह सिर्फ एक माध्यम थी? प्रतिबद्धता तो शायद भाषा से है। यहां सरकारी हिंदी बंद हो गई तो क्या मेरा भाषा के लिए काम करना बंद हो जाएगा? लेखन - पार्ट टाइम शायद चलता रहे। जो पूर्णकालिक भाषा या राजभाषा के लिए काम होता  है, वह तो किसी भी स्थिति में नहीं हो सकेगा। तो क्या मैं पुराने जमाने का भाषा सेवक या हिंदी सेवक हूँ? क्या इस शब्द में कुछ प्राण बाकी बचे हैं? पर मैं तो नौकरीपेशा आदमी हूं। भाषा से जुड़ा यह काम क्या कार्यक्षेत्र बदल लेने पर भी हो सकेगा? मसलन पत्रिकारिता, मीडिया, अध्यापन, पूर्णकालिक लेखन इत्यादि। फिर कार्यक्षेत्र बदलना इस आयु में कहां तक संभव है? सवाल ही सवाल हैं।

31- 01-2003
अभी अभी नई कंपनी के लोगों के कार्यक्रम का निमंत्रण भी गया। आयोजन होगा। गाना बजाना होगा और भोजन होगा। मेरे लिए इसका सबसे ज्यादा महत्व इसी बात को ले के है कि अब इस नए निजाम में हिंदी की जगह नहीं है। कम से कम उस सरकारी  हिंदी की तो नहीं ही है जो डंडे के जोर पर चलती थी। (शायद इसीलिए उसका विरोध ज्यादा था) गैर डंडे वाली हिंदी भी कितनी और कब तक है, कहा नहीं जा सकता। एजेंसियों से हिंदी कराना आसान और सस्ता पड़ेगा। तो अब हम गैर जरूरी हो जाएंगे। अब शायद गैर हिंदी की रोटी खानी होगी।

31-01-2003
तो आज नई कंपनी प्रा. लि. अस्तित्व में गई। पुरानी संस्था नई में रूपांतरित हो गई। नए लोगों के विमोचन का कार्यक्रम इंटरनेट पर लाइव रहा है। नया दोरंगा लोगो। हिंदी के गायब होने की घोषणा मानो हो गई है। अघोषित घोषणा। करीब 35 साल बाद कंपनी के लोगो में हिंदी शामिल हुई थी, शायद 3 साल पहले। अब द्विभाषा नहीं है, द्विवर्ण है। नए जमाने की जरूरत के मुताबिक दोरंगा लोगो। स्त्री चेतना, दलित चेतना। है कुछ तो समानता है। इनमें और हिंदी में। दोयम दर्जे का होना, तिरस्कृत या उपेक्षित रहना स्त्री के समान होना है।

19-02-2003
दफ्तरी मोर्चे पर उथल पुथल सतह पर नहीं दिख रही, भीतर-भीतर शायद चल रही है। चले बिना रहेगी भी कैसे। हिंदी के मामले में पिछले हफ्ते चेयरमैन से बात हुई थी। तय हुआ कि वित्त मंत्रालय से चिट्ठी लिख कर पूछा जाए कि हिंदी लागू होगी या नहीं। उसी दिन 11/12 को हमने पत्र का मसौदा मूर्ति जी के पास भेज दिया। आज तक वह उन्हीं के पास रखा है। पता नहीं, व्यस्तता में हिंदी पीछे छूटी जा रही है या चिट्ठी भेजने से कतरा रहे हैं। बातचीत में वे और अध्यक्ष दोनों ही स्पष्ट कर चुके हैं कि हिंदी की जगह नए परिवेश में नहीं है। खर्चे का बहाना देते हैं। बहाना ही है, क्योंकि दुनिया भर के दूसरे खर्चे हिंदी पर होने वाले खर्चों से कई गुना ज्यादा हैं। अध्यक्ष ने लेवल प्लेइंग फील्ड की बात उठाई। पर वह भी तो एक बहाना ही है। असल बात यह भी है कि हिंदी में काम करने से शान पर बट्टा लगता है। यह ठीक है कि सरकारी नीति में सौ छेद हैं। लेकिन इस तंत्र में कौन सी नीति परफेक्ट या दोषहीन है। खुद यूटीआई एक तरह से डूबा है और इसे हजारों करोड़ रुपये देकर उबारा गया है, जबकि यह तो मुख्य धारा की संस्था है। यह अर्थव्यवस्था को टहोका दिए रहने वाली संस्था रही है।
लुब्बो लबाब यह कि चिट्ठी ईडी की मेज पर पड़ी है।
इधर कल यह भी खबर आई है कि वित्त मंत्री कहते हैं कि यूटीआई पर सरकारी नियंत्रण रहेगा। उसका निजीकरण नहीं किया जाएगा। दूसरी खबर है कि, वीआरएस यानी स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति योजना की तैयारी कर ली गई है।

25-02-2003
पिछले सप्ताह के अंत से और इस सप्ताह भी वीआरएस की अफवाह जोरों से फैली हुई है। निश्चित खबर कहीं से कोई आती नहीं।
क्या किस प्रकार घटित हो रहा है, कुछ स्पष्ट नहीं है। नौकरी, रोजी रोटी की व्यवस्था के बिना जीवन की गाड़ी रुकती प्रतीत होने लगती है। हिंदी के बारे में भी मामला उलझा हुआ ही है। अध्यक्ष ने अजीत प्रसाद का नाम लिखा कि हिंदी सलाहकार समिति की बैठक में भाग ले के आएं। वे कह रहे हैं कि दूसरी बैठक की वजह से नहीं जा पाऊँगा। सब हिंदी से पिंड छुड़ाना चाहते हैं। एक बार इन्होंने ही कहा था कि मेरा जन्म हिंदी प्रदेश में हुआ है इसलिए मैं हिंदी बोलने को अभिशप्त हूं। असल में तत्कालीन अध्यक्ष इन्हें कोंचते थे कि आप हिंदी क्षेत्र के हैं, हिंदी में काम करिए।

19-03-2003
और वे नहीं ही गए। मैं ही गया। हाजरी लगा के गया। धृष्टता का खुला खेल देखा। एक सांसद बहुत देर तक यही समझाते  रहे कि एक सांसद का क्या महत्व होता है। कोई सांसद किसी समिति का सदस्य हो तो व्यवस्थाएं और सम्मान उसके अनुरूप होना चाहिए। वार्तालाप इतना बिखरा हुआ रहा कि कुछ तय भी नहीं हो पाया। हमारे ऊपर आसन्न संकट से संबंधित सुझाव भी थे, लेकिन उन पर चर्चा का वक्त ही नहीं पाया।

01-04-2003
प्रबंधन हिंदी से पिंड छुड़ाना चाहता है। आज कोलमैन साहब से इस बारे में बात हुई। मैंने स्थिति स्पष्ट की कि मार्केटिंग में तो विशषेज्ञ ही जाने चाहिए। हिंदी वाले सफल नहीं रहेंगे। उनसे उनकी काबलियत का काम लिया जाना चाहिए। हिंदी में सारी सामग्री का अनुवाद मुहैया कराएं। हिंदी क्षेत्र की शाखाएं उसका इस्तेमाल करें। हिंदी के एक-एक आदमी का प्रयास मल्टीप्लाई हो जाएगा। यूं एक आदमी सौ आदमी की सभा करेगा। सामग्री हिंदी में होगी तो सौ आदमी सौ-सौ आदमियों की सभाएं सौ जगह कर सकेंगे। इसे और भाषाओं में भी किया जा सकता है। इस आशय का एक नोट पहले भेजा था। ईडी को यह विचार पसंद आया था। अध्यक्ष की भी इससे सहमति थी। जब किसी दूसरे प्रसंग में उनसे मिलने गया तो उन्होंने कहा कि यूटीआई का काम भाषाओं के बिना नहीं चल सकता।
अब अगर प्रबंधन को यह तर्क समझ में जाए तो थोड़ा जीवनदान मिल सकता है।
हिंदी किसी को पसंद नहीं है इसलिए हिंदी वाले भी बोझ सरीखे ही हैं। मौका बे मौका हिंदी वालों की कुटुम्मस होती रहती है। हिंदी, खास तौर से सरकारी हिंदी ने भी खुद को व्यर्थ के आडम्बर और सत्ता प्रदर्शन में उलझा लिया है जिसने सारे प्रयत्नों को भोथरा बना दिया है और खुद को आलोचना का कारण बना लिया है। हिंदी प्रयोग की गुणवत्ता भी इससे बाधित हुई है। हिंदी की खिचड़ी अलग से पकती है इसलिए उसमें गुरूर और जनजीवन से दूरी भी गई है।

24-04-2003
बैठने की जगह बदली गई। छठी मंजिल से पहली मंजिल पर गए। एक कोने में बेहद ठंडा केबिन।
सलाहकार समिति से चिट्ठी आई थी कि यूटीआई के दोनों खंडों में हिंदी कक्ष बनाए जाएं। इस पर कार्रवाई करने के लिए कागज ऊपर भेजा तो चेयरमैन ने लिखा, उपक्रम में यानी एक खंड में हिंदी प्रभाग बनाना होगा। हमने दो लोगों को इस प्रभाग के लिए नामित  किया। तो आज लिखकर गया कि सारे हिंदी कक्ष को ही क्यों उपक्रम में भेज दिया जाए? और एएमसी (दूसरा खंड यानी नई कंपनी) अपने सारे काम बाहर से करवाए।
चेयरमैन शुरू से ही एएमसी को बेचने की दृष्टि से चुस्त-दुरस्त बनाने की जुगत में लगे हैं। उस चुस्ती में हिंदी बाधा ही है। इसलिए ऐसा प्रस्ताव आया है। पहले जबानी कहा जाता था, अब लिख कर गया है। अब कानून ही बचाएगा, अगर बचा पाया, वह भी उतने ही दिन, जितने दिन यह कंपनी आगे बिकती नहीं।
आउटसोर्सिंग शब्द बड़ा अर्थवान है। लाइबिलिटी से बचने के लिए यही उपयोगी है। और यह कहने भर के लिए है। विज्ञापन के सिवा कुछ और हिंदी में होगा नहीं। जनता को ऐसे ही दर किनार किया जाता रहेगा। अभी भी हिंदी कहां है? आऊटसोर्सिंग असल में आउटगोईंग ही है जो असल में गेट आउट का ही दूसरा नाम है।

28-04-2003

आज से चर्चगेट का सारा अमला मय स्टाफ बांद्रा-कुर्ला बिल्डिंग में गया। यह इमारत खचाखच भर गई। सुबह सुबह अजीत प्रसाद कमरे में गए। राउंड पर निकले थे, क्योंकि आजकल वे इस्टेट के इंचार्ज हैं। देखभाल रहे थे कि लोग नई जगह में स्थापित हो गए या नहीं। बात बात में कहने लगे कि यह असल में लिक्विडेशन ऑफ एन एम्पायर ही है। यूटीआई धीरे धीरे गल रही है। एक संस्था का अंत होते हम देख रहे हैं। उनका कहना था कि अब आपको भी कोई दूसरी जगह देख लेनी चाहिए। इससे पहले कि वे किसी दूसरी जगह भेजें, खुद ही कहीं चले जाना चाहिए। क्योंकि नई व्यवस्था में इन सब चीजों के लिए जगह नहीं बचेगी। सब यही तो कह रहे हैं। एक बात और उन्होंने कही, जो शायद उनका खुद अपने लिए एक तरह का स्पष्टीकरण था कि यह सब जो हो रहा है यानी  प्रबंधन जो पैसले ले रहा है, उनसे अगर किसी की सहमति हो तो छोड़ के अलग हो जाना चाहिए। मतलब यह कि दुविधा के लिए कोई जगह नहीं है। आप या तो वो निर्णय लीजिए, जिन्हें लेने के लिए आपको कहा जा रहा है, वरना छोड़ दीजिए। अब सवाल उठता है कि जो छोड़ सकता है, वही तो छोड़ेगा। अगर सहमति हो और छोड़ने की स्थिति भी हो, मतलब उम्र का ऐसा पड़ाव, बच्चों की ऐसी उम्र, रहने की ठौर- हक में हो तो छोड़ के आदमी कहां जाए। तब मजबूरन उसे अनचाहे पैसलों का साथ देना पड़ेगा या अनचाहा काम करना पड़ेगा। तब कहा जाएगा अगर आप अपनी सोच को बरकरार रखने के लिए काम छोड़ नहीं सकते तो सोचते क्यों हो। मतलब सोच जीवन यापन पर निर्भर है। जीविका के लिए अपनी सोच बदलिए। चाहते हुए भी सहमत होइए। यह मजबूरी है।   

3 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "जैसी करनी ... वैसी भरनी - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

    ReplyDelete
  2. सराहनीय पोस्ट..हिंदी के प्रति लोगों का बदलता हुआ रुख सारी कहानी कह देता है.

    ReplyDelete
  3. जी, पता नहीं इस रुख में कभी बदलाव आएगा या नहीं।

    ReplyDelete