संजय कुमार |
एक भाषा की चीख
भारतीय नौकरशाही और हिन्दी की जगह
मैं 1983 में हिमाचल प्रदेश से आकाशवाणी में कार्यक्रम निष्पादक होकर मुंबई आया।
हिंदी पढ़ी थी और साहित्य से प्रेम किया था, नौकरी भी हिंदी
के प्रोग्राम बनाने की मिली थी। कुछ अरसा तो ठीक रहा। परसरकारी ढर्रा रास नहीं आया
फिर भी आठ साल रहा। फिर हिंदी की एक और चीमड़ सेवा का मौका मिल गया, हिंदी अफसरी का। आईडीबीआई में। वहां से डेपुटेशन पर यूटीआई में आया बाद
में उन लोगों ने वहीं रख लिया। तब किसी को खबर नहीं थी यह यूटीआई अकाल काल कवलित
हो जाएगा। 1994 से 2003 तक वहां रहा।
जब चला चलाई का वक्त आ गया तो डायरी लिखी। यह ज्ञानरंजन जी ने पहल 82 में 2006 में छापी। इस डायरी को यहां दे रहा
हूं। लंबी है पर टुकड़ों में पढ़ी जा सकती है। इससे हमारी हिंदी की हालत आपके
सामने उजागर होगी। यह दूसरा और आखिरी हिस्सा है।
29-04-2003
आज लंच के बाद अजीत प्रसाद फिर मिल गए। लाइब्रेरी सेट हो रही है। उसे देखने गए। बाद में मेरे कमरे में ही आ गए। इनकी पत्नी स्मृति प्रसाद आकाशवाणी में अंग्रेजी की उद्घोषक हैं। उनसे पुराना परिचय है। कहने लगे कल मैंने चेयरमैन से बात की थी। और तो कोई आपका केस आगे रखने वाला होगा नहीं। मैंने धन्यवाद दिया। कहने लगे चेयरमैन ने सुन लिया कि हिंदी वालों को या तो दूसरे काम में लगाया जाए या उपक्रम (यूटीआई की समाप्त होने वाली स्कीमों को संभालने वाला उपक्रम) में भेज दिया जाए या वीरआरएस दे दी जाए।
मैंने कहा कि पहले भाषा सेल बनाने का प्रस्ताव किया था। चेयरमैन ने उसे पसंद किया था। वे बोले म्यूचुअल फंड की अवधारणा में भाषा वाली बात को कोई स्वीकार नहीं करेगा। यह अजीब विरोधाभास है। कंपनी आम निवेशक यानी छोटे या खुदरा निवेशक के बूते पर खड़े रहना चाहती है। लेकिन उससे सम्पर्क करने के लिए उसकी भाषा का प्रयोग नहीं किया जाएगा। निवेशक का पैसा तो चाहिए लेकिन उसे बातें समझ में नहीं आनी चाहिए। उसे बातें समझ में आने लग गईं तो वह सवाल भी तो उठाने लगेगा - कल को वह चुनौती भी दे सकता है। पढ़ा लिखा वर्ग एक घटाटोप बनाए रखना चाहता है।
02-05-2003
तो महोदय, आप भी अपने पूरे रंग में हैं। पहले सिर्फ हिंदी के प्रति जबानी ही अपनी अनिच्छा जाहिर करते थे। अब लिखित में भी करने लगे हैं। अध्यक्ष महोदय, चूंकि आप निर्णायक भी हैं इसलिए आपका निर्णय ही अंतिम भी होगा। आपको जो उचित लगेगा, वही निर्णय लिया जाएगा। और वह निर्णय हिंदी के पक्ष में नहीं है।
तीन माह पहले आपने बातचीत में कहा था कि यूटीआई का काम भारतीय भाषाओं के बिना नहीं चल सकता। तब तक यूटीआई एक्ट रद्द नहीं हुआ था। दो माह पहले आपने बातचीत में कहा था कि दूसरे म्यूचुअल फंड हिंदी का प्रयोग कहां करते हैं। तब तक नई कंपनी ईजाद हो चुकी थी। सलाहकार समिति की बैठक में भाग लेना था, इसलिए सरकार से पूछने की मंजूरी आपने दी, पर ऐसे विभाग से, जो पत्र का उत्तर ही नहीं देगा। पिछले माह, यानी एक माह पहले आपने उपक्रम में हिंदी प्रभाग बनाने की मंजूरी दे दी। जब लोगों को वहां तैनात करने की मंजूरी मांगी गई तो आपने बहस सी छेड़ दी कि सारे हिंदी सेल को ही उपक्रम में क्यों न भेज दिया जाए।
पिछले हफ्ते सरकार के एक और पत्र के हवाले से, जिसमें सालाना रिपोर्ट मांगी गई है, आपने बहस दूसरी दिशा में बढ़ा दी है कि स्टेट बैंक और एलआईसी की म्यूचुअल फंड वाली कंपनियां हिंदी की रिपोर्ट भेजती हैं या नहीं। जाहिर है उत्तर न में ही होगा। तो आपका भी उत्तर न ही होगा। लेकिन क्या कानून के लागू होने न होने का फैसला इस बात से हो सकता है कि दूसरी संस्था में हिंदी है या नहीं? हिंदी कानून का लागू होना न होना संस्था की मिल्कीयत पर निर्भर करता है सर।
लेकिन चूंकि आप संस्था के सर्वेसर्वा हैं, इसलिए आपकी व्याख्या ही अंतिम मान ली जाएगी। और हिंदी वाले, राजभाषा विभाग, सोए हुए हैं। और राजनेता ये सवाल तभी उठाएंगे जब उन्हें इसमें कुछ अपना हित दिखेगा। बलिहारी मालिक।
07-05-2003
5 तारीख को अध्यक्ष ने स्टाफ सदस्यों को संबोधित किया। सब लोग सहमे हुए से एक घंटे तक उनका भाषण सुनते रहे। अध्यक्ष जब भी सार्वजनिक रूप से बोलते हैं, बहुत सख्त बोलते हैं। वे स्टाफ को उत्साहित या प्रेरित करने के लिए नहीं ललकारते। वे खामियों, कमियों, परिस्थितियों (जो कर्मचारी के वश के बाहर ही रहती हैं) के हवाले से चुनौती देते हैं। चुनौती बार बार धमकी में बदल जाती है। पिछले दो साल से कर्मचारी पहले ही इतना डरा हुआ है कि इस धमकी की ललकार से वह और सहम जाता है। मनोबल और कम हो जाता है। इस बार तो उन्होंने खुद को अलग ही कर लिया कि संस्था को चलाना मेरी जिम्मेदारी नहीं है। आप चाहते हो तो काम करो, मेहनत करो। वरना मैं एक महीने बाद यहां आकर आपको बता दूंगा कि आप मौका गंवा चुके हैं। पहले मार्केटिंग और फंड मैनेजरों को पोस रहे थे। इस बार उनकी भी खबर ले ली - यह कहकर कि ट्रस्ट्रियों ने आपको जिम्मेदारी सौंपी है। आपसे नहीं सधता तो ट्रस्टी किसी और को काम पकड़ा देंगे। अध्यक्ष के वाक्बाणों से कोई नहीं बच पाता। लेकिन इससे फायदा भी किसी का कुछ नहीं होगा।
10-06-2003
कोलमैन जी को कल केस पुटअप करते वक्त कहा कि आप भी कुछ लिखो, बोले क्या लिखूं, मैंने कहा लिखो कि चारों स्पांसर सरकारी हैं। जरा सोच के बोले, मैं लिखता हूं, हम राजभाषा नीति का पालन करें जब तक कंपनी प्राइवेटाइज न हो जाए। क्योंकि सरकार बार बार तो कहती है, प्राइवेट करेंगे, प्राइवेट करेंगे, तो फिर सरकारी ही हुई न, प्राइवेट कहां हुई।
उन्होंने लिख दिया और केस चेयरमैन के पास चला गया। आज सुबह सुबह मेरे पास वापस भी आ गया। चेयरमैन ने कल ही उसे देख लिया था। सिर्फ दस्तखत किए थे। मतलब जब तक निजीकरण नहीं होगा, राजभाषा नीति लागू रहेगी। कोलमैन का यह तर्क काम कर गया। मेरे लिखने का असर कम रहा होगा, क्योंकि हिंदी वाला तो हिंदी का ढोल पीटेगा ही। दूसरा कोई ताल बजाए तो वह कर्णप्रिय होगी। नए नए पदोन्नति पाए, प्रेसिडेंट बने कोलमैन की बात मान ली गई। तुरंत मैंने उन्हें धन्यवाद दे दिया, इंटरकॉम पर।
अब हमारी कार्रवाई धीरे धीरे शुरू हो जाएगी। धीरे धीरे ही होगी। तेज तर्रार तरीके से तो कभी चली नहीं। चल भी नहीं सकती, कोई चलने ही न देगा। धीरे धीरे ही सही, चलती तो रहे। और फिर यहां तो अंत परिभाषित कर दिया गया है। मियाद लिख दी गई है। निजीकरण हो गया तो हिंदी बंद।
24-07-2003
कल का दिन अजब सा रहा। अध्यक्ष से मिलना था। आते आते बारी ढाई बजे आई। हर बार की तरह सरकारी हिंदी की खामियां, खासकर रिपोर्टिंग सिस्टम की, गिनाते रहे। इस बारे में कोई बात नहीं करना चाहता कि सारे काम जो अंग्रेजी में हो रहे हैं, वे जन सामान्य की भाषा में हों। वे यही मान कर चले हैं कि आज नहीं तो कल हिंदी नहीं रहेगी।
मैंने प्रशिक्षण संस्थान में हिंदी एप्रीसियेशन कोर्स चलाने की बात की। उसकी शुरुआत ही गड़बड़ हुई। मैंने फ्रंटलाइन में छपे एक लेख का हवाला दिया। वे बोले, मैं फ्रंटलाइन नहीं पढ़ता। और यह कि कोर्स की बजाए उन्हें साहित्य की शाम जैसा प्रोग्राम करना पसंद है। वह भी हास्य कवि वाला। फिर वे काका हाथरसी के देहरादून से दिल्ली की यात्रा का किस्सा सुनाते रहे कि किस तरह सारी रात उन्होंने कविताएं सुनीं। इससे पहले उन्होंने यह भी कहा कि सुरेंद्र शर्मा उनके मित्र हैं। ये हमारे श्रेष्ठ नौकरशाहों में से एक माने जाते हैं। राष्ट्रीय स्तर की नीतियां इन्हीं जैसे लोगों के हाथों बनती हैं। साहित्य के प्रति इनका नजरिया बहुत चलताऊ किस्म का है। मनोरंजन से ज्यादा कुछ नहीं। भाषा के प्रति तो पूर्वग्रह है ही। बल्कि वह खाना ही बंद है।
शाम को एक आदेश आया जिसमें हमारे तीन अधिकारियों को मार्केटिंग में ट्रांसफर किया गया है।
25-07-2003
अध्यक्ष सातवीं मंजिल पर एक बहुत बड़े कमरे में बैठते हैं। उसके बाहर आईसीयू के बाहर जैसा सहमा हुआ, चुप्पा माहौल है। लोग फुसफुसाहट में बात करते हैं। लेकिन आज कमरे के अंदर का माहौल बड़ा भव्य और गर्मजोशी भरा था। अध्यक्ष भी बेहद सहज।
हम लोग छ: मंजिल नीचे पहली मंजिल पर बैठते हैं। यहां माहौल बड़ा ठंडा, अवसादग्रस्त और बीमारी से पहले की थकान वाला सा है। ठंडक शायद इसलिए भी ज्यादा है क्योंकि बगल में सर्वर-रूम है, जिसका तापमान बहुत कम रखा जाता है।
हम लोग असुरक्षा के घेरे में हैं। अध्यक्ष भी तो अपनी तैनाती को लेकर असमंजस में हैं। कहां जाएंगे, किस पद पर जाएंगे। पर उन्हें असुरक्षा नहीं है। उसमें सत्ता की गर्मी भी है। पद की गरिमा भी। क्या हमारे पद के हिसाब से हमारी गरिमा है? न गर्मी न गरिमा। जरूरत भी क्या है? और यह तुलना भी कितनी बेतुकी है।
06-06-2003
5 अधिकारी हिंदी कक्ष से हटा लिए गए हैं। बेलापुर (यूटीआई की एक कंपनी में प्रतिनियुक्ति पर) भेजे जा रहे हैं। यहां रह गए मैं और पांडेय। वही पुराने ढाक के तीन पात। अब क्या तो हिंदी और क्या हिंदी वाले! और कितने दिन!
07-08-2003
कल बहुत तेज अफवाह थी, सच जैसी कि वीआरएस आ गई। हमारे हिंदी अफसरों को भेजने और मुझे और पांडे को यहां रखे रहने का संकेत साफ नजर आता है कि तुम लोग जाओ। ऐसी स्थिति में पहला संघर्ष खुद को अवसाद से दूर रखना है। और बाकियों को बचाना है।
20-08-2003
और सच में ही वीआरएस वालेंटरी सेपरेशन स्कीम के नाम से 8/8 को आ गई। 26/9 तक खुली रहेगी। हम लोग (मैं और पांडे) 40 से ऊपर के होने के कारण और बाकी 5 अफसर बेलापुर में प्रतिनियुक्ति पर होने के कारण इसके पात्र हो गए। पर मेरी सेवा कम होने के कारण (10 साल से कम) पेंशन नहीं मिलेगी। शनि-रवि बड़े तनाव, ऊहापोह में बीते। हमें लगा कि मकान अक्टूबर में ही छोड़ना पड़ेगा। हिंदी की दुर्गति के कारण रिटायर भी होना ही पड़ेगा। पर सोमवार को दफ्तर आते आते रास्ते में पता चला कि मकान छ: माह तक रखा जा सकता है, यानी अरू का यह साल इसी स्कूल में पूरा हो जाएगा। इस बात को लेकर हम से ज्यादा बेचारी वह परेशान थी।
01-09-2003
28 अगस्त को अध्यक्ष ने स्टाफ को संबोधित किया। उन्होंने दावा किया कि वे वीआरएस को बेचने नहीं आए हैं। प्रसंगवश, उन्होंने इसी खूबियां बताईं। साथ ही कर्मचारियों के मन में उठते भय के बारे में भी बात की। उनके भाषण का बीज शब्द था - `abundantly clear' (खासा साफ)। हर मुद्दे पर बात करने के बाद उन्होंने इस शब्द को दोहराया, किसी मंत्र की तरह कि वे हर बात को अच्छे ढंग से साफ करते चल रहे हैं। उन्होंने बातें इस तरह रखीं मानो उनका भाषण वीआरएस को बेचने वाली स्पीच ही था। संस्था की जो तस्वीर उन्होंने पेश की, वह इतनी उदास, नकारात्मक और भयावह थी कि शायद हरेक कर्मचारी वीआरएस लेने के बारे में सोचने लग गया होगा। जाहिर सी बात है कि उनके भाषण का मकसद भी यही था। वो, प्रबंध तंत्र और सरकार इस स्कीम को सफल बनाना चाहती है इसलिए उन्होंने कर्मचारियों पर इतना दबाव बनाया कि हर कोई डरा हुआ है। शायद कुछ खुशकिस्मत लोग भी हैं जो सोचते होंगे कि वे वीआरएस के बाद भी रह जाएंगे। असल में कुछ लोग ऐसे हैं - प्रबंधन के तथाकथित आंख के तारे। उनमें से बहुत से ऐसे भी हैं जो दूसरे बहुतों को दर-बदर कर खुद यहां बने रहना चाहते हैं। हर बार की तरह उनका यह भाषण रिकार्ड भी किया गया। इसमें ऐसी बातें थीं कि अगर वह संसद को सुना दिया जाए तो उन पर विशेषाधिकार का मामला बन सकता है।
16-09-2003
26 तक वीआरएस के आवेदन दिए जाने हैं, असमंजस और ऊहापोह दिनों दिन बढ़ते जा रहे हैं। क्या फैसला लेना उचित है, पता नहीं।
16-09-2003
वक्त फिसला जा रहा है। रास्ता कोई नजर नहीं आता। अफवाहों का बाजार गर्म रहता है। एक से एक दुर्दान्त हिम्मत भी जवाब देने लगती है। रेडियो में कमीशन्ड प्रोग्राम के लिए फोन किया था। एक जमाने में साईंस अफसर थे एरंडे साहब। अब स्टेशन डायरेक्टर हो गए हैं। फोन पर उनकी आवाज बर्फ की सिल्ली की तरह सर्द, निर्लिप्त और निस्पृह थी। जैसे मैं किसी दूसरी ग्रह का प्राणी हूं। सोनी
टीवी में आडिशन के लिए जाने की बाबत सोचता था। ह्यूमनस्केप के जयेश शाह से भी मिलना था। कहीं भी जाने की हिम्मत नहीं होती। इन लोगों ने अचानक इतना डिगा दिया है कि खुद पर से ही विश्वास उठ गया लगता है।
30-09-2003
अंतत: पटाक्षेप हो गया। यूटीआई में सितंबर 1994 में आना हुआ था। नौ साल तक यह नौकरी चली। 26 की शाम को वीआरएस ले ली। नाम तो स्वेच्छा है लेकिन स्वेच्छा कहां थी। कोई रास्ता सामने बचा नहीं था। हिंदी की जगह उत्तरोत्तर कम ही होती गई। एक चक्र जैसा पूरा हो गया। यहां 1994 के बाद सब कुछ नए सिरे से शुरू हुआ था। जोर दे कर सब हुआ। और अब यह संस्था दोफाड़ हो गई। कर्मचारी विरोधी हो गई। उन्हें भगाने पे लग गई। क्या पता गलत ही फैसला मैंने लिया हो। अब जीवन पद्धति ही बदल जाएगी।
हमारे सरकारी तं
ReplyDeleteत्र में यूं तो सभी चीज़ें बस उच्चाधिकारी के रहम-ओ-कर्म पर टिकी रहती हैं मगर हिंदी के मामले में मैंने देखा है कि अधिकांश संस्थानों में हिंदी वाले को बोझ समझा जाता है. आपकी यह पोस्ट मेरे इस विश्वास को और पक्का करती है.
जी, हिंदी का कानून हिंदी के साथ बड़ा छल है। हालांकि इसकी वजह से लोगों को नौकरियां मिली हुई हैं।
Deleteसही लिखा है आपने. सरकारी तंत्र में हिन्दी के संवेदनशील लेखक के लिए कोई जगह नहीं. सबकुछ ढकोसला लगता है. मैं तो चार साल में ही समझ गया था. इस दुनिया से भागो. चला आया. पत्रकारिता में, लेकिन वहाँ भी कहाँ चैन!
ReplyDeleteमैं भी यूटीआई छोड़ने के बाद एक दिन आकाशवाणी भवन गया था, जहां आठ साल नौकरी कर चुका था तो वहां के ढांचे को देखकर लगा, मैं जो छोड़कर गया तो क्या फर्क पाया? कुछ नहीं। थाड़े बहुत रद्दोबदल के साथ सारी नौकरीगाहें एक सरीखी हैं, खुश्क, ठस और दृष्टिहीन।
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