धीरोदात्त नायक की प्रतीक्षा करती और साथ ही
उत्तेजक उत्तर-आधुनिकतावादी नारीवादी विमर्श करती पद्मिनी नायिका
कथादेश में पवन करण और अनामिका की कविताओं पर जारी बहस में कात्यायनी का लेख.
इस बहस में आप पहले प्रभु जोशी का लेख पढ़ चुके हैं.
पवन करण और अनामिका की कविताओं का शालिनी माथुर ने जो कुशाग्र विश्लेषण प्रस्तुत किया, उस पर पहले ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं लगी। शालिनी की केन्द्रीय स्थापनाओं से मेरी पूरी सहमति थी। पर बहस के दौरान मूल मुद्दे को इधर-उधर खींचने-तानने-घसीटने से कुछ नये विवाद के मुद्दे उभरकर आये। उन पर अपने विचार रखने की ज़रूरत महसूस हुई।
पहली बात यह कि निर्वस्त्रता (जैसा कि शालिनी ने भी लिखा है) अपने आप में अश्लील या पोर्नोग्राफिक नहीं होती। यदि ऐसा होता तो पुनर्जागरण काल से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक की यूरोपीय चित्रकला की कई क्लासिकी कृतियाँ अश्लील मान ली जातीं। हाँ, कोर्णाक और खजुराहो की मैथुनरत युगलों और पशुओं तक से मैथुन की मूर्तियाँ भारतीय समाज के एक गतिरुद्ध और पतनोन्मुख समाज के अभिजनों-पुरोहितों की सांस्कृतिक सड़ान्ध की अभिव्यक्ति मात्र हैं। अर्चना वर्मा इन्हें 'इस बहुलताप्रेमी देश के समावेशी स्वभाव में विचित्र और विलक्षण आस्थाओं और अस्मिताओं के लिए भी जगह बना देने की पुरागत परम्परा' मानती हैं। उनके हिसाब से, तान्त्रिकों-वामाचारियों के विविध सम्प्रदाय धार्मिक आस्थाओं को रूपकों-प्रतीकों में ढालकर स्त्रियों के साथ (धार्मिक अनुष्ठान के नाम पर) जो कुछ करते थे, उन्हें भी 'विचित्र और विलक्षण आस्थाओं-अस्मिताओं का एक विशिष्ट गढ़न्त (Construct) मान लिया जाना चाहिए और उनका सहानुभूतिपूर्वक पाठ/पढ़न्त (Reading) होना चाहिए। ऐसा ही सती-प्रथा के साथ भी होना चाहिए।
उत्तार आधुनिकतावादी विमर्श (Discourse) प्रणाली की जिस त्रयी - लिखन्त, पढ़न्त, गढ़न्त (Text, reading and construct) को अर्चना वर्मा ने अपनी तर्क-प्रणाली का आधार बनाया है, उसकी सबसे बड़ी सहूलियत यह होती है कि उसका कोई सन्दर्भ-चौखटा (Frame of reference) होता ही नहीं। जो भी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक गढ़न्त हैं, उनके कई लिखन्त और कई पढ़न्त हो सकते हैं। किसी एक अवस्थिति के सही या गलत होने का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। पक्षधरता या निर्णायकता का मुद्दा अप्रासंगिक हो जाता है। अनामिका ने शालिनी को यह नसीहत यूँ ही नहीं दी है कि आदमी को 'जजमेण्टल' होने से बचना चाहिए। पाठ की बहुस्वरीयता (Polyphony) की बात जब लुनाचार्स्की ने (दोस्तोयेव्स्की के सन्दर्भ में) और बख्तीन ने की थी तो उन्होंने रचनाकार को सुनिश्चित विचारधारात्मक अवस्थिति और सामाजिक पक्षधरता से मुक्त कत्तई नहीं किया था। अर्चना वर्मा लिखन्त, पढ़न्त, गढ़न्त की अवधारणाओं के मूल में भाषा में स्वभावत: निहित अर्थबहुलता और सन्दर्भ-सापेक्षता की चर्चा करते हुए रचनाकार को पूरी छूट देते हुए ज़िम्मेदारी मुख्यत: पाठक की पढ़न्त क्षमता पर डाल देती हैं जो उसकी भाषिक क्षमता, वैयक्तिक सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, वैचारिक प्रतिबद्धता आदि से तय होती है। उनका साफ-साफ कहना है : ''लिखन्त की विवक्षा और अर्थान्विति लेखक की मंशा से नियन्त्रित और अभिप्राय से संचालित न होकर पाठक की पढ़न्त क्षमता द्वारा कार्यान्वित होती है।'' बात यहाँ साफ हो गयी है। यानी असल बात यह है कि रचनाकार इस तर्क से दायित्वमुक्त हो जाता है और अपनी वैचारिक-सामाजिक अवस्थिति की किसी भी आलोचना के जोखिम से सुरक्षित हो जाता है। यह घिसे-पिटे उत्तर आधुनिकतावादी सिद्धान्त-चर्वण के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आज हिन्दी की कई स्त्री चिन्तक और स्त्री कवि अपने कृतित्व में जो नारीवाद प्रस्तुत कर रही हैं वह गत शताब्दी के साठ के दशक के पश्चिमी नारीवाद के विविध सरणियों से सर्वथा भिन्न है। उस दौर के नारीवादी आन्दोलन के पास स्त्री-मुक्ति की कोई सांगोपांग परियोजना नहीं थी, उनकी विचारधारात्मक अन्तर्वस्तु मधयमवर्गीय अराजकतावादी थी और स्वरूप रैडिकल स्वत:स्फूर्त था। आगे चलकर अपनी तार्किक परिणति के तौर पर भले ही वह धारा विघटित हो गयी और कुछ हद तक प्रतिगामी निष्पत्तियों तक जा पहुँची, पर अपने समय में कई शीर्षस्थ नारीवादी सिद्धान्त-निरूपकों की उपस्थिति के साथ-साथ उस नारीवादी आन्दोलन का स्वरूप जनान्दोलनात्मक था। पूँजीवादी जनवाद के वैधिक दायरे के भीतर उसकी अपनी कुछ उपलब्धियाँ भी थीं।
आज स्थिति सर्वथा भिन्न है। स्त्री-मुक्ति और पुरुष वर्चस्व जैसे प्रश्न आज उत्तार-आधुनिकतावादी विमर्श के दायरे में सिमट कर रह गये हैं। उत्तर-आधुनिकतावादी दृष्टि के अनुसार दमन या उत्पीड़न, विमानवीकरण, वस्तुकरण या ऐसी कोई भी चीज़ एक वस्तुगत सामाजिक यथार्थ नहीं बल्कि एक वैचारिक समस्या है जिसका सम्बन्ध दार्शनिक द्वैतों से है और इन द्वैतों की व्याख्या में ही दमन-उत्पीड़न-वर्चस्व या ऐसी कोई स्थिति स्वीकार की जा सकती है। तात्पर्य यह है कि उत्तर-आधुनिकतावाद और उसकी सहोदरा ''उत्तर''-विचार सरणियाँ सभी विचारों, विश्वासों, व्यवहारों; संस्थाओं, घटनाओं-परिघटनाओं को वस्तुगत यथार्थ के बजाय एक पाठ या लिखन्त (text) मानती हैं और इसकी अर्थान्विति भी पूरी तरह से मनोगत होती है यानी प्रेक्षक/पाठक की स्थिति पर निर्भर होती है, जैसा कि अर्चना वर्मा कहती हैं, ''... लिखन्त पाठक के हाथों में आते ही अपने तात्कालिक सन्दर्भों से मुक्त होती और पढ़न्त-सापेक्ष बन जाती है, हालाँकि लिखन्त सापेक्षता से पूरी तरह से मुक्त नहीं होती।'' उत्तर-आधुनिकतावाद का जादुई तर्क 'सिग्निफायर' और 'सिग्निफायड' की अवस्थितियों को मनमाने ढंग से बदलता रहता है।
उत्तर-आधुनिकतावादी, उत्तर उपनिवेशवादी, 'सबआल्टर्न' इतिहासकार और अस्मितावादी राजनीति (Identity Politics) के एन.जी.ओ.-पन्थी ज्ञानधरीण ये सभी लोग प्रबोधन (Enlightenment), क्लासिकी जनवादी क्रान्तियों और समाजवादी क्रान्तियों के ''महाख्यानों'' (Metanarratives) और मानववाद, जनवाद, समाजवाद की अवधारणाओं-परियोजनाओं को एकलतावादी, अपचयनवादी (Reductionist) और वर्चस्ववादी (Hegemonist) मानकर खारिज करते हैं। इनका मानना है कि सत्ता विकेन्द्रित होकर हमारे जीवन के पोर-पोर में घुसी हुई है, आमजनों द्वारा आभ्यन्तरीकृत कर ली गयी है, अत: इसका प्रतिरोध असम्भव है। यथास्थिति की जड़ता की हर आलोचना एक नयी जड़ता को जन्म देती है और सत्ता का हर प्रतिरोध सत्ता के नये रूप को जन्म देता है। (अर्चना वर्मा शालिनी की आलोचना करते हुए जब कहती हैं कि पितृसत्ता के गढ़न्तों से लड़ते-लड़ते स्त्री विमर्श की अपनी अनेक निष्पत्तियाँ स्वयं न केवल एक गढ़न्त बल्कि जकड़न्त बन चुकी हैं तो इसके पीछे मूलत: यही तर्कप्रणाली सक्रिय होती है)। ऐसी स्थिति में उत्तर आधुनिक, उत्तर औपनिवेशिक और 'सब-आल्टर्न' विचार-सरणियाँ एकमात्र वैकल्पिक सम्भावना के तौर पर दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों आदि की सत्ता से अनछुई-अप्रदूषित प्राक्-आधुनिक (Pre-modern) अस्मिताओं की तलाश करती हैं और उनकी स्वायत्ताता के 'स्पेस' को बचाने-बढ़ाने की कोशिश करती हैं। यह साहित्य और मानविकी के क्षेत्र में भी हो रहा है और राजनीति के क्षेत्र में भी। इसी दृष्टिकोण से प्रेरित इतिहासकार दीपेश चक्रवर्ती और समाजशास्त्री आशीष नन्दी 'कुलवधु' और 'गृहलक्ष्मी' जैसी 'सुन्दरता की अनपचेय (Irreducable) श्रेणियों' के महिमामण्डन तक जा पहुँचते हैं। इसी दृष्टिकोण से प्रेरित अर्चना वर्मा 'रसराज शृंगार' की रीतिकालीन रसानुभूति को सकारात्मक बताती हैं और इस बात के लिए चिन्तित दीखती हैं कि आधुनिकता का पीछा करता हुआ भारत विचित्र और विलक्षण आस्थाओं-अस्मिताओं और पुरागत परम्पराओं से विच्छिन्न होता जा रहा है (इसमें लिंग-पूजा, योनि पूजा, पशुओं तक से सम्भोग के भित्ति-चित्रों के उत्कीर्णन आदि सभी शामिल हैं!)। अनामिका की कविताओं में और लेखन में स्त्री-मुक्ति के प्रश्न को सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से विच्छिन्न कर स्त्री-देह की मुक्ति में (इसी में मन की मुक्ति भी है!) कीलित करने वाली पश्चिमी बुर्जुआ नारीवादी चिन्तन की एक उपधारा के साथ-साथ, लोक-परम्परा के नाम पर जो कुछ भी है; उसके प्रति जो अधिभूतवादी एवं अनालोचनात्मक स्वीकार-भाव है, उसे भी इसी नजरिए से समझा जा सकता है। यह संगमभूमि दरअसल उत्तर-आधुनिकतावाद की ज़मीन है जहाँ नारी मुक्ति देह-मुक्ति के रूप में और देह-मुक्ति 'देह के उत्सव' (राजेन्द्र यादव इसे यही नाम देंगे) के रूप में पवन करण और अनामिका अपनी-अपनी कविताओं में अंजाम दे रहे हैं।
बकौल अनामिका, उनकी कविता 'ब्रेस्ट' से जुड़ा सारा रूमान झाड़ते हुए यह भी बताना चाहती है कि स्त्री की अस्मिता किसी एक अंग में कीलित नहीं की जा सकती, पर ऐसा करते हुए वे स्त्री की अस्मिता व उससे जुड़े प्रश्नों को स्त्री-देह मात्र में कीलित कर देती हैं। ग्रेस निकोलस के संकलन 'फैट ब्लैक वुमन' से जो एक कविता उन्होंने उद्धृत की है वहाँ भी मोटी होने, अश्वेत होने और स्त्री होने से जुड़े तीन स्टीरियोटाइप्स को तोड़ने का जो तरीका कवि ने चुना है, वह भी व्यापक सामाजिक प्रश्नों को देह-मात्र में कीलित कर देने का ही तरीका है। कविता की स्त्री के दुद्धू उत्तेजक हैं। किसके लिए? निश्चय ही पुरुष के लिए! वह पुरुष से अपना जड़ीभूत सौन्दर्य-बोध बदलने का आग्रह करती है ताकि वह उसके तरबूज जैसे स्तनों, जुड़वाँ सील मछलियों जैसी जाँघों और उनके बीच जामुनी चेरी मुँह में दबाये झबरे कुत्ते को सराह सके और नाभि के नीचे नीलिमा में हहाते काले सागर में उतर सके। कविता न्यौता किसे दे रही है? क्या खुद को? नहीं, पुरुष को! अत: यह कविता भी समस्या का अपमानजनक अवमूल्यन करती है और सन्दर्भों से कटकर वस्तुगत तौर पर अश्लील बन ही जाती है। अनामिका भी इतना तो मानती ही हैं कि 'एकांगिता ही अश्लीलता है।'
करीब ढाई-तीन दशक पहले हिन्दी कविता में स्त्रियों के लिए करुणा की बाढ़-सी आ गयी थी। हिन्दी कवि दयनीय, मौन, उत्पीड़ित स्त्री के प्रति कुछ ज्यादा ही करुणार्द्र हो उठे थे। फिर स्त्री कविता का एक विद्रोही स्वर उभरा जिसका एक व्यापकतर सामाजिक परिप्रेक्ष्य था। उस समय भी ज्यादा हावी धारा कुलीन व्यक्तिवादी स्त्री-कविता की ही धारा थी। और अब यह एक दौर है जब पवन करण की चर्चित कविता जैसी हृदयहीन लम्पट-कामुक कविताएँ और अनामिका की चर्चित कविता जैसी कृत्रिम, 'सिंथेटिक' (प्रभु जोशी ने ठीक कहा है) विकृतमानस और संवेदनहीन कविताएँ लिखी जा रही हैं। पितृसत्ता का विरोध करते हुए स्त्री ने प्रकारान्तर से पितृसत्ता के ही गढ़न्तों को स्वीकार कर लिया है - अर्चना वर्मा की यह बात और कहीं लागू हो न हो, अनामिका की कविता पर तो ज़रूर लागू होती है।
हिन्दी कविता सामाजिक जीवन और संघर्षों के परिप्रेक्ष्य से आज असामान्य रूप से विमुख हुई है। स्त्री मुक्ति के प्रश्न को आम स्त्रियों के जीवन, वृहत्तार ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और सामाजिक मुक्ति की परियोजना से काटकर अभिजन समाज की स्त्रियों का निठल्ला विमर्श बना दिया गया है। इसका मूल कारण इतिहास का ठहराव और विपर्यय की लहर है। मज़े की बात यह है कि उत्तर-आधुनिकतावाद, उत्तर औपनिवेशिकता, उत्तर-मार्क्सवादी नारीवाद आदि का ज़माना यूरोप-अमेरिका में करीब डेढ़-दो दशक पहले ही बीतने लगा था। भारत में यह फैशन काफी देर से आया है, जैसा कि प्राय: होता है। पश्चिम के अकादमिक-सांस्कृतिक हलकों में इन दिनों ''मार्क्सवाद की वापसी'' का नारा देने का ज़माना है। फूको, देरिदा, ल्योतार, गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक, होमी भाभा आदि घिस चुके हैं। अब फिकरे और जुमले ज़िजेक़ और अलेन बेद्यू आदि से उधार लेने का ज़माना है।
अनामिका ने शालिनी को प्रेमचन्द की कहानी के पात्र 'बड़े भाई साहब' वाले भाव से नसीहत दी है। प्रेमचन्द के 'बड़े भाई साहब' नसीहत क्यों देते थे, वह जानती ही होंगी। हाँ, यह सम्भावना नहीं है कि कथा के अन्त में बड़े भाई साहब की तरह वे रूपान्तरित होकर सरल वेश में आ जायेंगी। नैतिकता का ठेका लेने, 'सेल्फरायटियसनेस' और 'जजमेण्टल' होने तथा ''प्रचण्ड मर्दवादी भाषा के तेवर'' में श्रेष्ठताबोधा से ग्रस्त होकर आलोचना करने की प्रवृत्ति को उन्होंने जब फासीवादी कहा है तो प्रकारान्तर से शालिनी को ही लक्षित किया है। पर स्वयं उनके लेख से ऊँचाई से 'सरमन' बोलने और नसीहत देने का जो तेवर है, कविता की समझ विकसित करने का जिस अन्दाज़ में दिया गया सुझाव है, उससे तो एक आहत फुफकार ही सुनायी देती है। जो तोहमतें वे शालिनी के आलेख पर लगाती हैं, वे ख़ुद उनपर ज्यादा सटीक ढंग से लागू होती हैं। दिलचस्प बात यह है कि शालिनी की मूल आपत्तियों और तर्कों में से उन्होंने एक को भी सीधे-सीधे नहीं छुआ है और बस दाँये-बाँये से निकल गयी हैं।
अनामिका के मर्दवाद-विरोध की ब्रह्मगाँठ तब खुल जाती है, जब एक नैतिक-बौद्धिक रूप से परिष्कृत आधुनिक स्त्री के अकेलेपन के लिए उन्हें ''रामगुप्तों से घिरी ध्रुवस्वामिनी के अकेलेपन'' का रूपक सूझता है। यानी मर्दवाद (पुरुष वर्चस्ववाद) का सारतत्व यह है कि अपनी नामर्दगी को ढँकने के लिए कायर पुरुष अतिरिक्त आक्रमक और निर्दय आचरण करते हैं। फिर मर्दवाद का समाधान क्या है? यह कि पुरुष ''संकल्पपूर्वक अतिपुरुष के खाँचे से बाहर आकर सम्यक् पुरुष यानी प्रजातान्त्रिक/दोस्त पुरुष'' बने, ''ध्रुवस्वामिनी के योग्य चन्द्रगुप्त'' बने, ''पद्मिनी नायिका के योग्य धीरोदात्त/धीरललित/धीरप्रशान्त नायक'' बने। अनामिका जी, महाकाव्य काल के धीरोदात्त/धीरललित/धीरप्रशान्त नायक उदारचरित भले हों, पर स्त्री के प्रति प्रजातान्त्रिक रुख रखने वाले दोस्त पुरुष तो कत्तई नहीं होते थे। ध्रुवस्वामिनी का अपना व्यक्तित्व था और चन्द्रगुप्त एक जेनुइन प्रेमी और साहसी राजा था, पर आधुनिक स्त्री के स्वतन्त्र व्यक्तित्व और प्रजातान्त्रिक पुरुष व्यक्तित्व को उन दोनों पर आरोपित करना अतिबौद्धिकता के हास्यास्पद द्रविण प्राणायाम से अधिक कुछ भी नहीं है। आज के मूल्यों के सन्दर्भ-चौखटे से देखें तो धीरोदत्ता नायक अतिपुरुष के खाँचे में कैद होता था और पद्मिनी नायिका आचरण और सौन्दर्यबोध की दृष्टि से प्राचीन/मधयकालीन पुरुष वर्चस्ववादी कसौटियों पर खरी होती थी। यानी शब्दों में तो अनामिका पुरुष के अतिपुरुष होने का विरोध करती हैं, पर वास्तव में प्रतीक्षा उन्हें एक अतिपुरुष की ही है।
बात तब और स्पष्ट हो जाती है जब वे (''शालिनी बाबू'' ,''शालिनी भैया'' को सम्बोधित करते हुए) मानो दुनिया के सारे पुरुषों को चुनौती देती हैं कि ''कहाँ पैदा हुए हैं अभी वे मर्द जो स्त्री की यौनिकता जगा दें... पढ़ी-लिखी, चेतन, परिष्कृत मन वाली स्त्री की यौनिकता जगा पाना इतना आसान नहीं।'' अब यहाँ यौनिकता से तात्पर्य यदि 'सेक्सुअलिटी' से है, तो वह एक स्वायत्त-सकारात्मक प्रत्यय है, वह एक उन्नत स्त्री-चेतना में उपस्थित रहती है, उसे पुरुष द्वारा जगाने की ज़रूरत नहीं होती। यौनिकता से तात्पर्य यदि स्वस्थ यौनक्षुधा या स्वस्थ ऐन्द्रिक कामना से है, तो कहा जा सकता है कि एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व और उन्नत चेतना वाली आधुनिक स्त्री इस मामले में समान सक्रिय पक्ष की भूमिका निभाती है। अनामिका के विचार से स्त्री शरीर पुपुही नहीं बल्कि गम्भीर राग-रागिनियों, श्रुतियों-अनुश्रुतियों से भरी हुई रुद्रवीणा है, लेकिन है वह एक वाद्ययन्त्र ही, जिसके अन्तर्संगीत को जगाने के लिए किसी धीरोदात्ता/धीरललित/धीरप्रशान्त नायक की ज़रूरत है। (यह 'साहब, बीवी और गुलाम' की नायिका की कामना लगती है न कि किसी आधुनिक स्वतन्त्र चेतस् स्त्री की)। धीरोदत्ता नायक के पुरातन खाँचे-साँचे वाले ऐसे किसी अतिपुरुष की प्रतीक्षा एक लोकतान्त्रिक सोच न होकर एक फासीवादी आत्मिक जगत और सौन्दर्यशास्त्र की अभिलाक्षणिकता है। यह फासीवादी विचारों से अनुकूलित एक मिथ्याभासी स्त्री-स्वातन्त्रय चेतना है। उत्तार-आधुनिकतावादी नारीवाद लोकजीवन की रागात्मक चाशनी में लिथड़ी प्राक्आधुनिक सोच-संस्कारों-विचारों-संस्थाओं को महिमामण्डित करने के साथ ही लोकतान्त्रिक मूल्यों-संस्कारों का विरोध करता ही है। साथ ही जेण्डर पर केन्द्रित हर विमर्श को व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक सन्दर्भों से काटकर वह देहकेन्द्रित, यौनकेन्द्रित, 'स्त्री बनाम मर्द' केन्द्रित बनाकर स्त्री मुक्ति के प्रश्न को परियोजना में रूपान्तरित करने की जगह विमर्श और मुहावरेबाजियों-जुमलेबाजियों तक सीमित कर देता है। कविता और विचार के क्षेत्र में विश्वविद्यालयों की अभिजन विदुषियाँ आजकल ऐसा धामाल खूब मचाये हुई हैं।
अनामिका को ताज्ज़ुब है कि शालिनी ने न जाने कहाँ ऐसी स्त्रियाँ देखी हैं जो बेधयानी का अभिनय करते हुए जानबूझकर सबके सामने पल्ला सरकाती हैं और धयान से चारों ओर देखती हैं कि सबने उसे धयान से देखा या नहीं। हमारे जैसे बन्द समाजों की घुटन में यह विमानवीकरण, विघटित स्त्री चेतना और रुग्णता खूब देखने को मिलती है स्त्रियों के एक हिस्से में। अनामिका को दिल्ली के मधयवर्गीय इलाकों में जाकर व्यापारियों और बाबुओं की, रूटीनी गार्हस्थ्य से बोर पत्नियों का पास-पड़ोस के ''भाई साहबों'' से व्यवहार पर गौर करना चाहिए, कलकत्ता के किराये के कमरों में रहने वाले छात्रों की बहुतायत वाले इलाकों में जाकर पास-पड़ोस की ''भाभी जी'' लोगों का उनके साथ व्यवहार देखना चाहिए, किसी तुक्कड़ी कवि सम्मेलन में गा-गाकर कविता सुनाने वाली किसी कवयित्री का मंच पर और मंच के पीछे व्यवहार देखना चाहिए। यही नहीं, साहित्य के मठाधीश कई नौकरशाहों की महफिलों और कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं के दफ्तरों में भी ऐसे दृश्य देखने को मिल जायेंगे। कविता और कहानी में भी एक स्त्री जब कोई निमित्त तलाशकर, विद्रोह या त्रासदी के नाम पर या किसी अन्य बहाने से, स्त्री को अनावृत्त करती है तो रुग्ण पुरुष मानस को गुदगुदाने (titillation) का ही काम करती है।
दूर की कौड़ी लाने के चक्कर में वकील कभी-कभी केस बिगाड़ने और मुवक्किल की फजीहत कराने का ही काम किया करते हैं। ऐसा ही आशुतोष कुमार ने किया है। सीढ़ी दर सीढ़ी तर्क करते हुए वे यहाँ जा पहुँचते हैं कि ज़रूरी नहीं कि पोर्नोग्राफी हर हाल में स्त्री के लिए अपमानजनक ही हो। सनी लियोन खुद मानती हैं कि पोर्नोग्राफी उनके लिए सृजनात्मकता की अभिव्यक्ति का एक खास तरीका है जिसे उन्होंने अपनी इच्छा से चुना है और इसपर उन्हें गर्व है। आशुतोष कुमार जी, पोर्नोग्राफी के बारे में 'वैल्यू जजमेण्ट' इस आधार पर नहीं लिया जा सकता कि सनी लियोन इसे सृजनात्मक अभिव्यक्ति का माधयम और अपना स्वतन्त्र निर्णय मानती हैं। पोर्न उद्योग और यूरोप के सेक्स उद्योग में लगी ज्यादातर स्त्रियाँ यही कहेंगी कि वे अपने स्वतन्त्र निर्णय से ऐसा कर रही हैं। पर वस्तुत: ऐसा है नहीं। इनके पीछे सैकड़ों परोक्ष रूप से आर्थिक-सामाजिक परिवेशिक दबाव काम करते हैं या फिर एक विघटित स्त्री चेतना काम करती है जो अलगाव और पूँजीवादी सांस्कृतिक अध:पतन का परिणाम होती है। यदि कुछ पुरुषों के लिए सनी लियोन कुत्सित उल्लास का रूपक या एक गाली का पर्याय बन चुकी है तो मात्र इसी से यह तय नहीं हो जाता कि हम सनी लियोन (निश्चय ही, उसके निर्णय की आज़ादी उसकी अपनी है, पर उसके निर्णय से असहमति की भी उतनी ही आज़ादी है) के कृत्य का औचित्य प्रतिपादन करने लगें। जहाँ तक सृजनात्मक अभिव्यक्ति का सवाल है, तो आशुतोष जी, पोर्न इण्डस्ट्री तो छोड़ ही दीजिए, हॉलीवुड-बॉलीवुड के कमर्शियल सिनेमा में भी अभिनेता की सृजनात्मक अभिव्यक्ति का 'स्पेस' बस नाम को या अपवादस्वरूप ही होता है। वहाँ कुछ है तो बस पैसे और स्टारडम की कुत्तादौड़ है, खोखलापन है, वैचारिक दिवालियापन है और घनघोर आत्मिक रिक्तता है। आशुतोष कुमार ने अपने लेख के अन्त में पोर्नोग्राफी के बारे में काफी कुछ ठीक-ठीक बातें लिखी हैं। यह सही है कि पोर्नोग्राफर स्त्री को केवल वस्तुकृत नहीं करता (क्योंकि वह कभी भी पूरी तरह से वस्तुकृत नहीं हो सकती)। कभी-कभी वह उसे पशुवत् 'ट्रीट' करके परपीड़क आनन्द लेता है, कभी गोपन को खोलने और निजी स्पेस में झाँकने की फन्तासी रचता है, कभी अपनी समस्त रुग्ण मर्दवादी फन्तासियों-अप्राकृतिक यौनाचार (अब यह मत कहियेगा कि अप्राकृतिक कुछ नहीं होता और यह भी एक पुरानी जड़ीभूत सोच है), सामूहिक यौनाचार, सार्वजनिक नग्नता, 'वाइफ-स्वैपिंग' आदि-आदि का शिकार बनाता है। यह भी सही है कि जैसे हर उत्पीड़क अन्दर से डरा होता है, उसी तरह पोर्नोग्राफर भी स्त्री की स्वतन्त्रता और यौनिकता से डरा होता है। विचित्र बात यह है कि पोर्नोग्राफी के बारे में आशुतोष कुमार ने जो विश्लेषण किया है, उसी के हिसाब से देखें तो भी पोर्नोग्राफी अपनी मूल प्रकृति से ही एक पुरुष वर्चस्ववादी स्त्री-विरोधी फासिस्ट उपकरण है। इसे कला-विधा भी नहीं कहा जा सकता। यह बस एक स्त्री विरोधी आक्रामक सांस्कृतिक औजार है।
बहस में कातर ढंग से अपने कम ज्ञान की दुहाई का दिखावा करते हुए एक बॉक्स की टिप्पणी के जरिए कवि मदन कश्यप का टपक पड़ना भी कुछ अजीब ही लगता है। निहायत अधिभूतवादी तरीके से वे ज्ञान और तर्क को संवेदना से अलगाते हैं और डराते हैं कि कविता को यदि अंक भौतिकी की तरह हल करना चाहेंगे तो पता नहीं निराला, शमशेर और मुक्तिबोध की कितनी कविताओं का क्या होगा? यानी कविता का विश्लेषण कविता की भाषा में होना चाहिए (बतर्ज़, 'सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो, प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो')। मदन कश्यप जी, कविता ही नहीं, शास्त्रीय संगीत के किसी पक्के राग या सिम्फष्नी का भी जब विश्लेषण किया जायेगा तो ठोस, वस्तुगत, विज्ञान की भाषा में ही किया जायेगा। विश्लेषण में काव्यात्मक अमूर्तन रचनाकार को पतली गली से निकल लेने का मौका देता है और आलोचक को यह अवसर देता है कि वह (i) रचनाकार का कोपभाजन न बने और (ii) अवसरानुसार, अपनी बात का मनमाना भाष्य कर सके और करवा सके। आप चिन्ता न करें, ठोस वस्तुपरक विश्लेषण से निराला, शमशेर, मुक्तिबोध का वस्तुपरक मूल्यांकन (जो प्राय: सकारात्मक ही होगा) ही होगा, कुछ बिगड़ेगा नहीं। पाब्लो नेरुदा की कविताओं को लेकर भी आप बेकार ही चिन्तित हैं। प्रश्न यहाँ काम-भावना और यौन-आधारित बिम्बों का नहीं है। इनसे किसी को आपत्ति नहीं है। शालिनी की मूल आपत्ति पर ग़ौर कीजिए। निर्वस्त्रता या यौन-सम्बन्ध का चित्रण अश्लील या पोर्नोग्राफिष्क हो, यह ज़रूरी नहीं है। अश्लील (Indecent), कामुक (sensual), ऐन्द्रिक (sensuous), कामोद्दीपक/रत्यात्मक (Erotic) और कामविकृति (Peruersity, perversion) में फर्क नहीं करेंगे तो कबाड़ा हो जायेगा। जो पोर्नोग्राफिक है वह अश्लील है, कामुक है और कामविकृत है। रत्यात्मक, स्थिति सापेक्षता के अनुसार, सकारात्मक भी हो सकता है, नकारात्मक भी। और जो ऐन्द्रिकता है, वह स्वस्थ सौन्दर्यात्मक-कालात्मक मूल्य है। पाब्लो नेरुदा की कविताओं में, ज्यादातर, (हमेशा नहीं) यौनिकता, स्त्री शरीर, सम्भोग आदि के इंगित या प्रसंग स्वस्थ ऐन्द्रिकता के रूप में आते हैं। और नेरुदा ही क्यों, होमर, अफलातून, होरेस, जुवेनाल और गोयठे से लेकर गेओर्ग वेयेर्त जैसे उन्नीसवीं शताब्दी के सर्वहारा कवि तक के कृतित्व में यह स्वस्थ ऐन्द्रिकता मौजूद है। वेयेर्त के बारे में फ्रेडरिक एंगेल्स के इस विचार पर ग़ौर कीजिए :
''जिस चीज़ में वेयेर्त आचार्य हैं, जिसमें वह हाइने से ऊपर थे (क्योंकि वे अधिक स्वस्थ और सच्चे थे) और जर्मन साहित्य में जिनका स्थान केवल गोयठे के एकदम बाद आता है, वह भी स्वाभाविक, स्वस्थ विषय-भोग तथा दैहिक वासना की अभिव्यक्ति A Sozial-demokrat के बहुत-से पाठक सहमे रह जायेंगे, अगर मैं Neue Rheinische Zeitung से कुछ व्यंग्य-लेख पुन: मुद्रित कर दूँ परन्तु मैं इसकी कल्पना तक नहीं कर सकता। परन्तु यह टीका किये बिना नहीं रह सकता कि जर्मन समाजवादियों के लिए वह वक्त आना चाहिए, जब उन्हें इस अन्तिम जर्मन कूपमण्डूकीय पूर्वाग्रह को खुलेआम एक ओर फेंक देना होगा। यह झूठी निम्न-बुर्जुआ लज्जा तो गुप्त अश्लीलता के लिए केवल पर्दे का काम देती है। उदाहरण के लिए, फ्रैलीग्राथ की कविताओं को पढ़ते समय सचमुच यह सोचा जा सकता है कि लोगों के पास यौनांग ही नहीं हैं। परन्तु चुपके से कोई मसालेदार चुटकुला सुनने में किसी और को इतना मज़ा नहीं आता था, जितना काव्य में इस घोर सतीत्वधर्मी फ्रैलीग्राथ को। अन्तत: समय आ गया है कि कम से कम जर्मन मज़दूर इसके बारे में, जो वे स्वयं दिन या रात को करते हैं, प्राकृतिक, अपरिहार्य तथा निरपवाद रूप से आनन्दयोग्य चीज़ों के बारे में उतनी ही स्पष्टता के साथ बातें करें, जितनी स्पष्टता के साथ रोमांसभाषी जनगण करते हैं, तथा होमर और अफलातून, होरेस तथा जुवेनाल, पुरानी इंजील तथा Neue Rheinische Zeitung ने की।''
(मार्क्स-एंगेल्स : 'साहित्य और कला'; राहुल फषउण्डेशन, पृ. 375)
पवन करण और अनामिका की कविताएँ स्वाभाविक-स्वस्थ ऐन्द्रिकता और नैसर्गिक काम भावना की कविताएँ नहीं हैं। ये यौन-उत्पीड़न की विद्रोही प्रतिक्रिया या स्त्री के वस्तुकरण के प्रतिरोध की कविताएँ नहीं है। ये मनोरोगी और कामविकृत कविताएँ हैं जो ब्रेस्ट कैंसर के बहाने ब्रेस्ट पर रुग्ण उद्दीपक विमर्श प्रस्तुत करती हैं। एक जगह मर्द के शहद के छत्तों दशहरी आमों की जोड़ी में से एक खो गया है, अमानत में खयानत हो गया है, दुखी क्षणों का शरण्य छिन गया है और स्त्री भी उदास है जिसके बारे में बातें सुनकर वह बौराती थी, आइने में जिसे देखकर झूमती थी और दोनों एक साथ अपने प्रेमी के मुँह में भर देने की सोचती थी, उसके देह से उनमें से एक के हट जाने से कितना कुछ हट गया है उनके बीच से। अन्त की कारुणिकता यदि मर्द-मानस पर चोट भी हो, तो भी यह तिनके की ओट बेकार है। पूरी कविता में प्याररत स्त्री भी अपने को लजीज़ गोश्त का टुकड़ा ही समझती रही है। और मूल बात है कैंसर जैसे प्रसंग में एक बेरहम कामुक अंग-वर्णन। और अनामिका की कविता में उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में लगे जालों, पहाड़ों में छिपी मौत की चुहिया, सर्जरी के प्लेट में खुदे-फुदे नन्हें पहाड़ों से खिलन्दड़ा संवाद, दस बरस से पीछे पड़े बुलबुलों का फूटना, ब्लाउज़ के छिपे तकलीफषें के हीरों को निकाल बाहर करना यह सारा कुछ एक मनोरुग्ण प्रलाप-सा लगता है। दरअसल, एक जबर्दस्त साहसी नारीवादी कविता गढ़ने के चक्कर में अनामिका ने न सिर्फष् अन्तरविरोधी रूपकों-बिम्बों का जंगल खड़ा कर दिया है, बल्कि एक बेहद संवेदनहीन, असौन्दर्यात्मक, आत्मिक रूप से कंगाल 'सिंथेटिक' कविता बना डाली है। यहाँ भी उनका उत्तर-आधुनिक लोकवाद उपस्थित है। दूध भी वे दुनिया की सारी स्मृतियों को पिलाती हैं। स्मृतियाँ अतीत और परम्पराओं से जुड़ती हैं। कोई भविष्य-स्वप्न नहीं है उनके पास दूध पिलाने के लिए। राहत देने के लिए अन्तिम शरण्य फिर स्मृतियाँ ही हैं। इन कविताओं पर मेरी स्थिति कुल मिलाकर शालिनी माथुर, प्रभु जोशी, राहुल ब्रजमोहन और दरबारी लाल ('समयांतर', सितम्बर, 2012) के साथ है, हालाँकि मेरी और इन सभी टिप्पणीकारों की विचारधारात्मक अवस्थितियाँ अलग-अलग हैं।
इन कविताओं और इनके (विशेषकर वामपन्थी पैराकारों के) तर्कों-वितर्कों को आज के उस देशकाल के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा जाना चाहिए जब चतुर्दिक पुरोगामी प्रवृत्तियों पर प्रतिगामी प्रवृत्तियाँ हावी हैं, यथास्थिति का ठहराव सड़ान्ध पैदा कर रहा है, मुक्ति की हर परियोजना को वर्चस्वकारी यूटोपिया बताकर खारिज किया जा रहा है, साहित्य में वामपन्थ के दायरे में भी नवरूपवादी क्रीड़ा-किल्लोल हो रहे हैं, अस्मिताओं के स्वयंस्फूर्त संघर्षों का महिमामण्डन हो रहा है, सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों को दृष्टिओझल किया जा रहा है, ''लोकवाद'' के नाम पर प्राक् आधुनिक व्यामोह परोसे जा रहे हैं, खाया-पिया-अघाया महानगरीय बौद्धिक समुदाय जनाकांक्षाओं के साथ ऐतिहासिक विश्वासघात कर चुका है, अकर्मक विमर्श और खिलन्दड़ा सृजन कर्म हो रहा है। ऐसे में, व्यापक स्त्री समुदाय के जीवन, संघर्ष और स्वप्नों से कोसों दूर ऐश्वर्य द्वीप की निवासिनी विश्वविद्यालयी विदुषियाँ स्त्री देह में स्त्री प्रश्न का कीलन कर रही हैं, पाखण्डपूर्ण बुद्धिविलास कर रही हैं और साथ ही, ''रसिक-जनों'' का काफी मनोरंजन भी कर रही हैं। और जहाँ तक आज के उदीयमान-प्रतिभावान, प्रशंसित-पुरस्कृत, ज्यादातर वामपन्थी (वैसे आजकल वाम दक्षिण में और दक्षिण वाम में प्रतिष्ठित हो रहा है) युवा कवियों का सवाल है; अपने जीवन और कृतित्व में स्त्री को लेकर वे कितने ''उग्र मुक्तिकामी'' और ''परम्पराभंजक'' हैं, यह हिन्दी साहित्य प्रदेश के सुधी नागरिकगण जानते ही होंगे।
डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226020
मो. 09936650658
बहुत अच्छा सुविचारित और तर्किक लेख। मुझे तो मार्क्सवादी इलाक़े में शालिनी माथुर के लेख का विरोध देखकर आश्चर्य ही हुआ था... जबकि उस लेख विशेष से हमें अपने इधर के सोचने के ढंग को फिर से सोचना था...
ReplyDeleteशिरीष, वह विरोध कहाँ था? वह तो स्थापितों की सामूहिक खीझ थी. जहाँ भी *स्थापित* लोग होंगे वहाँ यह अस्वीकार स्वाभाविक है.कि यह नई दृष्टि यह नया विचार एक अनजान कोने से क्यों निकल के आ रहा है ? कि जो कुछ हम घुटे हुए लोगों कहना चाहिए था , वह एक नया आदमी कैसे कह रहा है ? खैर यह भी सच है कि हर नया सच स्थापितों के अखाड़ों से इतर ही उद्घाटित होता है.
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Deleteयह आलेख पढ़ कर , और यह पूरा प्रकरण देख कर, ( कविताएं मैंने नहीं पढ़ीं न ही उन के बाबत यह टिप्पणी है) मुझे लगा कि हमारा मध्यवर्ग अभी भी यौनिकता , काम , ऐन्द्रिकता, अश्लीलता और अंततः अपसंस्कृति को ले कर पूर्णतयः कंफ्यूज़्ड है.हम ने बजाए इन विषयों की सहज समझ विकसित करने की इन्हे शब्दों में उलझाया ही है. कभी कभी मुझे हँसी आती है कि हम भद्र होने की अति चिंता में कुंठित होते गए हैं और एक खास क़िस्म की बौद्धिक / साहित्यिक अभिजात्यता इस मे सहायक रही है. फिर भी यह अच्छा ही है कि इन गाँठों से मुक्त होने की छटपटाहट इस बहस में है.
ReplyDeleteआप दोनों ही बंधुओं की बात सही है. दूसरे को स्पेस देना, असहमति से सहमत होना, दूसरे की नापसंदगी या टीका टिप्पणी को सहन करना, मित्रवाद और क्षेत्रवाद से ऊपर उठना (हम भूल गए हैं) हमें (फिर से) सीखना होगा. कहीं हम 'छोटे छोटे मनुष्य तो नहीं हो गए बर्फ के'!!
ReplyDeleteअजेय जी आपका कहना ठीक है.निर्कुंठ होने की यात्रा अभी लंबी है. लेकिन लेखक का ही यह हाल है तो आम आदमी का क्या होगा.
जी एक दम सही , और मैं अब भी यह मानता हूँ कि लेखक को इस हाल से उबरने न देने मे एक विचित्र धारणा का अहम रोल है कि -- *लेखक को आम आदमी की तरह ही सोचना / लिखना चाहिए; माने, सवालों और उलझनों से एक एस्थेटिक दूरी बना कर के देखने/ कहने की बजाय , उन मे लिप्त हो कर के देखने / कहने की परम्परा * यह हमारा नकली क़िस्म का जनवाद है .और हमे कहीं पहुँचने नहीं देगा . लेखक का वैचारिक तल पाठक के वैचारिक तल से न्श्चित रूप से ऊपर होना चाहिए . बेशक वहाँ एक हेत्वाभास बना रहे कि वह पाठक के मन की ही बात कह रहा है , उसे पाठक के मन का अतिक्रमण करते हुए मुद्दों को एक आम फहम ट्रीट मेंट से बचाना होगा . क्या अभी भी अपनी बात कह पाया ठीक से ? पता नहीं .
ReplyDeleteआपकी बात ठीक है.हमारे एक मित्र लेखक को 'अंतरात्मा का प्रहरी' जैसा भी कुछ कहते हैं.लेखक 'मशालची' भी होता है, रचना में और वैचारिक धरातल पर. ऐसा होना बड़ा चुनौती भरा और कठिन है. क्योंकि जीवन के अनुभव में तपे हुए आम आदमी की बराबरी करना आसान नहीं होता. उसके पास भाषा और अभिव्यक्ति की कमी हो सकती है. और लेखक भाषा में अपना अज्ञान छुपा ले जा सकता है.
Deleteदूसरी तरफ सामान्य जीवन में यानी व्यवहार में लेखक को आम आदमी ही होना होगा वरना वो भ्रमित हो जाएगा. या साहित्य-सत्ता के नशे में झूमने लगेगा. लेखक होने का मद उसे उसके आत्मसंघर्ष के सामने झूठा और छली बना देगा.
हमारे यहां कविता का शिल्प आम आदमी से दूर छिटक गया है. शायद उस सीमा तक कवि भी आम आदमी से दूर छिटक गया है.गजल गीत वाला शिल्प आम आदमी के नजदीक है, पर वैचारिक धरातल प्रायः पिष्टपेषण वाला है.
हम्म्म्म्म्म्म .... यहाँ आकर कविता कठिन तपस्या बन जाती है.
Deleteहालांकि सैक्स जीवन का मूल है पर बुरी तरह वर्जनाओं से लदा हुआ है। इसे लेकर हम सामाजिक और मानसिक रूप पूर्णत: कुंठित हैं। यह कुंठाएं हमारे सोचने से लेकर हर कार्यकलाप में चेतन और अवेचतन में प्रकट होती हैं। भले वो मां-बहन को संबोधित सबसे लोकप्रिय गालीयां हों या मर्द होने का दंभ। सैक्स कलाकृति में हो, रचना में हो या जीवन में जहां भी सहजता से आता है तो शिव भी है और सुंदर भी है।
ReplyDeleteयहां तक आते-आते बात ही बदल गई है। लेखक हो या कलाकार हो। वह अपनी रचना में कुछ कह रहा होता है इसलिए उसका कहना स्पष्ट, सहज और रसभरा और कम से कम उसका अपना सत्य होना चाहिए। बाकी तो पढ़ने वाला उसे पुन:सर्जित करेगा ही।
आधा सहमत.पाठकीय आकाँक्षा की बात कह रहे हैं आप . लेकिन इसी यथार्थ मे रस ले कर लिखते रहें लिप्त हो कर, तो साहित्य और जीवन में क्या फर्क रहा ? तो पोर्न कला ही महान कला न होती? मेरी समझ मे साहित्य मे इतना रस हो कि वह पाठक को एक नई छलाँग के लिए स्प्रिंग बोर्ड पैदा करे . इतना यथार्थ हो कि कि पाठक को एक नए जीवन सच में झाँकने की खिड़की दे ! माने संभावना दिखाए.क्या हमें ये अपेक्षाएं नही रखनी चाहिए ?
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