Friday, September 14, 2012

देवनागरी लिपि का सौंदर्य और तकनीक




  
हिंदी दिवस पर हिंदी की सेवा में प्रस्‍तुत   



लिपि का विकास शायद आद्य बिंबों की तरह हुआ है। अक्षर,वर्ण,व्यंजन आदि के रूप सैकड़ों हजारों वर्षों की यात्रा करके स्थिर हुए हैं। अक्षरों के रूपाकार या रेखाओं के पैटर्न में प्रकृति और प्राणिजगत प्रतिबिंबित होता है। भौगोलिक यात्राओं का असर भी इन पर पड़ा लगता है। लिपियों ने दिक् और काल दोनों में लंबी यात्राएं की हैं।

हिन्दी वर्णमाला के अक्षरों को अगर ध्यान से देखा जाए तो इनका सौंदर्य खुलने लगता है। अक्षर रेखाओं से बनते हैं। रेखाओं के पैटर्न, रेखाओं की गति, अक्षरों में सौंदर्य पैदा करती है। इस गति से एक तरह की प्रवहमानता और ऊर्जा भी नि:सृत होती है। ध्यान से देखें तो हमारे अक्षरों में सभी दिशाओं में जानेवाली रेखाएं हैं। लगभग प्रत्येक वर्ण में एक खड़ी रेखा है; जिस के सहारे वर्ण खड़ा है। और वर्णों में यह सीधी रेखा मध्य में है। अक्षर को बनानेवाली बाकी रेखाएं गोलाकार और घुमावदार हैं। ,,,,,ध व ब ल में तो लगभग पूरे पूरे बंकिम चक्र हैं। , , , , , आदि में अर्ध गोलाकार रेखाएं, या चापें हैं। उनमें भी और में घूंगर बनता है। अक्षरों की ये गोलाकार, अर्धगोलाकार रेखाएं सीधी रेखाओं के कारण तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि से अलग हैं। इन द्रविड़ भाषाओं में गोलाकारों की प्रधानता है। देवनागरी में आधे से ज्यादा अक्षरों में एक खड़ी रेखा है। इस कारण अक्षरों में एक तरह की स्थिरता आती है। यह जड़ता नहीं है, बल्कि दृढ़ता है। गोलाकार लिपि में लहरीलापन ज्यादा दिखता है। सीधी पाई के कारण आई दृढ़ता से मानो अक्षर में सौष्ठव आता है। उसे एक रीढ़ मिल जाती है। सीधी और गोल या अर्धगोलाकार रेखा के बाद बंकिमता तब आती है जब अक्षर जुड़ कर शब्द बनने लगते हैं और उनमें स्वरों के चिह्न लगते हैं। छोटी और बडी इ की मात्राएं ( ि ी ) बंदनवार की तरह अक्षर को ढकती हैं। दीर्घ () और आधे () की सूचक दराती  भी ध्वजा की तरह अक्षर पर लहराती है। () और () की मात्राओं का तिरछापन इ ( र् ) की गोलाई के विपरीत दिशा में रेखांकन को पूर्णता प्रदान करता है। इसी तरह अक्षरों के पैरों में भी (र) (रि) (उ) और (ऊ) के ध्वनि चिह्न दोनों दिशाओं में फैलते हैं। अनुस्वार और चंद्र बिंदु अक्षर के रेखांकन को जीवंतता प्रदान करते हैं। इसी तरह शब्द और अक्षर पर शिरोरेखा लिपि-चित्र को आधार प्रदान करती है। अब आप शब्द को कल्पना के भाव से देखें तो ऐसा चित्र बनेगा - शब्द लेखन में एक खड़ी रेखा (लंबवत) है। एक पड़ी रेखा (क्षैतिज) है। सीधी रेखा के अगल बगल गोलाकार, अर्धगोलाकार और घूंघरवाली रेखांओं के झुरमुट हैं। पड़ी रेखा के नीचे मानो रेखाओं का यह झुरमुट नृत्यरत रहता है और मात्राएं लताओं की तरह ऊपर चढ़ आती हैं या लहरों का उच्छवास मानो तट से उछल उछल पड़ता है। सीधी और पड़ी रेखा से एक एक फ्रेम, बनता चलता है। इस फ्रेम में बंकिम रेखाओं का कुंज गुंथा रहता है। यह फ्रेम एक पंक्ति, एक वाक्य,एक पदबंध या एक शब्द का बनता है। और बारीकी से देखें तो यह फ्रेम एक अक्षर का भी बनता है। रेखाओं की यह विविधता ही शायद लिपि को सर्वांग बनाती है। सर्वांग होने के कारण ही शायद यह सुंदर दिखती है। अक्षरों के ये रूप प्रकृति और प्राणिजगत के बहुत करीब हैं। जिन्होंने विष्णु चिंचालकर की अक्षरों पर खुलते अक्षर खिलते अंक पुस्तक देखी हो, वे सारा रहस्य समझ जाएंगे। इस पुस्तक में बच्चों को अक्षरों के बारे में चित्रों के माध्यम से समझाया गया है। विष्णु जी तो अपने आसपास की चीजों से चित्र ढूंढने वाले गुणी कलाकार हैं। प्रकृति के गुणग्राहक हैं। इसलिए अक्षरों में भी प्रकृति देख सके हैं। उन्हीं रेखाओं से जिनसे अक्षर बनता है, पेड़ या कोई प्राणी बन जाएगा। ऐसा लगेगा मानो आकार उस अक्षर में छिपा हुआ है।  

       


हमारे यहां लघु चित्रकला में खासतौर से जहां काव्य पर चित्र बने हैं, लिपि चित्रकला में घुली हुई मिल जाती है। इस लेखन में अक्षरों, शब्दों, वाक्यों के फ्रेम साफ साफ दिखते हैं। सुलेखन एक कला के रूप में दुनिया भर में प्रचलित रहा है। छापेखाने के आने से लिपि के रूपाकार में आमूलचूल परिवर्तन हुआ। बल्कि मशीनीकरण के कारण लिपि के सारे सौंदर्यबोध में ही परिवर्तन हुआ। अक्षरों का आकार प्रकार रूढ़ हो गया। लैटर टाइप प्रेस में अखबारें , पत्रिकाएं और पुस्तकें छपकर निकलने लगीं। अक्षरों का आकार, मोटाई, पन्नों पर कम्पोजिंग, सजावट एक समान हो गई। अखबारों के नाम और पुस्तकों के आवरण में कैलिग्राफी का प्रयोग होता रहा जिसके कारण विविधता और विशिष्ट पहचान बनती रही लेकिन शेष सामग्री में मशीनीकरण के प्रताप से गजब की समानता पैदा हुई। थोड़ा भेद अखबार, पुस्तक के आकार और कागज के प्रकार के कारण बना रहा लेकिन छपे हुए अक्षर कमोबेश इकसार बने। छपाई की नई तकनीकें आने तक यह एकरसता हिन्दी में विद्यमान रही। यह एकरसता दूसरी चीजों में भी रही है, वह भी बीसीयों बरसों तक। जैसे ट्रकों, बसों, कारों ,स्कूटरों ,साइकलों के मॉडल अर्से तक एक जैसे ही रहे। थोड़े बहुत हेरफेर के साथ एक ही ढर्रा बरसों तक चलता रहा। नेहरूवादी समाजवाद की तरह।

मारुति के आने के बाद नए जमाने के वाहन और मॉडल भारतीय समाज में घुसे। एशियाई खेलों के साथ रंगीन टेलिविजन आया। उसके कुछ वर्षों बाद नई आर्थिक नीति की हवा चली तो चीजों में आमूलचूल परिवर्तन दिखने लगे। खासतौर से शहरों में यह परिवर्तन कई प्रकार से दृष्टिगोचर होने लगा। वाहनों की तो बाढ़ ही आ गई। तुरत फ़ुरत हजम कर ली जाने वाली चीजों (जिन्हें एफएमसीजी कहा जाता है) की तो अपील ही बदल गई। वह इतनी आक्रामक और ग्राह्य हुईं कि मानो सारे मनुष्य समाज को वह अपना गुलाम बना के छोड़ेंगी। इसे चोली दामन जैसा साथ टेलिविजन का मिला। दोनों एक दूसरे पर सवार होकर उपभोक्ता को लील जाने को आतुर होते दिखने लगे।

लैटर टाइप छापेखाने के साथ साथ टाइपराइटर ने भी अक्षरों को अपने दायरे में बांधा है। टाइपराइटर की सीमाओं ने वर्णमाला के साथ भी छेड़छाड़ की है। जैसे हिन्दी के कुछ टाइपराइटरों में प्रश्नवाचक चिह्न ही नहीं है। प्रयोगशील लोग 9 की संख्या से प्रश्नवाचक चिह्न का काम लेते हैं। टाइपराइटर ने संयुक्ताक्षरों का भी बोरिया बिस्तर बांध दिया। वहां हलन्त का प्रयोग धड़ल्ले से होता था। जिस हिन्दी के शब्दों को शिरोरेखा से जोड़ा जाता है और शब्द सुकुमार सुंदर झालर की तरह डोलते रहते हैं, टाइपमशीन ने उन्हीं शब्दों पर भीतरघात की। शब्द अक्षरों से बनता है और अक्षर का क्षरण नहीं होता। लेकिन टाइप मशीन ने कई अक्षरों का ही विखंडन कर दिया। टाइप मशीन ने ख, क्ष,श,भ,स,ध,घ,ष,थ,ण,फ अक्षरों का क्षरण कर दिया। टाइप मशीन में एक कुंजी दबाने से आधे अक्षर टाइप होते हैं,ख् ,क्ष् , श्, भ् आदि। इसे पूरा करने के लिए अ की मात्रा लगानी पड़ती है। तभी यह पूर्णता प्राप्त कर पाता है। नई मशीन पर टाइप करने में तो ये जुड़े हुए दिखते हैं, लेकिन जैसे जैसे मशीन पुरानी पड़ती जाती है, मशीन की तरह अक्षरों के भी अंजर पंजर हिलते डुलते, लस्टम पस्टम पड़े हुए दिखते हैं। इन मशीनों ने के साथ बड़े (ऊ) की मात्रा का तो हरण ही कर लिया है। आप रूप को रुप के सिवा और कुछ नहीं लिख सकते। रुख को लाख चाहने पर भी रूख नहीं बना सकते। इसी तरह फ लिखने के लिए पर रु   वाली पूंछ लगानी पड़ती है। लेकिन मजबूरी है आप साफ साफ टंकित किया हुआ पढ़ना चाहते हैं तो ये समझौते करने ही पड़ेंगे। कोई चारा नहीं।

जुगाड़ करने में हमारे लोग माहिर हैं। वैसे भी जहां लोगों को पूरी वर्णमाला तक याद नहीं होती हो, वहां अक्षरों की इस मशीनी ठुकाई पर कोई क्यों चितिंत होने लगा। वर्णमाला के साथ यह खिलवाड़ शायद इसलिए भी हो गया क्योंकि टाइप मशीन का ढांचा कामोबेश अंग्रेजी वाला ही है। उसमें हिन्दी के हिसाब से कुंजियां नहीं लगाई जा सकतीं। आखिर यही हुआ कि साहब इसी में एडजेस्ट कर लो। अंग्रेजी के हिसाब से हिन्दी को तो आज तक एडजेस्ट करते ही आ रहे हैं। असल में भारतीयों को तो एडजेस्ट करने की आदत ही है। वे कहीं भी एडजेस्ट कर लेते हैं। दूसरे शहर में नए हैं और रहने को जगह नहीं है, कोई बात नहीं ,प्लेटफार्म पर ही रात काट लेंगे। शौक पूरा करना है, जेब इजाजत नहीं देती, तो क्या हुआ , नकली और घटिया माल से ही चैन कर लेंगे। और कुछ हो न हो, संतोष धन इफरात में है। इस संतोष ने लद्धड़ भी बनाया है, काम चोर भी और समझौतापरस्त भी। लेकिन जमाने की चाल देखिए, संतोष नाम का यह अस्त्र उपभोक्तावाद की काट सिद्ध हो सकता है। अगर विवेक से इस्तेमाल करना आ जाए तो संतोषास्‍त्र से उपभोक्तावाद की सिट्टी पिट्टी गुम हो सकती है।

यह तो मशीन में वर्णमाला को एडजेस्ट करना था, पिछले साठ सालों से पूरी की पूरी भाषा को अंग्रेजी के साथ एडजेस्ट किया जा रहा है। प्रशासन तंत्र का सारा काम अंग्रेजी में हो जाता है फिर शब्द शब्द हिन्दी में बिठाया जाता है। इस बिठाने में भाषा ऐसे ठस तरीके से बैठती है कि जड़ीभूत हुई रहती है। पढ़ने और समझने वाला अपने बाल नोचता रहता है। थुक्का-फजीहत उस फौज की होती है, जो धारासार अनुवाद करती चली जाती है और शब्दों में अर्थ ढूंढने के अहर्निश प्रयास करती रहती है।

हमारे यहां मध्यवर्ग इतना बड़ा नहीं था, जो निजी चिट्ठियां टाइप करके भेजने की फैनसूफियां करता। बाबू तबका दफ्तर के ही काम से उकताया रहता है। अपनी कलोलें इन साधनों से पूरी क्यों करने लगा। लेखक भी गरीब देश के बेचारे कलम घिस्सू ही रहे, सो पचास पैसे वाली कार्ड संस्कृति ही पुष्पित पल्लवित करते रहे। इक्का दुक्का ही लेखक हुए जो टाइपराइटर का प्रयोग करते थे। मोहन राकेश टाइपराइटर साथ ले के चलते थे। उनके नाटकों के ड्राफ्ट तक मशीन पर टंकित होते थे। नेमिचंद जैन के पत्र टाइप किए हुए आते थे। ज्ञानरंजन ने टाइपराइटर का भरपूर प्रयोग किया है, पहल के मनभावन अभिनव पत्र शीर्षों पर भी और पोस्ट कार्डों पर भी। एक बार उनके टाइप किए हुए पत्र के मिलने पर जब पूछा कि आप के पास तो ईमेल पता है फिर भी टाइप की हुई चिट्ठी? बोले मुझे टाइपराइटर का नॉस्टेल्जिया है। ऐसे लेखक हमारे यहां कम ही हुए। ज्यादातर तो कैसे भी, कहीं भी घसीट देने वाले ही हुए शायद।

इलैक्ट्रॉनिक टाइप के मशीन आने पर कागज पर मुद्रित होते अक्षरों के रूप लावण्य ने करवट लेनी शुरू की। इलैक्ट्रॉनिक टाइप मशीन शायद कम्प्यूटरीय परिघटना की पूर्वसूचना ही है। अक्षरों की बनावट में विविधता और लचीलापन इसके चलते आया। यह दौर बहुत देर नहीं चला। कम्प्यूटर का आगमन मुद्रण में हो गया और छपाई का रूप स्वरूप ही बदल गया। अखबारों,पत्रिकाओं और पुस्तकों की छपाई में युगान्तरकारी परिवर्तन आ गया। यह परिवर्तन केवल वर्णाक्षरों तक सीमित नहीं था। छपाई की सारी तकनीक ही आमूलचूल परिवर्तित हो गई। मुद्रण का नया सौंदर्यबोध बना। इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया और कम्प्यूटर मिलकर मुद्रण और प्रस्तुति को और अधिक बारीकियों के साथ, हर संभव डिटेल के साथ, असली से थोड़ा ज्यादा असली बना कर पेश करता है। चटखपन हो या धूसरपन,मसृणता हो या खुरदरापन, सपाटता हो या त्रिआयामी गहराई, धार हो या भोंथरापन, हर रूपाकार में थोड़ा अतिरिक्त जुड़ जाता है। या शायद कम्प्यूटर का नपा तुला बिल्कुल सही अनुपात अपना कमाल दिखाता है। थोड़े बहुत झोल के कारण जो प्राकृतिक सहजता लगती थी, वह कम्प्यूटरी परफैक्टनेस के कारण थोड़ा अतिरिक्त दिखता है।

प्रकाशकों, अखबारों और सरकारी दफ्तरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए हिंदी और भारतीय भाषाओं के कई सॉफ्टवेअर पिछले कुछ सालों में बाजार में आए। कई छोटी छोटी कंपनियों ने भारतीय भाषाओं के प्रोग्राम तैयार किए। पूना में स्थित सरकारी कंपनी 'सीडैक' ने इस दिशा में बड़ा काम किया। उन्होंने प्रमुख भारतीय भाषाओं को एक तरह के आंतरिक सूत्र में बांध दिया। आप किसी भी भाषा में लिखिए और कंम्प्यूटर की मदद से लिपि बदल लीजिए। हमारे यहां बहुभाषी लोग हैं, हरेक पढ़ा लिखा व्यक्ति कुछेक भाषाएं लिख, पढ़, बोल लेता है। कुछ लोग किसी भाषा को बोल पाते हैं, लिख नहीं पाते। सीडैक के सॉफ्टवेयर की मदद से वे अपने बोल पाने को दूसरी भाषा की मदद से लिख यानी टाइप भी कर सकते हैं। इस तरह से लिखना बड़ा दिलचस्प है। मान लीजिए आप बांग्ला बोल लेते हैं लेकिन लिख नहीं पाते। हिंदी लिख पाते हैं तो बांग्ला हिंदी में टाइप करते जाए। इस टाइप किए हुए को बांग्ला फोंट में तब्दील कर दीजिए। यह तकनीक भाषा की ध्वन्यात्मकता पर आधारित है। भारतीय भाषाएं ध्वन्यात्मक हैं। इसीलिए लिप्यंतरण आसान है। अंग्रेजी के साथ यह मेल नहीं बैठता। हालांकि, अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं को टाइप करने का काम ध्वन्यात्मकता के माध्यम से ही लिया जा रहा है। जैसे आप कमल लिखना चाहते हैं तो रोमन में kamal टाइप करिए।

टाइप करने के लिए अब ज्यादातर सॉफ्टवेअरों में ध्वनि के आधार पर रोमन से टाइप करने वाले कुंजी पटल बन गए हैं। बरसों पहले बहस चलती थी कि हिंदी रोमन में कैसे लिखी जाए। अब यह बरस्ता इंटरनेट धड़ल्ले से लिखी जाने लगी है। अब तो अंग्रेजी यानी रोमन में टाइप करिए और संदेश देवनागरी या भारतीय भाषाओं में तैयार हो जाता है। उच्चारण की शुद्धता और लिपि की वैज्ञानिकता जैसे सैद्धांतिक सवाल और देवनागरी के पक्ष के तर्क बाजार के दबाव के सामने बौने हो गए हैं। यह हुआ इसलिए है क्योंकि जो कम्प्यूटर बाजार में मिलते हैं, उनका की बोर्ड अंग्रेजी की वर्णमाला का मानक क्वर्टी की बोर्ड है। कम्प्यूटर के इंटरफेस अंगेजी में हैं। कुछेक सॉफ्टवेअर कंपनियों ने हिन्दी के अपने की बोर्ड बनाए। वे ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुए। फिर टाइप मशीनों जैसे गोदरेज,रेमिंग्डन जैसे की बोर्ड लाए गए। अब सर्वाधिक प्रचलित की बोर्ड रोमन आधारित है जो फोनेटिक या एंग्लोनागरी आदि नामों से जाना जाता है। इससे यह पता चलता है कि हमारे यहां टाइपराइटर का इस्तेमाल लोकप्रिय नहीं रहा है। सरकारी क्लर्कों को छोड़कर कोई उस की बोर्ड का इस्तेमाल नहीं करता। जो लेखक टाइप करते भी थे, या हैं उनमें ज्यादातर कम्प्यूटर संजाल को जी का जंजाल ही मानते हैं। बाकी जो भारतीय भाषाओं और हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं, वे अंग्रेजी जानने वाले हैं। हिन्दी का प्रयोग इसीलिए करते हैं कि या तो अपनी भाषा का नॉस्टेल्जिया है या पुरानी पीढ़ी से सम्पर्क करना है या फिर अंग्रेजी में हाथ तंग है। हालांकि इंटरनेट का प्रयोग इधर छोटे शहरों में ज्यादा बढ़ा है और प्रयोग करने वाले अंग्रेजी दां नहीं हैं। क्या यह किसी भिन्न समय की आहट है।

कम्प्यूटर पर की बोर्ड बनाए जाने से जहां एक तरफ, यह खतरा पैदा होता दिखता है कि हिन्दी रोमन में टाइप होने लगेगी तो देवनागरी लिपि का क्या होगा? दूसरी तरफ, यह फायदा हुआ दिखता है कि जो कमियां टाइपराइटर में थीं वे यहां दूर हो गईं। टाइप मशीन में ,क्ष फ आदि जोड़ कर लिखने पड़ते थे, वे यहां जुड़े हुए दिखते हैं। टाइप मशीन में और स्वर तिरोहित ही हो गए थे। बहुत से लोग इनका अस्तित्व ही भूल चुके हैं। कम्प्यूटरी कुंजी पटल ने इनका पुनर्जन्म किया। इसी तरह टाइप मशीन में संयुक्ताक्षरों के लिए भी कोई स्थान नहीं था। लेकिन कम्प्यूटर ने उनका पुनर्मिलन करा दिया है, जैसे क्‍त अब फिर से वक्त लिखा जा सकता है। पद्म में का हलन्त ओझल हो गया और पद्म में आधा होने की वजह से की गोद में आ गया। उद्योग में भी द य के पास चला गया और उद्योग लिखा जाने लगा। द्वारा में जो भयंकर भूल टाइप मशीन में व्‍दारा लिख कर होती थी, वह सुधर गई। व्याकरण संबंधी शुद्वता का पालन करते हुए कम्यूटर ने सम्बद्-ध के आधे ध्‍ को पूरा स्थान दिलवा दिया, लेकिन पूरा होते हुए भी पहले की तरह के पैर में सिमट गया। सम्बद्ध में के चरणों में के बद्व हो जाने से इसके रूप में ज्यादा अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि शायद हाथ से भी इसी तरह लिखने की आदत रही है (खास तौर से हमारी पीढ़ी को) और के गोलार्थ में के घूंघर बंदरिया की छाती से उसके बच्चे की तरह चिपके नजर आते हैं। यह बंधन मनभावन भी लगता है। लेकिन जब अद्भुत के में का अकार विहीन हिस्सा के पैर में जा खुभता है और की मूठ बाहर निकली रहती है ( द्भ ) तो लगता है मानो के पैर में कील गड़ गई हो। शायद के आधे हिस्से वाले रूपाकार के कारण ऐसा है। के पैर में जब आधा लगता है तब कील गड़ने का यह एहसास नहीं होता बल्कि जैसे द्रव्य के द्र को टिकने को एक सहारा मिल जाता है। व्याकरण सम्मत यह सम्मिलन बहुत लोगों को रास नहीं आया और नए सॉफ्टवेअरों में अक्षरों को आधा या हलन्त के साथ अलग रखे रहने का प्रावधान आना शुरू हो गया।

कम्यूटर में अक्षर यानी फॉन्ट का एक लाभ यह हुआ है कि अक्षरों की बनावट में अतीव विविधता आ गई है। इसमें कैलीग्राफी यानी सुलेखन जैसी शैलियां विकसित हो गई हैं। हमारी बाराखड़ी अचानक नए नए रूप धर कर और अधिक नयनाभिराम हो गई है। अक्षरांकन की यह छटा कल्पनाशील पत्र पत्रिकाओं, और टेलिविजन और विज्ञापनों में सहज ही दिख जाती है। साधारण पत्र पत्रिकाओं तक में इस वजह से एक नवलता नजर आती है। नए ढब की छपाई का असर लघु पत्रिकाओं पर भी पड़ा है। इसमें अब साज सज्जा की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा है। पहले ठसाठस भरी हुई साम्रगी के कारण पत्रिकाओं को गुरु गंभीर माना जाता था। बल्कि गांभीर्य दिखाने के लिए वैसा होना जरूरी समझा जाता था। साजसज्जा को कलावादी विलासिता और शायद जनवाद विरोधी माना जाता था। लेकिन इधर इस रवैये में परिवर्तन आया लगता है। सादगी और सुरुचि को बनाए रखते हुए कलात्मकता के दर्शन होन लगे हैं।

मीडिया के प्रसार के चलते देवनागरी लिपि का प्रयोग इधर बढ़ा प्रतीत होता है। दो दशक पहले तक हिन्दी फिल्मों की कास्टिंग अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में होती थी। धीरे धीरे उर्दू कम होती गई है। हिंदी पिछलग्गू की तरह ही बनी रही है। पिछले दशक में टेलिविजन चैनलों की बाढ़ आने पर भी रोमन का ही बोलबाला था। धीरे धीरे चैनल वालों को समझ में आया कि हिंदी के बिना काम नहीं चल सकता। बोली हुई हिंदी तो अहिंदी भाषी प्रदेशों में भी सम्प्रेषित हो जाती है लेकिन लिपि के मामले में मामला अटक जाता है। वहां रोमन का सहारा लिया जाता रहा है। लेकिन खुद को ज्यादा देसी दिखाने के फेर में देवनागरी लिपि का भी प्रयोग होने लगा। स्टार टी वी ने टेलिविजन के पर्दे पर और विज्ञापनों में देवनागरी का प्रयोग किया। 'कौन बनेगा करोड़पति' जगह जगह देवनागरी में लिखा गया। इधर धारावाहिकों और फिल्मों के नाम इतने लंबे भी होने लगे कि रोमन में कुछ का कुछ पढ़ा जाता। शायद इसलिए भी देवनागरी का सहारा लेना पड़ा। अभी हाल तक शेअर बाजार और मौसम की सूचियां अंग्रेजी में हुआ करती थीं। लेकिन अब वे देवनागरी में दिखने लगी हैं। हमारा समाज अचानक हिंदी यानी देवनागरी प्रवीण कैसे हो गया है? शायद मीडिया यह समझ गया कि रोमन को देखकर और हिंदी सुनकर यह समाज काम तो चला लेता था लेकिन देवनागरी दर्शक के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। दर्शक को लुभाने के लिए मीडिया कुछ भी करेगा। मीडिया अपने संदेश को सुविधाजनक ही नहीं लोक लुभावन भी बनाता है। लिपि पर इसका यह असर हुआ कि लिपि कैलीग्राफी का रूप लेने लगी। टीवी पर देवनागरी के अक्षर जगरमगर के साथ कलाबाजियां दिखाने लगे हैं। होंर्डिगों पर पहले हिंदी सरकारी बोर्डों जैसी रूखे सूखे, टेढ़े-मेढ़े और गलत-सलत अक्षरों वाली होती थी। अचानक जैसे इसने चोला बदल लिया है। इधर होर्डिंग के रूप स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। इलैक्‍ट्रॉनिक पट्टियों वाली सूचनाओं में रेलवे और एअर लाइनों ने एक समय में हिंदी का प्रसार किया है। नई किस्म के होर्डिंगों में विज्ञापन एक खास किस्म के कागज पर छाप कर होर्डिंग पर चिपकाया जाता है। यह प्रिंटिंग कम्प्यूटर के माध्यम से होती है। प्रौद्योगिकी का चमत्कार इसमें हैं। हालांकि इसमें भारतीय भाषाएं अभी ज्यादा तादाद में नहीं दिख रही हैं लेकिन परिवर्तन की आहट सुनाई पड़ती है।

लिपि के इस प्रौद्योगीकीय विस्तार में हिंदी सॉफ्टवेअर कंपनियों का योगदान है। अक्षरों की बनावट में वैविध्य आया है। मीडिया, बाजार और प्रौद्योगिकी मिलकर दबाव पैदा करते हैं। एक तरफ जहां भाषा के अस्तित्व मात्र पर खतरा मंडराता नजर आता है, वहीं लिपि का ऐसा मुक्तहस्त विस्तार चौंकाता है। आशा भी बंधने लगती है, शायद भाषा को लिपि के इस तरह के प्रयोग से संजीवनी मिल जाए।

एक बड़ी सरकारी कंपनी के अध्यक्ष ने सरकारी हिंदी के प्रयोग के बारे में एक बार एक पते की बात कही थी। उनके यहां एक पुस्तक केवल हिंदी में छापी गई। उसके पढ़े जाने को लेकर लोगों में संदेह था। अध्यक्ष ने जिद करके वितरण करवाया। तर्क यह था कि जिन लोगों को देवनागरी लिपि देखने की आदत नहीं है, उन पर भी इसका असर पड़ेगा। विकल्प उपलब्ध हो तो सुविधा से रोमन पढ़ लेंगे, देवनागरी छूट जाएगी। अगर सामने हो ही सिर्फ देवनागरी, तो लोग भले ही उसे पढ़ न पाएं लेकिन अक्षरों को निहारेंगे तो सही। हालांकि यह पता नहीं कि वे अक्षर मीडिया के चपल अक्षरों की तुलना में कितने ठस्स थे। उन्होंने सरकारी हिंदी के प्रसार के लिए मनोवैज्ञानिक तकनीक अपनाई थी। मीडिया ने अपनी जगर मगर के हिस्से के रूप में लिपि का प्रयोग दर्शक को बांधने के लिए किया है । लेकिन यह तो तय है कि विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा की लिपि इस नए दौर में नई सजधज के साथ व्यापक जन समाज तक जाने के लिए कमर कस रही है। उम्मीद है इस यात्रा में इसमें और निखार आएगा।

यह लेख कुछ साल पहले सुभाष गाताड़े की पत्रि‍का संधान में छपा था. 

11 comments:

  1. लिपि के सौन्दर्यबोध को पहली बार ही जाना है, आभार। ब्लॉग और तकनीक ने हिन्दी को बड़ा सहारा दिया है। हमने भी आईफोन न खरीदा होता, यदि उसमें हिन्दी टाइप करने की सुविधा न आती।

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  2. चिंचालकर जी की पुस्‍तक की तलाश में लगते हैं.

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  3. लेख पढ़ने के लिए आभार. मेरे पास जो फोन है उसमें हिंदी देवनागरी में टाइप नहीं हो पाती. और राहुल जी, चिंचालकर जी की यह बच्‍चों के लिए तैयार की गई किताब है. हमारे पास बहुत बरस तक इसकी प्रति रही. उसने पन्‍ना पन्‍ना होने तक अपना जीचन जिया. मुझे प्रकाशक के बारे में सूचना मिल गई तो आपको बताउंगा.

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  4. बहुत अच्छा. आज रोमन की आंधी आयी हुई है. उससे भी जूझना है और अपनी लिपि आगे बढ़े, इसके लिए प्रौद्योगिकी के स्तर पर प्रयास भी किये जाने हैं. जब तक हम कोई कोशिश करते हैं, तकनीक और आगे बढ़ चुकी होती है.इसलिए हमारे वैज्ञानिकों, इंजीनियरों को आगे बढ़ कर भाषा और लिपि का काम करना होगा.

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  5. लेख में आपने एक जगह कहीं लिखा है कि कंप्यूटर प्रौद्योगिकी और इंटरनेट ने हिंदी - देवनागरी लिपि को नई संजीवनी दी है - सही है. आने वाला समय हिंदी का ही होगा.

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  6. काफी रोचक व बहुत महत्व का लेख है। लिपि की आधुनिक यात्रा है यह !

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  7. आपका यह आलेख काफी रोचक व बहुत महत्व का है। लिपि की आधुनिक यात्रा है यह !

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  8. बहुत सुंदर वर्णन. बधाई. और कितना उपयोगी.

    अरविंद कुमार
    arvind@arvindlexicon.com

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  9. आपको लेख अच्‍छा और उपयोगी लगा और आपने बात कही भी, आप सबका बहुत बहुत आभार.

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  10. देवनागरी लिपि के सौंदर्य और तकनीक पर जानकारियों से भरे बहुत ही रोचक लेख के लिए आभार। फिलहाल हिन्‍दी की संपूर्णता रोमन-अंग्रेजी की स्‍वरहीन,कामचलाऊ अपूर्णता और हमारी काम निकालने की मानसिकता भार से दबती जा रही है। तकनीक ने बिल्‍ली तो काठ की बना दी है पर म्‍याऊं किस से कराएं।

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  11. इतिहास के आइने में झाँकता हिन्दी के सौंदर्य को रेखांकित करता सुन्दर लेख।

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