समकालीन कविता पर चल रही बहस में आप विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार के पत्र पढ़ चुके हैं और इन पत्रों पर विजेंद्र की प्रतिक्रिया भी. अब पढि़ए जीवन सिंह की प्रतिक्रिया.
'चिंतन दिशा'
का तीसरा अंक तीन महीने पहले मिला था। अब चौथा मिला है। अच्छा लग
रहा है कि मुंबई से हिंदी में गंभीर चिंतन और सृजन हो रहा है। पिछले अंक में
विश्वकवि रवींद्रनाथ की उपस्थिति ने मोहपाश में बांधा तो इस अंक में फ़ैज़ ने। यद्यपि
अभी मुंबई के निजत्व की उपस्थिति का अभाव खलता है। मुंबइया हिंदी का भी कोई पन्ना
रहे तो बुरी बात नहीं है। मुंबई में मराठी से हिंदी की गलबहियां भी तो होती होंगी।
मुंबइया हिंदी फ़िल्मों में तो यह यथार्थ नज़र आता है।
मेरा यह पत्र खासतौर से
डॉ. विजय बहादुर सिंह एवं विजयकुमार के बीच हुए साहित्यिक पत्राचार में व्यक्त
चिंताओं को लेकर है। आपने इस बहस में हिस्सेदारी करने के लिए दूसरे लेखकों को भी
न्यौता दिया है। सबसे पहले तो दोनों बंधुओं को साधुवाद कि दोनों ने ही अपने भीतर
के चिंतक को उजागर किया। अपनी बातें - स्थापनाएं बिना किसी लाग-लपेट और बेहिचक
रखीं। दोनों पत्रों को दो बार पढा और तीसरी बार महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित
किया। इन पत्रों में परिचालित द्वंद्व का केंद्रबिंदु है इनके सारतत्व का
अपना-अपना अतिवाद। सिंह साहब जहां 'परंपरा' के अपने छोर को
पकडकर खडे हैं, वहीं विजयकुमार आधुनिकता ओर नवीनता के आग्रही
बनकर प्रस्तुत हुए हैं। काश, कि परंपरा और नवीनता का
द्वंद्वात्मक रिश्ता बन पाता। वस्तुत: परंपरा और नवीनता में हर युग में तनावपूर्ण
सामंजस्य का रिश्ता होना चाहिए, जिसके सबसे बडे उदाहरण बाबा
नागार्जुन हैं। यह रिश्ता रघुवीर सहाय का नहीं है। नागार्जुन को लेकर विजयबहादुर
सिंह और विजयकुमार एक बिंदु पर लगभग साथ-साथ खडे हैं। रघुवीर सहाय की कविता वह
बिंदु है, जहां दोनों काव्य-चिंतकों में केवल तनाव है,
तनावपूर्ण सामंजस्य नहीं। विजयबहादुर सिंहजी के लिए रघुवीर सहाय की
कविताएं केवल 'लाचारी और हताश का बोध' करानेवाली
हैं, जबकि विजयकुमार जी के लिए 'शक्ति-संरचना
अैर साधारण मनुष्य के जटिल संबंधों पर अमानवीयकरण की प्रक्रिया और उसके विभिन्न
शेड्स पर जितना काम अकेले रघुवीर सहाय ने किया है, वह क्यों
सहज ही उन्हें उस पीढी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि बना देता है।'' यहां रघुबीर सहाय पीढियों के कवि बना दिये गये हैं।
मैं कहना चाहता हूं कि
जैसे विजय बहादुर जी के यहां 'परंपरावाद ग्रस्तता' है वैसे ही विजयकुमारजी के यहां
आधुनिकतावाद ग्रस्तता है। अत: रास्ता तीसरा है जो नागार्जुन की कविता से निकलता है
और बेहद ज़रूरी बुनियादी जीवन-चिंताओं के रूबरू रहते हैं, जो
जनपदीय किसान जीवन के हर्ष-विषादों के तनावों और उल्लासों का सृजनामक उपयोग करते
हैं उनकी विलक्षणता इस बात में है कि उनकी कविता 'परंपरा'
के सामंजस्यपूर्ण तनाव और आधुनिकता के तनावपूर्ण सामंजस्य की प्रक्रिया
में रची गयी है। इसलिए उनके यहां रघुवीर सहाय जैसा आधा-अधूरापन नहीं है। रघुवीर
सहाय इकहरे और एकांगी आधुनिक तनाव के आधुनिक कवि ज्यादा हैं। उनके यहां न भारतीय
काव्यपरंपरा का और न ही हिंदी-काव्यपरंपरा का कोई सूक्ष्म-सा सूत्र भी नज़र आता। वे
'पढिए गीता, बनिए सीता'' में 'रूढि-विरुद्ध' दिखने के
साथ-साथ 'परंपरा-विरुद्ध' भी नज़र आते
हैं।
क्या वजह है कि नागार्जुन
के यहां ऐसा नहीं है? दूसरे, नागार्जुन, आधुनिकतावादियों
से वैसे ही मुठभेड करते हैं, जैस पुनरुत्थानवादी प्रतिगामी
रूढिवादियों से। रघुबीर सहाय की चिंतन पद्धति पर लोहिया का असर रहा है, जो जवाहर लाल नेहरू की नीतियों के सबसे प्रखर और मुखर आलोचक थे, लेकिन नेहरू की पूंजीपरस्त नीतियों से जैसी मुठभेड नागार्जुन करते हैं,
वैसी रघुवीर सहाय के यहां देखने को नहीं मिलती। रघुवीर सहाय के यहां
एक तरह का 'विशिष्ट तनाव' अवश्य नज़र
आता है, किंतु वह अपने अमूर्तन में केवल एक काव्य-सैद्धांतिकी-सा
बनकर रह जाता है। दूसरे, उनके यहां भाषिक विकृति और छल का एक
ऐसा जादुई 'कौशल' है, जो क्रियाशील जीवनानुभवों से रिक्त मध्यवर्ग को काव्य-चमत्कृति के जाल में
फंसाता हुआ, आसान और रूखी कविता का रास्ता दिखाता है।
नागार्जुन का रास्ता तो 'तलवार की धार पै धावनौ' जैसा है। रघुवीर सहाय के बनाये राजमार्ग पर चलने से सुविधा यह होती है कि
सांप का सांप मर जाता है और लाठी भी नहीं टूटती।
विजयकुमारजी ने जिस नयी
पीढी को रघुवीर सहाय की आधुनिकतावादी समझ के प्रभाव में दिखाया है, नि:संदेह
कवि-नामावली में दो-तीन अपवादों को छोडकर शेष कवि आधुनिकतावादी वितान के नीचे काम
करते रहे हैं। जो कवि नाम उन्होंने गिनाये हैं, उन्होंने
निश्चय ही, कविता को समकालीन कला-समृद्धि प्रदान की है किंतु
यह भी सच है कि उन्होंने कविता की वास्तविक ज़मीन से कुछ ऊपर खडे रहकर अपना काम
किया है। उन्होंने सोच-सोचकर कविता गढी है, न कि
जीवनानुभवसंपन्नता में उसकी सर्जना की है। कविता गढने और सृजन करने में जो फर्क़
होता है, वह अनेक समकालीन दिखने वाले इन कवियों के यहां है। 'सहज पके सो मीठा होय' वाली बात इनके यहां बहुत कम
है।
कहना न होगा कि हिंदी
समकालीन कविता का परिदृश्य वैसा ही नहीं है, जैसा विजय बहादुर सिंहजी एवं विजयकुमार जी ने
अंकित करने का प्रयास किया है। समकालीन कविता का परिदृश्य इससे बडा और विस्तृत है।
उसकी कई धाराएं हैं, जो अपनी तरह से हिंदी-ज़मीन पर प्रवाहमान
रही हैं। जहां तक 'शक्ति-संरचना' का
सवाल है, वह न केवल राजनीतिक सत्ता-स्तरों पर होती है बल्कि
उससे सूत्रबद्ध संस्कृति एवं कला-क्षेत्रों में भी 'शक्ति-संरचना'
का सिद्धांत काम करता है। शक्तिसंरचनाओं का स्वरूप वर्तुलाकार होता
है, जिनमें संस्कृति और कला का एक वृत्त भी अपनी जगह काम
करता है। कहा जा सकता है कि शक्ति संरचना के इस सिद्धांत से बाहर
नागार्जुन-मुक्तिबोध की परंपरा को आगे ले जानेवाली काव्यधारा बीसवीं सदी के सत्तर
के दशक में अलग से प्रवाहित रही। इसी अस्सी के दशक में अरुण कमल, राजेश जोशी के नाम विशेष रूप से उभर कर आये। वैसे यह सही है कि लोग
अपनी-अपनी भावना से ही 'प्रभु-मूरत' का
दर्शन करते हैं - 'जा की रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।' कहना न होगा कि डॉ. सिंह और विजय कुमार ने चीजों को ऐसे ही देखा है। इसे
देखने में दोनों के हाथों से बहुत कुछ छूट गया है।
अभी दो-तीन महीने पहले एक
गंभीर लेखक-साधक डॉ. आनंद प्रकाश की किताब आयी है - 'समकालीन कविता'
पर, जिसमें उन्होंने कुछ प्रश्न उठाये हैं और
अपनी जिज्ञासाएं रखी हैं। डॉ. प्रकाश ने 'समकालीन हिंदी
कविता' के विविध स्वरों के वैशिष्टय की विवेचना करते हुए
रघुवीर सहाय की कविता के बारे में लिखा है - ''कैसे
स्थायित्व पायेगी हिंदी कविता, जब समाज की समस्याओं और
विकृतियों का बोझ शोषित जनता के कंधों से हटकर मध्यवर्ग के भी उन गिने-चुने
संवेदनशील व्यक्तियों पर आ टिकेगा, जो मानवीय रिश्तों की खोज
में संघर्ष, विचारधारा और संगठन से अलग होकर सक्रिय होंगे?
तभी सहाय कविता में न केवल अनर्गल होने लगते हैं, बल्कि अकेले ही मानो किसी विरोधी नेता की सभा के बीच (पूरे समाज की तस्वीर
उनकी कविता में ऐसी ही है) खडे होकर जोर-जोर से हंसने की सलाह देते हैं।''
(पृ.91)
कैसी विडंबना है कि जिस
कविता-जगत के पास नागार्जुन और मुक्तिबोध सरीखे दो बडे प्रेरक प्रकाश-पुंज मौजूद
हैं, वह अपनी
भविष्य-गति के लिए रघुवीर सहाय सरीखे महत्वपूर्ण किंतु अनिर्णय के कवि को सिर चढाये
घूम रहा है। नागार्जुन और मुक्तिबोध इसलिए भी प्रेरणा के स्रोत हैं कि उनके पास
समयबद्ध विचार की जटिल और सहज प्रक्रियाओं के साथ, जीवनानुभवों
का एक समावेशी कोश मौजूद है।
नागार्जुन हमको उस
किसान-जीवन तक ले जाते हैं, जो भारतीय कला एवं संस्कृति का मूलाधार है, जिसकी
कोख से मध्यवर्ग निकला है। यह अलग बात है कि इस वर्ग में से एक वर्ग सबसे पहले इसी
कोख पर लात मारता है। मुक्तिबोध का महत्व आज भी समकालीन कवि के लिए उतना ही है,
जितना छठे-सातवें दशकों (पिछली सदी के) में था मध्यवर्ग की मानसिकता,
भूमिका महत्व और आकांक्षाओं का एक समग्र-संश्लिष्ट यथार्थ उनके सृजन
और चिंतन में मौजूद है। लोग समझ रहे हैं कि वैश्वीकरण के महौल में 'इतिहास का अंत' वास्तव में हो चुका है, किंतु वे यह भी देख रहे हैं कि यूरोप के देशों में मार्क्स की मशहूर किताब
'दास केपीटल' को फिर से पढने-समझने के
प्रयास हो रहे हैं। डॉ. विजय बहादुर सिंह को इस तरह के चिंतन में 'वाद गंध' महसूस होती है, भवानी
भाई के 'वाद' में नहीं। 'अद्वैतवाद' में... डूबे लोग भी 'प्रगतिवाद' के वाद से अक्सर अपनी भृकुटियां तान लेते
हैं। वाद, विवाद, संवाद की तुक
मिलायेंगे और 'वाद' से परहेज़ करेंगे।
गुड खायेंगे गुलगुलों से परहेज बरतेंगे। बहरहाल, समकालीन
कविता का सृजनात्मक देय उतना ही नहीं है, जितना दोनों बंधुओं
ने अपनी-अपनी सुविधा के लिए सहेज कर रख लिया है। समकालीन काव्य परंपरा में एक पूरी
धारा है, जो अपने जनपदीय एवं स्थानीय आधारों से पुष्ट 'समकालीनता' को अंतर्सृजित करती हुई परंपरा और नवीनता
का तनावपूर्ण सामंजस्य स्थापित करने में अपनी तरह से मशगूल रही है। इनके यहां
कविता मात्र 'बुद्धि-व्यापार' नहीं है,
वरन वह 'कला-व्यापार' है,
जो मनुष्य की भावों, उसकी क्रियाशीलता और
संघर्षों, द्वंद्वों और सामान्य नैतिकताओं के बीच से होकर
जाता है।
पिछले कुछ दिनों से इसे
लोकधर्मी काव्यपरंपरा के नाम से चिह्नित भी किया जा रहा है। कुमारेंद्र, कुमार विमल,
विजेंद्र, ज्ञानेंद्रपति आदि की कविता से
जिनको परहेज नहीं है, वे संभव है कहीं 'मरुद्यान' की हवा का स्पर्श महसूस कर सकें। कहने की
इज़ाज़त दें तो इस काव्यप्रवाह पर मदन कश्यप, एकांत श्रीवास्तव,
केशव तवारी, सुरेश सेन 'निशांत',
महेश पुनेठा, रजतकृष्ण, विजयसिंह,
निर्मला पुतुल, नीलेश रघुवंशी आदि अपनी
कवि-छाप अंकित कर रहे हैं। हिंदी-प्रदेश बहुत बडा है, यहां
कवि-प्रतिभाएं भी कम नहीं हैं। यह सूची बहुत लंबी है। पानी उतना ही नहीं है,
जितना मेरे कटोरे में समाता है।
काव्यसृजन और समय के
अंतर्संबंधों तथा वर्गीय संरचनात्मक जटिलता के इस अजनबी और अलगावग्रस्त जमाने में, कवि और कविता
दोनों से सहज रिश्ता कायम किये बिना हम अपना-अपना पक्ष तो रखेंगे, समय का पक्ष शायद ही रख पायेंगे लेकिन कूडे के ढेर में भी कभी-कभी रत्न
मिल जाया करते हैं।
जीवन सिंह
मो.: 09828694395
नव पुरातन का द्वन्द्व सनातन है, साहित्य का आकार इतना बड़ा करना पड़ेगा कि दोनों ही सहजता से रह सकें।
ReplyDeleteप्रवीण पाण्डेय ने सही कहा .....यह हास्यास्पद है, लेकिन सच है. शुरुआती बहसों से यही लग रहा था मानो नए कवियों की आँधी मे पुराने स्थापितों के गुम हो जाने का क्राएसेस इस बहस के मूल मे है.मानो समकालीन कविता पर बहस के बहाने रघुवीर सहाय जी या नागार्जुन जी को पुनर्स्थापित करने का परोक्ष प्रयास सा चल रहा हो. समकालीन हिन्दी कविता सदियों पुरानी हिन्दी कविता की उसी अविच्छिन्न ग्रो करती चेतना का विस्तार हैं....चाहे वह किसी वाद , विचार , और मानसिकता से प्रेरित हो .पिछली पीढ़ी के नायकों के प्रशंसकों को विचलित नही होना चाहिए. किसी समय उन की टिप्पणियाँ उस समकाल के *अनुसार* मौजूँ थीं ... लेकिन काल का एक बड़ा वक़्फा आगे सरक गया है . चीज़ें पहले से हज़ारों गुना द्रुत गति से बदल रही हैं .(विजय कुमार जी से सहमत) लेकिन जिन कवियों का इस भौतिक दुनिया मे अस्तित्व ही नही रह गया है , उन की कविताएं कैसे इस समकाल को पकड़ , समझ और समझा सकते हैं ... शुक्र है, अंतिम आलेखों मे कुछ नए नाम भी दिख रहे हैं . इस से भ्रम सा पैदा हो रहा है शायद *समकालीन कविता * की ही बात हो रही है लेकिन बीते ज़माने की कविता के परिप्रेक्ष्य में . कवियों के नाम लेना काफी नही है.... समकालीन कविता की बात हो रही है तो विस्तार से समकालीन कविता पर चर्चा होनी चाहिए . मतलब जो आज लिखी जा रही है .आज लिखी जारही कविता मे इन चार आलेखों मे लिए गए नामों के अलावा कुछ महत्वपूर्ण नाम मैं जोड़ना चाहूँगा जो सम्भवतः छूट रहे हैं सर्वश्री मंगलेश डबराल, विष्णु खरे,शिरीष कुमार मौर्य ,अनुज लुगून, देवी प्रसाद मिश्र,अनूप सेठी , शिरीष कुमार मौर्य , अशोक कुमार पाण्डेय, तुषार धवल ,और असंख्य लोग हैं (हर किसी को हर किसी ने गम्भीरता से पढ़ा हो ज़रूरी नहीं )जो आज के समय को पकड़्ते हुए लिख रहे हैं . सन्दर्भ के लिए बेशक आप वेदों उपनिषदों तक चले जाईए .मेरी धारणा यह है किसी कविता मे समकालीनता खोजना और समकालीन कविता पर चर्चा करना दो जदा जुदा बाते हैं. और मुझे अपनी इस धाऋणा मे काफी दम (दंभ नही) नज़र आता है. वरिष्ठ लोगों से खुलासा चाहता हूँ. बहुत ही विनम्र , और भोली जिज्ञासा है ..... क्षमा करेंगे >>
ReplyDeleteअजेय की बात ठीक है कि समकालीन कविता और किसी कविता में समकालीनता देखना दो अलग –अलग बातें हैं । पर चिन्तन दिशा में प्रकाशित यह बहस समकालीन कविता पर कम और ‘वाद ‘ वाली कविता पर अधिक नजर आती है । समकालीन कवियों के जो नाम ‘भाग दो’ में लिए गए हैं , वह भी वाद की परिधि में ठोक – बजा कर फिट आने वाले नाम हैं । यानी दूसरा पक्ष गायब है । विजेंद्र जी ने विजय बहादुर सिंह के दृष्टिकोण को ‘‘स्व पक्ष त्याग और तर्कहीनता ’‘ बताया है उसे दृष्टि विस्तार भी तो कहा जा सकता है, दृष्टि दोष ही क्यों । फिर भी दोनों भागों में बहस में कई बातें तर्क के आधार पर स्थापित की गई हैं । कविता के भिन्न पक्ष मेरे लिए ख़ासे ज्ञानवर्धक रहे । कविता को लेकर ऐसी चर्चा कम ही पढ़ने को मिलती है । जो चीजें छूट गई हैं वह भी आने वाले अंकों में सामने आ सकती हैं , जैसे नएपन से लैस कुछ नए कवियों की बात । बार –बार चीजों को दोहराने से मुलम्मा छूट ही जाता है । हर चीज अधिक नहीं चमकती । अनूप जी और अजेय बहस का मुद्दा दे ही देते हैं । यह अलग बात है कि मेरे जैसे लोग ब्लॉग पर कम ही जा रहे हैं फिलहाल ... ।
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