पिछले साल कवि राजेश जोशी मुंबई आए तो जनवादी लेखक संघ ने मुंबई के एक उपनगर मीरा रोड में एक गोष्ठी आयोजित की। इसमें राजेश जोशी ने क़रीब घंटाभर अपनी कवितों का पाठ किया और उसके बाद साथियों ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत है राजेश जोशी से उसी बातचीत के कुछ अंश। अब पढि़ए अंतिम किस्त -
शैलेश सिंह: आज अंग्रेजी का इतना दबदबा है कि हिंदी, दूसरी भारतीय भाषाओं पर स्थानीय बोलियों पर बहुत दबाव है। दूसरी तरफ़ बोलियों को मान्यता देने-दिलवाने के प्रयत्न भी चल रहे हैं। यह जो गड्ड मड्ड सी स्थिति है, इससे क्या दिशा निकलती लगती है। राष्ट्रीयताएं मुकम्मल होंगी या छितरेंगी। साथ ही अगर क्षेत्रीयता का उभार आ रहा है, तो आगे क्या होगा?
राजेश जोशी: मुझे लगता है सबसे बड़ी बेईमानी हिंदी वालों ने की। आप सोचिए, जब त्रिभाषा फार्मूला आया तो पूरे हिंदी क्षेत्र ने संस्कृत को तीसरी भाषा के रूप में चुना। उसने किसी प्रांतीय भाषा के साथ अपना संबंध नहीं बनाया। मान लीजिए आपके यहां दस हजार स्कूल हैं। आप तय करते कि इनमें अनुसूचित भाषाओं में से बांग्ला, मराठी, कन्नड़, तेलुगू, तमिल, उर्दू, सिंधी आदि पढ़ाई जाएगी, तो यह स्थिति नहीं बनती। आपने एक मृत भाषा को, क्लासिक भाषा को चुना। उसे विशेष विषय लेकर सीखा जा सकता था, पर अपने क्षेत्रीय भाषा को नहीं घुसने दिया। इसलिए अगर दूसरे क्षेत्रों के लोग आपसे घृणा करते हैं, आपकी भाषा का विरोध करते हैं तो वे ऐसा करेंगे ही, क्योंकि आपने एक तरह का हिंदी साम्राज्य क़ायम करने की कोशिश की। यह एक तरह का हिंदी साम्राज्यवाद है और इसका विरोध होगा। क्योंकि अगर आपने दूसरे को स्वीकार नहीं किया तो यह मत मानिए कि दूसरे हमें हमेशा स्वीकार करेंगे। ऐसा बिल्कुल संभव नहीं है।
यही आपने बोलियों के साथ किया। जब तक यह दिखाने के लिए जरूरी था कि हिंदी एक क्लासिकल भाषा है, तब तक बोलियों का साहित्य आपके लिए आपकी परंपरा था. अवधी में लिखते हुए भी तुलसी, सधुक्कड़ी में लिखते हुए भी कबीर आपकी परंपरा हैं। इसके बाद क्या हुआ? क्या इसके बाद एकाएक इन बोलियों में लिखने वाले ख़त्म हो गए?
हिंदी में आने के बाद आपने इन्हें त्याग दिया कि हमें न तो ब्रज में लिखने वालों की जरूरत है, न अवधी की, न किसी दूसरी बोली में लिखने वाले की जरूरत है। अब हर भाषा के साथ अपने व्यवहार का खामियाजा भुगतिए।
राजनीति ने भी ग़लत किया। छत्तीसगढ़ बना तो कहा जाने लगा, सबसे बढ़िया छत्तीसगढ़ी है। हिंदी को हटाओ, छत्तीसगढ़ी लाओ। यह तो होगा। सभी बोलियों में लिखने वालों को अपने परिवार का हिस्सा बनाइए, तभी तो वे आपको स्वीकार करेंगे। यह हम लोगों की ग़लती है, हिंदी साहित्य, हिंदी आलोचना की ग़लती है। मुझे लगता है, जब तक राजनीतिक रूप से इसे ठीक नहीं किया जाता, तब तक समस्या नहीं सुलझेगी।
मुख्तार खान: वर्तमान में हिंदी किसी भी जगह की बोली नहीं है। या तो ब्रज है, अवधी है, बुंदेलखंडी है वग़ैरह -
राजेश जोशी: मैं कोई भाषाविद् नहीं हूं पर देखिए, हिंदी एक प्रोसैस में बनी। आजादी की लड़ाई के दौर में जब नया नया समीकरण भी हो रहा था, तब हिंदी के विकास के बारे में कहा जाता है कि गांव से आने जाने वाले लोगों को बातचीत का एक कॉमन ढंग चाहिए था, इस प्र्ाक्रिया में बनी। आजादी की लड़ाई के लिए भी एक कॉमन भाषा चाहिए थी। तो मेरठ के आसपास बोली जाने वाली बोली आज की हिंदी बनी। यह किसी जनपद की भाषा नहीं थी। प्रक्रिया में बनी भाषा थी। लोग कहते हैं हिंदी संस्कृत की बेटी हैं। लेकिन हिंदी का संस्कृत से कोई ताल्लुक नहीं है। संस्कृत में बिना सहायक क्रिया के वाक्य बनता है, जैसा कि मराठी और बांग्ला में बनता है। हिंदी में बिना सहायक क्रिया के वाक्य बनाके दिखाइए। उर्दू में नहीं बनता। उर्दू और हिंदी तो व्याकरण की दृष्टि से आसपास की भाषाएं है। ये तो जनपदीय बोलियों से ही विकसित हुईं। इसीलिए हिंदी को कोई अपना नहीं मान पाता। जैसे ब्रज का, मालवा का आदमी अपनी बोली को अपना मानता है। उस तरह से हिंदी किसी की पसर्नल बोली नहीं है। पर अब वो एक बहुत बड़े समुदाय की, साम्राज्य की भाषा बन चुकी है। वह संपर्क भाषा है और उसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है।
यह बातचीत मुंबई से प्रकाशित त्रैमासिक चिंतनदिशा में छपी है.
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