नॉम चॉमस्की का यह लेख जनपक्ष में किस्तों में लग रहा था. ब्लाग का स्वभाव हड़बड़ी का है. एक सूचना अभी पचती नहीं है कि दूसरी आ गिरती है. तीसरी किस्त कब आई कब गई पता ही नहीं चला. फिर ब्लाग-पाठक-मित्र लंबी पोस्ट से परेशान भी हो जाते हैं. लंबी रचना को किस्तों में देने में यूं कोई हर्ज नहीं, पर उसे दुबारा देखना हो तो वह ऊर्ध्वमूल हो जाती है. अंत से शुरू करना पड़ता है. उससे तारतम्य ही बदल जाता है. इसलिए नोम चॉम्स्की के एक व्याख्यान का यह अनुवाद यहां फिर से प्रस्तुत है. फुर्सत से इसे कभी भी पढ़ा जा सकता है.
मुक्त बाजार अमीरों के लिए 'समाजवाद' है : जनता कीमत अदा करती है और अमीर फायदा उठाता है - गरीब गुरबों के लिए बाजार और अमीरों के लिए ढेर सारा संरक्षण।
जिस दौर में हम दाखिल हो रहे हैं उसके बारे में एक पारंपरिक सा सिद्धांत है, और पूरे किए जा सकने वाले कुछ वादे हैं। मुख्तसर कहानी यह है कि इन बेहतर इंसानों ने शीत युद्ध जीत लिया है और जीन कस के घोड़े पर सवार हैं। हो सकता है आगे रास्ता ऊबड़ खाबड़ हो, पर ऐसा नहीं कि फतह न किया जा सके। वे सूर्यास्त के पीछे पीछे दौड़े चले जाते हैं कि उज्ज्वल भविष्य ढूंढ निकालेंगे। साथ में आदर्श क्या हैं जिनके इन्होंने हमेशा गुण गाए हैं? वे हैं - लोकतंत्र, मुक्त बाजार और मानवाधिकार।
असल दुनिया में मानवाधिकार, लोकतंत्र और मुक्त बाजार न सिर्फ अग्रणी औद्योगिक समाजों में बल्कि, बहुत से देशों में बुरी तरह खतरों में फंसे हुए हैं। सत्ता उत्तरोत्तर ऐसे संस्थानों में केंद्रित होती जा रही है, जो जवाबदेही से परे हैं। अमीर और शक्तिशाली बाजार के अनुशासन और दबाव को मानने का इच्छुक नहीं रह गया है, जबकि पहले वह इनसे बाहर नहीं था।
बात मानवाधिकार से शुरू की जाए, क्योंकि यहां से बात करना आसान है। क्योंकि संयुक्त राष्ट्र संघ की महा सभा ने 1948 में मानवाधिकारों को वैश्विक घोषणा में दर्ज कर लिया था। अमरीका में इस घोषणा की वैश्विकता के सिद्धांत के पक्ष में बहुत बढ़िया ढंग से राग अलापा जाता है और सांस्कृतिक सापेक्षवाद की वकालत करने वाले तीसरी दुनिया के लोगों और पिछड़ों के सामने इसे उचित ठहराया जाता है।
यह सारा मसला लगभग साल भर पहले वियना कान्फ्रेंस में चरम पर पहुंच गया था। लेकिन वैश्विक घोषणा की असलियत का इस राग पर रत्ती भर भी असर नहीं पड़ा। मसलन इसकी धारा 25 में कहा गया है, 'हरेक को खुद के लिए और अपने परिवार के स्वस्थ रहने के लिए उचित जीवन स्तर रखने का अधिकार है। इस स्तर में रोटी, कपड़ा, मकान, दवा-दारू और जरूरी सामाजिक सेवा शामिल है। इसमें बेरोजगारी, बीमारी, अपंगता, वैधव्य, बुढ़ापा या अन्यथा रोजी रोटी का साधन न होने पर सुरक्षा का अधिकार भी शामिल है।'
ये बातें दुनिया के सबसे अमीर देश में कैसे सही ठहरती हैं। देश भी ऐसा जो अतुलनीय है और जिसके पास इन बातों को सही न ठहराने का कोई बहाना भी नहीं है। औद्योगिक जगत में अमरीका का गरीबी का रिकॉर्ड सबसे खराब है। इंगलैंड से दुगना। लाखों लोग भूखे पेट सोते हैं। इनमें लाखों बीमार और कुपोषण के शिकार बच्चे भी शामिल हैं। न्यूयॉर्क शहर में 40% बच्चे गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं। वो ऐसी न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित हैं जो उन्हें तंगहाली, निराश्रयता और हिंसा से बचने की उम्मीद भी दे सकें।
धारा 23 को देखें, जो कहती है, 'हरेक को न्यायोचित और अनुकूल परिस्थितियों में काम करने का अधिकार है।' आईएलओ की हाल ही में एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें सारी दुनिया की बेरोजगारी का अंदाजा लगाया गया है। जनवरी 1994 में जीवन निर्वाह के लिए जिनके पास काम नहीं है, ऐसे लोग 30% हैं। इस रिपोर्ट में ठीक ही कहा गया है कि यह 1930 के दशक से भी ज्यादा विकट मामला है। इतना ही नहीं, दुनिया भर में मानव अधिकारों की दुर्दशा का यह एक पहलू भर है। यूनेस्को का अनुमान है कि करीब 5 लाख बच्चे हर साल सिर्फ कर्ज चुकाने के चक्कर में मरते हैं। कर्ज चुकाने का अर्थ है कि बैंकों ने अपने आकाओं को कर्ज देकर डुबो दिए और अब वो गरीब लोग इन्हें चुका रहे हैं, जिनका ऐसे कर्जों से कुछ भी लेना देना नहीं है। अमीर देशों में भी करदाता ऐसे कर्ज चुकाते हैं क्योंकि कर्जों का सामाजीकरण कर दिया जाता है। ऐसा अमीरों के समाजवाद में होता है जिसे हम मुक्त उद्यम (फ्री एंटरप्राइज़) कहते हैं। कोई बैंक से यह अपेक्षा नहीं करता कि डूबंत ऋण की भरपाई बैंक खुद करेगा। वो तो मेरा और आपका काम है।
इधर विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि एक करोड़ से ऊपर बच्चे हर साल ऐसी बीमारियों से मर जाते हैं जिनका इलाज बहुत आसान है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के प्रमुख इसे एक गुम हत्याकांड कहते हैं। इसे रोज थोड़े थोड़े पैसे जोड़ कर रोका जा सकता है।
अमरीका में इधर हालात थोड़ा सुधरे हैं। लेकिन रफ्तार बहुत धीमी है। पिछली वृद्धि की तुलना में एक तिहाई से भी कम। इतना ही नहीं, जो नौकरियां निकल रही हैं, उनमें से एक चोथाई से ज्यादा, अस्थाई हैं और वो भी अर्थव्यवस्था के उत्पादक हिस्से में नहीं हैं। अर्थशास्त्री “लेबर मार्केट में लचीलेपन में सुधार” कहकर अस्थाई रोजगार में हुई इस वृद्धि का स्वागत कर रहे हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि जब आप रात को सोएं तो आपको यह पता नहीं होगा कि सुबह उठने पर काम सलामत रहेगा या नहीं। यह फायदा कमाने के लिए अच्छा है, लोगों के लिए नहीं, जिसका अर्थ है कि यह अर्थव्यवस्था के लिए तकनीकी दृष्टि से ही ठीक है।
रोजगार में आए सुधार का एक और पहलू है - काम ज्यादा पैसा कम। काम बढ़ता जाएगा, मजदूरी घटती जाएगी। सुधार के लिए यह बात बेमिसाल है। प्रति इकाई उत्पादन की मजदूरी के हिसाब से अमरीका में मजदूरी ब्रिटेन को छोड़कर औद्योगिक जगत में सबसे कम है। 1991 में अमरीका में यह इंग्लैंड से भी कम हो गई लेकिन इंग्लैंड ने अपनी स्थिति सुधारी और गरीबों और कामगारों को कुचलने की स्पर्धा में फिर से पहला स्थान प्राप्त कर लिया। अमरीका में जो मजदूरी 1983 में दुनिया में सबसे ऊंची थी (सबसे अमीर देश में यह अपेक्षित भी है) वो आज जर्मनी से कम है और इटली से 20% कम है। इस बदलाव के बारे में वाल स्ट्रीट जरनल ने कहा, 'अतीव महत्व का स्वागत योग्य परिवर्तन। आम तौर पर यह दावा किया जाता है कि ऐसे स्वागत योग्य परिवर्तन प्रकृति के नियमों की तरह बाजार की शक्तियों के स्वाभाविक परिणाम-स्वरूप होते हैं। और इसके लिए दो कारकों की पहचान की जाती है – अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और ऑटोमेशन। विनम्र निवेदन है कि यह गुमराह करने वाली बात है। न व्यापार न ऑटोमेशन, बाजार की शक्तियों का दोनों से ही खास लेना देना नहीं है।'
व्यापार को लीजिए। व्यापार के बारे में एक जाना माना तथ्य है कि व्यापार को अत्यधिक सब्सिडी दी जाती है जिससे बाजार में काफी हद तक बिगाड़ पड़ता है। मेरे ख्याल से आज तक किसी ने इसकी जांच करने की कोशिश नहीं की है। सब यह मानते हैं कि हर प्रकार के परिवहन को बहुत ज्यादा सब्सिडी दी जाती है, चाहे वह समुद्री यातायात हो, हवाई हो, सड़क का या रेल का माध्यम हो। चूंकि व्यापार के लिए परिवहन की जरूरत होती ही है इसलिए परिवहन के खर्च को व्यापार की क्षमता के खर्च में जोड़ दिया जाता है। लेकिन परिवहन की लागत को कम करने के लिए बहुत सब्सिडी रहती है जो ऊर्जा के खर्च के रूप में और सौ तरह के बाजार बिगाड़ के रूप में होती है। इसका हिसाब करना आसान नहीं है।
अमरीकी सेना पैंटागान को लीजिए। यह एक बड़ा मसला है। पैंटागान का बहुत बड़ा भाग उस फोर्स का है जो खौफनाक अस्त्र शस्त्रों की नोक मध्य पूर्व की ओर ताने खड़ी है। जो यह सुनिश्चित करती है कि यदि अमरीका हस्तक्षेप करना चाहे तो कोई बीच में न आ पड़े। इसका बड़ा मकसद है तेल की कीमतों को एक हद तक काबू में रखना। कीमतें बहुत कम भी नहीं की जा सकतीं, क्योंकि अमरीकी और ब्रितानी कंपनियों ने मोटा फायदा कमाना होता है। इन देशों ने भी लाभ कमाना होता है ताकि वे लंदन और अमरीका में अपने मालिकों को भेज सकें। इसलिए कीमतें बहुत कम भी नहीं। लेकिन बहुत ज्यादा भी नहीं क्योंकि व्यापार को भी तो चुस्त दुरुस्त रखना है। मैं बाहरी प्रभावों, प्रदूषण आदि का तो नाम ही नहीं ले रहा हूं। अगर व्यापार के असली खर्च का हिसाब लगाया जाए तो बाहरी तौर पर दिखने वाली व्यापार की यह कुशलता काफी हद तक गिर जाएगी। कोई नहीं जानता किस हद तक।
इतना ही नहीं, जिसे व्यापार कहा जाता है वह कहने भर को ही है। वह कोई वास्तविक कारोबार नहीं है। यह तथाकथित व्यापार एक बड़े निगम (कारपोरेशन) का आंतरिक लेनदेन भर है। अमरीका द्वारा मैक्सिको को किया गया आधे से ज्यादा निर्यात मैक्सिको के बाजार में पहुंचता तक नहीं है। चीजों को जनरल मोटर्स की एक से दूसरी शाखा में स्थानांतरित भर किया जाता है, क्योंकि सीमा पार मजदूरी कहीं ज्यादा सस्ती है। ऊपर से आपको प्रदूषण की परवाह भी नहीं करनी होती है। लेकिन यह सही माने में तो कारोबार नहीं है। यह किसी राशन की दुकान में किसी डिब्बे को एक से दूसरे खाने में रख देने भर से ज्यादा बड़ी चीज नहीं है। संयोग है कि इस मामले में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर ली जाती है लेकिन यह व्यापार तो नहीं है। असल में यह अनुमान है कि तथाकथित विश्व व्यापार का 40% हिस्सा निगमों के सामान की आंतरिक अदला बदली है। इसका अर्थ है केंद्रीय रूप से प्रबंधित कारोबार। बाजार की सभी प्रकार की गड़बड़ियों सहित, जिसका कर्ता धर्ता साफ साफ दिखता रहता है। कभी कभी इसे कहा जाता है निगमों या कंपनियों का करोबार। ऐसा कहना ठीक ही है।
गैट और नाफ्टा इन प्रवृत्तियों को बढ़ाते ही हैं। इससे मंडियों का बेहिसाब नुकसान होता है। यदि हम और गहनता से देखें तो पता चलता है कि इस व्यापार की यह कथित खासियतें विचारधारा के बल पर ही निर्मित की गई हैं। उनका कोई सारगर्भित अर्थ नहीं है। मिसाल के तौर पर ऑटोमेशन से लोगों का काम खत्म होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है। लेकिन तथ्य यह है कि ऑटोमेशन इतनी बेकार की चीज है कि सरकारी क्षेत्र में, यानी अमरीकी सेना में इसे विकसित करने में दशकों लग गए। और इस सरकारी क्षेत्र में जो ऑटोमेशन विकसित हुआ, जिसमें जनता का बेशुमार पैसा लगा और बाजार की बहुत ज्यादा गड़बड़ियां हुईं, वह खास ही किस्म का था। यह इस तरह तैयार किया गया कि मजदूरों के कौशल की जरूरत न रहे और प्रबंधन (मैनेज) करने की ताकत बढ़े। इसका आर्थिक कार्यकुशलता से कुछ लेना देना नहीं है। यह तो सत्ता के संबंधों से जुड़ी हुई चीज है।
अकादमिक और प्रबंधन से संबंधित बहुत से ऐसे अध्ययन हुए हैं, जिन्होंने बार बार यह दिखाया है कि मैनेजरों ने तब भी ऑटोमेशन करवा दिया जबकि इससे खर्चे बढ़े और यह उतने काम का भी नहीं था। यह करवाया गया सिर्फ सत्ता के कारण। कन्टेनराइजेशन को ही लीजिए। इसे अमरीकी नौसेना ने विकसित किया। मतलब अर्थव्यवस्था में सरकारी क्षेत्र - बाजार की गड़बड़ियों को ढकने वाला। आमतौर पर बाजार की शक्तियां जब काम करना शुरू करती हैं तो उनमें काफी मात्रा में जालसाजी गुंथी रहती है। मानो यह कुदरत के नियम की तरह है। यह एक तरह से विचारधारात्मक युद्ध है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इसमें सभी उद्योग समाहित हैं। मसलन इलैक्ट्रानिक्स, कंप्यूटर्स, बायोटेक्नालोजी, फार्मासूटिकल्स वगैरह को शुरू करने और बाद में उन्हें चलाए रखने के लिए नामालूम कितनी सब्सिडी दी गई। दखलअंदाजी भी की गई वरना उनका अस्तित्व ही खत्म हो चुका होता। कंप्यूटरों को ही लीजिए। सन् 50 से पहले, जब ये बिकने लायक हुए, असल में सो फीसदी कर-दाता की मदद पर ही खड़े थे। 1980 के वक्त में सारी इलैक्ट्रानिक्स का 85% सरकारी सहायता पर निर्भर था। कहने का मतलब यह है कि कीमत जनता को अदा करनी पड़ती है। उसमें से कुछ निकल आए तो उसे कारपोरेशनों को दे दिया जाता है। यही कहलाता है मुक्त उद्यम!
रीगन के शासन काल में इस सब में तेजी से वृद्धि हुई। इनके शासनकाल के शुरू के सालों में राज्य का हिस्सा या जीएनपी अत्यधिक बढ़ा। उन्हें इस वृद्धि पर गर्व भी था। जनता के लिए मुक्त बाजार की बातें की जा रही थीं। लेकिन जब वे व्यापारिक तबके से बात करते थे तो भाषा अलग होती थी। जेम्स बेकर जब खजाने का सचिव था, उसने व्यापारियों की एक सभा में बड़े गर्व से घोषणा की कि अमरीकी निर्माताओं को युद्ध के बाद के किसी भी शासनकाल से ज्यादा संरक्षण रीगन प्रशासन ने दिया है। यह सत्य था, बल्कि वे विनम्रता से बोल रहे थे। असल में तो इन्होंने उन सबकी कुल रमक से भी ज्यादा रकम संरक्षण के रूप में दी।
यह भी एक वजह है कि क्लिंटन को कंपनियों की असामान्य सपोर्ट क्यों मिली थी। क्योंकि उसने बाजार बिगाड़ के और बाजार में हस्तक्षेप के उस स्तर से भी आगे जाने की सोच ली। किसलिए? घरेलू आधार वाली पूंजी के हित के लिए। उसका खजाने का सचिव लॉयड बेंस्टन वाल स्ट्रीट पत्रिका में यह कहते हुए उद्धृत किया गया, 'मैं इस समस्तरीय व्यवसाय से थक चुका हूं। हम बराबरी की इन सुविधाओं को अमरीकी उद्योग के पक्ष में मोड़ना चाहते हैं।' इस दर्मियान मुक्त बाजार के बारे में बहुत सा आवेगपूर्ण वाग्जाल भी चालू रहा है। लेकिन वह मुक्त बाजार, जाहिर है, देश और विदेश दोनों जगह गरीब आदमी के लिए है।
यह तथ्य है कि लोगों की जिंदगियां सिर्फ बेरोजगारी के जरीए ही बड़े पैमाने पर नष्ट की जा रही हैं। इधर स्थिति यह है कि जहां कहीं भी नजर घुमाइए, आपको काम मिल जाएगा और इन लोगों को मौका मिल जाए तो वे इसे पाकर खुश भी होंगे। ऐसा काम जो खुद इनके लिए और इनके समुदाय के लिए भी काफी फायदेमंद होगा। लेकिन यहां आपको जरा सावधान भी रहना पड़ेगा। यह लोगों के लिए फायदेमंद हो सकता है लेकिन अर्थव्यवस्था के लिए तकनीकी दृष्टि से नुकसानदेह हो सकता है। यह जानने योग्य बड़ा महत्वपूर्ण भेद है। संक्षेप में कहा जाए तो अर्थव्यवस्थागत प्रणाली विनाशकारी ढंग से असफल हुई है। काम की जरूरत बहुत ज्यादा है। कष्ट भोग रहे अनगिनत लोग बिना काम के हैं लेकिन अर्थव्यवस्था उन्हें एकजुट रखने में असमर्थ है। इस प्रलंयकारी असफलता को भव्य सफलता के रूप में मनाया जाता है। बेशक यह है भी। थोड़े से खासमखास लोगों के लिए। उनके लाभ आसमान छू रहे हैं। कुछ लोगों के लिए अर्थव्यवस्था बढ़िया चल रही है। ये वे लोग हैं जो लेख लिखते हैं, भाषण देते हैं। इसलिए बुद्धिजीवियों की यह संस्कृति बढ़िया लगती है।
इन मुख्य प्रवृत्तियों पर, खास तौर से जो पिछले बीस सालों में उभर कर आई हैं, नजर डाली जाए तो एक महत्वपूर्ण घटना अपनी ओर ध्यान खींचती है। 1970 के दशक के शुरू के सालों में रिचर्ड्स निक्सन ने ब्रेटन बुड्स के सिस्टम को खत्म कर दिया था। यह महायुद्धों के बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं को विनियमित करने का सिस्टम था जिसमें अमरीका एक तरह से अंतररार्ष्ट्रीय बैंक की भूमिका निभाता था। निक्सन ने इसे बंद कर दिया जिसके बहुत से परिणाम निकले।
मुद्राओं को विनियमनहीन करने का एक असर यह हुआ कि पूंजी और वित्तीय बाजारों का बेहद विस्तार हुआ। विश्व बैंक ने करीब 14 ट्रिलियन डालर का अनुमान लगाया। यह राशि सरकार को लील सकती थी। रोजाना ट्रांसफर की जाने वाली पूंजी की मात्रा दिनों दिन बढ़ती गई। यह संभवत: हर रोज एक ट्रिलियन डालर के करीब है। सरकार को गुड़प कर जाने में सक्षम।
विनियमनहीन पूंजी में बेतहाशा बढ़ोतरी के अलावा इसकी संरचना में भी बहुत रेडिकल परिवर्तन हुआ है। जॉन एटवेल ने, जो केंब्रिज में अर्थशास्त्री हैं और वित्तीय मामलों के विशेषज्ञ हैं, हाल ही में इशारा किया है कि 1970 में निक्सन द्वारा इस व्यवस्था को हटा दिए जाने से पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कारोबार में इस्तेमाल की जाने वाली पूंजी का लगभग 90% लंबे समय के निवेश और व्यापार में लगाया जाता था और 10% सट्टेबाजी के लिए रहता था। अब आंकड़े इसके उलट हो गए हैं। 90% सट्टेबाजी के लिए और 10% निवेश और व्यापार के लिए। एटवेल ने सुझाव दिया है कि 1970 में घटी इस घटना के बाद वृद्धि दर में कमी होने का यह घटना एक बड़ा कारण हो सकती है।
अमरीका दुनिया में सबसे अमीर मुल्क है। यह सट्टेबाजी और विनियमनहीन पूंजी के कारण न्यूनतम आर्थिक प्लानिंग भी नहीं कर पाता है। तीसरी दुनिया के देशों के लिए स्थिति बिल्कुल खराब है। आर्थिक योजना जैसी कोई चीज नहीं है। बल्कि नए गैट समझौते तथाकथित उदारीकरण और सेवा जैसी अवधारणाएं डालकर इन संभावनाओं को कम करने के लिए ही डिजाइन किए गए हैं। और ये सेवाएं क्या हैं? विदेशी बैंक - जापानी, ब्रितानी और अमरीकी। ये छोटे मुल्कों के बैंकों की जगह ले लेंगे। घरेलू राष्ट्रीय आयोजना की क्षीण संभावना भी नहीं बचेगी।
राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का तेजी से भूमंडलीय अर्थव्यवस्था में बदलते चले जाने का असर यह हुआ है कि अमीर और गरीब देशों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ा है। देशों की अपनी सीमा के भीतर यह खाई और भी तेजी से चौड़ी हुई है। इसने चल रहे लोकतंत्रों की जड़ों में मट्ठा डालने का काम भी किया है। हम ऐसी स्थिति की तरफ बढ़ रहे हैं जहां पूंजी अत्यंत चलायमान है। लेकिन मजदूर अचल है। जड़ हो जाने की तरफ बढ़ रहा है। इसका अर्थ है कि उत्पादन ऐसे क्षेत्र में जाकर करना संभव है जहां मजदूरी कम, दमन ज्यादा हो और पर्यावरण की तरफ लापरवाह रहा जा सके। इससे एक देश के अचल मजदूर का दूसरे देश के खिलाफ खिलवाड़ करना आसान हो गया है।
अमरीका में जब नाफ्टा पर बहस चल रही थी, तब तकरीबन हर कोई इस बात से सहमत था कि नाफ्टा का असर अमरीका के अकुशल मजदूर पर पड़ेगा और उसकी मजदूरी कम हो जाएगी। जिसका मतलब है 70% या 75% मजदूरों पर यह असर पड़ेगा। असल में मजदूरी कम करने के लिए निर्माण के काम को दूसरी जगह ले जाना जरूरी नहीं होता, ले जाने की धमकी दे देना ही काफी होता है। धमकी मात्र से मजदूरी घट सकती है और अस्थाई रोजगार बढ़ सकता है। जरा लोकतंत्र पर विचार करें। सत्ता विशाल परादेशीय (ट्रांसनैशनल) निगमों के हाथ में जा रही है। जिसका मतलब है संसदीय संस्थाओं के हाथ से फिसल रही है। इतना ही नहीं, प्रशासन का ऐसा ढांचा है जो इन परादेशीय निगमों के इर्द गिर्द खड़ा हो रहा है। ये परिवर्तन पिछले सैंकड़ों सालों में हुए परिवर्तनों से उलट हैं। पहले राष्ट्र राज्य कमोबेश राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं के गिर्द ही खड़े रहते रहे हैं। अब आपके सामने है परादेशीय (देशों के आर पार) अर्थव्यवस्था। हैरानी की बात नहीं है कि कोई परादेशीय राज्य भी बन जाए। फाइनैंशियल टाइम्स ने इसे वस्तुत: विश्व सरकार ही तो कहा है जिसमें कई संस्थाएं शामिल हैं जैसे, विश्व बैंक और आईएमएफ, गैट, विश्व व्यापार संगठन, जी 7 देशों के कार्यपालक आदि आदि। परादेशीय संस्थाएं संसदीय संस्थाओं को सत्ताच्युत कर देती हैं। यह जरूरी है कि टैक्नोक्रैटों को दूर रखा जाए। यह विश्व बैंक की भाषा है। आपको पक्के तौर पर तय करना है कि टैक्नोक्रैट अलग थलग रहे। इकॉनॉमिस्ट पत्रिका ने बताया है कि नीति को राजनीति से अलग रखना कितना महत्वपूर्ण है।
सत्ता निगमों की तरफ ही नहीं, उनके इर्द गिर्द खड़े हो रहे ढांचे की तरफ भी बढ़ रही है। और ये सब जवाबदेही से परे हैं। कारपोरेशनों में किसी भी इंसानी संस्था से ज्यादा कड़ा सोपान क्रम (हाइरारकी) होता है। यह निश्चय ही सर्वसत्तावाद और गैर जवाबदेही की शक्ल है - फासीवाद का आर्थिक समकक्ष। इसीलिए तो क्लासिक उदारवादी निगमों का कड़ा विरोध करते थे। उदाहरण के लिए थॉमस जेफरसन जो कारपोरेट व्यवस्था के शुरुआती उभार को देखने के लिए जीवित रहे, उन्होंने अपने आखिरी सालों में चेतावनी दी कि बैंकिंग संस्थाएं, पैसा ओर निगम आजादी को नष्ट करके सर्वसत्तावाद को ला बिठाएंगे और अमरीकी क्रांति में हासिल की गई जीतें बाकी नहीं बचेंगी। एडम स्मिथ भी इनके महाबल से चिंतित थे, खासतौर से तब जब उन्हें ''अमर व्यक्तियों'' के अधिकार प्रदान कर दिए जाएं।
शीतयुद्ध की समाप्ति से इस सब में तेजी आई है। फाइनैंशियल टाइम्स में एक लेख छपा था, 'साम्यवाद के ठूंठ में हरी कोंपलें' । जो अच्छी बातें इसमें देखीं गईं, उनमें एक यह थी कि मजदूरों की दरिद्रता और अत्यधिक बेरोजगारी से 'बिगड़े हुए पश्चिम यूरोपी मजदूरों' की 'विलासी जीवनशैलियों' को कम करने के नए रास्ते निकल रहे हैं।
वाल स्ट्रीट पत्रिका में एक ब्रितानी उद्योगपति ने व्याख्या की कि जब मजदूरों को काम ओझल होता दिखता है तो लोगों के दृष्टिकोण पर इसका अच्छा असर होता है। यह एक ऐसे लेख का हिस्सा था जिसमें थैचर द्वारा लाए गए सुधारों की तारीफ की गई थी। ये सुधार थे - इंग्लैंड में कम मजदूरी, कम कुशलता वाली अर्थव्यवस्था लाना, जिसमें मजदूरों की दृष्टि से भारी लचीलापन भी हो और ढेर सारे फायदे भी। जनरल मोटर्स का उदाहरण लीजिए, जो मैक्सिको में सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता है, अब पूर्वी यूरोप में जा रहा है, लेकिन खास तरीके से। जब जनरल मोटर्स ने पोलेण्ड में संयंत्र लगाया तो उन्होंने भाड़े में संरक्षण देने के लिए इसरार किया। इसी तरह जब वोल्सबैगन ने चेक गणराज्य में अपना संयंत्र लगाया तो उन्होंने भी भाड़े में संरक्षण मांगा। साथ में खर्चे में बाह्यीकरण का आग्रह भी किया। वे चाहते थे कि चेक लोग और वहां का गंणतंत्र खर्च दे। वे फायदा खुद के लिए चाहते हैं और ले भी जाते हैं। यही है परंपरा : बाजार गरीबों के लिए और राज्य द्वारा बहुत सारा संरक्षण अमीरों के लिए।
सबसे बड़ा परीक्षण पोलैण्ड में हुआ है। एक ऐसा देश जहां बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ऐसे लोग मिल जाते हैं जो तीसरी दुनिया से भिन्न शिक्षित और प्रशिक्षित हैं। ऊपर से नीली आंखों और भूरे बालों वाले हैं। वे काम कर देंगे आपकी 10% कम मजदूरी पर। कोई फायदा नहीं लेंगे। यह है पूंजीवादी सुधारों का प्रभाव, जिसने बेराजगारों की संख्या बढ़ाई है और जनसंख्या की दरिद्रता।
इन बातों से यह अंदाजा हो जाता है कि शीत युद्ध था क्या। एक सीधा सा सवाल पूछ कर हमें काफी कुछ जानकारी मिल जाती है। खुश कौन है और दुखी कौन है? अगर हम पूर्व को लें तो कौन खुश है? पुरानी साम्यवादी पार्टी। वे सोचते हैं यह अद्भुत है। वे अब अंतरराष्ट्रीय पूंजीवाद के लिए काम कर रहे हैं। और जनता के क्या हाल हैं? वे शीत युद्ध हार चुके हैं। वे दुखी हैं। सोवियत प्रयोग में विजय के बावजूद वे दुखी हैं।
और पश्चिम? जैसा कि वाल स्ट्रीट पत्रिका ने कहा है, वहां निगमों, बैंकों और प्रबंधन फर्मों में बहुत खुशी है। दोस्ताना ढंग से हथिया लेने के लिए पूर्वी यूरोप में विशेषज्ञ भेजे गए और वे सारी सहायता लेकर लौट आए। वहां बहुत थोड़ी सी इमदाद मिल सकी। बाकी पश्चिमी विशेषज्ञों और प्रबंधन फर्मों की जेब में गई। जनरल मोटर्स और वाल्सबैगन के मजदूर शीत युद्ध हार गए, क्योंकि अब शीत युद्ध का अंत हो जाने से उनकी 'विलासी जीवनशैली' को कतरने के लिए एक और हथियार मिल गया है।
गलत नामों वाले गैट और नाफ्टा मुक्त व्यापार समझौते इस प्रक्रिया को आगे ले जाते हैं। ये मुक्त व्यापार समझौते नहीं हैं, बल्कि निवेशक के अधिकारों के समझौते हैं। ये लोकतंत्र पर हमले तेज करने के लिए डिजाइन किए गए हैं। यदि आप इन्हें नजदीक से देखें तो समझ में आएगा कि ये उदारवाद और संरक्षणवाद का जटिल मिश्रण हैं और इन्हें परादेशीय निगमों के हितों को ध्यान में रखते हुए सावधानी से तराशा गया है। उदाहरण के लिए गैट में एक को छोड़कर और सब्सिडियां हटा दी गईं हैं। जो रखी गई है, वह है - सैन्य खर्चे।
सैन्य खर्चे अमीरों के लिए बड़ा कल्याणकारी खर्च है और सरकारी सहायता का एक विशाल रूप है। यह बाजार और व्यापार को बिगाड़ देता है। सैन्य खर्चे अभी भी बहुत ज्यादा हैं। क्लिंटन के वक्त में ये निक्सन के वक्त से वास्तविक रूप में अधिक हैं तथा और ज्यादा बढ़ने वाले हैं। यह बाजार में दखलअंदाजी का सिस्टम है और इसके फायदे धनवानों को मिलते हैं।
गैट समझौते और नाफ्टा का एक और केंद्रीय भाग है, जिसे बौद्धिक संपदा अधिकार कहा जाता है। यह भी संरक्षणवाद है। ज्ञान और प्रौद्योगिकी के स्वामित्व के लिए संरक्षण। वे चाहते हैं कि भविष्य की प्रौद्योगिकी पर बड़े और आमतौर पर सरकार से सब्सिडी पाने वाले निजी निगमों का अधिकार रहे। उत्पाद के पेटेन्ट को शामिल करने के लिए गैट में पेटेन्ट्स को जोड़ा गया है। इसका अर्थ है कि यदि कोई किसी दवा का उत्पादन करने के लिए नई तकनीक तैयार करना चाहता है या तैयार करता है तो वह ऐसा नहीं कर पाएगा, क्योंकि इससे पेटेन्ट का उल्लंघन हो जाएगा। उत्पादन के पेटेन्ट से आर्थिक कार्यकुशलता घटती है और तकनीकी नवीनता के पर कतरे जाते हैं। करीब सौ साल पहले फ्रान्स में उत्पाद का पेटेन्ट प्रचलित था। इसी वजह से रसायन उद्योग में फ्रान्स पिछड़ गया और स्विटजरलैंड आगे निकल गया, क्योंकि वहां पेटेन्ट नहीं था और वे नवीनता बनाए रख सके।
इसका अर्थ है कि भारत जैसा देश जहां काफी बड़ा दवा उद्योग है और दवा बनाने के उनके खास तरीकों से वहां दवा की कीमतें कम हैं, लेकिन पेटेन्ट के कारण वह आगे ऐसा नहीं कर पाएगा।
नाफ्टा में फतह हासिल करने के बाद क्लिंटन सीधे सीटल शिखर सममेलन में गए, जहां उन्होंने मुक्त बाजार वाले भविष्य के 'ग्रैण्ड विज़न' का दावा किया। इस होड़ में बोइंग कारपोरेशन जैसे निगम शामिल थे। क्लिंटन ने अपनी महादृष्टि के बारे में भाषण इस निगम के हैंगर (विमानशाला) में ही दिया। यह एकदम सही चुनाव था, क्योंकि बोइंग लगभग पूरी तरह सब्सिडी पर आश्रित है। असल में विमान उद्योग, जो 1930 के दशक में अग्रणी निर्यात उद्योग था, नीचे आ गया। फिर महायुद्ध शुरू हुआ तो उसने खूब धन कमाया। लेकिन दूसरे महायुद्ध में यह समझ में आ गया कि बाजार में अस्तित्व बचाना मुश्किल है। आप फार्च्यून पत्रिका पढ़ेंगे तो पता चलेगा कि विमान उद्योग कैसे जीवित नहीं बचेगा। सार्वजनिक क्षेत्र को आना होगा और सब्सिडी देनी होगी। विमान उद्योग में एवियॉनिक्स और इलैक्ट्रानिक्स ओर जटिल मैटलर्जी भी शामिल है। इन उद्योगों को पैंटागान और नासा से सहायता मिल ही जाती है। मुक्त बाजार वाले भविष्य का यह माडल है। लाभों का निजीकरण हुआ है। और यही माने रखता है। यह अमीरों का समाजवाद है। जनता कीमत अदा करती है और अमीर फायदा उठाता है। व्यवहार में यह है मुक्त बाजार - फ्री मार्केट।
यह लेख चॉमस्की के लंदन में मई 1994 में दिए गए भाषण का संपादित रूप है। और नोम चॉमस्की सत्ता के सामने पुस्तक में भी है.
बहुत बढिया अनुवाद है .मुझे लगता है कि आपको अपने लेखों की किताब छपवा लेनी चाहिए.
ReplyDeleteहरयिश जी, आभार और धन्यवाद। आपका सुझाव बहुत अच्छा है। इस विषय में सक्रिय होना पड़ेगा। वैसे यह अनुवाद नोम चॉम्स्की वाली किताब में है।
ReplyDelete