Sunday, October 31, 2010

'भाषा के 'क्रियोलीकरण' के खिलाफ भड़की चिनगारी



हिंदी अखबार भाषा की जो दुगर्ति कर रहे हैं, हम सभी उससे वाकिफ हैं. पिछले दिनों इंदौर में इसका विरोध हुआ. चित्रकार-कथाकार प्रभु जोशी ने यह खबर भेजी है. हालांकि यह मुद्दा हिंदी दिवस के दिन प्रतीकात्‍मक रूप से उठाया गया है, पर इस बात को लगातार फोकस में रखने और इसे बदलने के लिए सक्रिय होने की जरूरत है.

इन्दौर 14 सितम्बर 2010 । भूमण्डलीकरण के सबसे बड़े हथियार 'अंग्रेजी के नवसाम्राज्यवाद' का स्वागत जितने अधिक उत्साह से हमारे प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने किया, उसके पहले तमाम भारतीय भाषाओं, जिन्हें अंग्रेज नॉन-स्टेडर्ण्ड और वर्नाकुलर लैंग्विज कह के निरादृत करते थे-उनको नष्ट करने की खामोशी से की गई साजिश का नाम है - भाषा का 'क्रियोलीकरण' जिसके अंतर्गत हिन्दी में 'शामिल शब्दावलि' की आड़ में अंग्रेजी के शब्दों की धीरे-धीरे इतनी तादाद बढ़ाई जा रही थी कि वह हिन्दी न रह कर 'हिंग्लिश' होने लगी। जिसे स्थानीय भाषा में 'भाषा का बखड़ैला' रूप कहा जायेगा। भाषा में शब्द का अनुपात अंग्रेजी का साठ तथा हिन्दी का प्रतिशत चालीस का हो गया। किसी भी भाषा का अस्तित्व उसके 'बोले गए रूप' नहीं, 'छपित रूप' से होता है। उस 'रूप' को नष्ट कर देने से भाषा की 'विचार शक्ति' खत्म हो जाती है - वह केवल रोजमर्रा के सामान्य बोलचाल की सामान्य कामकाजी भाषा बनकर अंत में खत्म हो जाती है।
सर्वग्रासी होते जाने वाली इस साजिश के विरूद्ध देश में 14 सितम्बर 2010 को हिन्दी दिवस के अवसर पर सबसे पहले विरोध का श्रीगणेश किया इन्दौर के बुद्धि‍जीवियों ने। नगर के चर्चित बुद्धिजीवी और समाजवादी चिंतक श्री अनिल त्रिवेदी और आदिवासी बहुल क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता और कवि तपन भट्टाचार्य ने प्रतिनिधि बुद्धि‍जीवियों के साथ देश भर के हिन्दी के कोई बीस-बाइस दैनिक समाचार पत्रों की, इन्दौर नगर के महात्मा गांधी प्रतिमा स्थल पर होली जलाई। इसमें प्रभु जोशी, जीवन सिंह ठाकुर, प्रकाश कांत, कृष्णकान्त निलोसे, शशिकान्त गुप्ते, विश्वनाथ कदम, ईश्वरी रावल, श्रीमती जनक पलटा मिगिलिगन सहित लगभग पचास लोग शामिल हुए। और उन्होंने समवेत स्वर में नारे भी लगाये : 'भाषा का क्रियोलीकरण : बंद करो बंद करो।' कुछ देर बाद गांधी प्रतिमा के आसपास जुटी भीड़ भी शामिल हो गई।
सबसे पहले श्री अनिल त्रिवेदी ने गांधी प्रतिमा को प्रणाम किया और उनका स्मरण करते हुए कहा कि गांधी ने प्रतीकात्मक रूप से जिस तरह विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर एक सूचना दी थी, उस तरह हम देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के साथ ही साथ समाचार-पत्रों के संचालकों, सम्पादकों तथा पत्रकारों को यह स्मृति दिलाई कि जिस भाषा का देश की आजादी की लड़ाई में अस्त्र की तरह इस्तेमाल करते हुए उसका विकास किया था, वही पत्रकारिता आज उस भाषा का 'क्रियोलीकर' कर रही है। अत: इसे अविलम्ब रोका जाये। उन्होंने इसके बाद अपना लिखित वक्तव्य पढ़ा-
''आज हिन्दी दिवस के अवसर पर हम इंदौर नगर के बुद्धिजीवी गाँधी-प्रतिमा के समक्ष देश भर के लगभग सभी हिन्दी अखबारों की एक-एक प्रति जुटाकर उनकी होली जलाने के लिए एकत्र हुए हैं। आज-हम-सब जानते हैं कि जब निवेदन के रूप में किये जाते रहे संवादात्मक-प्रतिरोध असफल हो जाते हैं, तब ही विकल्प के रूप में एकमात्र यही रास्ता बचता है, जो हमें गाँधीजी से विरासत में मिला है।
आज हिन्दी के अखबारों की प्रतियों को जलाकर प्रतीकात्मक रूप से हम भारतीय समाचार-पत्रों, उनके संचालकों, पत्रकारों, सम्पादकों के साथ ही साथ पूरे देश के हिन्दी-भाषा-भाषियों को इस बात की स्मृति दिलाना चाहते हैं, कि आज हम हिन्दी का जो विकास देख रहे हैं उस हिन्दी को बनाने और बढ़ाने में सबसे बड़ी और ऐतिहासिक भूमिका आजादी की लड़ाई में हथियार की तरह काम करने वाले हिन्दी के समाचार-पत्रों ने ही निभायी थी- लेकिन, दुर्भाग्यवश वही समाचार-पत्र जगत आज विकास के इतने ऊँचे सोपान पर चढ़ चुकी हिन्दी को अंग्रेजी के नव साम्राज्यवाद को नष्ट करने पर उतारू हो चुका है। नतीजतन, स्थिति यह है कि पिछली एक शताब्दी में ब्रिटिश साम्राज्य ने हिन्दी को जितने क्षति नहीं पहुंचायी थी, आज उससे दस गुनी क्षति मात्र दस साल में हिन्दी को हिन्दी के समाचार पत्रों ने पहुँचा दी है।
यहाँ हम यह ऐतिहासिक तथा भाषा-वैज्ञानिक तथ्य याद दिलाना चाहते हैं कि दुनिया भर में भाषाओं के विकास का मुख्य आधार भाषा के बोले गये नहीं, बल्कि लिखित-रूप के कारण होता है। लिखित रूप ही किसी भाषा को अक्षुण्ण रखता है। लेकिन, आज हिन्दी को सबसे बड़ा धोखा उसके लिखित-छपित शब्द की जगह से ही मिल रहा है। चीन की मंदारिन भाषा के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अधिक बोली जाने वाली हिन्दी भाषा को बहत सूक्ष्म और धूर्तयुक्ति से नष्ट किया जा रहा है, जिसे कहा जाता है, भाषा का 'क्रियोलीकरण'। आज का हमारा यह प्रतीकात्मक-प्रतिरोध हिन्दी के अखबारों द्वारा चलाये जा रहे उसी खतरनाक 'क्रिओलीकरण' की प्रक्रिया के विरूध्द है।
'क्रियोलीकरण' एक ऐसी युक्ति है, जिसके जरिये धीरे-धीरे खामोशी से भाषा का ऐसे खत्म किया जाता है कि उसके बोलने वाले को पता ही नहीं लगता है कि यह सामान्य और सहज प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है। 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया नहीं, बल्कि सुनियोजित षडयंत्र है। जिसके पीछे अंग्रेजी भाषा का साम्राज्यवादी एजेण्डा है।
'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया का पहला चरण होता है, जिसे वे कहते हैं स्मूथ डिसलोकेशन आफ वक्युब्लरि अर्थात् मूल भाषा के शब्दों का धीरे-धीरे अंग्रेजी के शब्दों से विस्थापन। इस अवस्था को अखबारों अब अपने सर्वग्रासी सीमा तक पहुँचा दी है।
उदाहरण के लिए यह क्रिओलीकरण ठीक उस समय किया जा रहा है, जब हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की सीमित भाषाओं की सूची में शामिल करने के प्रयास बहुत तेज हो गये हैं। हिन्दी के दैनंदिन शब्दों को बहुत तेजी से हटाकर उनके स्थान पर अंग्रेजी के शब्द लाये जा रहे हैं। मसलन, छात्र-छात्राओं की जगह स्टूडेण्ट्स/ माता-पिता की जगह पेरेण्ट्स/ अध्यापक की जगह टीचर्स/ विश्वविद्यालय की जगह यूनिवर्सिटी/ परीक्षा की जगह एक्झाम/ अवसर की जगह अपार्चुनिटी/ प्रवेश की जगह इण्ट्रेन्स/ संस्थान की जगह इंस्टीटयूशन/ चौराहे की जगह स्क्वायर रविवार-सोमवार की जगह सण्डे-मण्डे/ भारत की जगह इण्डिया। इसके साथ ही साथ पूरे के पूरे वाक्यांश भी हिन्दी की बजाय अंग्रेजी के छपना/ जैसे आऊट ऑफ रीच, बियाण्ड एप्रोच, मॉरली लोडेड कमिंग जनरेशन/ डिसीजन मेकिंग/ रिजल्ट ओरियण्टेड प्रोग्राम/
वे कहते हैं, धीरे-धीरे स्थिति यह कर दो कि अंग्रेजी के शब्द 70 प्रतिशत तथा मूल भाषा के शब्द मात्र 30 प्रतिशत रह जायें। और इसके चलते हिन्दी का जो रूप बन रहा है, उसका एक स्थानीय अखबार में छपी खबर से दे रहे हैं।
इंग्लिश के लर्निंग बाय फन प्रोग्राम को स्टेट गव्हमेण्ट स्कूल लेवल पर इण्ट्रोडयूस करे, इसके लिए चीफ मिनिस्टर ने डिस्ट्रिक्ट एज्युकेशन आफिसर्स की एक अर्जेंट मीटिंग ली, जिसकी डिटेक्ट रिपोर्ट प्रिंसिपल सेके्रटरी जारी करेंगे।
इसके बाद वे दूसरा और अंतिम चरण बताते हैं : फाइनल असालट ऑन लैंग्विज। अर्थात् भाषा के पूरी तरह खात्मे के लिए 'अंतिम हल्ला'। और, वह अंतिम प्रहार यह कि उसे भाषा की मूल लिपि को बदल कर रोमन कर दो। भाषा समाप्त। और, कहने की जरूरत नहीं कि बहुत जल्दी अखबारों को साम्राज्यवादी सलाहकार की फौज समझाने वाली है। कि हिन्दी को देवनागरी के बजाय रोमन में छापना शुरू कर दीजिये। बीसवीं शताब्दी में सारी अफ्रीकी भाषाओं को अंग्रेजी क सम्राज्यवादी आयोजना के तरह इसी तरह खत्म किया गया और अब बारी भारतीय भाषाओं की है। इसलिए, 'हिन्दी हिंग्लिश', 'बांग्ला', 'बांग्लिश', 'तमिल', 'तमिलिश' की जा रही है। हम यह प्रतिरोध हिन्दी के साथ ही साथ तमाम भारतीय भाषाओं के 'क्रिओलीकरण' के विरूध्द है, जिसमें, गुजराती-मराठी, कन्नड़, उड़िया, असममिया, सभी भाषाएँ शामिल हैं।
बहुत मुमकिन है कि देश भर के हिन्दी भाषा-भाषियों के भीतर अपनी भाषा का बचाने की एक सामूहिक चेतना के जागृत होने के खतरे का अनुमान लगा कर अखबार-जगत हिन्दी के 'क्रियोलीकरण' की प्रक्रिया एकदम तेज कर दें। क्योंकि, जब 5 जुलाई 1928 को यंग इंडिया में जब गाँधी ने ये लिखा था कि अंग्रेजी उपनिवेश की भाषा है और इसके हम हराकर रेंगे - तब गोरी हुकुमत अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार पर तबके छह हजार पाउण्ड खर्च करती थी- वह खर्च की राशि 1938 तक 3,86,000 पाउण्ड कर दी गयी थी। बहरहाल, अंग्रेजी का जो 'नया साम्राज्यवाद अमेरिका और इंग्लैण्ड की रणनीति के चलते बढ़ रहा है - उसमें हमारे यहाँ हाथ बँटाने के लिए देश का प्रिण्ट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों मीडिया एकजुट हो गये हैं- हम उनकी इस खतरनाक मुहिम के विरोध का संकल्प लेते हैं।''
श्री अनिल त्रिवेदी के बाद आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले ख्यात समाजसेवी और कवि श्री तपन भट्टाचार्य ने भी क्रियोलीकरण के विरूध्द अपना वक्तव्य दिया। उन्होंने कहा-
''आजादी के बाद सत्ता में आते ही पहली भारतीय जनतांत्रिक सत्ता ने अंग्रेजी से लड़ाई लड़ी, ऌसी का नतीजा यह रहा कि 'उदारीकरण' के साथ अंग्रेजी अब की बार बहुत सुनियोजित और सुरक्षित ढंग से अपना 'नया साम्राज्यवाद' खड़ा कर रही है, जिसमें हमारा मीडिया और सत्ता स्वयं भी शामिल है। याद रखिए, लार्ड मैकाले ने अंग्रेजी को भाषा से भाषा के स्तर पर चलाने की नीति बनायी, बाद में अंग्रेजी को शिक्षा समस्या बनाकर चलाया, लेकिन नहीं चल पायी। अलबत्ता, इससे उनको एक कटु अनुभव का यह सामना करना पड़ा कि एक मजबूत व्याकरण के आधारवाली मातृभाषा के चलते भारतीयों ने एक किताबी इंग्लिश सीखी और अव्वल दर्जे के आइ.सी.एस. हो गये; लेकिन अंग्रेजी भाषा को रोजमर्रा के जीवन में दूर तक प्रवेश नहीं दिया। बल्कि, बाहर ही रह गयी।
इसलिए, अब नयी नीति तय की गयी है, जिसमें उन्होंने भाषा-संस्कृति का गठबन्धन करते हुए कहा कि अंग्रेजी को 'स्ट्रक्चरली' पढ़ाया जाये, व्याकरण के जरिये नहीं। इसके लिए उन्होंने बच्चों के लिये कॉमिक्स चलाये, कार्टून फिल्में थोक के भाव में भारत के टेलिविजन चैनलों पर चलायी-और, एक मिथ्या 'यूथ-कल्चर' बनाया, जिनका कुल मकसद अंग्रेजी भाषा तथा जीवन शैली को उन्माद की तरह उनसे जोड़ दें- जिसमें भाषा, भूषा और भोजन के स्तर पर वे उनके नये उपनिवेश के शिकंजे में आ जाएँ और कहना न होगा कि, आज के तमाम महाविद्यालयों में अध्ययन कर रही पीढ़ी को उन्होंने 'माडर्न' (?) बना दिया है, जबकि वे 'माडर्न' नहीं हुए, सिर्फ परम्परच्युत हुए हैं। एक 'सामूहिम स्मृति' का शिकार हैं वे और अपनी-अपनी मातृभाषा को न केवल हेय समझते हैं, बल्कि उसे नष्ट करने के अभियान के जत्थों में बदल गये हैं। आज के तमाम हिन्दी अखबार 'यूथ-प्लस' या 'यूथ फोरम' के नाम पर चार-चार चमकीले और चिकने पन्ने छाप रहे हैं - जिसमें एक दो पृष्ठ अंग्रेजी में है और बाकी के दो पृष्ठ हिंग्लिश में, जिसमें, 'लाइफ स्टाइल के फण्डे' सिखाये जा रहे हैं। हमें इसके साथ ही एफ.एम. रेडियो की भूमिका का भी विरोध करते हैं, जो केवल 'क्रियोलीकृत' हिन्दी बनाम हिंग्लिश में ही अपना प्रसारण करते हैं और पूरी की परी युवा पीढ़ी से उसकी भाषा छीन रहे हैं।
हिन्दी के अखबारों की यह भूमिका अंग्रेजी तथा उसके जरिए सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की भारतीय समाज में स्थापना की है। हम इस स्तर पर भी भारतीय समाचार-पत्रों की दृष्टि का विरोध करते हैं कि वे अपने इस एजेण्डे को अविलम्ब रोकें। ''
इसके उपरांत हिन्दी के लगभग दो दर्जन दैनिक अखबारों को जलाया गया। और सर्व सहमति से यह तय किया गया कि इन अखबारों की राख को विरोध प्रकट करने हेतु देश के माननीय सांसदों, विधायकों और समस्त समाचार पत्रों के संचालकों एवं सम्पादकों को भेजा जायेगा। साथ ही होली जलाने वाले कार्यक्रम के समय दिये गये वक्तव्यों को भी उस राख के साथ भेजा जायेगा।
अंत में यह पाया गया कि बाद इसके इस विरोध की प्रक्रिया को निरन्तरता देने के लिए विद्यालयों, महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के छात्रों के बीच जाकर मैदानी स्तर पर चेतना पैदा करने का काम और प्रक्रिया शुरू की जायेगी। ताकि देश भर के युवा वर्ग को तथाकथित 'यूथ कल्चर' के नाम पर अंग्रेजी तथा पश्चिम के सांस्कृतिक उद्योग की फूहड़ता के लिए 'उन्माद' की हद तक पहुंचाने का काम स्थगित करते हुए उनके अन्दर देश, राष्ट्र, समाज और परम्परा की वस्तुगत पहचान पैदा की जाये।
प्रस्तुति
शिवशंकर मालवीया
137, न्यू पंचशील कॉलोनी,
मूसाखेड़ी, इन्दौर
098267-35479

Sunday, October 17, 2010

सारे के सारे चोर ?


पिछले साल नसीरुद्दीन शाह और बेंजामिन गिलानी की संस्‍था के कुछ नाटक देखे और बहुत समय बाद नाटकों की समीक्षा नटरंग के लिए लिखी जो हाल में आए अंक में छपी है. बेटिंग फार गौदो और इस्‍मत चुगताई की कहानियों पर आधारित नाटक के बारे में आप पढ़ चुके. अब पढि़ए हिंदी और अंग्रेजी में कुछ और कहानियों पर आधारित नाटक के बारे में.

मोटले ने इस बार उत्सव में कथा कोलाज, इस्मत आपा के नाम भाग एक और भाग दो और ऑल थीव्स नाटक खेले हैं। ये सभी नाटक कहानियों पर आधारित हैं। इधर जो कहानी का रंगमंच लोकप्रिय हुआ है ये उसी के उदाहरण हैं। एक या एकाधिक पात्रों वाले और कथा वाचन के साथ-साथ दृश्यों के मिश्रण वाले नाटक। मोटले ने ऑल थीव्स (सारे के सारे चोर ?) में अंग्रेजी और हिंदी का भी मिश्रण किया है। नाटक दो भागों में है। मध्यांतर से पहले अंग्रेजी इौर मध्यांतर के बाद हिंदी कहानियां।

अंग्रेजी में चार कहानियां इटालो काल्विनो की हैं - (मेकिंग डू, कॉन्शियंस, द ब्लैक शीप और गुड फॉर नथिंग)। इटालो क्यूबा में जन्मे इतालवी कथाकार हैं। जापानी कथाकार हरुकी मुराकामी की एक कहानी है - ऑन सींग द 100% परफेक्ट गर्ल वन ब्यूटीफुल एप्रेल मॉर्निंग। हिंदी में कामतानाथ की सारी रात और मोहन राकेश की मिस्टर भाटिया कहानी चुनी गई है।

यूं तो सभी कहानियों का नाटयांतरण सहज-स्फूर्त और चाक-चौबंद है, लेकिन द ब्लैक शीप और गुड फॉर नथिंग अपनी ओर ज्यादा ध्यान खांच लेती हैं। ब्लैक शीप (काली भेड़) कहानी के तौर पर ही बहुत दिलचस्प है जो यूं चलती है कि एक गांव में हरेक आदमी रात को दूसरे के घर चोरी करता है। यानी उस गांव की अर्थव्यवस्था चोरी पर चलती है। चूंकि सब लोग चोरी करते थे इसलिए समाज में समानता थी। कोई झगड़ा नहीं, कोई कमी नहीं। क्योंकि खुद का सामान लुट जाता था और दूसरे का अपने घर आ जाता था। एक दिन ऐसा आदमी गांव में आ जाता है जो चोर नहीं है। उसके घर तो हस्बेमामूल चोरी हो जाती है, लेकिन उसके यहां चोरी का सामान नहीं आता। यह रोज रोज होता है। और वो कंगाल हो जाता है दूसरा अमीर हो जाता है। यही असमानता की जड़ है। कथाकार इसी से लाभ हानि पर खड़ी व्यवस्था का ढांचा खड़ा कर देता है। और चोरी न करने वाला व्यक्ति ब्लैक शीप या काली भेड़ करार दिया जाता है। यानी वह दगाबाज साबित होता है।

इसे खेलने की तकनीक भी दिलचस्प है। अभिनेता कहानी कहता जाता है और अध्यापक की तरह ब्लैक बोर्ड पर आकृतियां बनाकर समझाता जाता है। यह काम वह बिना रुके करता चला जाता है। कहानी और उसके दृश्य एक सांगोपांग नाटयपुंज की तरह दर्शक के सामने घटित होते जाते हैं। अभिनेता पूरी एकाग्रता से कहानी सुनाता या कहें दिखाता है। जैसे कोई अध्यापक बच्चों को क्लास में पढ़ा रहा हो। श्रोता मंत्रमुग्ध होकर देखते-सुनते चले जाते हैं। हालांकि बीच बीच में हंसते भी हैं। इस तरह की सहज प्रतिक्रिया नाटक की शक्ति को ही प्रतिबिंबित करती है। यह नाटक कुछ इस तरह है कि जैसे कोई लस्सी या गन्ने के रस का गिलास एक ही सांस में गटक जाए। कहानी के ध्वन्यार्थ दर्शक के मन में गूंजते रहते हैं। उसके मन में कहानी की व्याख्याएं चलती रहती हैं। यह नाटक एक सघन और एक दिलचस्प अनुभव है लेकिन साथ ही सामाजिक विश्लेषण का चुलबुला उदाहरण है।

अंग्रेजी की गंड फॉर नथिंग कहानी भी ब्लैक शीप की तरह बेमालूम ढंग से कही गई है। इसमें भी अभिनेत्री कहीं भी वाचिका के रूप में नहीं दिखती। कहानी में एक कमरे का दृश्य है जिसमें एक बिस्तर है। शायद यह किसी होटल का कमरा है। अभिनेत्री कहानी कहती जाती है और कमरे की साफ सफाई, साज सजावट करती जाती है। बेहद सधे हुए ढंग से। शायद वह बरसों से यह काम करती आ रही है। कैसे बिस्तर लगाना है, फर्नीचर पोंछना है, कपड़े तहाने हैं, यानी छोटे मोटे काम वह सलीके से लेकिन मशीनी ढंग से करती जाती है। इसके बरक्स कहानी का लब्बोलबाव यह है कि उसे चलते हुए एक व्यक्ति मिलता है जो उसे इसलिए टोकता है कि उसके जूते का तस्मा नहीं बंधा है। यह टोकाटाकी इस हद तक बढ़ती जाती है कि लड़की तंग आ जाती है। उसे स्वीकार करना पड़ता है कि उसे तस्मे बांधने नहीं आते। इससे वो व्यक्ति और परेशान हो जाता है कि वह अपने बच्चों को तस्मे बांधना नहीं सिखा पाएगी। त वित यहां तक जाता है कि इससे सभ्यता को संकट पैदा हो जाएगा।

मजे की बात यह है कि सलीका, कायदा, रोजमर्रा के जीवन की तस्मे बांधने जैसी जरूरत की बहस चल रही है और इस बीच अभिनेत्री कमरे को चकाचक सजा देती है। यह जबरदस्त कंट्रास्ट है। दर्शक की आंखों के सामने अभिनेत्री मशीनी ढंग से वही सब काम किए जा रही है, कहानी में जिसकी बखिया उधेड़ी जा रही है। और जिसकी निरर्थकता सिध्द हो रही है। यह हमारे रोजमर्रा की जिंदगियों की एक अलग तरह की व्याख्या है। बड़े सामाजिक, नारेबाज सरोकारों की बड़बोली कबायद नहीं, उबाऊ जीवन से दो-चार होते हुए उसकी ठुकाई-पिटाई। इस तरह ये कहानी बड़ा दिलचस्प विमर्श प्रस्तुत करती है। अंग्रेजी की बाकी कहानियां भी अच्छी हैं। दर्शकों को बांधे रखती हैं लेकिन ब्लैक शीप और गुड फॉर नथिंग अपनी अलग छाप छोड़ती हैं।

मध्यांतर के बाद हिंदी की कहानियां खेली गई हैं। मोहन राकेश की मिस्टर भाटिया नामक कहानी को दो अभिनेता खेलते हैं। एक कथावाचक, एक मिस्टर भाटिया। मिस्टर भाटिया स्वप्नजीवी व्यक्ति है जो घुड़दौड़ में पैसा लगाकर जल्दी अमीर हो जाना चाहता है। इस लत में वो करीब-करीब बर्बाद हो जाता है पर दुनियादारी नहीं सीख पाता। भटिया का अभिनय करने वाले अभिनेता की अदा, चाल और हाव-भाव चुस्त और लयबध्द हैं। उसकी तुलना में कथा-वाचक की देह भाषा में एक तरह का ढीलापन है। भाटिया कोट और बूट पहन कर बाबू टाइप चुस्ती में रहता है। जबकि कथा वाचक कमीज पतलून में कंधे झुकाए हुए रहता है। दोनों की देह भाषा का रोचक विरोधाभास पैदा होता है। इससे भटिया का चरित्र और मुखर हो के उभरता है। सफल होने के लिए फिल्मी अभिनेताओं की अदाएं भाटिया के व्यक्तित्व का हिस्सा हैं। इससे उसका कल्पनाजीवी व्यक्तित्व और अधिक प्रामाणिक हो जाता है। कहानी बाहरी तौर पर दर्शक को हंसाती है, लेकिन कहीं गहरे में भाटिया की सफलता की मृग-मरीचिका का दंश उसे चुभता भी है। क्योंकि दुनिया में हर कोई हमेशा सफल नहीं होता। बहुत सारी चीजें, घटनाएं जुए की तरह उसे पटखनी देती हैं या असफलता का फल चखाती हैं।

दूसरी तरफ कामतानाथ की कहानी सारी रात पुरुष मानसिकता की सीधी और सच्ची कथा है। नवविवाहित जोड़ा पहली रात को बिस्तर पर लेटा है और एक दूसरे से वाकिफ हो रहा है। पति पत्नी से अपने पिछले अनुभव पूछता है अपने बताता है। उसके अंदर कोई कुंठा नहीं है। उसे लड़कियों से संबंध रखने में परहेज भी नहीं है। बल्कि वह सोचता है कि कि किसी लड़के का किसी लड़के से या लड़की का लड़के से संबंध न बने, यह संभव ही नहीं है। इसीलिए वह पत्नी को कोंच कोंच कर पूछता है। जबकि लड़की लड़के की तरह अनुभव समृध्द नहीं है। बड़ी मुश्किल से एक लड़के का जिक्र करती है तो पति के मन में शक का कीड़ा डंक मार देता है। और बातचीत वहीं बंद हो जाती है। वह लिहाफ में मुंह छिपाकर सो जाता है।

पति पुरुष वृत्ति का आर्केटाइप ही है जिसके तहत वह स्त्री को पाक साफ (?) मान ही नहीं पाता। और जब यह बात सरसरी तौर पर भी पता चलती है तो पुरुष स्त्री को दोषी मान लेता है। यह उसके भीतर का एक अंतर्विरोध भी है। यह हमारे समाज की सच्चाई है। इसका खामियाजा स्त्री को भुगतना पड़ता है क्योंकि पति का हर तरफ वर्चस्व रहता है। वह स्त्री को अपने इशारों पर चलाता है।

इस नाटक में पति पत्नी बिस्तर पर बैठे बैठे अपने अपने संवाद बोलते हैं। बीच बीच में आने वाले कहानी के वर्णन भी वे बारी बारी बोल देते हैं। दोनों एक ही लिहाफ मे घुसकर बैठे हैं। लड़के ने कमीज बनियान कुछ नहीं पहन रखा है। कह सकते हैं कि वह नंगा ही है। यह हमारे यहां के पुरुषों का तौर तरीका ही है। उन्हें शर्म नहीं आती है। शर्म को लड़की का गहना (?) माना जाता है। तो क्या पुरुष बेशर्म होता है? उसे धड़ को नंगा रखने में संकोच नहीं होता। उष्णकटिबंधीय क्षेत्र के पुरुष को कटि से ऊपर निर्वस्त्र रहने की सभ्यता ने छूट दे रखी है। लेकिन वह निर्कुंठ नहीं होता। इस तरह का दृश्य-विधान कहानी को प्रामाणिक तो बनाता है पर बेडरूम सीन फिल्मी अंदाज में कुछ देखने के बीज भी दर्शक के मन में बो देता है। ऐसे दृश्यबंध की रचना लोकप्रियता को भुनाने का एक लक्षण है।

इससे पहले खेली गई मिस्टर भाटिया में भी यही बिस्तर इस्तेमाल किए गए हैं। पर उन्हें दो अलग अलग खाटों की तरह रखा गया है। उन पर गद्दे तो हैं, चादरें नहीं। यह उस वक्त अटपटा लगता है, हालांकि इससे भाटिया की माली हालत का जायजा भी लग जाता है। उसके बाद सारी रात में यही बिस्तर, चादर, बेडकवर और लिहाफ के साथ दृश्य को ट्रांसफार्म तो करता ही है, तसंगत और परिस्थिति अनुकूल भी बना देता है।

न जाने क्यों ऑल थीव्स नाटक के निर्देशक का नाम नहीं बताया गया है। इतना जरूर बताया गया है कि यह नाटक मोटली के युवा तुर्कों ने खेला है। इसमें अंकुर विकल, ईमाद शाह, हीबा शाह और ओम ने अभिनय किया है। अर्घ्या लाहिड़ी, पुशान कृपलानी ने प्रकाश व्यवस्था की है और विवान शाह और विनय ने ध्वनि व्यवस्था। नाटक में अभिनेताओं का परिचय कराने की परंपरा रही है। लेकिन यहां पता ही नहीं चला कौन अभिनेता किस भूमिका में है। लोकप्रिय अभिनेता तो पहचाने जाते हैं, अलोकप्रिय अज्ञात ही रह जाते हैं। नाटक में अभिनेता का दर्शक से सीधा संबेध बनता है। सहज जिज्ञासा होती है कि अभिनेता का नाम मालूम हो जाए। पता नहीं मोटली ने इस बारे में उदासीनता क्यों बरती है।

(मुंबई के पृथ्वी थियेटर में 18 और 19 जुलाई 2009 के नौ बजे के प्रदर्शन)

Monday, October 11, 2010

समाज की नब्ज पर हाथ


पिछले साल नसीरुद्दीन शाह और बेंजामिन गिलानी की संस्‍था के कुछ नाटक देखे और बहुत समय बाद नाटकों की समीक्षा नटरंग के लिए लिखी जो हाल में आए अंक में छपी है. बेटिंग फार गौदो के बारे में आप पढ़ चुके. अब पढि़ए इस्‍मत चुगताई की कहानियों पर आधारित नाटक के बारे में. अगली किस्‍त में कुछ और कहानियों के नाटक पर बात करेंगे.

नसीरुद्दीन शाह का रंगमंच प्रेम जग जाहिर है। तीस साल पहले उन्होंने बेंजामिन गिलानी के साथ मिलकर मोटले नाम की नाटय संस्था बनाई थी। और अंग्रेजी में नाटक करना शुरू किए। उन लोगों ने वेटिंग फॉर गोदो, द लेसन, एंडगेम जैसे उस समय के विश्वप्रसिद्ध और विसंगत यानी एब्सर्ड नाटक किए। बड़े साफ शफ्फाक रंगमंच को शक्ल दी।

मोटले के प्रदर्शन नियमित रूप से नहीं हुए जैसे मुंबई की दूसरी कुछ नाटयमंडलियां लगातार सक्रिय रही हैं। बीच में लंबे मौन रहे। अंग्रेजी नाटकों के दौर के बाद ये हिंदी या हिंदूस्तानी की तरफ बढ़े। वह भी कहानियों के मंचन की तरफ। पहले इस्मत चुगताई फिर मंटो की कहानियां खेलीं। फिर नसीरुद्दीन की मंडली में उनकी बेटी हीबा और बाद में बेटा ईमाद भी शामिल हो गए। रत्ना शाह तो पहले से ही नाटक करती हैं। मतलब पूरा परिवार ही शामिल है। फिल्मी जगत में एक पूरा परिवार नाटक करे, यह बड़ी बात है। इस तरह मोटले ने तीस साल का सफर तय कर लिया है। इसी प्रसंग में इधर करीब आठ नाटक दिखाए गए हैं। ये शो पृथ्वी में 13 से 26 जुलाई तक, 7 से 13 सितंबर तक एनसीपीए में और 14 से 18 सितंबर तक वी एन वैद्य हाल, दादर में होंगे। पृथ्वी के प्रदर्शन तो लगभग हाउस फुल ही चल रहे हैं। (यह सन 2009 की बात है)

इस्तम आपा के नाम से पहले तीन कहानियां दिखाई गई थीं। अब दूसरा भाग आया है। इसमें भी तीन कहानियां हैं - अमरबेल, नन्हीं की नानी और दो हाथ। इन्हें मनोज पाहवा, लवलीन मिश्रा और सीमा पाहवा ने खेला है। निर्देशन नसीरुद्दीन शाह का है। कसा हुआ। प्रभावशाली। सही मिकदाद में। अमरबेल बाहरी तौर पर तो दुहाजू पति और कमउम्र पत्नी के बेमेल ब्याह का अफसाना है जिसे भानजा अपने मामू की कहानी के तौर पर सुनाता है। कहानी में हवेली का जीवन जीवंत हो उठा है। छोटे छोटे दृश्यों और अभिनय के टुकड़ों से पूरी जीवनी साकार हो उठती है। अभिनय के टुकड़े इसलिए क्योंकि कहानी बांची जाती है और बीच बीच में कोई दृश्य उभर आता है। यूं तो रंगमंच पर कहानी वाचक भी अभिनय ही कर रहा होता है।

नाटक में पति पत्नी के जीवन की भीतरी तहें परत दर परत खुलती चलती हैं। पहली बीवी की याद मामू को लगभग अंत समय में आती है। बीच में अधेड़ मामू या तो नौजवान बीवी की आशिकी में गर्क रहते हैं या लानत मलामत करते रहते हैं। कहानी के अंत तक आते आते जब बीवी बेवा होती है तो उसका अकेलापन, खालीपन ही बाकी रह जाता है। उसे पुरुष ने जीवन भर भोगा है लेकिन वह यूं ही अनछुई पड़ी रह गई है। उसकी देह के आगे न तो उसका शौहर कुछ देख पाया, न ही उसका परिवार। बाकी समाज का तो कहना ही क्या। स्त्री की बेचारगी और बेगानगी मुखर हो उठी है। गंभीर सामाजिक विश्लेषण खिलंदड़ी भाषा में किया गया है। अभिनय, दृश्य और वाचन का मिश्रण भी दर्शक तक बहुत सधे ढंग से पहुंचता है।

नन्हीं की नानी को लवलीन मिश्रा सुनाती हैं। यह पात्र समाज के हाशिए से उठाया गया है। एक तथाकथित बदकिस्मत बुढ़िया जो पैदा होने के बाद से एक के बाद एक हादसे का शिकार होती जाती है और अपना बजूद ही खो बैठती है। लगभग बुढ़ापे में अपनी नातिन नन्हीं की नानी के नाम से जानी जाती है। जैसा अक्सर बेसहारा लड़कियों के साथ होता है, नन्हीं का जीवन भी सुरक्षित नहीं और वह घर से भाग जाती है। नानी लगभग भिखारिन की तरह जीवन जीने को अभिशप्त हो जाती है। रोटी मांगने पर डांट और लताड़ भी साथ में खानी पड़ती है। पर इस नानी में गजब का जीवट है। बुढ़ापे में एक दिन एक बंदर उसका तकिया चुरा ले जाता है और चिंदी चिंदी करके फाड़ फेंकता है। नानी का जीवन भी चिंदी चिंदी हो जाता है। उसके इस तकिए में उसके लंबे जीवन की स्मृतियां जमा थीं। न जाने उसमें क्या क्या जमा कर रखा था। पुराने गूदड़ ही उसकी जमा पूंजी थे। तकिया छूटता है तो नानी का जीवन से साथ भी छूट जाता है। कहानी हंसी ठिलोली और भावुकता के साथ गढ़ी गई है। भीतर करुणा की धारा बहती रहती है जिसे लवलीन ने बखूबी पेश किया है। नकाब का इस्तेमाल कल्पनाशीलता से किया गया है। कभी ओट, कभी पग्गड़, कभी सुरक्षा कवच, कभी तकिया। और पर्दा तो है ही।

इसी तरह दो हाथ कहानी भी मेहतरों की जिंदगी से जुड़ी है। यह कहानी समाज की नैतिकता की चूलें हिलाने का काम करती है, पर बड़े हंसते खेलते अंदाज में। कथा वाचिका सीमा पाहवा मंच पर मेहतरानी बन कर आती हैं और मेहतरानी की बहू की कहानी बांचती हैं। बेटा दो साल बाद घर लौट रहा है। इस बीच बहू ने अपने देवर से एक बच्चे को जन्म दिया है जो एक साल का हो गया है। मेहतरानी इस बच्चे को नाजायज नहीं मानती, जबकि सारा मुहल्ला इस कुकर्म को देखकर मांदा हुआ जाता है। मेहतरानी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती। बेटे से जब आमने-सामने दो-चार सवाल किए जाते हैं तो वह नैतिकता के गुब्बारे की हवा निकाल देता है। उसे बेटे से मतलब है, मां की शुचिता से नहीं। उसके लिए बेटे का मतलब दो मेहनतकश हाथ हैं। समाज की सफाई का जिम्मा मेहतर पर होता है। पर इस्मत चुगताई ने कहानी में समाज के नैतिकता के ढकोंसले की भी सफाई कर दी है। इस कहानी की कहन विद्या भी बड़ी हंसोड़ किस्म की है। खूबी यह कि एक अकेली पात्र सीमा पाहवा सब कुछ अंजाम दिए चलती हैं। ऐसा तो खैर मनोज और लवलीन ने भी किया है।

निर्देशक ने दर्शकों की नब्ज को ध्यान में रखकर ये कहानियां चुनी हैं। गंभीर विषय के बावजूद वाचन और अभिनय में जीवंतता है। कहानी में से दृश्य रचना और वाचन के मिश्रण का मेलजोल सही मिकदाद में है। कहीं पर वाचक हावी नहीं होता। न ही कहानियां एकल अभिनय के करतब में बदलती हैं। कहानी को मंचित करने में यह चुनौती हमेशा बनी रहती है। यहां पर दर्शक कहानी सुनने के साथ साथ नाटक देखने का मजा लेता है। सिर्फ मजा ही नहीं लेता, कहानियों का कथ्य भी बेमालूम ढंग से दर्शक के भीतर अंतर्क्रिया करता है। यानी नाटय के अनुभव में बदलने की आंतरिक क्रिया चलती रहती है। यह इस्मत चुगताई की लेखनी की खूबी है और निर्देशक की सफलता।


(पृथ्वी थियेटर, 18 जून, 2009 का छ: बजे का शो)

Friday, October 1, 2010

अंतहीन इंतजार




मुंबई की एक नाटय संस्था मोटली ने वेटिंग फार गौडो नाटक को इस बार (पिछले साल) फिर से तैयार किया है। पहले यह 1979 में खेला गया था। इस संस्था की शुरुआत ही वेटिंग फार गौडो से हुई थी। नसीरूद्दीन शाह और बेंजामिन गिलानी मोटली के संस्थापक हैं। यह नाटक गिलानी ने निर्देशित किया है।


वेटिंग फॉर गौडो को थियेटर ऑफ एब्सर्ड यानी विसंगत थियेटर का महत्वपूर्ण नाटक माना जाता है। इस नाटक ने पुरानी नाटय शैली को बदल दिया। इस में कहानी यानी प्लाट ही नहीं है। मंच पर कुछ घटित नहीं होता। दो मुख्य पात्र गोगो और डीडी फिजूल सा वार्तालाप करते रहते हैं। वे एक निर्जन स्थान पर हैं जहां सिर्फ एक सूखा हुआ पेड़ है। वे गौडो का इंतजार कर रहे हैं। उन्हें कुछ भी नहीं करते हए इंतजार करना है। कुछ न करते हुए भी साथ तो रहना है। वे एक दूसरे से बार बार ऊब जाते हैं। पर उन्हें साथ तो रहना ही है। थोड़ी देर बाद एक जमींदार किस्म का व्यक्ति पोजो और उसका गुलाम लकी मंच पर आते हैं। थोड़ी देर तक उनका मन बहलता है लेकिन फिर वैसे ही ऊब और उदासी उन पर तारी हो जाती है। शाम को एक बाल चरवाहा आकर सूचना देता है कि आज गौडो नहीं आएगा। अगले अंक में फिर वही सब कुछ होता है और शाम को फिर गौडो का संदेश आ जाता है। इन्हें सिर्फ इंतजार करना है।

इस नाटक की विश्वयुद्धों के दौरान पैदा हुए वैचारिक और दार्शनिक खालीपन के संदर्भ में बहुत व्याख्याएं हुई हैं। अस्तित्ववाद से लेकर, विचारधारा के अंत और उत्तरआधुनिकता तक की अर्थछटाएं इस नाटक में मौजूद हैं। असल में जीवन की अर्थहीनता को यह नाटक नए ढंग से पेश करता है। दोनों पात्र भिखारियों की तरह हैं। थके-हारे, ऊबे हुए लेकिन जिए चले जाने को अभिशप्त। उन्होंने चिथड़े पहने हुए हैं। महीनों से नहाए नहीं हैं। उनके पास खाने को कुछ नहीं है। और वे आपस में बातें कर कर के जीवन में कुछ रस पैदा करने की निरर्थक कोशिश करते रहते हैं। इस कवायद में भदेस पैदा होता है। वे हर चीज को रिडिक्यूल कर देते हैं। इस दृश्य के बीच पोजो नामक काउंटी और उसका गुलाम कंट्रास्ट पैदा करते हैं। जमींदार और गुलाम के कार्य-कारण संबंध व्यवस्था पर टिप्पणी की तरह हैं। गुलाम सोचने का काम भी करता है। आम तौर पर वह बोलता नहीं है। जब सोचता है तभी बोलता है। बल्कि बोल कर ही सोचता है। कुतूहलवश उसे सोचने के 'काम' यानी बोलने के काम पर लगाया जाता है तो वह अपना अनर्गल प्रवचन शुरू कर देता है। वह बीसवीं सदी के सार-संक्षेप को किसी कूट भाषा में उगल देता है। बोलते बोलते वह उत्तेजित और अनियंत्रित हो जाता है। उसके मालिक को पता नहीं कि उसे रोका कैसे जाए। उसकी कूट भाषा को कांच की किरचों और छर्रों की तरह बरसते शब्दों के माध्यम से ही खोला जा सकता है। लेकिन पात्र और दर्शक दोनों इसे एक गुलाम का भाषाई स्खलन मानकर मनोरंजन पाते हैं। कोई उसके क्रंदन को, उसके सोच को समझने की कोशिश नहीं करता।

दूसरे अंक में रस्सी का पट्टा मालिक के गले में है और उसे गुलाम हांक रहा है। नाटककार ने मालिक गुलाम के सामाजिक परिप्रेक्ष्य को भी रिडिक्यूल कर दिया है। सारी परिस्थिति ही गड्डमड्ड है।

26 जुलाई 2009 को पृथ्वी थियेटर में हुए प्रदर्शन में पोगो की भूमिका में बेंजामिन गिलानी और डीडी की भूमिका में आकाश खुराना थे। पोजो का रोल नसीरूद्दीन शाह ने निभाया। गुलाम के रूप में शायद संदीप हुडा थे।

वेटिंग फॉर गौडो का जिस तरह कथ्य अलग है, इसके निर्देशक और अभिनेताओं से भी अलग तरह की अपेक्षाएं हैं। देह भाषा और संवाद अदायगी कथ्य को मुखर करती है। दोनों प्रमुख अभिनेता अपने अपने पात्र को जीवंत कर देते हैं। पोजो और गुलाम का अभिनय भी कथ्य को मुखर करता है। जो मस्ती पोगो में है, और जो बेचैनी डीडी में है, इससे दोनों का सह-अस्तित्व पूर्ण होता है। नसीरूद्दीन शाह के अभिनय में गजब की ऊर्जा और चपलता है। बेंजामिन गिलानी का निर्देशन नाटक को एक अनूठी जीवंत दृश्य रचना में बदलता है। नाटक में कहानी, पात्रों और संवादों का वैसा पारंपरिक किस्म का सहारा नहीं है, कि निर्देशकीय ढीलापन या कमियां खप जाएं। यह नाटयालेख अपने आप में इतना बीहड़ और चुनौती भरा है कि अगर इसके लिए निर्देशक और अभिनेता अपनी लय न पकड़ पाएं तो सारा का सारा ढांचा बिखर जाए। जब कथ्य में ऊब और निरर्थकता हो, तो चुनौती उसे संप्रेषित करने की है। ऊब और निरर्थकता को नाटय अनुभव में बदलना अभिनेता और निर्देशक का दायित्व है। इसमें भदेस का सहारा बहुत कारगर सिद्ध होता है। विदूषक भदेस का सहारा लेकर अपनी बात मजे से कह जाता है। दर्शक उसे मजाक मजाक में पकड़ लेता है। यहां भी यह गुर काम आया है। सिर्फ गुलाम ही अलग तरह का चरित्र है। उसमें जमी हुई वेदना है, जो जुगुप्सा की तरफ तो जाती है, भदेस में तब्दील नहीं होती है। बाकी तानों पात्र भदेस विदूषकत्व के सहारे दर्शक को बांधे रखते हैं। मुख्य पात्रों का परिधान और उनके संवाद भी कथ्य और दृश्य दोनों का कंट्रास्‍ट पैदा करते हैं। दर्शक के मन में जिज्ञासा पैदा होती है। यह तत्व भी दर्शक को जोड़े रखने में सहायक है। दृश्यबंध का खालीपन, पर्णहीन वृक्ष और प्रकाश इस नाटक को सघन बनाते हैं। पूरा नाटक मिलकर एक अलग ही तरह के अनुभव में बदल जाता है।

(पृथ्वी थियेटर, 26 जून, 2009 का नौ बजे का प्रदर्शन)








पहला फोटो गार्जियन से साभार, दूसरा और तीसरा मोटली ग्रुप के प्रदर्शनों के, इंटरनेट से