Wednesday, July 30, 2025

आत्मकथ्य


मेरे दोनों संग्रहों (जगत में मेला और चौबारे पर एकालाप) से चुनी हुई कविताओं का संग्रह 'चयनित कविताएं' न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से 2024 में समकाल की आवाज़ श्रृंखला के तहत प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में इक्यावन कविताएं हैं। मेरे बड़े भाई तेज कुमार सेठी ने उन सभी कविताओं का पहाड़ी उर्फ हिमाचली पहाड़ी उर्फ कांगड़ी में अनुवाद कर दिया। इस संग्रह में कवि का आत्मकथ्य भी प्रकाशित है। कल मैंने आत्मकथ्य का पहाड़ी पाठ दयार ब्लॉग और हिमाचल मित्र की फेसबुक वाॅल पर लगाया। आज उसका मूल हिंदी पाठ यहां भी पेश कर रहा हूं। (चित्रकृति: वी एस गाएतोंडे, इंटरनेट से साभार)   

झुके हुए शब्दों से कविता कैसे लिखी जाए

आत्मकथ्य लिखना आसान काम नहीं है। उसके विस्तार को समेटना हो तो बहुत समय चाहिए; स्मृति और ऊर्जा भी। आत्मकथ्य के विषयक्षेत्र को सीमित कर लिया जाए तो शायद आसानी हो जाए। चूंकि यह आत्मकथ्य चयनित कविताओं के संकलन के संदर्भ में है, इसलिए इसे कविता तक सीमित रखना ठीक रहेगा। हालांकि यह काम भी आसान नहीं है। 


कविता लेखन के साथ मेरा रिश्ता अजीब सा है। कविता लिखने की इच्छा बहुत होती है, पर कविता लिखी बहुत कम जाती है। लगता है लिखना जितना टल जाए उतना अच्छा। साथ ही जो भीतर-बाहर देखा-परखा है, जाना-निरखा है, समझा-जाना है, उसे अभिव्यक्त करने की आकाँक्षा भी बनी रहती है। पहली नजर में यह विरुद्धों की या ध्रुवाँतों की स्थिति लगती है। जरा गहराई से सोचा जाए तो ऐसा है नहीं। उसे विरु‌द्धों में सांमजस्य कहा जाए तो शायद ठीक रहे? शायद इसी तरह वस्तुस्थिति समझ में आए। यह विरुद्धों में सांमजस्य भी ऐसा है कि ये दोनों छोर परस्पर अनुपूरक ही प्रतीत होते हैं- लिखने की इच्छा है, पर मन लिखने से कतराता रहता है। 

मेरे ख्याल से यह अनोखी बात नहीं है। शायद हर किसी के साथ ऐसा होता है। बाजदफा लिखने से बचने को बढ़ा-चढ़ा कर भी पेश किया जाता है। पर इसे सामान्य स्थिति ही मानना चाहिए। 

असल बात यह है कि खुद को अभिव्यक्त करने की इच्छा ठाठें मारती रहती है। सही क्षण जब पकड़ में आ जाए तो लिखना संभव हो पाता है। उस क्षण के इंतजार में बहुत समय बीत जाता है। यह एक तरह का आंतरिक संघर्ष है। जब रचना या कविता संभव हो जाती है तो वह सार्वजनिक हो जाती है। सब की हो जाती है। 

यहां भी दो छोर हैं। लिखना नितांत निजी कार्य है। लगभग गुपचुप। या कहें गोपनीय। लिखे जाने के बाद किसी पत्रिका में प्रकाशित होने पर या किसी पुस्तक में संकलित होने पर या किसी अन्य माध्यम में प्रसारित होने पर रचना पाठक के पास पहुंच जाती है। यह एक तरह की बाहरी गतिविधि है। ये भी दो छोर ही हैं। एक बेहद निजी, दूसरा खुला, सार्वजनिक, व्यावहारिक। (पाठक का अपना एकांत होगा, पर वह एक अलग प्रक्रिया का हिस्सा है।) ये दोनों छोर परस्पर विरोधी लग सकते हैं पर हैं नहीं। 

लिखने के छोटे छोटे अंतरालों को छोड़ दें, जो बेहद निजी क्षण होते हैं, तो बाकी जीवन बेहद साधारण, दुनियावी किस्म का रहता है। मेरा जीवन मध्यवर्गीय शहरी बाबू किस्म का रहा है। अधिकांश समय उसी भूमिका में रहना होता है। नौकरी की, शहरी जीवन में संतुलन बनाए रखने की, अर्जित जीवन मूल्यों को व्यवहार में लाने की जद्‌दोजहद निरंतर चलती रहती है। मेरे जीवन का एक छोर छोटे पहाड़ी शहर से भी जुड़ा रहा है, इसलिए महानगरीय जीवन और कस्बाई जीवन की सोच के बीच घर्षण भी चला रहता है। आप अपने परिवार में रहते हुए जितनी ऊर्जा खर्च करते हैं उससे ज्यादा पाते रहते हैं। अनुभव संपदा भी जुटती रहती है। इस साधारण दैनंदिन जीवन में कई तरह के अंतर्विरोंधों से भी आप दो चार होते हैं। कुछ अंतर्विरोधों का पता चल जाता है, कुछ अनजाने में व्यक्तित्व में फंसे रहते हैं। 

इसी सब के साथ कविता लिखने का स्वप्न आप दिन रात देखते रहते हैं। जो जीवन अनुभव मिलते हैं, वही रचनात्मकता का कच्चा माल बनते हैं। इस तरह एक और जक्स्टापोजीशन बन‌ती है कि बेहद साधारण जीवन में से, जिसमें अनुभव भी सीमित और स्टीरियोटाइप होने लगते हैं, उन्हीं में से अपना रचना संसार खड़ा करने की कोशिश रहती है। यह संदेह हमेशा बना रहता है कि लेखन में पता नहीं अनूठापन आ भी रहा है या नहीं। वह जेनुइन हो, यह कोशिश तो हमेशा रहती है, पर कला के निकष पर वह कितना खरा है, इसमें संदेह बना रहता है। वह लिखा हुआ पाठक के अनुभव का हिस्सा बन पाता है, कितना बन पाता है, अपनी ओर खींचता भी है या नहीं, कुछ पता नहीं चलता। वह तो उस पार की दुनिया है। 

कोरोना काल और उसके बाद एक अजीब ठंडापन, उदासी, उदासीनता आई है। राजनीति में भी उलटफेर हुए हैं। लंबे समय से पल-बढ़ रहा दक्षिणमुखी झुकाव समाज की ऊपरी सतह पर उग्रता से तैरने लगा है, सिर्फ अपने यहाँ ही नहीं कई देशों में। इस दौरान प्रगतिशील धारा अपने अंतर्विरोधों को पह‌चान नहीं पाई और लगातार अपनी नजर में भी संदिग्ध होती चली गई। रूस युक्रेन युद्ध को हमने पचा ही लिया है। फिलीस्तीन इस्राइल दुश्मनी भी हमें संवेदनहीन ही बना रही है। जो चल रहा है, हम उसे चुपचाप स्वीकार करते जाते हैं। माथे पर शिकन तक नहीं। चीजें इतनी गड्डमड्ड हैं, इतनी परतदार, इतनी उघड़ी हुई, इतनी छुपी हुई, कि उनका सिरा ही पकड़ में नही आता। 'उत्तर सत्य' के समय में समय समझ में ही नहीं जा रहा है। भ्रम चहुं ओर है। भ्रम में मतिभ्रम की शंका होती रहती है। 

अनूप सेठी
कुछ भी लिखने लगता हूँ तो लगता है, मसले की तह तक पहुंच नहीं पा रहा हूं। किसी शब्द को पकड़ कर अर्थ को खोलने की कोशिश करता हूँ तो शब्द की अर्थच्छटाएं उलझा लेती हैं। शब्दों के अभिप्रायों में इतिहास की गठड़ी बँधी रहती है। शब्द स्वतंत्र नहीं हो पाते। गठड़ी का झुकाव जिस तरफ होता है, शब्द भी उसी तरफ के अर्थ देने लगता है। शब्दों को धो-पछीट कर निर्मल निष्पक्ष कैसे किया जाए? झुके हुए शब्दों से कविता कैसे लिखी जाए? लिखी भी गई तो वह कविता अपने समय की गुंझलकों को कैसे निरखेगी, खोलने की बात तो छोड़ ही दीजिए।