तिब्बती कवि लासंग शेरिंग से कुछ साल पहले धर्मशाला मैैक्लोडगंज में भेंट हुई थी। तिब्बत की आजादी के लिए संघर्ष करने वाला कवि मैक्लोडगंज में बुुक वर्म नाम की किताबों की दुकान चला कर अपना जीवन चलाता हैै और अपने मुल्क की आजादी के ख्वाब देखता है। लासंग की चार कविताएं यहांं बारी बारी से दी जा रही हैैं। ये चार कविताएं कवि ने बुक मार्क की तरह छाप रखी थीं जो उसकी किताबों की दुकान पर पाठक ग्राहकों को सहज ही उपलब्ध थीं। इनमें से सबसे पहले आपने पढ़ी भस्म होता बांस का पर्दा । अब पढ़िए यह कविता-
जब दर्द ही सुख हो
कब आएगा वो वक्त
जब सच में कह सकूंगा मैं
कह सकूंगा अपने सारे
हिंदुस्तानी दोस्तों से
लौट रहा हूं हमेशा के लिए
हमेशा के लिए अपनी
मातृभूमि को
क्या आएगा वो वक्त कभी
जब आखिरकार करने शुक्रिया
शुक्रिया मैं भारतवासियों
का
और कह सकूं लौट रहा हूं
हमेशा के लिए
हमेशा के लिए लौट रहा हूं
तिब्बत को ?
मेरा पिट्ठू है भारी मेरी
पसंदीदा किताबों से
कंधे दुख रहे हैं उनके भार
से
मेरे पैरों में छाले कई
दिन चल चल के
पर हर पीड़ा है सुख क्योंकि
मैं लौट रहा हूं मातृभूमि
को
मेरा चेहरा मेरी अंगुलियां
ठंड से जम रही हैं
मेरी देह के हर हिस्से
में दर्द है
पर तिब्बत है बस अगले
दर्रे के पार
मेरे दिल में गर्मजोशी और
खुशी भरपूर
और देह का हर दर्द नहीं है
दर्द बल्कि सुख है
कब ? कब आएगा वो वक्त
कब लंबे पचास बरस
लगेंगे कल की सी बात ?
और दर्द एक सुख
और हर दुख होगा- बीते
कल की बात
बहुत बढ़िया
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