Sunday, August 28, 2016

स्‍टेट औफ होमलैंड

रणवीर सिंह बिष्‍ट
सलमान मासाल्‍हा की मूल कविताओं के ये हिंन्‍दी अनुवाद
विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं । ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं। 



खिलती हुई फुंसियां
हालांकि साइप्रस की कतारों वाले रास्‍ते नहीं हैं
जेरुसलम शहर में। और ना पक्‍के रास्‍ते
पैदल चलने वालों को, ना
हैं लकडी़ के बेंच राह किनारे, और ना
हैं औरतें स्‍कर्ट पहने पर्णपाती हवाओं में
फुटपाथ को रंग डालती हैं जो
संतरी पत्‍तों से, ना है
उसमें स्‍वाद और खुशबू
हालांकि मैं नहीं हूं अतिसंवेदी
साइप्रस की धूल से जो है नहीं
ना आते हुए वसंत से
न गर्मियों और न गर्मी से, न जाती हुई सर्दियों से। सिर्फ पतझड़
घूम रही निर्दयी और अंधड़
काट देता आत्‍मा को उस्‍तरे की तरह
देती मुझे फुंसियां
आंखों में।

स्‍टेट ऑफ होमलैंड

रणबीर सिंह बिष्‍ट
सलमान मासाल्‍हा की मूल कविताओं के ये हिंन्‍दी अनुवाद 
विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं । ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं। 

रत्‍नज्‍योति [1]
फिलीस्‍तीनी गीत
झील
बहुत ऊपर चढ़ आई है
पेडो़ं की शाखों तक।
किसान
जोत रहा हे खेत
नंगे पांव। भोर
की बेला में उसे नहीं दीखता वसंत का आना।
रत्‍नज्‍योति
खिल खिल पड़ती है
लाल खपरैल की छतें।




[1] एक जगली फूल। हमारे यहां के पहाडो़ं में इसकी छाल का मसालों के साथ प्रयोग होता है।



Saturday, August 27, 2016

स्‍टेट ऑफ होमलैंड

रणवीर सिंह बिष्‍ट


तीतर की पूंछ
मेरे होठों में है एक छोड़ा हुआ वतन
अपने कंधों से झाड़ता गेहूं की बालियां
जो चिपक गईं उसके सिर के बालों से
जैतून के झुरमुट में
किसान यादों का हल चलाता है
और बिसर जाता है जंगली पंछियों की आरजू
अन्‍न के दानों के लिए
पहाड़ी गोल पत्‍थरों की हथेलियों पर
टपके भोर के बादल
पहाड़ियों से चारसूं दबे हुए
शिकारी आत्‍मसमर्पण से मना करता है
गूदडो़ं से भर लेता है अपना झोला
और खोंसता है उसमें तीतर की पूंछ
ताकि लोग समझ जाएं
वो है जबरदस्‍त शिकारी। 

स्‍टेट ऑफ होमलैंड

एल मुनुस्‍वामी


आपने हिब्रू और अरबी कवि सलमान मासाल्‍हा की कविताएं यहां पहले भी पढ़ी हैं। 
अब पेश हैं कुछ और कविताएं। ये हिंन्‍दी अनुवाद विवियन ईडन के अंग्रेजी अनुवाद से किए हैं । 
ये कविताएं नया ज्ञानोदय और विपाशा में छपी हैं। 

आत्‍मचित्र
आदमी अपनी छड़ी पर झुका हुआ
एक हाथ में, दूसरे में थामे गिलास एक
शराब का। वक्‍त, जो बदल गए
उसकी टांगों के बीच तकती जगह में
उड़ गए उसके कांपते हाथ से।
वह गायब होता जा रहा
बेसमेंट में रखी
बोतलबंद सौंफ की खुशबू की तरह।
एक, अरबी

सुबहों में, पसर जाता है वह अपनी कुरसी पर
मसरूफ गली में छोड़ता
राहगीरों के वास्‍ते कुछ प्रेतात्‍माएं।

एक वक्‍त था, प्रेत गर्व से खड़े रहते थे उसकी टांगों के बीच
शराबखाने की मेज पर। और आज
उसके ओठों से शराब जा चुकी है
मेज अब रहा नहीं। सिर्फ रेखाएं
यायावर कारीगर की, उसके चेहरे की झुर्रियां बनीं
ये निशान हैं उस आदमी के जो
उतरा मयखाने के गोदाम में और लौट के नहीं आया।
ऐसे चले गए उसके हाथ
अपने अपने रास्‍ते
एक सौंफ की भभक के साथ स्‍वर्ग को
दूसरा बेंत की छड़ी के साथ धूल में।
सिर्फ आदमी जिसने पी अपनी जिंदगी धीमे धीमे
लटका लिया उसने खुद को दीवार पर
नीचे उतारने वाला उसे कोई नहीं।
जैसे अनार पर्ण छोड़ता है। और मैं बदलते मौसमों की तरह
हरी यादें मेरी देह से गिरती हैं जैसे बर्फ
बादल से
और कई बरसों के दौरान मैंने यह भी सीखा
अपनी केंचुल छोड़ना
जैसे सांप फंस जाता हो कैंची और कागज के बीच।
इस तरह मेरा भाग्‍य नत्‍थी था शब्‍दों में
दर्द की जड़ों से कटे हुए। ज़बान
दो हिस्‍सों में बंटी हुई
मां की याद को जिंदा रखने के लिए
दूसरी, हिब्रू
सर्दियों की रात में प्रेम करने के वास्‍ते 

Friday, August 5, 2016

पुरस्‍कृत कविता

कल भारत भूषण अग्रवाल पुरस्‍कार शुभम् श्री की 'पाेएट्री मैनेजमेंट' कविता  को देने की घोषण्‍ाा हुई और जैसा अक्‍सर होता है, सोशल मीडिया पर अच्‍छे-बुरे, सही-गलत की बहस छिड़ गई। पहली प्रतिक्रिया में मुझे लगा कि कविता की गिरी हुई सामाजिक स्‍िथति को कविता के केंद्र में लाकर कविता का दायरा संकुचित कर दिया गया है, यह क्‍या बात बनी। एक तो वैसे ही कविता समाज के हाशिए पर पड़ी है और जब उसी सीमित समाज यानी कवि या कविता पर कविता लिखी जाती है तो ऐसा लगता है कवि अपना ही रोना रो रहा है। हालांकि बहुत लोगों ने इस विषय पर कविताएं लिखी हैं, मैंने भी लिखी हैं। फिर भी यह एक संकरी गली लगती है। एक पत्रकार मित्र ने टिप्‍पणी भी मांगी पर मुझे इस तरह की बहस में पड़ने का मन नहीं करता। हम लोग रचना को सराहने या खारिज करने की रस्‍साकशी में पड़ जाते हैं। कल से सोशल मीडिया में यही अखाड़ेबाजी चल रही है। इसमें ज्‍यादातर लेखक ही शामिल हैं। पाठक तो प्रतिक्रिया देते दिखते नहीं। इसका मतलब लेखकाें का कवि, कविता, पुरस्‍कार, पुरस्‍कारपाता, पुरस्‍कारदाता, संस्‍था आदि से भरोसा उठ चुका है। उन्‍हें हर चीज जुगाड़, सेटिंग, ढकाेंसला आदि लगती प्रतीत होती है। ऐसे भी होंगे जिन्‍हें ऐसा न लगता हो, पर उनकी उपस्‍थिति नेपथ्‍य में रह जाती है। 

इस अखाड़ेबाजी की प्रेरणा से कविताकोश पर और समालाेचन समूह पर शुभम् श्री की कुछ और कविताएं पढ़ीं। आश्‍वस्‍त हुआ। भाषा में एक तेज-तर्रारी, और खिलंदड़ापन है। कथ्‍य और कहन में चौंकाऊभाव इफरात में है। शब्‍द बहुत हैं, उन पर काबू कम है। तोड़-फोड़ का मोह सा है। कविताएं मंचों के लिए उपयुक्‍त हैं। यह  खामी नहीं है, पाठक तक पहुंचने का एक सशक्‍त माध्‍यम है। नई पीढ़ी के पाठक तक पहुंचने वाली भाषा है। यह एक बड़ी खूबी है। 

शाम को घर में मैंने सुमनिका (मेरी पत्‍नी, हिंदी की प्राेफेसर, सौंदर्यशास्‍त्र की अध्‍येता) और अरुंधती (मेरी बेटी, जिसने हाल ही में अंग्रेजी साहित्‍य में एमए किया है) से चर्चा की। हम तीनों ही कविता प्रेमी तो हैं ही। उन दोनों को कविता पढ़ कर सुनाई। बुखार और ब्रेकअप वाली भी। दोनों को ही कविताएं पसंद आईं। चर्चा चर्वण हुआ। मेरे किंतु परंतु को बगलें ही झांकनी पड़ीं।