मुंबई के कुछ मित्रों ने चिंतनदिशा का प्रकाशन फिर से शुरू किया है. पिछले अंक में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार के बीच कविता की चिंताओं को लेकर हुआ पत्राचार छपा है. पहले पढि़ए विजय बहादुर जी का पत्र.
प्रिय विजय कुमारजी,
सप्रेम नमस्कार,
आज सुबह-सुबह कॉलोनी में श्रीहरि भटनागर अचानक प्रकट हुए और कवि नरेश सेक्सेना द्वारा संपादित 'रचना समय' का कविता-विशेषांक दे गए। हरि को चूंकि इस क्षेत्र की काफ़ी गहरी जानकारी है इसलिए अंक पहली ही निगाह में ख़ूबसूरत लगता है। अपने कथा-लेखन में वे जितने ऊबड-खाबड हैं, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में उतने ही सुरुचि संपन्न और निष्णात।
सबेरे के समय को मैं स्वाध्याय में ही गुजारता हूं। लिखना और सोचना भी। आज इसमें व्याघात पडा क्योंकि इस अंक को दरकिनार करना मेरे लिए संभव नहीं हो सका। यों श्री नरेश सक्सेना ने मुझसे भी सहयोग करने को कहा था पर तब मैं कोलकाता में वागर्थ के संपादन की जिम्मेदारियों से इतना वजन महसूस कर रहा था कि मेरे लिए समकालीन कविता पर कुछ सोचने और सोच कर लिखने का काम संभव नहीं था। 'समकालीन कविताएं भी अपनी शक्ल-सूरत में मुझे कभी-कभार ही खींच पाती हैं। मैं साथी लेखक अरविंदाक्षन से सहमत हूं कि 'कविता विशेषज्ञों की संपत्ति हो गई है'। वही लिख रहे हैं, वही पढ भी रहे हैं। और यह विशेषज्ञता इतनी निजी (कारोबार जैसी) हो चुकी है कि लिखने वाला लिख कर आत्ममुग्धता के नशे में चला जाता है। इसका एक बडा कारण यह कि उस जैसों की भी एक जमात है, उस जमात को भी इसका समर्थन चाहिए - परस्पर प्रशंसंति अहो रूपं अहो ध्वनि। संपादक-कवि नरेश सक्सेना ने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को उध्दृत करते हुए लिखा है - 'कवि ही अपनी कविताएं पढते हैं। यह भयानक सच है।' इसके आगे मेरे अत्यंत प्रिय अरुण कमल का भी एक कथन नरेश भाई ने उध्दृत किया है - 'मेरा एक पश्चाताप यह है कि मैंने खराब कविताओं की तारीफ़ की।'
विशेषांक के संपादक की इन चिंताओं से होकर जब मैं श्री राजेंद्र यादव को संबोधित आपकी 1996 में लिखी चिट्ठी की ओर मुडा तो आपकी गद्य-भंगिमा और वैचारिक तेवर देख मुग्ध रह गया। आपकी सोच से सहमत होना एक स्वतंत्र सवाल है पर आपकी भाव-मुद्रा और शैली मुझे रसलीन करते रहे। यादवजी की कविताओं को लेकर आपकी जो तीखी प्रतिक्रिया है, वह तो उसे पूरे समय की कविता पर कमोबेश लागू की जा सकती है। मैं जब दुष्यंत रचनावली पर काम कर रहा था, उनकी दो-तीन सौ गीतात्मक कविताओं को देख हैरान होता रहा कि इस आदमी ने कविता के इन छंदों में कितनी उठक-बैठक की है। आज़ादी के आस-पास एक ओर पश्चिम से आनेवाले ज्ञान और साहित्य-चिंतन का ज़ोर हिंदी में दिखने लगा था। प्रगतिशील, प्रयोगशील प्रवृत्तियां अपनी जगह, पर इन्हें 'वाद' में बांधना, एक ख़ास प्रकार की विचारधारा और कला-दर्शन के हवाले करने का काम भी चल ही रहा था। मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद का काम बख़ूबी कर ही रहे थे, डार्विन और फ्रायड के आक्रामक प्रभाव भी कुछ कम नहीं थे। अगर आप प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के तत्काल बाद साथ आए कवियों की कविताएं देखें तो वे और भी सतही स्थूल और बाढ ग्रस्त बरसाती नदियों के पानी की तरह उफनती मिलेंगी। ऐसे में उसी वक्त में भवानी मिश्र की सन्नाटा, सतपुडा के जंगल आदि कविताएं चमत्कृत करती हैं। भवानी मिश्र प्रगतिशील संघ से बाहर थे। कहें तो गांधी के साथ थे, सुभद्रा कुमारी चौहान, नवीन वग़ैरह के साथ थे। माखनलालजी इस समूह के नेता जैसे थे। मुक्तिबोध के शब्दों में 'माखनलाल स्कूल' के कवि तार-सप्तक जिसकी कविताएं सन् चालीस-बयालीस के आस-पास लिखी जा रही होंगी क्योंकि तैंतालीस तक तो ज़रूर उसकी पांडुलिपि बन ही गई होगी। अगर आप तार-सप्तक की उन कविताओं को देखें तो उनमें से कोई एक भी कविता लोक-हृदय पर अपनी छाप छोड नहीं पाई है। यहां तक कि मुक्तिबोध और अज्ञेय की भी। पर यह कविता भी अपनी सोच और भाव-भंगिमा में न तो मैथिलीशरण आदि की विरासत का विकास लगती है, न छायावादियों की। ऐसा होना भी क्यों चाहिए? पर ऐसी भी उसे क्यों होना चाहिए कि उसमें अपनी ज़मीनी गंध भी न हो।
यह तो आप मानते ही होंगे कि समस्त कला-व्यापार और साहित्य-सृजन सांस्कृतिक व्यापार माने जाते हैं। मेरी अपनी समझ से ये अपने-अपने रचना-क्षेत्र में उस लोक-चित्त को बार-बार खो जाने, पहचानने और रचने की कोशिशें करते हैं जो हजारों सभ्यताओं के दबावों और हमलों की आक्रामकता के बीच कहीं खोता चला गया और प्रत्यक्ष जीवन-परिदृश्य से प्राय: लुप्त-सा हो उठा। कवि या कलाकार का काम सभ्यता की कलम लगाना नहीं है, बल्कि मनुष्यता के मूल प्रस्थानों और उनसे जुत्रडे सपनों की याद दिलाना है। अफसोस की बात यह कि प्रगतिशील लेखक संघ और प्रयोगवाद ने उस दौर में यह संदेश देने की कोशिश की कि संस्कृति की भी कलम लगाई जा सकती है। यह कोशिश आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के नाम पर आज भी जारी है। मैं यह भी देखकर परेशान हो उठता हूं कि समकालीन कवि आलोचक - जिनमें आप भी शामिल हैं जब किसी सैध्दांतिक बात को कहने की कोशिश करते हैं तो उसी तरफ़ जाते हैं जिस तरह प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, आधुनिकतावादी, उत्तर आधुनिकतावादी जाते देखे जाते हैं। यह एक ऐसा हवाई अखाडा है जिसमें हमारी कम से कम दो हजार साल की साहित्यिक विरासत और सृजनात्मक सिरे से अनुपस्थित है। इस प्रकार के लेखनचिंतन से यह संदेश जाता है कि रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति, भारवि, वाणभट्ट आदि ने - जिनको भुला पाना इस देश के लोगों के लिए अब भी असंभव है - कभी कोई काव्य-चिंतन अथवा कला-चिंतन किया ही नहीं। ग़ौर करें तो कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, केशवदास आदि ने भी काफ़ी मार्के का काव्य-चिंतन किया है पर आज जैसे अनेक प्रौढ और युवा-लेखकों के लेखन में इस परंपरा की कोई गंध तक नहीं मिलती। छायावादियों में प्रसाद ने अत्यंत गंभीर कला-चिंतन किया है अपनी किताब 'काव्य-कला तथा अन्य निबंध' में। आपको पढते हुए लगा कि यादवजी को आप यह बताना चाहते हैं कि विश्व-साहित्य के अध्ययन में आप उन पर या तो भारी पडते हैं या फिर कहीं से कम नहीं हैं। जिस 'फ्यूडल किस्म' का आरोप हम परस्पर लगाया करते हैं, उसकी सच्चाई यह है कि भारत का पूंजीवाद, समाजवाद, उत्तर यथार्थवाद और उत्तर बुध्दिवाद भी अभी इससे बरी नहीं है। होता तो पिछडा और दलित कार्ड खेलने वाले श्री राजेंद्र यादव लालू और मुलायम सिंह से इतना सगापन भला क्यों महसूस करते? क्यों हमारे कई मठाधीश वामपंथी अपनी बेटियों-बेटों के विवाह - यदि वे अप्रत्याशित ढंग से प्रेमग्रस्त हो विवाह न कर बैठे हों - अपनी ही बिरादरी के भीतर तलाशते हैं। उन्होंने कब यह सामाजिक नेतृत्व किया कि वे सैध्दांतिक तौर पर जातिवाद को तोडने के लिए इन योजनाओं की शुरुआत करें। तथापि श्री राजेंद्र यादव की बातें अपनी जगह। मैं जो आप से कहना चाह रहा हूं वो बातें कुछ दूसरी हैं।
आपको याद होगा, अपन एक शाम नवी मुंबई (वाशी) में बैठे थे और आपने समकालीन कविता के रेगिस्तान होते जाते चेहरे को लेकर अपनी चिंताएं व्यक्त की थीं। उस बैठक में आपने मुझसे यह आत्मीय अनुरोध भी किया था कि मैं आगे बढकर अपनी चुप्पी तोडूं और इस छत्ते में हाथ डालने का साहस करूं। एक पाठक और आलोचक के रूप में किसी की भी यह जिम्मेदारी हो सकती है कि वह अपनी चिंताओं को प्रकट करते हुए कुछ ऐसी सर्जनाओं कृतियों को रेखांकित करे जिससे समकालीनों को दिशाएं मिल सकें। अब मुझे लगता है कि नागार्जुन और भवानी प्रसाद जैसे कवियों को चुनना, उनके काव्य की प्रभाव-शक्तियों पर विचार करना, मेरे इसी उद्देश्य के अंतर्गत था। मोटे तौर पर ये दोनों कवि अलग-अलग दीखते हैं। एक साफ़-साफ़ मार्क्सवादी लगता है, दूसरा दो टूक गांधीवादी। पर आलोचक का काम यहीं ख़त्म नहीं हो जाता। उसका पहला काम तो कवि की अनुभव-दृष्टि से संवाद करना है। मुझे हमेशा लगा कि इन दोनों कवियों में परंपरागत सामूहिकता का बोध है और दोनों मार्क्स और गांधी के बावजूद अपनी उस ज़मीन पर हैं जिसे हम प्रेमचंद, प्रसाद-निराला आदि की 'ज़मीन' कह सकते हैं। यहां विचार तो हैं पर वे वादग्रस्तता से मुक्त हैं और कवि के अनुभव किसी भी दायरे को अपना पिंजडा बना कर रह लेने के अभिशाप से मुक्त हैं। फिर इन कवियों को पत्रढते हुए हमें बार-बार अनुभव होता है कि हम अपने आस-पास की उन सच्चाइयों से रू-ब-रू हो रहे हैं जो सिर्फ़ कवि-कल्पना या काव्य-कौशल की मनगत्रढंत सच्चाइयां नहीं हैं। ये विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई हैं। एक और बात जो मुझे इन दोनों के पास ले जाती है वह यह कि ये दोनों टिपिकल, मध्यवर्ग की हताशा और किंकर्तव्यमूढ मानसिकता के कवि नहीं है। उदासी, निराशा, क्षोभ और ग़ुस्सा इनमें भी कोई कम नहीं हैं पर ये रघुवीर सहाय की तरह लाचारी और हताशा का बोध नहीं कराते। नागार्जुन की 'मंत्र कविता' तो आपको याद ही होगी 'अंधेरी कविताएं' (1968) में भवानी भाई ने कुछेक पंक्तियां ऐसी लिखीं - 'फूल को बिखरा देने वाली हवा कौन कहता है चलनी नहीं चाहिए समूचा जंगल जला देनेवाली आग कौन कहता है लगनी नहीं चाहिए। आगे वे लिखते हैं - शायद ऐसे ही कुछ शब्दों में अरसे से एक ऐसी हवा मुझमें चल रही है एक ऐसी आग मुझमें जल रही है। मंत्र कविता भी इसी अवधि की रचना है।
दोनों कवियों में यह जो ऊष्मा और ताप है, वह मुझे रघुवीर सहाय जैसे लाचारी और हताशा का बोध करानेवाले कवि में अनुभव नहीं हुआ। रघुवीर सहाय को पढते हुए तबीयत बैठ-सी जाती है। अकेलेपन और लाचारी से पाठक भर उठता है।
कहना मैं यह चाहता हूं कि तार-सप्तक के राहगीरों की 'स्वतंत्रता' अपनी-अपनी राहों पर चलना - देश के लिए फायदेमंद उसी तरह नहीं हुआ जैसे कि प्रगतिवादियों का संकरे राजनीतिक प्रकोष्ठों में तब्दील हो जाना। अस्सी और नब्बे के दशक में आई कवि-पीढी स्वयं को बहुत अधिक पढी-लिखी समझने के दंभ से बीमार रही और है। अगर कई एक चर्चित कवियों के जीवन-प्रवाह का अध्ययन किया जाये तो नतीजे बहुत दुखदायी निकलेंगे कि उन्होंने कविता को किस तरह चतुर फार्मूलों का गुलाम बना डाला। उनकी कविता में व्यक्त अनुभवों का चरित्र बेहद अकादामिक शास्त्रीय किस्म का रहा जिसमें जीवन की वे पहचानें लगभग नदारद दिखीं जिन्हें इनसे अधिक वह पाठक जानता है जिसने कोई कविता नहीं लिखी। कविता और जीवन का यह भारी अंतराल इस समकालीन रचनात्मकता का सबसे दुखद पक्ष है। इस प्रतिबध्दतावाद पर सबसे बडा प्रश्नचिन्ह भी कि क्यों होरी-धनिया, घीसू-माधव या श्रध्दा-इडा जैसा कोई भी एक यथार्थवादी अथवा आदर्शवादी चरित्र यह नहीं पैदा कर पाया अब तक? आप सोचना कि ऐसे चरित्र किस साधना के बलबूते आकार ले पाते हैं? 'कुकुरमुत्ता' का विकास तो 'मंत्र कविता' में दिखता है पर 'मंत्र कविता' का विकास कहां गायब-सा हो गया है?
कविता, मेरी अपनी दृष्टि में कवि के आत्मा की अभिव्यक्ति है। कबीर हों या सूर-तुलसी, प्रसाद हों निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध अथवा नागार्जुन, या फिर उनके बाद के धूमिल, दुष्यंत आदि अपनी सर्जना के बहाने वे अपने सार्वभौमिक आत्म की अभिव्यक्ति करते हैं। तुलसीदास इसी को 'स्वान्त:सुखाय' कहते हैं। अधिकांशों ने कवि के इस कथन का जो अर्थ ग्रहण किया वह यांत्रिक मानस से किया। 'स्व' को उन्होंने कवि-व्यक्तित्व न मान कवि-इकाई मान लिया। न 'पर' के बारे में विचार किया, न 'अपर' और परंपरा के बारे में। अज्ञेय जैसे कवियों के इस कथन पर भी उनका ध्यान नहीं गया जब उन्होंने कहा - 'यह मेरा, यह मैं स्वयंविसर्जित'। कविता ही क्यों, नाटक, गल्प, आख्यान, निबंध, संस्मरण आदि में सर्जक स्वयं को ही तो विसर्जित करता है। इसके बिना तो सर्जन संभव ही नहीं। सच तो यह कि स्वयं को 'दलित द्राक्षा' की तरह संपूर्णत: निचोत्रड दिए बिना यह सुकर्म सुकर्म बन नहीं पाता। याद करें तो मुक्तिबोध कहते हैं कि एक कविता लिखने में लगता है जैसे उनके देह का एक पौंड ख़ून सूख गया। यह ख़ून जैविक ही नहीं, दैविक या चेतनागत भी है।
विचार करने पर यह अंतर साफ़ हो जाता है कि बीसवीं सदी के चौथे-पांचवे दशक से जो कविता आती है, वह एक ख़ास तरह का लोकोध्दारक बाना पहने आती है या फिर आत्मविसर्जन के विरुध्द आत्मस्थापन का दावा लिए आती है। तार-सप्तक में भी जो कविगण हैं, नेमिचंद जैन, गिरजा कुमार माथुर, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, इनका कोई जिक्रकर्ता आज नहीं है। ये इतिहास के हिस्से हो चुके हैं। लोकस्मृति में इन्हें जगह नहीं मिल सकी। रामविलास शर्मा की प्रातिभा शक्ति कहीं और चमकी। बचे केवल दो - मुक्तिबोध और अज्ञेय। अज्ञेय पहले तो अपने औपन्यासिक गल्प और कथा-प्रतिभा के बल पर, बाद में तार-सप्तक की अपनी विवृत्ति या कहें चिंतन को लेकर चर्चित हुए। उनकी वे प्रयोगधर्मी कविताएं जिनमें उन्होंने उभरते और द्वीप बनते चले जाते मध्यवर्ग को प्रतिबिंबित किया, अब सिर्फ़ स्कूलों और कालेजों के अध्यापकों और उनके अंध-आज्ञाकारी छात्र-छात्राओं के काम आती हैं। साहित्य-समाज ने तो उत्तरवर्ती अज्ञेय को ही महत्व दिया जिसका एक बत्रडा कारण असाध्यवीणा और अगल-बगल की कविताएं हैं। विडंबना यह कि इन्हीं उत्तरवर्ती अज्ञेय को परवर्ती नई पीत्रढी के कवि समूह ने नकार दिया। अज्ञेय ज़रूर उसे 'हां तू आ...' तू-तू-आ संबोधित कर पुकारते रहे पर उसने उन्हें अस्त हो चुके सूर्य की तरह नकारने की सार्वजनिक घोषणा कर दी। इतिहास का चमत्कार कहिए या विडंबना कि जिन सप्तकवादी कवि को स्वच्छंदतावादी आलोचकों ने तार-सप्तक काल में नकार दिया था। 'आंगन के पार-द्वार' की कविताओं में वही अज्ञेय एक अपवाद और एक संभावना लगने लगे। 'असाध्यवीणा' की मूल चेतना 'आत्मस्थापन' की नहीं 'आत्म विसर्जन' की है। अज्ञेय ख़ुद कविता में यह कहते चले गए हैं कि यह न तो पांडित्य से सधती है न कौशल से। अहमन्यता से तो ख़ैर यह सधती ही नहीं है। जिन बत्रडे-बत्रडे कलावंतों की ओर अज्ञेय ने इशारा कर उन्हें 'हारे हुए सब' कहा, वे हमारे ज़माने में भी तो होंगे। हर ज़माने में रहते रहे हैं। तुलसी के काल में केशवदास थे। घनानंद के काल में भी रहे न होते तो उस मर्मवेधी विदग्ध कवि को यह क्यों कहना ज़रूरी लगता कि वे इस तरफ़ न आएं जो कविता को जानकारियों का खेल समझते हैं। या फिर एक यांत्रिक भाषा-कारोबार।
कविता जहां स्वयं को अन्य समस्त भाषा-व्यापार ऐक्टिविटी से अलग करती है, वह जगह कौन-सी है, इसे आप जैसे सुविज्ञ नहीं जानते होंगे, ऐसा कैसे कहा जा सकता है। वह जगह वही है जहां हृदय का मौन भी घूंघट डाल बैठा रहता है। यह कोई राजनीतिक या धार्मिक हदय नहीं होता। अर्थशास्त्रीय अथवा वैज्ञानिक भी नहीं। यह वह हृदय होता है जो जानकारियों के तमाम पाखंडपूर्ण स्तूपों को दरकिनार करता हुआ, उस विश्व-हृदय का हिस्सा होता है, जहां बुनियादी तौर पर तमाम तरह की पहचानें तिरोहित हो उठती हैं। धर्म, जाति, वर्ण, कुल यहां तक कि अन्य भी। यह कोई रहस्यवाद नहीं है, आप चाहें तो इसे छायावादी विश्वात्मवाद ज़रूर कह सकते हैं जहां चर-अचर, मनुष्य और मनुष्येतर का भेद बेमानी हो उठता है। 'असाध्यवीणा' हमारे अपने समय में इसे असाधारण ढंग से बोध कराती है। यह वही 'हृदय' है, जहां काव्य-विवेक धरा रह जाता है। कलावंतता पानी भरती है और लोक व्यवहार निपुणता सबसे घिनौनी बात लगने लगती है।
आप मुक्तिबोध की उन पंक्तियों की याद करें जिनमें वे अत्यंत क्षुब्ध, आत्म और कातर हो, ग्लानि से भरे हुए स्वयं से पूछते हैं - ओ मेरे सिध्दांतवादी मन! ओ मेरे आदर्शवादी मन। अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया? यह केवल कवि का आत्मप्रश्न क्यों माना जाये हमारा अपना भी क्यों नहीं? पर यह कौन कह सकता है? कौन स्वयं को कटघरे में खत्रडा करने के आत्मबल से संयुक्त है? आप तो कवियों की 'संगत' में रहने का दावा ही करते रहे हैं, कृपया ज़रूर सूचित करिएगा कि कितने इस 'आत्म' का साक्षात्कार कर सके हैं? मेरी अपनी समझ से तो वे सब एक प्रायोजित और प्रदत्त संसार में रहते रहे हैं बगैर किसी ईमानदार पूर्ण लगाव या संलिप्ति के। उनके ज्ञानात्मक संवेदनों में इस 'आत्म' की उपस्थिति कहां है? अगर होती तो निश्चय ही वे संवादरत कहीं-न-कहीं ज़रूर दिखते।
जिन दिनों मैं 'वागर्थ' का संपादन देख रहा था, मुझे कुवंरनायारण जी की एक कविता परेशान करने लगी थी। बाद में मैंने उसे पत्रिका के अंदरूनी मुखपृष्ठ पर नवंबर 2010 में छापा था, आप भी पत्रढें। थोत्रडा मन-बहलाव तो आप का भी होगा।
फोन की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूं
और करवट बदल कर सो गया।
दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूं
और करवट बदल कर सो गया।
अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूं
और करवट बदल कर सो गया।
एक दिन
मौत की घंटी बजी...
मैं हूं - मैं हूं - मैं हूं
मौत ने कहा -
करवट बदल कर सो जाओ।
कविता स्वयं हमें अपनी चपेट में लिए चली जाती है, हम अनजाने ही अपने क़रीब होते जाते हैं और हमारा वह 'आत्म' जिससे हम प्राय: मुंह छिपाए फिरते हैं, सहसा हमें घेर लेता है। हमारे प्रिय मित्र और काव्य-सखा स्वर्गीय विनय दुबे की एक और कविता मुझे याद आती है 'शायद' जो मेरी प्रिय कविताओं में से एक है। वे यह सवाल उठाते हैं कि यह जो स्वयं को बचाने की चतुराई है, यह हमारे समय के लोगों के 'आम चरित्र' का हिस्सा बन चुकी है। दुनियावी सफलताओं में जीने का हुनर। विनय दुबे की असली चिंता यह है कि यह तो आत्मघाती हुनर है। हर बात पर शायद कहना, जानते-बूझते हुए भी सत्य को नकारना, शायद की शैली को जीवन-शैली बना लेना, झूठ नहीं तो और क्या है? कविता के अंतिम टुकत्रडे बेहद वेधक हैं - लेकिन इतना समझ लो कि बचने और शायद बचने में फर्क है ...तुम शायद नहीं भी बच सकते हो। 'उदय प्रकाश की कहानी' और अंत में प्रार्थना में यही तो दिखाया गया है कि जो सबसे ज्यादा असुविधाकारक सच है, मानवता के पक्ष में जानेवाला सबसे बत्रडा सच तो वही है। अपनी निष्ठाओं को जीवन-व्यवहार के स्तर पर उतारना। गालिब ने भी ऐसा एक शेर लिखते हुए सच्चे बिरहमन को काबे में जगह देने की सिफारिश की है।
हमारे समय के कवियों की दिक्कत ही यही है कि उनके विचार उनके जीवन-व्यवहारों और अनुभवों से कोई वास्ता जैसे नहीं रखते। वे आपस में भी भीतर ही भीतर एक दूसरे को नीचा दिखाना और पछात्रड डालना चाहते हैं। जिन प्रतिबध्दताओं की बात वे करते हैं वे सफलताओं के तात्कालिक गुणा-भाग से जुत्रडी हैं। आप अनुमति दें तो कहूं पाखंडी और बेईमान चरित्र वाले कवियों का एक समय जो ऐसे ही आलोचकों, आधुनिक दरबारों जैसी अकादमियों, संघों और संस्थाओं के बल पर फूल-फल रहे हैं। इनमें से कितने हैं जिन्होंने ठहर-सी गई कविता को एक कदम भी आगे बत्रढाया है? आधे से ज्यादा तो पश्चिम के नकलची हैं और बहुतेरे अंध प्रतिबध्दतावादी जिनकी पदावली में उनके कवि व्यक्तित्व की कोई झलक तक नहीं है। कई एक घुरंधर तो सिर्फ़ चोरी करते हैं। हिन्दी का वह पाठक-समाज जिसे अपने कवियों पर हमेशा भरोसा रहा है, उनके कथनों में क्यों यक़ीन नहीं करता? क्यों इन से घबराहट अनुभव करता है? क्यों इन सबकी कविता उसे अपने कवि अपनी भाषा की कविता नहीं लगती? क्यों इनके प्रति वह बेहद विमुख हो उठा है? आप ज़रूर इस पर सोचना चाहेंगे?
एक और बात जो हम आलोचकों को आपस में करनी है वह यह कि क्या कविता अब भी कोई कला-व्यापार है, अथवा नहीं? अगर नहीं तो फिर तो कोई बात नहीं, चाहे जैसे उठे-बैठे, यह उसका अपना मामला है। अगर है, तो फिर उसमें आनंद, उद्भावना, उत्प्रेरणा और मार्गदर्शन का कोई भाव है कि नहीं। अंतत: कवि, हमारे अपने ज़माने का कवि भी, कवि ही क्यों कहलाना चाहता है और इस मुगालते में रहता है कि भले ही वह वाल्मीकि, वेद व्यास, कालिदास, कबीर-तुलसी का वंशज न हो पर निराला आदि का तो है और इसीलिए उसका कद और आसन उन सारे बहुस्वीकृत, बहुप्रतिष्ठित लेखकों से बत्रडा है जो काव्येतर विधाओं में अपना महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान कर चुके हैं। उसके इस थोथे मुगालते के पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही है? मेरी जिज्ञासा है कि आप मुझे यह ज़रूर समझाएं?
कविता अगर कला-व्यापार नहीं, मात्र बुध्दि-व्यापार है और स्वयं को अब एक शास्त्र में परिणत कर, ऐसा ज्ञान-दान कर रही है, जिससे हमारी आंख खुले और हम अपने वर्ग-शत्रु की पहचान कर लें तो मेरी दूसरी जिज्ञासा यह है कि 1935-36 से आज 2011 तक यह पहचान कितनी असरकारी हुई? हिन्दी कविता का पाठक समाज कितना वर्ग-संवेदी हुआ और कितना सांप्रदायिक, कितना जातिवादी, कितना जुझारू और कितना समझौतापरस्त? जब यह कविता मनोरंजन को भी नकार चुकी, विचार - सो भी इंजेक्टेड - के बल को ही सबसे बत्रडा काव्य-बल मानती रही तब वे विचार भी क्यों नहीं फले-फूले जिन्हें सिर पर उठाए यह चल रही थी? कहीं सचमुच यह सब कुछ लोगों का बैठे-बिठाए का गोरखधंधा था? स्वयं नरेश सक्सेना जैसे कवि को यह तीखा सच क्यों उगलना ज़रूरी जान पत्रडा कि वहीं दिल्ली में केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण जैसे कवियों की उपस्थिति महसूस नहीं की जाती। यह उन्होंने वसुधा को दिए गए एक साक्षात्कार में कहा।
एक और बात जो मैं आप से शेयर करना चाहता हूं वो यह कि हमारे इन कवियों की कविता में वे अनुगूंजें क्यों नदारद हैं, जो आम पाठकों की चेतना में अब भी बाकायदा मौजूद हैं और उसे जब-तब उसकी अस्मिताओं का बोध कराती हैं? क्यों वे सब भी प्रायोजित और प्रदत्त यथार्थ के सामने स्वयं को घरेलू नौकरों (यह आपका ही मुहावरा है) की तरह पेश करते हैं? यह दिमागी बंधुआगिरी या बंधुआपन क्यों? क्या दुनिया सचमुच उतनी ही है जितनी मार्क्स ने समझी है? क्या वह नहीं जो हम सबकी छाती पर चढी नग्न-नृत्य कर रही है? इससे निपटने का रास्ता क्या है? सभ्यता, धर्म, राजनीति और विज्ञान प्रौद्योगिकी क्या इस रास्ते का कोई अता-पता हमें दे रहे हैं? इस अद्भुत अपूर्व बौध्दिक विकास की ये चरम अतियां अगर हमें त्रस्त कर चुकी हैं तो कथित प्रतिबध्द कविता अब क्या करनेवाली है, कृपया बताइएगा? क्या वह भाववादी आदर्शवाद की ओर लौटेगी, जिसके वह हमेशा विरुध्द रही है। क्या वह पूंजीवाद और उत्तर पूंजीवाद के पांवों को पकत्रड गित्रडगित्रडाएगी? या फिर वह नए सिरे से आत्मशोधन की राह पकत्रड आत्म संस्कार की प्रक्रिया से रू-ब-रू होने का संकल्प लेगी? क्या करेगी?
अक्ल की उसकी खेती तो उसके लिए भी काम नहीं आई। आप जैसे उसके प्रिय संगतकार क्या उसे कोई और परार्मश देना चाहेंगे?
अफसोस! आपके साथी संपादकगण भी यही मान बैठे हैं कि मानव-संस्कृति के बीच दरार डालने का काम 'पूंजी' ने किया है। मैं इस सोच को ही मानव-पुरुषार्थ के संदर्भ में अपमानजनक मानता हूं। ऐसी सोच तब पैदा होती है जब हम यह मानकर चलने लगते हैं कि पदार्थ ही चेतना को जन्म देता है। मेरे जैसे लोग, जो सिरफिरेपन से ग्रस्त हैं - यह मानने पर राजी नहीं। मानव-पुरुषार्थ हमारे लिए सर्वोपरि है। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और राजनीति सब उसी पुरुषार्थ की उपज हैं। पूंजी भी। क्या अब हमारा बौध्दिक पुरुषार्थ नि:शेष हो चुका? क्या हम अपनी ही सभ्यताओं से लत्रडने लायक नहीं बचे? तब वो पागल कबीर क्यों कहता फिरा - 'तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी'। तुलसी ने क्यों लिखा - कि कोरे कागदों का सौंदर्य इसलिए बत्रढेगा क्योंकि इन पर मेरे कमाए हुए सच दर्ज हैं।
बंधुवर! क्या अब हम नए सिरे से अपना नया सच नहीं कमा सकते? क्या अपने कवि मित्रों से यह अनुरोध नहीं कर सकते कि वे अकादमिक यथार्थवाद से बाज आकर उस काव्य-यथार्थ से टकराएं जिसे मुक्तिबोध 'जीवनानुभव' कहते रहे हैं। मारिए गोली कथाकार संपादक राजेंद्र यादव को, याद करना ही हो तो उदय प्रकाश को याद कीजिए जिसे मंगल पांडे के कारतूस में वारेन हेस्टिंग्स के सांड की चर्बी की अनुगूंज सुनाई देती है। भारत को स्वाधीनता का एहसास कराना, उसका मूल्य बोध कराना हमारी सबसे बत्रडी चुनौती है।
सप्रेम
विजय बहादुर सिंह
29, निराला नगर, दुष्यंत कुमार मार्ग, भोपाल-462003
मो.: 09425030392
पत्र पढ़ाने के लिए आपका आभार.
ReplyDeleteकविता एक समय अभिव्यक्ति का एक मात्र माध्यम थी, फिर वह रजवाड़ों की जागीर बन गयी , वह भक्ति का माध्यम भी बनी , इन सभी दौरों में भी वह जन-जन से जुड़ी रही किन्तु आज के इस आधुनिक दौर में कविता बुद्धिजीवियों की मिल्कियत बन गई। जिन जनों के लिए यह लिखी जा रही है उनका इससे कोई सरोकार नहीं है, उनने ना तो उनने इसे सुना, ना देखा, ना छुआ है। जिसने इसे सुना वह तो इसे कविता ही नही मानता । लेकिन शब्दों के मकड़ जाल में उलझी इन कविताओं का भविष्य ‘‘कविता संग्रहों’’ के माध्यम से हमेषा-हमेषा के लिए सुरक्षित रहेगा......
ReplyDeleteकविता एक समय अभिव्यक्ति का एक मात्र माध्यम थी, फिर वह रजवाड़ों की जागीर बन गयी , वह भक्ति का माध्यम भी बनी , इन सभी दौरों में भी वह जन-जन से जुड़ी रही किन्तु आज के इस आधुनिक दौर में कविता बुद्धिजीवियों की मिल्कियत बन गई। जिन जनों के लिए यह लिखी जा रही है उनका इससे कोई सरोकार नहीं है, उनने ना तो उनने इसे सुना, ना देखा, ना छुआ है। जिसने इसे सुना वह तो इसे कविता ही नही मानता । लेकिन शब्दों के मकड़ जाल में उलझी इन कविताओं का भविष्य ‘‘कविता संग्रहों’’ के माध्यम से हमेषा-हमेषा के लिए सुरक्षित रहेगा......
ReplyDeleteशरद चंद्र गौड़ की टिप्पणी मेल में आई है पर यहां नहीं दिख रही इसलिए पेस्ट कर रहा हूं:
ReplyDeleteकविता एक समय अभिव्यक्ति का एक मात्र माध्यम थी, फिर वह रजवाड़ों की जागीर बन गयी , वह भक्ति का माध्यम भी बनी , इन सभी दौरों में भी वह जन-जन से जुड़ी रही किन्तु आज के इस आधुनिक दौर में कविता बुद्धिजीवियों की मिल्कियत बन गई। जिन जनों के लिए यह लिखी जा रही है उनका इससे कोई सरोकार नहीं है, उनने ना तो उनने इसे सुना, ना देखा, ना छुआ है। जिसने इसे सुना वह तो इसे कविता ही नही मानता । लेकिन शब्दों के मकड़ जाल में उलझी इन कविताओं का भविष्य ‘‘कविता संग्रहों’’ के माध्यम से हमेषा-हमेषा के लिए सुरक्षित रहेगा......
महत्वपूर्ण पत्र. लेकिन विजय कुमार जी ने इस का बहुत ही कंविंसिंग उत्तर दिया है.अनियंत्रित पूँजी मानव जीवन के हर घटक मे दखल देती है और उसे अस्वाभाविक और अकल्प्नीय तरीक़ों से प्रभावित करती है.
ReplyDeleteमानव पुर्षार्थ जिनके लिए सर्वोपरि हो, उन्हें किसी वाद में पडे बिना साहित्य की सेवा करना चाहिए। विजय बहादुर सिंह के इस विचार को नमन॥ शायद ऐसी सोच साहित्य की गुटबाज़ी समाप्त कर सके!!!!!
ReplyDeleteकुछ तकनीकी गड़बड़ लगती है. अब यह टिप्पणी भी मेल में तो आई पर ब्लाग में नहीं दिखी, इसलिए यहां लगा रहा हूं.
ReplyDeleteजो मित्र सीधे ईमेल से अपनी प्रतिक्रिया भेज रहे हैं, उनकी निजता का सम्मान करते हुए उन टिप्पणियों को यहां नहीं लगा रहा.
चंद्रमौलेश्वर प्रसाद has left a new comment on your post "समकालीन कविता":
मानव पुर्षार्थ जिनके लिए सर्वोपरि हो, उन्हें किसी वाद में पडे बिना साहित्य की सेवा करना चाहिए। विजय बहादुर सिंह के इस विचार को नमन॥ शायद ऐसी सोच साहित्य की गुटबाज़ी समाप्त कर सके!!!!!
विजय बहादुर सिंह हों या ऐसे ही थके हुए दूसरे स्वनामधन्य "आलोचक"...ये सुनी-सुनाई और पूर्वाग्रहीत अवधारणाओं पर ऐसे ही भाषण देते रहते हैं. मेरा दावा है कि इन्होने नए कवियों का एक संकलन भी कभी ढंग से नहीं पढ़ा. बस जैसे हरि भटनागर दे गए ऐसे ही मुफ्त में मिली चीजों को उलट-पुलट कर काम चलाते रहते हैं.
ReplyDeleteसच में अब इनके कहे पर ध्यान देने की भी ज़रूरत महसूस नहीं होती.
समकालीन कविता पर लिखे गए आलेख में एक भी समकालीन कवि की एक भी पंक्ति का उद्धरण न जुटा पाना क्या बताता है?
ReplyDeleteविजयबहादुर सिंह का आधा ही पत्र पाया है। किसी सजा से कम नहीं है। पूरा पढ़ूंगा जरूर। टिपण्णी बनती नहीं है मगर फिर भी। अभी आधे पत्र में तो कोई एक बात नहीं आई जो काबिलेगौर हो या काबिले जिक्र। संस्कृति और परंपरा का मोनोलिथ बनाकर पेश करने की इससे भी भयावह कोशिशें होती रही हैं जो हास्यास्पद ही साबित होती हैं। ऐसे लोगों के लिए लोक और ज़मीन से जुड़ने जैसे शब्द भी प्रिय होते हैं। मुक्तिबोध यदि अहा-अहो की परंपरा पर चलते तो कितना बड़ा मज़ाक होता। विजयबहादुर सिंह के लिहाज से य तो पैरोड़ियां लिखी जानी चाहिए थीं या क्रिटिकल हुए बिना किसी भी स्याह-सफे़द परंपरा का अनुगामी होना चाहिए था। उन्होंने कबीर का जिक्र किया लेकिन कबीर का मूल्यांकन विजयबहादुर सिंह के लिए अफसोस का सबब प्रगतिशीलों ने ही बेहतर ढंग से किया है। वे पश्चिम और वाद शब्दों का बड़ा अजीबोगरीब इस्तेमाल करते हैं और एक जगह जयशंकर प्रसाद का भी जिक्र करते हैं। अपने पुनरुत्थानवादी तत्वों के बावजूद प्रसाद पर पश्चिमी साहित्या के रोमेंटिसिज़्म का असर क्या नहीं था। दरअसल जो दिक्कतें कविता को लेकर विजयबहादुर सिंह जता रहे हैं, वे उनकी अपनी दिक्कतें हैं। और सिंहजी यादवो से, कम्यूनिस्टों के बेटे-बेटियों के विवाहों से परेशान होने लगते हैं। उन्हें इन विवाहों से दिक्कत है या वे खुश हैं कि आखिर इस टटपूंजिये-घिनौने परंपरावादी ढांचे में कम्युनिस्ट भी क्यों एक सीमा से आगे नहीं जा सके।
ReplyDeleteधन्यवाद... अनूप जी ...
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