Wednesday, January 26, 2011

एक ही पहचान है



यह कविता ओम अवस्‍थी  की है. उनकी यह कविता आभार सहित प्रस्‍तुत कर रहा हूं. बी ए में धर्मशाला में और फिर एम फिल में अमृतसर में  उनसे पढ़ने का सौभाग्‍य मिला है. इनकी तरह के बहुत कम अध्‍यापक मिले हैं. आचार विचार से आधुनिक, प्रगत‍िशील, स्‍पष्‍ट, खरे. समकालीन साहित्‍य और नाटक का संस्‍कार देने में उनका योगदान है. अवस्‍थी जी हिंदी के ऐसे प्रोफैसर रहे हैं जो हिंदी वालों जैसे नहीं लगा करते थे. उन दिनों (1975-78) धर्मशाला कालेज में एक अलग ही माहौल था. अवस्‍थी जी के साथ साथ रमेश रवि का भी अपार स्‍नेह हमें मिला है. धर्मशाला से ऐसे जुड़े कि रिटायर होकर वहीं जा बसे हैं. एक जमाने बाद मिली उनकी यह कविता, वही धार लिए हुए, जिसके बारे में अजेय ने कबाड़खाना में ठीक ही कहा है कि कविता की खोई हुई लय इसमें मिलती है. उन्‍हीं नए-नए से रचनात्‍मक दिनों की याद में  ..        


    (26 जनवरी पर)

    अब नहीं मिलते कहीं भी
          पिघलते-से लोग --
          धड़कनों की थाप पर वे थिरकते-से लोग --
          वे खुले-से लोग, रसभोक्ता-से लोग --
          ख़ुशबुओं के पारखी वे कुशल गंधी लोग
          जो समन्वित चेतना से अति सहज ही
          कन्याकुमारी के नवोदित सूर्य-थालों में
          सूँघते थे काश्मीरी गंध केशर की ,
          और कस्तूरी-मृगों के दूर पर्वत-प्रान्तरों से
          देख लेते थे बँधा रामेश्वरम पर पुल 1
          क्या फलक था ! क्या परख थी !! क्या नज़र थी !!!  
          फ़ासलों को भाव-यानों से सहज में पाट लेते थे ,
          कि हर अलगाव को वे
          सोच के  व्यवहार से ही काट देते थे 1
          सच, नहीं मिलते हमें वे लोग, वे पुलों-से लोग;
          जी, बहुत नायाब हैं वे विश्व-दर्शक लोग,
          राष्ट्रचिन्तक, राष्ट्रजीवी लोग
          राष्ट्र था पहचान जिन की ,
          और जिन से राष्ट्र पहचाना गया 1

          अर्थ-खोजी उन रसज्ञों की जगह अब
          एक सड़िय़ल बेसरोकारी
          महज़ आलोचना में बोलती है,
          स्वार्थ से सब नापती है, अहम् से सब तोलती है ;
          गोदरा से, अवधपुर से, गुलमरग से, मुम्बई से,
          जहां से भी छिद्र मिलता है, वहीं से
          रोज़ कोई ज़हर जल में घोलती है 1
          पोथियों के , जातियों के , बोलियों के नाम पर वह
          नफ़रतों को पालती हैआफ़तों को खोलती है 1

          बंधुओ ! अंदाज़ उस का फ़लसफ़ाना है,
          तर्क घटिया बूर्जवाना है,
          कर्म छद्मों से भरा है, क़ातिलाना है,
          चलन उस का भीड़ को पीछे चलाना है,
          आदमी को रेत कर के शहर को मरुथल बनाना है 1
          वह तमिस्रा को हमारे सूर्य-मुखियों पर
          स्वयं ही तानती है ,
          और फिर ख़बरें बनाती
          कि उन्हें अंधा बनाया जा रहा है 1

          तुम मगर उस के इरादों को कभी फलने न देना ,
          इन विषैली आँधियों को बेधड़क चलने न देना ;
          क्योंकि तुम इन से बड़े हो ,
          क्योंकि तुम इन से लड़े हो ,
          क्योंकि तुम टोपी नहीं  हो ,
          क्योंकि तुम कुल्ला नहीं हो ,
          तुम महज़ वोटर नहीं हो
          और कठमुल्ला नहीं हो 1

          बस तुम्हारी एक ही पहचान है
          और वह व्यापक वतन है , जो कि शतरंगा वतन है ,
          उस वतन के एक गोशे में सुनहरा गाँव है
          वह तुम्हारा गाँव है, वह हमारा गाँव है ,
          गाँव में पोखर किनारे पितर-पीपल है
          जो तुम्हारी आत्मा को उस समूची आत्मा से जोड़ता है 1
         उस समूची आत्मा की एक ही प्रतिबद्धता है ;
         और वह हर ज़हर को धिक्कारना है ,
         और वह अन्याय को ललकारना है 1

         तुम जहां भी हो तुम्हें ट्रैक्टर चलाना है,
         तुम्हें  खेती उगाना है ,
         फिर पसीने से नवांकुर सीँचना है 1


6 comments:

  1. यक़ीनन..बहुत सारी चीज़े लापता है

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  2. ये मेरा दुर्भाग्य कि ओम अवस्थी जी कि कोई रचना मै आज तक नहीं पढ़ पाई ..और ये मेरा सौभाग्य कि यहाँ मुझे कम से कम एक बेहतरीन रचना पढ़ने का मौका आपने दिया.आभार.

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  3. आभार, कुछ दिनों तक यह लगा रहे यहाँ, ताकि लोग फुर्सत मे इसे रम कर पढ़ें. कबाड़खाने की मज़बूरी यह है कि वहाँ पोस्टों की बाढ़ सी आ जाती है. और कुछ नायाब चीज़ें आप मिस कर जाते हैं.

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  4. बहुत अच्‍छी कविता जिसे पढ़ कर अपना होना शिद्दत से स्‍मरण हो आता है। भाई अनूप जी का भी आभार।

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  5. अनूप जी सर्वप्रथम आपको आज जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनायें | ईश कृपा से आप इसी प्रकार वर्षों साहित्य की अनंत सेवा करते रहें .........आपकी रचना 'अब नहीं मिलते कहीं भी पिघलते से लोग ....अंतर मन को गहरे से छू गई |

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  6. सेठी जी पहली प्रतिक्रिया में गलती से अवस्थी जी की कविता को आपकी रचना लिख दिया क्षमा प्रार्थी हूँ बहरहाल सुंदर रचना से रूबरू करवाने के लिए हार्दिक आभार |

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