नरेश सक्सेना जी के आमंत्रण पर हम दोनों 1 फरवरी को चांदनी रातें नाटक देखने गए थे। वहां मित्र मिलन भी हो गया- विजय कुमार, ओमा शर्मा और मधु कांकरिया भी आई थीं। पहली बार सीरज सक्सेना जी से मिलना हुआ। अंग्रेजी कवि अश्विनी कुमार भी मिले। पहली ही बार कवि पत्रकार फिरोज खान भी मिले। जरा सी झलक अविनाश दास की भी दिखी। छह सौ से ऊपर की क्षमता वाला सभागार लगभग भरा हुआ ही था। भांति भांति के लोग। सजे धजे लोग।
सभागार था बाल गंधर्व रंग मंदिर। यह बांद्रा में लिंकिंग रोड के पास स्थित है। नाम से लगता है पुराना सभागार होगा। पर यह तो नूतन अवतार में है। अब इसका नाम है शीला गोपाल रहेजा ऑडिटोरियम। साफ सुथरा, बड़ा और भव्य पर भयभीत करने वाला नहीं। कई बार भव्यता भीति भी पैदा करती है।
पिछले कुछ समय में हमने कई सभागार देखे हैं। एनसीपी के तीनों ऑडिटोरियम; पृथ्वी तो देखते ही आए हैं; बीकेसी में नीता मुकेश अंबानी सांस्कृतिक केंद्र- यह भव्यता विशालता की वजह से दूरियां खड़ी करने में सक्षम है, पर वहां छोटे-छोटे सभागार भी हैं, वे नहीं डराते। माटुंगा कल्चरल सेंटर भी नवीकरण के बाद सहज है और पुराने जमाने की झलक देने वाला है। षणमुखानंद हॉल नवीकरण के बावजूद अपनी पहले ही जैसी धज लिए हुए मौजूद है। (इन सब की जानकारी आपको मेरे ब्लॉग की नाटक संबंधी टिप्पणियों में मिल जाएगी।)
बाल गंधर्व रंग मंदिर की कैंटीन नहीं कैफे शुरू में ही यानी लॉबी में ही एक तरफ है। चाय, कॉफी, समोसा, सैंडविच उपलब्ध हैं, पर महंगे नहीं हैं। मध्यवर्गीय दर्शक यहां चाय पीने में संकोच नहीं करेगा। इसी लॉबी में आगंतुकों के दर्शन हो जाते हैं। मध्यवर्गीय कला अनुरागियों से लेकर डिजाइनर पोशाकों वाले सजावटी कला प्रेमियों तक, सब।
चांदनी रातें नाटक पूर्वा नरेश ने लिखा भी है और निर्देशित भी किया है। यह दोस्तोएव्स्की के प्रसिद्ध लघु उपन्यास वाइट नाइट्स पर आधारित है। नाटक देखने के बाद घर आते ही सुमनिका ने प्रगति प्रकाशन की किताब ढूंढ़ निकाली। इसमें दरिद्र नारायण और रजत रातें नाम से दो लघु उपन्यास हैं। रजत रातें में व्यक्ति के भीतर चलने वाली उमड़-घुमड़ का इतना सघन वृत्तांत है कि उसे यथावत नाटक में बदलना आसान नहीं। कथा की तरह वाचन करना भी सहज नहीं। पूर्वा ने एक तरह से ठीक ही किया। कथा की तमाम नाट्य संभावनाओं का प्रयोग करते हुए एक बड़ा शाहकार पेश किया। अपने निर्देशकीय वक्तव्य में उन्होंने कहा भी है कि उस प्रेम कथा को आज के संदर्भ में पेश करना चुनौतीपूर्ण है। और वे वैसे भी एक संगीत प्रधान नाटक ही बनाना चाहती थीं।

मूल कहानी का किराएदार व्यापारी प्रेमी यहां सूत्रधार की भूमिका भी निभाता है। वह मूल कथा के दोनों पात्रों को पेश करता चलता है; उन दोनों के मिलने और लंबे लंबे वार्तालापों की संभावित एकरसता को तोड़ता चलता है। नाटक में मूल प्रेम कथा के समानांतर एक समसामयिक प्रेम कथा भी बुनी गई है। इस कथा का प्रेमी बिना कागजात के विदेश यानी रूस में आ गया है और प्रेमिका को साथ लेकर लौट जाना चाहता है। प्रेमिका ऐसा नहीं चाहती। वह विवाह भी कर चुकी है और यहां काम भी करती है। अंततः यहां भी वैसा ही आदर्श प्रेम साकार होता है। जैसा दोस्तोएव्स्की की मूल कथा में है। भीतर तमाम तरह की उथल-पुथल और बाहर आदर्श और त्याग से परिपूर्ण कहानी। यहां प्यार पाने की जद्दोजहद भी है। नाटक के बीच-बीच में आज के समय की विडंबनाओं, तकलीफों को भी उजागर किया गया है। केदारनाथ सिंह, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी जैसे हिंदी के नामी कवियों की पंक्तियों को सलमा सितारे की तरह टांका गया है। पता नहीं मकसद बड़े और चर्चित नामों को शामिल करना है या कथ्य को वजनदार बनाना। क्योंकि दो समानांतर प्रेम कथाओं के बावजूद जैसी तड़प, पीड़ा, सघनता और व्याकुलता और व्यापकता मूल कथा में है वैसी इस नाटक में अनुभव नहीं होती।
इस प्रेम कथा को एक विशाल भव्य संगीत नाटक के रूप में पेश किया गया है। अभिनेता गायन में भी प्रवीण हैं। मंच पर म्यूजिक बैंड भी है। दृश्यबंध में पीट्सबर्ग शहर को उभारा गया है। वहां नदी, आसमान, पुल, सीढ़ियां, छज्जे, बार, रेस्त्रां, पार्क, घर कई कुछ मौजूद है या थोड़े बहुत फेर बदल के साथ खड़ा कर दिया जाता है। प्रकाश का भी इसी के अनुरूप स्वप्निल प्रयोग किया गया है।
नाटक में रूसी माहौल का दृश्यांकन है। नाटकों में प्राय: जिस संस्कृति-समाज का चित्रण किया जाता है, वहां की दृश्यावलियां मंच पर निर्मित की जाती हैं। यह दृश्यबंध, पात्रों, उनकी वेशभेषा आदि के जरिए रूपाकार पाती हैं। कायदे से संवाद भी उसी समाज की भाषा के होने चाहिए। लेकिन तब संप्रेषण केवल उसी भाषा-भाषी दर्शकों में हो सकेगा। संसार के दूसरे भाषा-भाषी समाज तक बात पंहुचेगी ही नहीं। इसलिए भाषा को तो बदलना पड़ेगा ही। नाटक मंडली और निर्देशक की महारत इसी में निहित है कि वह किसी संस्कृति-विशेष के जीवन को किसी दूसरे भाषा-भाषी समाज तक ले जाए। और वे सारी दृश्यावलियां जीवंत और सच्ची लगें। चांदनी रातें में भी रूसी समाज नाटक के दृश्यबंध, पात्रों, उनकी वेशभूषा के कारण असली लगता है। रूसी संगीत उसे और प्रामाणिक बनाता है। हिंदी के संवाद यहां गैर भाषी नहीं लगते। रूसी समाज के इस प्रदर्शन को भारतीय संगीत और प्राणवान तथा प्रामाणिक बनाता है। भारतीय संगीत इस पूरी दृश्य रचना का अभिन्न अंग बन जाता है।
प्रस्तुति में सब कुछ बहुत चमकीला है। सुबद्ध है। त्वरा से भरा है। किसी तरह के झोल की कोई जगह यहां नहीं है। शायद सांगीतिक शाहकार होने की वजह से ही हर कलाकार के गाल के पास अदृश्य सा माइक्रोफोन लगाया गया है। उससे संवाद साफ सुनाई पड़ते हैं। इतने साफ जैसे रिकॉर्ड किए गए हों या जैसे हमें सिनेमा हाल में संवाद सुनाई पड़ते हैं। नाट्य गृहों में खेले जाने वाले नाटकों में प्राय इस तरह से माइक्रोफोन का प्रयोग नहीं होता है। लेकिन शायद संगीत की वजह से और पूरी प्रस्तुति की भव्यता को बरकरार रखने की लिए इन उपकरणों का प्रयोग किया गया हो। नाटक में एक पुरुष और दो स्त्रियों को शायद कोरस की तरह रखा गया है। ये किसी दृश्य में अतिरेकी किस्म की नाटकीयता पैदा करते हैं, किसी दृश्य में मुख्य पात्र के मन में घुमड़ रहे विचारों या भावों को व्यक्त करने में मदद करते हैं। और किसी दृश्य में नायिका के परिचर बनकर दृश्य को हल्का बनाने की कोशिश करते हैं। वे कभी मसखरे लगते हैं कभी सर्कस के पात्र, कभी साधारण पात्र। कभी-कभी वे दृश्य को अतिरंजित कर डालते हैं।
कुल मिलाकर नाटक बेहद ऊर्जावान, ओजस्वी और दर्शक को अपने साथ ले चलने वाली प्रस्तुति के रूप में ही याद आता है। इसे आदित्य बिड़ला समूह के आद्यम थिएटर ने प्रस्तुत किया है। जब कॉर्पोरेट समूह कला को सहारा देता हो तो उसमें भव्यता एक अनिवार्य तत्व होगा ही।