Sunday, June 10, 2018

चौबारे पर एकालाप



चौबारे पर एकालाप, दूसरा कविता संग्रह इस साल यानी 2018 में छप गया, ज्ञानपीठ प्रकाशन से। पहला संग्रह जगत में मेला आधार प्रकाशन से सन 2002 मेंछपा था। उसमें 2002 से पहले करीब बीस साल की चुनी हुई कविताएं थींं। इसमें 2002 और उसके बाद करीब 15 साल की कविताएं हैं। इस संग्रह का ब्लर्ब भी विजय कुमार जी ने लिखा है।   


अपने इस दूसरे कवितासंग्रह में अनूप सेठी की ये कविताएं एक विडम्बनात्मक समय-बोध के साथ जीने के एहसास को और सघन बनाती हैं औसत का सन्दर्भ, नये समय के नये सम्बन्ध, खुरदुरारापन, स्थितियों के बेढब ढांचे, वजूद की अजीबोगरीब शर्तें, तेजी से बदलता परिवेश जिनमें जीवन जीने की बुनियादी लय ही गड़बड़ायी हुई है   अपने इस वर्तमान को कवि देखता है, रचता है और कई बार उसका यह विडम्बना बोध सिनिकल होने की हदों को भी छूने लगता है‘‘ फिर भीख मांगी / गिड़गिड़ाए / खीसें निपोरी / अनचाहा बोला / मनमाना सुना / चाहा पर अनसुना नहीं कर पाए एक तर्कहीन समय और बहुत सारे छद्म के बीच जीते हुए इन कविताओं का अन्दाज़ किसी हद तक एक अगंभीर मुद्रा को अपना औजार बनाता है जीवन जिसमें सपने, स्मृतियां, उदासी, खीझ, तिक्तता और लाचारी एक दूसरे में घुल मिल गये हैं    इन कविताओं में बहुत सारे विषय और परिस्थितियां हैं,  मूर्त और अमूर्त स्थितियों का मिश्रण है, परिदृश्य की एक स्थानिकता है,  एक धीमी लय, एक तलाश और अस्त व्यस्तता है, जगमगाहट के पीछे से झांकते अंधेरे कोनेकुचाले हैं, विद्रूपताएं हैं और स्थिति विपर्यय का एहसास है सत्ता के नुमाइंदे जिस शक्ति-तंत्र को एक आम आदमी के जीवन में रचते हैं, उन नुमांइदों की आवाज को जानना है, जिसमें ‘‘ कोई सन्देह, भय / भर्राई कर्कश हई कभी / हमेशा सम पर थिर  इस शक्तितंत्र में घिरे हुए सामान्य जन की एक गृहस्थी है, जहां घरकुनबे की मार्मिकता है, जहां वह खुद के पास खुद होने के एहसास को पाना चाहता है एक जगह कवि लिखता है ‘‘ बच रहे किनारे पर /  जैसे बच रही पृथ्वी पर / चल रहे थे चींटियों की तरह / हम तुम / जैसे सदियों से चलते चले आते हुए / अगल बगल जाना वह कुछ तो था  अपनी किसी अस्मिता  को पाने की यह आकांक्षा, कुछ बचा लेने की तड़प, मनोभावों का विस्तार, जहां अपनी दुनिया में थोडी देर के लिये भी लौटना कवि को ‘‘ सड़क पर झूमते हुए हाथियों की तरह प्रतीत होता है, किसी मार्मिक व्यंजना को रचता है कवि के पास एक औसत नागरिक जीवन का रोजनामचा है, जन संकुलता है, यान्त्रिक जीवन शैली में फंसे रहने की बेचैनी, बेदर्द हवाले और नाटकीय स्थितियां हैं, कुछ बीतते जाने के एहसास हैं  और इसी के साथ करुणा में भीगे कुछ प्रच्छन्न सन्दर्भ हैं, कुछ अप्रत्याशित उद्घाटन हैंवह सब जो आज हमारे लिये एक कविता लिखने की प्रासंगिकता को रचता है सजगता, एकाग्रता और मर्म बोध के साथ इन कविताओं से उभरते ये बहुत सारे निहितार्थ इस संग्रह की कविताओं को कवि की काव्ययात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित करते प्रतीत होते हैं 

                                            - विजय कुमार





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