Sunday, April 29, 2012

बचपन : समृतियों का सॉफ्टवेयर






मैं बचपन में गांव में था तो स्कूल की कोई याद नहीं है, कब लगता था कब छूटता था। बस आना जाना भर याद है। रास्ते में एक खड्ड पड़ती थी। जंगल था। झाड़ियां थीं। उनमें फल होते थे। जंगली बेर होते थे। यही सब याद है। घर में ट्रक के टायर से निकाले हुए रबड़ के सख्त चक्के को 'गड्डा' कहकर दौड़ाते थे। इसका आकार-प्रकार साइकिल के टायर का सा होता था। बांस की खपच्ची को फंसा कर इस गड्डे को धकेलते। और हवा से बातें करते। थकावट, आराम, चैन, नींद जैसे शब्द हमारे जीवन में नहीं थे। कई वर्ष बाद जब हम महानगर में रहने लगे और हमारी बेटी छोटी थी, तो दोपहर में सोती नहीं थी। उसे वो सारे खेल खलने होते थे जो उसे पसंद थे। भले ही अकेले। वो अकेले में नाचती भी थी। छुट्टी के दिन भी हम लोग सो जाते थे, वो खेलती रहती थी। 

असल में सारी दुनिया बच्चों के लिए खेल ही होती है। इसी खेल-खेल में वो सीखते हैं। जीवन उनके लिए एक अजीबो गरीब रहस्य होता है - सब कुछ जान लेने की इच्छा, हर चीज में रस पा लेने की चाहत, बिना एक पल खोए। इसी खेल-खेल में वो अपने परिवार, अपने आस पास, अपनी दुनिया की परतों को तह-दर-तह पहचानने लगते हैं। उनकी दृष्टि में कलुष नहीं होता, हैरत हाती है जो हैरतअंगेज़ छवियां निर्मित करती है। बालमन पर उन छवियों की गहरी छाप पड़ जाती है। इसी खिलंदड़े और मस्तमौला रवैये के चलते बच्चों के भीतर एक मूल्यदृष्टि भी विकसित होती जाती है। जैसा परिवेश वैसी दृष्टि। जैसी शिक्षा वैसी सृष्टि। यह दृष्टि और ये छवियां जीवन भर बच्चों के साथ रहती हैं। 

इन छवियों और जीवन दृष्टि के बनने के पीछे बच्चे के मन का अकलुषित होना और शरीर से छोटा होना बड़ा माने रखता है। कोरी स्लेट की तरह के मन पर पहली बार लिखी इबारतें अंधेरे में प्रकाश की तरह चमकती हैं। इसलिए बचपन के अनुभव अमिट हो जाते हैं। बच्चे के सामने सारी कायनात बेहद विशाल, अनंत और जादुई होती है। उसके सामने उसके माता पिता, बड़े भाई-बहन देवताओं और दैत्यों की तरह हाजिर रहते हैं। जिसने उन्हें खुशी दी वो देवता। जिसने आंख तरेरी या बांह मरोड़ी वह दैत्य। 

हमारी पीढ़ी के ज्यादातर लोगों की तरह मेरा भी अपने पिता से संवाद काफी कम था। बचपन में एक बार हम सपरिवार लाहुल स्पिति में उदयपुर पैदल जा रहे थे। चलते चलते मैं गिर पड़ा और माथे पर चोट आ गई। उसके बाद पिता ने मुझे अपने कंधों पर बिठा लिया। मेरा सिर उनके सिर से ऊंचा हो गया और उन्होंने मेरे पैर अपनी छाती पर पकड़ लिए। यह दुर्गम रास्ते पर उनका देव रूप ही था। इसी तरह एक बार हम कहीं दूर से चल कर घर लौटे और तायाजी के घर से पीने का पानी मंगाया गया। उन दिनों पानी काफी दूर से बावड़ी से लाया जाता था। यानी पानी एक दुर्लभ वस्तु थी। मेरे हाथ में विसल थी। मैंने जोश में वो विसल पानी के पतीले में डाल दी। इधर विसल पानी में गई, उधर चटाक की आवाज के साथ पांचों अंगुलियों के निशान मेरे गाल पर उभर आए। सबक यह दिया गया कि पानी को जूठा कभी नहीं करना। लेकिन यह सबक मुझे किसी देवता नहीं कठोर बाप ने दिया जो उस समय मेरे लिए दैत्य से कम कहां था!

इस तरह के कठोर बाप का चेहरा देखने के लिए सिर आसमान की तरफ उठाना पड़ता है। एक अंगुली पकड़ने के लिए पूरी हथेली की मुट्ठी बनानी पड़ती है। इस तरह बच्चे के भीतर लघुता का दर्शन बनता चलता है। हीनता ग्रंथि नहीं। शायद इसलिए क्‍योंकि ऊर्जा का ज्‍वालामुखी उसे सकारात्‍मक और सक्रिय बनाए रखता है। उसे हालांकि इसे इस बात की खबर नहीं रहती। वह केवल विराटता का सामना करता है। उसके लिए हरेक वस्तु बड़ी है इसलिए महान है। उस दौर में ऊर्जा का इतना अधिक विस्फोट होता है कि निराशा या नष्ट होने या मरण के भाव बच्चे के मन में नहीं आते। इसलिए उसके लिए हर चीज अनादि और अनंत होती है। उसके भीतर अनुभवों की एक प्रतिसृष्टि बनती जाती है। जैसे कंप्यूटर में तमाम तरह के सॉफ्टवेयर भरे जाते हैं। बचपन में भी उसी तरह हमारी दीन दुनिया के नाना सॉफ्टवेयर हमें मिलते हैं जो जीवन भर निजी संपत्ति की तरह हमारे पास रहते हैं। इन सॉफ्टवेयरों के जरिए कभी हम स्मृतियों में गोता लगाते हैं, कभी जी चुके बरसों को फिर से जीने के लिए बेताब हो उठते हैं। कभी हम अकेले ही इस स्मृति-वन में विचरते हैं और गूंगे के गुड़ की तरह आनंद लेते हैं।

जैसे कंप्यूटर के प्रोग्राम और सॉफ्टवेयर पुराने पड़ जाते हैं और अटकने लगते हैं या खंडित हो जाते हैं तो उनमें पैच डाले जाते हैं, उन्हें जोड़ा जाता है, वैसे ही बचपन से हमारे साथ चले आते स्मृति-दृश्य भी कभी कभी खंडित हो जाते हैं या कुछ दृश्य लुप्त हो जाते हैं। कुछ नए दृश्य उनमें जुड़ जाते हैं। अपने परिजनों की बातों को सुनकर हम उन दृश्यों की फैंटेसी भी रच लेते  हैं। यह फैंटेसी परानुभव और कल्पना आधारित होती है। यह विशाल भंडार एक आभासी या वर्चुअल दुनिया की तरह हमारे भीतर रहता है। लेकिन साथ ही यथार्थ यानी एक्चुअल भी होता है क्योंकि यह हमारे चेतन, अवचेतन और अचेतन का कच्चा माल होता है। यह अक्षय भंडार आजीवन हमारे साथ रहता है। हम इसमें गोते लगाते हैं और हर बार नई ऊर्जा लेकर लौटते हैं। 

यह सारा खेल स्मृति की डोर से बंधा हुआ है। वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर हमारी स्मृति का लोप हो जाए तो समय की अवधारणा ही नष्ट हो जाएगी। हम समय को भूत, वर्तमान और भविष्य में स्मृति के सहारे ही बांटते हैं। जिन लोगों की स्मृति चली जाती है, वे काल से भी बाहर चले जाते हैं। जैसे कोई पिंड गुरुत्वाकर्षण के परे चला जाए। वैसे ही स्मृतिविहीन व्यक्ति भी शिखंडी बनके अधर में लटका रहेगा। इस तरह से सोचें तो व्यक्ति के भीतर स्थित स्मृति भंडार से ही उसके काल की रचना होती है। यानी उस काल से ही उसके स्वत्व या सत्ता की रचना होगी।


आदमी बड़ा हो जाने के बाद दूसरे लोगों और वस्तुओं का बराबरी के स्तर पर सामना करता है। अब उसे अपने पिता से नजर मिलाने के लिए आसमान की तरफ नहीं देखना पड़ता। सामने पिता बराबरी पर होता है, स्मृति में पिता की भव्य छवि होती है। कई बार बराबरी से देखने पर चीजों से मोहभंग भी होता है क्योंकि वे अब बौनी दिखती हैं।

लेकिन कोई भी आदमी अपने रोमान को नष्ट होते नहीं देखना चाहता। रोमान खत्म हो गया तो जीवन से कुतूहल और नवीनता और भव्यता ओझल हो जाएगी। इसलिए वह बचपन को अपनी छाती से चिपकाए रहता है। बचपन को भौतिक रूप में पकड़े रहना संभव नहीं है। वह स्मृति के जरिए ही साकार होता है। आभासी और प्रतिसंसार की तरह। एक रोमांचकारी सॉफ्टवेयर की तरह। मन के कंप्यूटर पर कभी कभी उस सॉफ्टवेयर को चला लो और अक्षय ऊर्जा पा लो। कलाकार और लेखक भी बार बार बचपन की तरफ लौटते हैं। अपने लेखन और कलाकृतियों में उसकी नई नई व्याख्याएं ढूंढते हैं। 
  

8 comments:

  1. स्मृति का लोप हो जाना मतलब भूत,भविष्य, वर्तमान का गड्ड-मड्ड हो जाना।

    बहुत सुन्दर लेख!बहुत अच्छा लगा इसे पढ़कर।

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  2. बचपन की स्मृतियों की तस्वीरों को और आदमी के भीतर के बच्चे की जटिल मनोविग्यानिकता की परतों को जिस सरस ढंग से खोल कर अभिव्यक्त किया है वह तो सराह्नीय है.लगता है जैसे कोई झरना झर-झर बह रहा हो और झींगुर गीत निमग्न हों.

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  3. सरल, तरल मन की लहरें.

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  4. पढ़ कर दिल गार्डन-गार्डन हो गया. धन्यवाद और बधाई.

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  5. लेख पढ़ने, और अपनी टिप्‍पणी देने के लिए आप सबका धन्‍यवाद

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  6. अनूप सेठी को पढ़ना मतलब एक नायाब दुनिया मे डूब जाना ... जहाँ हिचकोले ही ज़्यादा लगते हैं झटके बहुत बहुत कम . इन हिचकोलों का प्रभाव बहुत गहरा रहता है.

    एक कला कार अपने बचपन मे जा कर ही एक नया भाव और एक ताज़ा विचार दे पाता है दुनिया को. ताज़ा अतीत.... यह कॉंसेप्ट कितना अद्भुत है !

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  7. अजेय जी, धन्‍यवाद. मेरे बड़े भाई ने आपके कमेंट पर यह कमेंट किया है - 'बचपन का software पर अजय के शब्द बहुत अच्छे लगे'

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