इधर खबर है कि टाइपराइटर बनना बंद हो गया है. हालंकि होमिओपैथी दवा की दुकानों में आज भी दवा का लेवल पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप कर के शीशी पर चिपकया जाता है. वे अंग्रेज़ी की मशीनें हैं. हिंदी तो शायद सरकारी दफ्तरों और कचहरियों में ही टाइप होती रही है. अभी भी होती है. कम्प्यूटर सब जगह अभी कहां पहुंचा है.
लेखकों में मोहन राकेश ने अपने नाटक टाइप मशीन पर लिखे हैं. ज्ञानरंजन जी के पत्र टाइप किये हुए आते थे. चंडीगढ़ से कैलाश अह्लूवालिया के पत्र आज भी लाल काले टाइप में आते हैं.
मैंने यह टाइपराइटर आकाशवाणी में नौकरी पाने के कुछ समय बाद लिया था. जो थोड़ा बहुत लिखा, वह इसी पर टाइप किया. कम्प्यूटर आने के बाद टाइपराइटर अल्मारी के ऊपर चला गया. अब तो .....
चलिए, लेखकों के मन मे अभी कुछ आदर भाव तो है..... दफ्तर में टाईप राईटर अब अल्मिरा के सब से ऊपर वाले शेल्फ मे गुम सुम धूल ओढ़े बैठा रहता है.एक बाबू दिन मे एक बार उसे हिक़ारत की नज़र से देखता है, क्यों कि उसी को डिस्पोज़ ऑफ करने के बाबत जो ऑडिट पैरा बना था, सालों से ड्रोप नहीं हो रहा है.
ReplyDeleteअभी कुछ दिन पूर्व छुट्टी काट कर लौटा था तो कवि ऋतुराज का एक इनलेंड पत्र मिला जो टाईप किया हुआ था. मानो ऋतुराज जी बाबा आदम के युग से बोल रहे हों. मुझे यह पत्र पढ़ कर दोर्जे जी का पोर्टेबल रेमिंग्टन याद आ गया था ...आज इस पोस्ट ने याद और भी ताज़ा कर दी. संजोए रक्खूँगा.
अच्छा लगा पढ़कर और इस लाल टाइपराइटर को देखकर। पुराना रिश्ता रहा है हमारा टाइपराइटर से। पांचवीं में थे जब टाइपिंग सीखी थी। घर का इंस्टीट्यूट था ना इसलिए। अब तो जो कलम है की-बोर्ड ही है। और कंप्यूटर है अपना काग़ज़।
ReplyDeleteधन्यवाद अजेय और यूनुस जी,
ReplyDeleteइस बहाने यह भी पता चल गया कि ऋतुराज और यूनुस जी भी हिंदी टाइपराइटर का इस्तेमाल करते रहे हैं.
अति सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया डॉ. अज्ञात।
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