Thursday, September 1, 2011

सहजता का अप्रतिम रूप



सुमनिका से आज बात होने लगी पाठकता के बारे में, कि कविता के पाठक कवि लेखक ही हैं। वह भी मित्र कवि लेखक। उसने कहा कि नहीं पाठक हैं। अध्यापन यानि छात्रों के अनुभव के आधार पर यह कि उन्हें उपन्यास कहानी की बजाये कविता अच्छी लगती है। हालांकि कविता पढ़ने के लिए ट्रेनिंग की जरूरत भी है। ये बात तो ठीक है, लेकिन मुझे यह लगता है कि कविता के पाठक नहीं हैं। हैं भी तो बहुत थोड़े।

सुमनिका से ऐसे मुद्दों पर बहस हो जाती है। मैं किसी बात का एक पक्ष रखता हूं, वह दूसरा पक्ष रखती है। और बात कुछ ऐसा मोड़ लेती है कि हम एक-दूसरे के विरोधी हो जाते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि मेरे किसी विचार पर अगर विरोध की इतने गुंजाइश है या सहमति से इतना दूर है तो मेरी तर्क पद्धति में कोई गड़बड़ है। इससे लगता है कि चीजें जिस तरह समझ में आ रही है या जो समझ उनके लिए बन रही है, वह गलत है। अब समझ का तर्क ही गलत है तो उस पर आगे कैसे बढ़ा जाए।

सुमनिका को भी विरोध की या असहमति की गुंजाइश दिखती होगी, तभी तो वह बहस करती है। हालांकि ये भी है कि चूंकि हम सहजता से बात कर लेते हैं तो वह बहस के मूड में आकर मेरे द्वारा रखे गए विचार के दूसरे पहलू खोजने लगती है। यह बात वह कहती भी है। यह सहजता का एक लक्षण भी है। दूसरे लोगों से बहस करते समय वह शिष्टाचार का ख्याल रखती है जिसके कारण मन की बात नहीं कह पाती। या हां में हां मिलाती जाती है।

तो क्या मैं यह चाहता हूं कि वह मेरे साथ भी हां में हां मिलाए। कतई नहीं। मैं चाहता हूं वह अंतर्मन से सहज रहे। जैसा उसे लगता है वैसा ही कहे। लेकिन ऐसा भी न हो जो बात कही गई है उसका प्रतिवाद ढूंढना ही है। तर्क तो असल में ऐसा सिक्का है जिसका दूसरा पहलू होगा ही होगा। लेकिन हमारा मकसद तो सच्चाई तक पहुंचना है। बहस में जीतना जिताना नहीं।

सुमनिका ने यह भी कहा कि पुरुष वृत्ति है कि मेरी बात मानी जाए। यह गलत है। मैं चेतन स्तर पर अपनी बात थोपने की बात सोच भी नहीं सकता। अवचेतन में कोई बात हावी रहती हो तो वह बस के बाहर होगी।

स्त्री-पुरुष के भेद से परे रहने की भरसक कोशिश करता हूं। जीन्स में व्याप्त पुरुष वृत्ति हावी होती होगी, तो उसके प्रति सचेत भी रहना चाहता हूं। इस बात का निर्णय वही कर सकती है। सुमनिका ही बता सकती है मैं कितना हावी होता हूं। शायद होता भी हूं। पुरुष होने के नाते भी। स्वभाव के नाते भी।

इन सारी बहस-मुबाहसों के होते हुए भी एक बात तय है कि हम बने हैं एक-दूसरे के लिए ही। दुनिया के, दुनिया के क्यों, दुनिया के परे के भी तमाम मुद्दों पर हमारी सोच एक सी ही है। मकसद एक है, सरोकार एक है। उसकी समझ पर मुझे गर्व है। भरोसा है। उसकी सादगी पर मैं न्यौछावर हूं। भलमनसाहत का उसका गुण, दिलेरी का उसका स्वभाव, पारदर्शिता से भरा पाक साफ स्फटिक मन उसकी ऐसी पूंजी है जो मुझे सराबोर करती है। प्यार से लबालब भरती है। यह अलग बात है कि उसे यह लगता रहता है कि मैं उससे प्यार नहीं करता। लेकिन ये विपरीत विचार शायद इसी नुक्ते का हिस्सा है कि पक्ष है तो प्रतिपक्ष रखा जाए। इस नुक्ते का भी अपना ही मजा है। सहजता का रूप भी अप्रतिम है। 

8-3-98

3 comments:

  1. सुमनिका तो सुमनिका है
    हृदय प्रदेश में चमक रही है
    इक स्फटिक-मणि,
    और शीश पर उगा हुआ है
    नलिनी का पुष्प.
    बह देवी है हरिताम्भरि
    वाणी से बिखरता हुआ
    शब्द शहद शहद,
    दृगों से कौन्धती
    धार प्यार की .

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  2. आत्मीय, थॉट प्रोवोकिंग.


    # Tej kumar, सर, सही कहा आपने, पर उन्हे इंसान ही बना रहने दीजिए न !

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  3. सुमनिका जी की भाषा में एक लय है। कोई छंद, फंद, दंद नहीं। सरलता सादगी संवेदनशीलता उनके लेखन ही नहीं जीवन में भी है। हिमाचल मित्र की परिकल्‍पना को साकार करने में तथा दुविधा में उन्‍होंने दिशाएं स्‍पष्‍ट की हैं। - कुशल कुमार

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