Friday, July 30, 2010

खामोश! बारि‍श जारी है



जो भी मुंबई आता है उसे पहली ही बरसात में प्रेक्टिस हो जाती है कि अगर कहीं फंसे तो कई घंटों तक बुद्ध बनकर यथावत रहने के लिए तैयार रहो। जूते की दुकानों में अगर प्लास्टिक के जूते चप्पल इफरात में लटकते दिखनें लगें तो समझ जाइए बरसात आने वाली है। हर कोई अपने लिए एक जोड़ी चप्पल, जूता, सैंडल हर साल लेता है। न ले तो मेरे जैसा हाल हो जाए। पहली बरसात में चमड़े के जूते पहन कर सड़क पर उतर गया था। किंग्ज सल स्टेशन पहुंचे तो हार्बर लाइन बंद। माटुंगा रोड तक चल के जाना तय हुआ। एक साथी ने पहला काम किया, मुझे बरसाती पन्ही खिरदवाई। जूते की जोड़ी प्लास्टिक में लपेट कर बगल में खोंसी और पानी में खच्च-खच्च आवाज निकालते हुए चल पड़े। अंग्रेजी के जेड आकार का लोहे का लाल पुल पार करके वेस्टर्न लाइन के स्टेशन माटुंगा रोड पहुंचे। उन दिनों मैं आकाशवाणी में काम करता था। मुंबई में नया नया आया था। शहर अभी बेगाना और डरावना भी लगता था। डरपोक बच्चे की तरह किसी न किसी सहकर्मी की अंगुली पकड़ के चलता था। पहली बरसात में साथी के अलावा एक जोड़ी जूता भी हाथ में था। रेंगती हुई ट्रेन में महालक्ष्मी तक पहुंचे। उसके आगे पटड़ियां पानी में डूबी हुई थीं। टैक्सी ली। आठ बजे के चले हुए करीब बारह बजे दफ्तर पहुंचे। मैं देर से पहुंचने और नया अनुभव पाने से बड़ा खुश था।

एक बार आधी रात में बरसात में फंस गया। कवि विजय कुमार से शाम को सात बजे के करीब सायन स्टेशन पर मिला। ग्यारह बजे तक गप्पें मारते रहे। बारिश रुकी नहीं। फिर से दूसरे रेस्टोरेंट में बारह बजे तक बैठे रहे। उसके बाद लगा, अब तो चलना ही होगा। उन्हें स्टेशन पर छोड़ा। खुद एंटापहिल के लिए टैक्सी ली। जरा सी देर में टैक्सी वाले ने हाथ खड़े कर दिए। उतर कर पैदल चलना शुरू किया। कोलीवाड़ा हो के एंटापहिल के सैक्टर सात के लिए। घुटने-घुटने पानी में। आधी रात का वक्त। याद नहीं रास्ते में कोई मिला हो। गनीमत कि स्ट्रीट लाइट जल रही थी। करीब दो किलामीटर खुद को लकड़ी के ह्लाुंँदे की तरह ठेलते हुए घर पहुंचा। रात डेढ बजे।

पर सन् 2005 की बरसात तो एक हादसे की तरह घटी। उस दिन मैं अपने बड़े भाई भाभी और भतीजे को राजधानी एक्सप्रेस में बिठाने निकला था। टैक्सी ने एक किलोमीटर बाद ही हिम्मत हार दी। हम लोग जोगेश्वरी स्टेशन गए। उनके कपड़े के बैग वहीं पर भीग कर मन-मन भर के हो गए। लोकल ट्रेन में बैठ तो गए पर वो अंधेरी भी नहीं पहुंच सकी। अंधेरा होने लगा तो ट्रेन से कूदे और वापस जोगेश्वरी स्टेशन चल कर आ गए। वहां मेला लगा था। सामने सड़क पर खड़ी मोटरबाइक का सिर्फ हैंडल दिख रहा था। बड़ी देर बाद अक्ल आई कि पटड़ी-पटड़ी चलो, हमारा घर तो ट्रैक से सटा हुआ है। लोग चल ही रहे थे। हमने भी अटैची सिर पर लादे, बैग कंधे पर लटकाए और लौट चले। खुशकिस्मत थे, सही सलामत घर पहुंच गए। हमारी पड़ोसी की बेटी सांताक्रूज में अटक गई थी। वो अंधेरे में पैरों के चप्पू चलाते हुए गईं और जिगर के टुकड़े को ले के आईं। एक और पड़ौसी की पत्नी अगली सुबह घर पहुंची। अनगिनत लोग अगली सुबह ही घर पहुंच पाए। कुछ तो पहुंच ही नहीं पाए। हमारे इलाके में भैंसों के तबेले हैं। रात भर भैंसों के पगुराने की आवाजें आती रहीं। बेकली भरी। सुबह मेन रोड तक गए तो मंजर खौफजदा था। तबाही मची हुई थी। नाला कई कुछ बहा के ले गया था। भैंसों के फूले हुए शरीर छोड़ गया था। हारे हुए सिपाहियों की तरह लोग लौट रहे थे।

मुंबई जब भी किसी मुश्किल दौर से गुजरती है, उसकी चेतना जाग उठती है। इस बार भी लोगों ने लोगों की खूब मदद की थी। पानी, चाय, नाश्ता, सहारा, हिम्मत, शरण, जो जिसके बस में था, दिया। आज भी मन ही मन शायद हर कोई यह कामना करता है कि बरसात आए, झूम के आए पर उस तरह का कहर न बरपाए।

चित्र - हरबीर

इस टिप्‍पणी का संपादित अंश कादम्बिनी के जुलाई अंक में देखा जा सकता है.

Thursday, July 15, 2010

शिक्षा का अधिकार - उज्‍ज्‍वल भविष्‍य की उम्‍मीद


सूचना के अधिकार के बाद शिक्षा का अधिकार भी हमारे बुनियादी हकों में शामिल हो गया। महिला आरक्षण विधेयक भी कानून बनने की प्रक्रिया में है। ये ऐतिहासिक निर्णय हैं जो आने वाले समय की दिशा और दशा तय करेंगे। इन्हें हमारे सामाजिक जीवन की एक नई सकारात्मक शरुआत भी माना जा सकता है। ऊपरी तौर पर यह मामूली से निर्णय लगते हैं लेकिन सूचना के अधिकार की ही मिसाल लें तो यह एक ऐसा शक्तिशाली हथियार साबित हो सकता है जिसके बल पर सत्ता के लौह द्वार को खोलना भले ही संभव न हो, पर उसे जालीदार तो बनाया ही जा सकता है। शर्त यही है कि इस कानून का गलत इस्तेमाल करके इसे काउंटर-प्रोडक्टिव न बना दिया जाए।
जहां तक शिक्षा की बात है, शिक्षा इन्सान की कैमिस्ट्री ही बदल देती है। जीवन तो कुदरत से मिल जाता है पर जीवन जीने का सलीका शिक्षा देती है। यह हमारा दुर्भाग्य रहा है कि आज तक शिक्षा सबके लिए समान स्तर पर उपलब्ध नहीं रही। इसका व्यापक जन हित में उपयोग नहीं हो पाया। विशेषाधिकार के तौर पर दुरुपयोग ज्यादा किया गया। ऐसे में शिक्षा का यह बुनियादी अधिकार हमारी विकासयात्रा में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।
हमारे देश में जब आधुनिक शिक्षा व्यवस्था गांव-गांव में दस्तक दे रही थी, उसी समय उच्च-भ्रू लोगों के लिए अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों की संस्कृति भी अपनी जड़ें जमा रही थी। आखिर अंग्रेज और उनके हाकिम यह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे कि भारतीय देहाती और गंवारों के बच्चे उनके बच्चों की बराबरी करें। इसलिए दो तरह की शिक्षा व्यवस्था बनायी गयी जो आज तक अपने दोनों उद्देश्यों को पूरा कर रही है। एक तो यह कि आभिजात्य वर्ग की ऐंठन बरकरार रहे। उसकी संतानें नौकरों की संतानों की छूत से दूर रहें। दूसरे, पीढ़ी दर पीढ़ी मालिकों की संतानें मालिक, और नौकरों की संतानें नौकर बनती रहें। आजादी के बाद जैसे-जैसे मध्य वर्ग अमीर होता गया, अंग्रेजी पब्लिक स्कूलों की संस्कृति सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को तोड़ती गयी। और आज यह मरणासन्न अवस्था में है। इसके बरक्स देश के हर गली-कूचे में आपके बजट की शिक्षा की दुकान उपलब्ध है। ऐसे में शिक्षा के मौलिक अधिकार का कानून शायद सरकारी स्कूलों के लिए संजीवनी का काम कर जाए।
दरअसल होना तो यह चाहिए कि शिक्षा के अधिकार के साथ-साथ शिक्षा में बराबरी की बात की जाए। एक जैसी शिक्षा ही समतामूलक समाज का आधार रख सकती है। आज भी एक तरफ टाट-पट्टी पर और पेड़ के नीचे चलती वर्नाकुलर (देसी भाषाओं के लिए औवनिवेशिक गाली) यानी देसी भाषाओं की पाठशालाएं हैं जो बच्चों के साथ खिलवाड़ के सिवा शायद ही कुछ करतीं हों। दूसरी तरफ विदेशी बोर्डों के पांच सितारा स्कूल हैं जो विदेश जाने के एक्सक्लूसिव हाई-वे का काम करने वाले हैं। शिक्षा के सांस्कृतिक पहलू पर नजर डालें तो भारतीय शिक्षा का लार्ड मैकाले का प्रयोग पूरी तरह से सफल रहा है। उनकी शिक्षा व्यवस्था ने हमारे भीतर की भारतीयता का अंग्रेजीकरण कर दिया है। अब तो हमारी सारी सांस्कृतिक और भाषाई विरासत संकट में है। इस महादेश की बहुसंख्या खेतीबाड़ी पर निर्भर रही है। काश! हमारी शिक्षा दस हजार साल पुराने इस पारंपरिक पेशे को इज्जत से देखने का संस्कार दे पाती। शिक्षा ने अपने ही समाज को अपनी ही नजरों से गिराने का गुनाह किया है और बाबूगिरी की झूठी अकड़ सिखाई है। हमें ऐसी शिक्षा व्यवस्था बनानी होगी, जो आधुनिक शिक्षा संदर्भों का भारतीयकरण करते हुए उन्हें हमारी शिक्षा और जनजीवन का हिस्सा बनाए।
शिक्षा के कानून को लागू करने के लिए भौतिक संसाधनों की जितनी जरूरत है, शिक्षा के सच्चे अर्थों की तलाश और उन पर अमल करने की उससे कहीं ज्यादा जरूरत है। सरकारी, गैर सरकारी और निजी क्षेत्र को मिलकर यह भगीरथ प्रयास करना होगा। जहां जहां, जो जो एजेंसी अच्छा काम कर रही है, उसके लिए और ज्यादा काम करने का माहौल मुहैया कराना होगा। आने वाले दशकों में भारत की युवा जनसंख्या विश्व में सबसे ज्यादा होने वाली है। युवा वर्ग को शिक्षा से ही सशक्त बनाया जा सकता है। अखिल समाज को अपने बच्चों को सुशिक्षित और चेतनासंपन्न व्यक्ति बनाने का संकल्प लेना होगा।
पिछले दिनों प्रेमकुमार धूमल के नेतृत्व में हिमाचल प्रदेश विधानसभा ने पहाड़ी भाषा को आठवीं अनुसूची हेतु अनुमोदित करने का प्रस्ताव बहुमत से पारित कर दिया (हालांकि विपक्ष उस समय सदन में मौजूद नहीं था)। प्रदेश के लिए यह एक ऐतिहासिक कदम है। देर आयद् दुरुस्त आयद्। पहाड़ी में लिखित साहित्य कम है पर वाचिक परंपरा का खजाना भरा हुआ है। उसे अक्षुण्ण रखने की जिम्मेदारी हम सब पर है। अब प्रदेश की सरकार और जनता को अगली रूपरेखा बना लेनी होगी। हमारा प्रस्ताव है कि इसे पहाड़ी ही कहा जाए। जम्मू में डोगरी है, उत्तराखंड में गढ़वाली कुमांउनी। पहाड़ी हिमाचल की ही है। दूसरे, जितना जल्दी हो, विश्वविद्यालय में पहाड़ी भाषा अध्ययन केंद्र बनाया जाए। तीसरे, भाषा संस्कृति अकादमी को सरकारी चंगुल से मुक्त करके नवजीवन प्रदान किया जाए। हिमभारती को नियमित और मासिक पत्रिका बनाकर पेशेवर हाथों में सौंपा जाए। युवा महोत्सवों और फैस्टिवलों में पहाड़ी भाषा को जगह दी जाए। रचनात्मक साहित्य के लेखन, प्रकाशन और विपणन की व्यावहारिक कार्य योजना बनाई जाए और लागू की जाए।
इस अंक में शिक्षा का अधिकार कानून पर आमुख कथा के साथ साथ हिमाचल के गुणी बांसुरीवादक राजेंद्र सिंह गुरंग से बातचीत है। यह बातचीत भी शिक्षा के सच्चे, गहन और वृहद् अर्थों को उद्भासित करती है। मेरी प्रिय कहानी में सुंदर लोहिया को प्रस्तुत करते हुए हमें प्रसन्नता है। साहित्यकार और कार्यकर्ता के तौर पर लोहिया युवा पीढ़ी के आदर्श हैं। विख्यात आलोचक चिंतक रमेश कुंतल मेघ के रेखांकन छापना हमारे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है। ये रेखांकन साठ वर्ष पूर्व उनकी युवावस्था के भावालोड़न हैं। आवरण को देश के विख्यात चित्रकार जे पी सिंघल की कृति से सजाने का सुअवसर पाना तो मानो सोने पे सुहागा है। आवरण के भीतरी पन्ने पर रंगीन चित्र विजय शर्मा की पहाड़ी कलम का कमाल है। इस बार कला-साहित्य के कुछ आयोजनों को कला-परिक्रमा में दिया जा रहा है। प्रदर्शनधर्मी कलाओं को हम समादृत करना चाहते हैं। विचार मंथन में केशव की कहानी पर और रेखा के पत्र के बहाने से पत्रिका में चित्रों पर विचार-विमर्श है। कुछ स्तंभ इस बार छूट गए हैं। अंक भी देरी से आ रहा है। इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं।

Tuesday, July 13, 2010

नालेज वालेज

मेरी पिराबलम बोले तो मालूम क्या है? मैंने इतना कागज खा ले लिया है न कि मेरे को नॉलेज बहोत हो गएला है। जो कागज मैं खाती है न, वो कोरा नई होता है। कोरा कागज तो पैसा दे के मिलता है। जो कागज छपेला होता है वो ई च रद्दी में बिकता है। उसमें नॉलेज की बात रहता है पन रद्दी में जाता है। मेरे को जादातर वो ई कागज मिलता है खाने को। और छपेला कागज दिमाग में जमा होता है रे। बोले तो कागज तो पेट में जाता है, गू बनने को। पन उसका छपेला अक्षर का दिमाग में दही बन जाता है। जब ये दही जादा हो जाता है न तो मेरा मुसीबत!! बाप रे बाप!!! तबी मेरे को कुछ लेक्चर देना ही मांगता। नहीं बोलेगी तो बिमार पड़ जाएगी। अभी सड़क पर बिमार गाई पड़ी रहेगी तो अच्छा लगेगा क्या? सारा ट्रैफिक रुक जाएंगा। लोग मजाक बनाएंगा। इस वास्‍ते, शहर की इज्जत के वास्ते मैं बिमार नहीं पड़ती। खड़ी रहती है अक्खा टाइम।

Friday, July 9, 2010

वर्षा अंक




हिमाचल मित्र का वर्षा अंक देर से ही सही (हर बार की तरह), आ गया है. करीब पैंतालीस लेखकों की रचनाओं और जे पी सिंघल, विजय शर्मा के चित्र और रमेश कुंतल मेघ के रेखाचित्रों से सजे 108 पृष्‍ठों के इस अंक की विषय सूची यहां दी जा रही है. अगर व‍िषय सूची देखकरआपको इसे पढ़ने का मन करे तो हमें अपना पता यहां ईमेल करें - himachalmittra@gmail.com हम आपको अंक भेज देंगे.

आमुख कथा – शिक्षा का अधिकार - उज्जवल भविष्य की उम्मीद : शिरीश खरे

बातचीत - बांसुरी वादक राजेंद्र सिंह गुरंग

लोक संस्कृति - हिमाचली लोक साहित्य में मुक्तक गीत : कृष्ण चंद्र महादेविया॥ हिमाचली कोकिला - वर्षा कटोच॥ लाहौल स्पिति में विवाह समारोह के दौरान खान-पान : उरज्ञान छैरिंग मैलगपा

अनुगूंज – छत्‍तीसगढ़ की संस्‍कृति : शरद कोकास

मेरी प्रिय कहानी – सतखसमी : सुंदर लोहिया॥ टिप्पणी : निरंजन देव॥ बातचीत : मुरारी शर्मा॥ कल्पना की उड़ान ने खिंचवाई रेखाएं : रत्नचंद रत्नेशरमेश कुंतल मेघ के रेखांकन॥ कविताएं : जसवंत सिंह विरदी कुलदीप शर्माभास्कर चौधरीहंसराज भारतीसिद्धेश्वर सिंह॥ कहानी : बद्री सिंह भाटिया॥ परिचर्चा - साहित्यकार, साहित्य और समाज : एस.आर.हरनोटसुरेश सेन निशांतमुरारी शर्मा

विचार मंथन 1- कुछ भी (क्यों) नहीं देखा – केशव की कहानी: सुधीर भड़कमकरकेशवनिरंजन शर्मामधुकर भारतीविचार मंथन 2- पत्रिका की साज सज्जा: रेखाहरि मृदुलमनोज शर्मा

पहाड़ी कलम- पहाड़ी अनुवाद के साथ हिंदी कविता - स्थित प्रज्ञ : यश मालवीयकेशो ज्ञानी की कुंडलियां॥ पवनेंद्र पवन दे छंद॥ रेखा ढडवाल दे गीत॥ गल सुणा : अनूप सेठी चाचू भतीजू: गप्पी डरैबर॥ वातायन खुले रखने होंगे (पहाड़ी भाषा पर चर्चा) : डॉ. गौतम व्यथितडॉ. प्रत्यूष गुलेरी॥ कुछ समरूप बोलियां : केशवचंद्र

करियर कैफे- सुदर्शन वात्यायन

भूगोल से आगे- एक अनूठा विचार मंदिर : राजीव त्रिगर्ती॥ नूरपुर का नगीना : बी कृष्णा॥ पझोता आंदोलन : आचार्य ओमप्रकाश राही॥ छात्र समीक्षकों के बीच: मोहन साहिल

यात्रा- हिमाचल दर्शन : शैलेश सिंह

आस्वाद और परख- मनोज शर्मा की कविताओं पर तरसेम गुजराल॥ कैलाश आहलूवालिया की कहानियों पर महमूद अयूबी और डॉ. परेश॥ वेद राही के डोगरी हिंदी उपन्यास पर अग्निशेखर॥ केशव के अंग्रेजी उपन्यास पर ईषिता आर. गिरीश रमेश उपाध्याय के निबंध पर डॉ. वत्सला शुक्ल

कला परिक्रमा में जे पी सिंघल और विजय शर्मा की चित्र प्रदर्शनी, रमा वैद्यनाथन के नृत्‍य, दयाल प्रसाद निर्देशित नाटक, मोहित चौहान की एलबम, सेतु और संबोधन पत्रि‍काओं पर टिप्‍पणियां ॥ गतिविधि॥ वैवाहिकी॥

परिवर्तन की पदचाप : आर. बी. राणा

Thursday, July 1, 2010

भूख

मेरी पिराबलम बोले तो मालूम क्या है? अक्खा दिन मेरे कू कागज खाना पड़ता है। काए कू ? बोले तो सड़क पर घास नहीं उगता है इसी के वास्‍ते। अब तुम यह पूछेगा कि कागज जास्ती खाती है कि पिलास्टिक, तो बताना जरा मुसकिल गिरेगावो इस वास्‍ते कि जभी भूख लगी हो तभी जो भी मिल जाए, खाना ई च पड़ता है। तू बोल, दिल पे हाथ रख के बोल, भूख लगने पर खाता है कि खाने का टेम हो गएला है, इसके वास्ते खाता है। दूसरा बात भी है रे। भूख लगने पर तेरे पास चॉइस है क्या? यह खाएंगा वो नहीं खाएंगा? कि खाना ई च नईं है? बहोत लोक है हमारे महान मुलुक में, जिनको एक टैम भी खाना नसीब नहीं होता। पर जाने दे। मैं तो गाई माई है। हज्‍जार साल से सब लोक मेरी पूजा करते। मैं ई कागज और पिलास्टिक खाती है तो दूसरे के बारे में क्या बोलेगी।