Sunday, August 28, 2011

कविता: कितनी मजबूरी, कितनी जरूरत

यह पूरा अंक यहां रखा है.

डायरी के कुछ अंश ऊना, हिमाचल प्रदेश से गुरमीत बेदी की पत्रि‍का पर्वत राग में छपे थे. 
उसके नए अंक की प्रतीक्षा है जो लीलाधर जगूड़ी पर केंद्रित है.  


इतने लंबे अर्से के बाद यहां होना बता देता है, जीवन के क्या हाल हैं। यूं सब ठीकठाक चल रहा है। साहित्य जीवन से गायब है। संग साथ भी वैसा नहीं है। पढ़ना यादा हो नहीं पाता। जो होता है वह यांत्रिक प्रकार का होता है। जीवन की चिंहुक बनाए रखने के लिए शायद मेहनत करनी पड़ती है। जीवन को बीच में धंसकर भोगना लेकिन फिर भी उससे मुक्त रहना। उसी तीसरी आंख से देख सकने की कूबत पैदा करना। और वही होता नहीं है। धंस गए तो धंस गए उसी मध्यम वर्गीय चहबचे में। उबरे रहे तो उखड़े रहे। बेमन अनमने हाशिए पर। जब तक धंसकर अलग नहीं होंगे, वह भी पूरी शिद्दत से, तो कविता कहां से होगी। कविता का छलावा होगा। पेशागत मजबूरी के तहत घसीटे गए शब्द होंगे। मुझे बार-बार लगता है कि कविता  को पेशागत मजबूरी की तरह नहीं लेना है। आंतरिक जरूरत ही इसकी होनी चाहिए। पेशागत मजबूरी का एक बड़ा जीवंत दृश्य है। उसे मजेदार नहीं कहना चाहिए। मजबूरी के सूखे हुए आंसू उसमें हैं। अभी कुछ दिन पहले हम लोग (मैं सुमनिका और बेटी अरुंधती..) धर्मशाला से लौट रहे थे। पठानकोट चक्की बैंक स्टेशन पर एक घंटा ट्रेन की प्रतीक्षा करनी थी। वहां तीन बालक नाच-गाना दिखाकर पैसा मांग रहे थे। पुलिस वाले कुर्सियां बिछाकर बैठे थे। सबसे बड़ा करीब 12 साल का बालक ढोलक बजाता और गाना गाता था। उसके दो भाई करीब 9 साल का और कोई 6 साल का नाच करते थे। पंजाबी लोक ताल के संस्कार में फिल्मी गाने ब्रेक नृत्य के साथ। छोटे-छोटे बालक कूल्हे बाहें गर्दन मटकाते थे। काठ की तरह देह को झटक देते थे। सोचते कुछ थेे, देखते कुछ थे, करते कुछ थे। टे्रन में भ्भी शायद जालंधर तक आए। उसी मुद्रा में गाते नाचते। इस बीच शायद उन्होंने 10-15 रुपए भीख की तरह पा भी लिए हों। सामाजिक तिरस्कार के शिकार। कुपोषण के शिकार। अपेक्षाकृत सरल साधन से पैसा बटोरने का इंतजाम करते हुए। सोचते तो शायद वे यही होंगे कि ट्रेन वालों को, पुलिस वालों को खुश रखा जाए। बेमन से कुल्हा या हाथ या गर्दन मटका के दर्शकों को खुश कर दो। एक-दो रुपया या अठन्नी, चवन्नी निकल आए। बाप या बड़े भाई या ठेकेदार को देने वाले पैसों से छुपाकर अपने लिए टॉफी, गोली खा ली जाए। बंद-छोले खा लिए जाएं ।

कुछ ऐसी ही पेशागत मजबूरी उस व्यक्ति की है जो कवि साहित्यकार बने रहना चाहता है। उसके लिए कुछ लिखतेs रहना चाहता है। दो तीन महीने में उसकी कविता कहीं दिख जाए। साल दो साल में संग्रह छप जाए। समीक्षा चर्चा होती रहे। सभा गोष्ठी में नाम ले लिया जाए या कविता वांचने का मौका मिल जाए।
सार यह कि जैनुइन या खरी कविता आज कितनी है और कहां है? कवि के पास जीवन धन कितना है? वह कैसे अपने को बनाए रखता है? अपने को कितना सघन और व्यापक बना पाता है? और अंतत: उसकी कविता पहुंचती कहां है? उसके पढ़ता कौन है? क्या वह अपना पेशा निभाता है? अपनी आंतरिक मजबूरी के तहत लिखता है? क्या वह स्वांत: सुखा; है? उसका समाज में क्या दखल है? कविता में आज कितनी ताकत बची है? उसका सरोकार क्या है? वगैरह-वगैरह..ये सवाल इतने जटिल और दुरुह हैं कि जवाब सूझते नहीं हैं। और जीवन सपाट और सतही और संवेदनहीन होता चला जाता है। इस शोक स्थिति का कोई अंत कहीं नजर नहीं आता।
11-06-97

Sunday, August 14, 2011

बरसात और छाता



पिछली बरसात में छाते पर चर्चा चली थी. इस बीच हमारे बड़े भाई तेज जी ने वो पोस्‍ट देखी और छाते पर यह टिप्‍पणी भेजी -

तुम्हारे ब्लाग में से मैंने "छाता" पढ़ा तो मुझे छत्तरोड़ू की बड़ी याद आई,  वो वचपन की सारी यादें... तुम्हें शायद याद होगा कि नहीं, ग्रामीण लोग "ऒड्डी" भी ओढ़ते थे जो बान्स की चपटियों से बुनी हुई होती थी. सिर के ऊपर बाला सिरा किश्‍तीनुमा और पीठ तक को ढकने बाला हिस्सा चपटा गोल-कट होता था...

छ्त्तरोड़ू

मैं बचपन की तुम्हें याद दिलाता,
गांव में नहीं दिखता था छाता.
(हर कोई नहीं रख पाता था छाता)
होता था तो बस इक "छत्तरोड़ू",
बान्स की डण्डी, ऊपर सूखा "पाता".
झर-झर बरखा औ धान बुआई,
धंसे कीच में सब काम्मेंभाई.
सिर पर ओढ़े बोरी का "ओह्डणू’,
कीच में कीच हुये अनदाता’.
हां, जिसके के पास होता था छाता,
वो तो  भई "बझिया" कहलाता.

नोट: (हमारे नानू को गांव बाले "बझिया" कहते थे.
क्योंकि उनके पास छाता हुआ करता था)

इस छाता चर्चा के साथ उन्‍होंने दो चित्र बनाकर भेजे, एक छतरोड़ू का जो ऊपर है और एक मुच्‍छड़ जो नीचे है. 

मुच्‍छड़ पर और काम

मुदित (भाई साहब का बेटा और मेरा भतीजा  जो बैंगलोर में है और रंग रेखा और संगीत का धनी है) को कहा कि इस मुच्‍छड़ पर काम करो. उसने उसका कायाकल्‍प कर दिया पर छाता गायब हो गया सिर्फ मुच्‍छड़ रह गया. मतलब अब बरसात बिना छतरोड़ू के ....


मुदित का और काम उसके ब्‍लाग the spare time stuff पर देखा जा सकता है. 

Saturday, August 6, 2011

सुर में आलाप

कवि सुंदर चंद ठाकुर नव भारत टाइम्‍स के मुंबई संस्‍करण के संपादक बने तो उन्‍होंने अखबार में साहित्‍य  कला के लिए थोड़ी जगह निकाली और पुस्‍तक समीक्षा का कालम भी शुरू किया. इसमें मुझे भी समीक्षा करने  का मौका मिला, हालांकि ऐसे कामों में मेरी ज्‍यादा हिम्‍मत नहीं पड़ती है. फिर भी...  
यहां एक और युवा कवि गीत चतुर्वेदी के संग्रह आलाप में गिरह पर संक्षेप में अपनी बात रख रहा हूं. 




 
मुंबई महानगर को भारत का एकमात्र कास्‍मोपोलेटिन शहर माना जाता है. ग्‍लैमरस, अत्‍याधुनिक और निस्‍पृह. हालांकि जो लोग यहां रहते हैं, वे इसके देसी रग-रेशे से वाकिफ हैं. इस वाकफियत का पता गीत चतुर्वेदी की एक कविता ‘जब जाऊंगा’ से लगता है. गीत मुंबई के हैं और वो इस कविता में घर को याद कर रहे हैं जिसमें पानी के लिए भटकते पिता हैं, मद्रासी पानवाला है, परदे के दरवाजे के पीछे सुबकी को छिपाती ब्‍याह दी गर्इ लड़कियां हैं. खंडहर, कटा पेड़, प्‍याऊ भी उनकी याद की पोटली में है. ये महानगर के किसी भीतरी कस्‍बे की यादें हैं. ऐसे कई कस्‍बे इस विराट महानगर में उपनगरों की तरह समाए हुए हैं. गीत उल्‍हासनगर में रहे हैं जहां सिंधी समुदाय का प्राधान्‍य है. सिंधियों के साथ विभाजन की त्रासदी जुड़ी हुई है. और इसी त्रासदी में से होती हुई गीत की कविता लंबी यात्राएं करती है. सभ्‍यता के विकास को खंगालते हुए वे बार-बार युद्ध स्‍थलों में जा पहुंचते हैं. ‘सभ्‍यता के खड़ंजे पर’ चल रहा मनुष्‍य एक कलाकार ही है जो सभ्‍यता की मरम्‍मत करने के लिए समय के आर पार तक की यात्रा कर डालना चाहता है. ‘डेटलाइन पानीपत’ कविता में वे पर्यटन स्‍थल में बदल चुके युद्ध के मैदान की घास, मिट्टी के भीतर घुसते हुए युद्धों और युद्धों के रूप को खंगालते हैं. आज तक चले आते सभ्‍यता के गुप्‍त युद्ध कौशलों को भी वे खोलते हैं. गीत की इस तरह की कविताओं में इतिहास और वर्तमान के बीच खूब आवाजाही है. कभी आवेग भरी, कभी दार्शनिक अंदाज में कभी खिलंदड़ी. ‘सिंधु लाइब्रेरी’ में इस उपमहाद्वीप की बेहद दुखती रग (भारत वि‍भाजन) का जिक्र तो है ही, युद्ध के बाद लुटे हुए नागरिकों की अपने जीवन को फिर से खड़े करने की जद्दोजहद भी है. हालांकि यह युद्ध नहीं था आजादी का छल था. सिंधी समुदाय की तकलीफ, किताबों का प्रेम और भूगोल का बदलना एक साथ इस वृत्‍तांत कविता में चलता रहता है. एक शोकगीत की तरह. विष्‍णु खरे ने अपने सोलह पेजी लेख में, जो इसी संग्रह के है, और भी कई बातों के साथ साथ यह ठीक ही नोटिस किया है कि इस कवि ने आजाद होते हिंदुस्‍तान को नहीं देखा, फिर भी उस त्रासदी को अपनी कविता में ढाला. यह शायद गीत के भीतर स्‍थानीयता की सांद्र उपस्थिति के कारण संभव हुआ है. यही नहीं, ‘लुक्‍खे’ जैसी देशज माहौल की कविता भी इसी धरती की देन है. इन वृत्‍तांत कविताओं में शिल्‍प की मांग के मुताबिक दृश्‍य प्राधान्‍य है, सुगठित चरित्र हैं, संवादात्‍मकता, इतिवृत्‍तात्‍मकता  और नाटकीयता है. इस वैविध्‍य के कारण शब्‍द बाहुल्‍य बाधक नहीं बनता. इसके अलावा ‘सिंधु लाइब्रेरी’ और ‘लुक्‍खे’ में करुणा की धारा बहती रहती है. इतिहास और सभ्‍यता की टोह लेने का काव्‍य-पुरुषार्थ नम आंख, झुके कंधों, हल्‍के पांव और नर्म उंगलियों के बिना संभव नहीं हो सकता. अलबत्‍ता ‘साइकिल के डंडे पर बैठी लड़की’ कविता समाज शास्‍त्रीय खोजबीन ज्‍यादा प्रतीत होती है, प्राण-प्रतिष्‍ठा युक्‍त कृति कम.

कवि का अपना छोटा शहर ‘अरब सागर’ जैसी कविता में महानगर की पूरी विराटता, विकरालता, पेचीदगी, निष्‍ठुरता के साथ विस्‍तार पाता है. ‘नरीमन पाइंट’ भी उसकी एक कड़ी ही है. उसमें भी एक कब्रगाह है जैसे अरब सागर के उदर में कई कुछ समाया हुआ है. अरब सागर और नरीमन पाइंट मिलकर महानगर के छाया रूपक की तरह एक समानांतर सृष्टि करते हैं. यहां भी उदासी और अवसाद है. कस्‍बे, शहर, महानगर, देश, महाद्वीप, वर्तमान, इतिहास में बेजोड़ (सीमलेस) ढंग से विचरण करने की कविता है ‘इतना तो नहीं’. यह बेजोड़पन गीत की कई कविताओं में है.

संग्रह में अलग अलग तरह की कई अन्‍य कविताओं के अलावा करीब ग्‍यारह कविताएं दूसरे कलाकारों कवियों, संगीत, चित्रकृतियों को याद करते हुए लिखी गई हैं. कई कविताएं उन सामान्‍य लोगों पर भी है जो कवि के प्रत्‍यक्ष परोक्ष संपर्क में आए. ‘कॉस्‍मैटिक सर्जरी’, ‘मेरे वक्‍त का एक अहम सवाल’, ‘कोई और सुर’, ‘आलाप में गिरह’ जैसी कविताओं में कवि, रचनाकार की कशमकश, द्वन्‍द्व, उहापोह से भी दो चार होता है. संग्रह का शीर्षक भले ही आलाप में गिरह हो पर गीत का काव्‍य सुर सधा हुआ है.            

 

गीत चतुर्वेदी आलाप में गिरह (कविता) राजकमल प्रकाशन, दिल्‍ली 110002 मूल्य रु. 195/-  पृष्ठ 159, वर्ष 2010