tag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post3889646350144157477..comments2024-01-14T22:05:12.224+05:30Comments on अनूप सेठी: कविता पर बहस जारी हैPrakash Badalhttp://www.blogger.com/profile/04530642353450506019noreply@blogger.comBlogger10125tag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-58806402530803861492012-12-15T13:28:32.946+05:302012-12-15T13:28:32.946+05:30आधा सहमत.पाठकीय आकाँक्षा की बात कह रहे हैं आप . ल...आधा सहमत.पाठकीय आकाँक्षा की बात कह रहे हैं आप . लेकिन इसी यथार्थ मे रस ले कर लिखते रहें लिप्त हो कर, तो साहित्य और जीवन में क्या फर्क रहा ? तो पोर्न कला ही महान कला न होती? मेरी समझ मे साहित्य मे इतना रस हो कि वह पाठक को एक नई छलाँग के लिए स्प्रिंग बोर्ड पैदा करे . इतना यथार्थ हो कि कि पाठक को एक नए जीवन सच में झाँकने की खिड़की दे ! माने संभावना दिखाए.क्या हमें ये अपेक्षाएं नही रखनी चाहिए ? अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-66676991967801911172012-12-15T09:35:37.387+05:302012-12-15T09:35:37.387+05:30हालांकि सैक्स जीवन का मूल है पर बुरी तरह वर्जनाओं...हालांकि सैक्स जीवन का मूल है पर बुरी तरह वर्जनाओं से लदा हुआ है। इसे लेकर हम सामाजिक और मानसिक रूप पूर्णत: कुंठित हैं। यह कुंठाएं हमारे सोचने से लेकर हर कार्यकलाप में चेतन और अवेचतन में प्रकट होती हैं। भले वो मां-बहन को संबोधित सबसे लोकप्रिय गालीयां हों या मर्द होने का दंभ। सैक्स कलाकृति में हो, रचना में हो या जीवन में जहां भी सहजता से आता है तो शिव भी है और सुंदर भी है। <br />यहां तक आते-आते बात ही बदल गई है। लेखक हो या कलाकार हो। वह अपनी रचना में कुछ कह रहा होता है इसलिए उसका कहना स्पष्ट, सहज और रसभरा और कम से कम उसका अपना सत्य होना चाहिए। बाकी तो पढ़ने वाला उसे पुन:सर्जित करेगा ही। <br />कुशलकुमारhttps://www.blogger.com/profile/05839935127665322734noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-79726887060516708422012-12-14T16:16:05.191+05:302012-12-14T16:16:05.191+05:30हम्म्म्म्म्म्म .... यहाँ आकर कविता कठिन तपस्या बन ...हम्म्म्म्म्म्म .... यहाँ आकर कविता कठिन तपस्या बन जाती है. अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-43007845426973334312012-12-14T15:29:50.881+05:302012-12-14T15:29:50.881+05:30आपकी बात ठीक है.हमारे एक मित्र लेखक को 'अंतरात...आपकी बात ठीक है.हमारे एक मित्र लेखक को 'अंतरात्मा का प्रहरी' जैसा भी कुछ कहते हैं.लेखक 'मशालची' भी होता है, रचना में और वैचारिक धरातल पर. ऐसा होना बड़ा चुनौती भरा और कठिन है. क्योंकि जीवन के अनुभव में तपे हुए आम आदमी की बराबरी करना आसान नहीं होता. उसके पास भाषा और अभिव्यक्ति की कमी हो सकती है. और लेखक भाषा में अपना अज्ञान छुपा ले जा सकता है. <br />दूसरी तरफ सामान्य जीवन में यानी व्यवहार में लेखक को आम आदमी ही होना होगा वरना वो भ्रमित हो जाएगा. या साहित्य-सत्ता के नशे में झूमने लगेगा. लेखक होने का मद उसे उसके आत्मसंघर्ष के सामने झूठा और छली बना देगा.<br />हमारे यहां कविता का शिल्प आम आदमी से दूर छिटक गया है. शायद उस सीमा तक कवि भी आम आदमी से दूर छिटक गया है.गजल गीत वाला शिल्प आम आदमी के नजदीक है, पर वैचारिक धरातल प्रायः पिष्टपेषण वाला है. Anup sethihttps://www.blogger.com/profile/13784545311653629571noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-63003402050020897852012-12-13T18:56:13.996+05:302012-12-13T18:56:13.996+05:30जी एक दम सही , और मैं अब भी यह मानता हूँ कि लेखक ...जी एक दम सही , और मैं अब भी यह मानता हूँ कि लेखक को इस हाल से उबरने न देने मे एक विचित्र धारणा का अहम रोल है कि -- *लेखक को आम आदमी की तरह ही सोचना / लिखना चाहिए; माने, सवालों और उलझनों से एक एस्थेटिक दूरी बना कर के देखने/ कहने की बजाय , उन मे लिप्त हो कर के देखने / कहने की परम्परा * यह हमारा नकली क़िस्म का जनवाद है .और हमे कहीं पहुँचने नहीं देगा . लेखक का वैचारिक तल पाठक के वैचारिक तल से न्श्चित रूप से ऊपर होना चाहिए . बेशक वहाँ एक हेत्वाभास बना रहे कि वह पाठक के मन की ही बात कह रहा है , उसे पाठक के मन का अतिक्रमण करते हुए मुद्दों को एक आम फहम ट्रीट मेंट से बचाना होगा . क्या अभी भी अपनी बात कह पाया ठीक से ? पता नहीं .<br />अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-57760217035558312292012-12-13T16:08:23.648+05:302012-12-13T16:08:23.648+05:30आप दोनों ही बंधुओं की बात सही है. दूसरे को स्पेस ...आप दोनों ही बंधुओं की बात सही है. दूसरे को स्पेस देना, असहमति से सहमत होना, दूसरे की नापसंदगी या टीका टिप्पणी को सहन करना, मित्रवाद और क्षेत्रवाद से ऊपर उठना (हम भूल गए हैं) हमें (फिर से) सीखना होगा. कहीं हम 'छोटे छोटे मनुष्य तो नहीं हो गए बर्फ के'!! <br /><br />अजेय जी आपका कहना ठीक है.निर्कुंठ होने की यात्रा अभी लंबी है. लेकिन लेखक का ही यह हाल है तो आम आदमी का क्या होगा. Anup sethihttps://www.blogger.com/profile/13784545311653629571noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-19576078899468224362012-12-11T14:33:54.691+05:302012-12-11T14:33:54.691+05:30यह आलेख पढ़ कर , और यह पूरा प्रकरण देख कर, ( कविता...यह आलेख पढ़ कर , और यह पूरा प्रकरण देख कर, ( कविताएं मैंने नहीं पढ़ीं न ही उन के बाबत यह टिप्पणी है) मुझे लगा कि हमारा मध्यवर्ग अभी भी यौनिकता , काम , ऐन्द्रिकता, अश्लीलता और अंततः अपसंस्कृति को ले कर पूर्णतयः कंफ्यूज़्ड है.हम ने बजाए इन विषयों की सहज समझ विकसित करने की इन्हे शब्दों में उलझाया ही है. कभी कभी मुझे हँसी आती है कि हम भद्र होने की अति चिंता में कुंठित होते गए हैं और एक खास क़िस्म की बौद्धिक / साहित्यिक अभिजात्यता इस मे सहायक रही है. फिर भी यह अच्छा ही है कि इन गाँठों से मुक्त होने की छटपटाहट इस बहस में है. अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-62140743666706809932012-12-11T14:32:56.034+05:302012-12-11T14:32:56.034+05:30This comment has been removed by the author.अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-88375341831039035182012-12-11T14:02:39.390+05:302012-12-11T14:02:39.390+05:30शिरीष, वह विरोध कहाँ था? वह तो स्थापितों की सामूहि...शिरीष, वह विरोध कहाँ था? वह तो स्थापितों की सामूहिक खीझ थी. जहाँ भी *स्थापित* लोग होंगे वहाँ यह अस्वीकार स्वाभाविक है.कि यह नई दृष्टि यह नया विचार एक अनजान कोने से क्यों निकल के आ रहा है ? कि जो कुछ हम घुटे हुए लोगों कहना चाहिए था , वह एक नया आदमी कैसे कह रहा है ? खैर यह भी सच है कि हर नया सच स्थापितों के अखाड़ों से इतर ही उद्घाटित होता है. अजेयhttps://www.blogger.com/profile/05605564859464043541noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-7041590032214456719.post-32442262887087958612012-12-10T19:30:49.831+05:302012-12-10T19:30:49.831+05:30बहुत अच्छा सुविचारित और तर्किक लेख। मुझे तो मार्क...बहुत अच्छा सुविचारित और तर्किक लेख। मुझे तो मार्क्सवादी इलाक़े में शालिनी माथुर के लेख का विरोध देखकर आश्चर्य ही हुआ था... जबकि उस लेख विशेष से हमें अपने इधर के सोचने के ढंग को फिर से सोचना था... शिरीष कुमार मौर्यhttps://www.blogger.com/profile/05256525732884716039noreply@blogger.com