Sunday, September 15, 2019

हिन्दी का राजयोग


सतीश गुजराल : साभार


एक और हिन्‍दी दिवस बीत गया। इस मौके पर राजभाषा के पद पर आसीन हिन्‍दी पर एक और तरह से भी नजर डाली जाए। यह लेख बहुत पहले लिखा था। समय बदला है पर ये बातें अभी भी प्रांसगिक हैं। पढ़कर देखिए।  


हिन्दी का राजयोग 1949 से शुरू हुआ। उस साल 14 सितंबर के दिन संविधान सभा ने हिन्दी का राज्याभिषेक कर दिया। हिन्दी राजभाषा बन गई और हिन्दी का राजयोग शुरू हो गया। राजयोग की आम धारणा बड़ी भोली और खुश करने वाली रही है। राज दरबार से जुड़ा हुआ काम मिल जाता था तो समझा जाता था राजयोग शुरू हो गया। पंडित और ज्योतिषी लोग नौजवानों का हाथ देख के कहते हैं, राजयोग है। सब कोई राजा बनने से तो रहे। राज दरबार में, सेना में, राजा के किसी महकमे में कोई काम मिल गया तो समझिए राजा से लड़ बंध गया। राजयोग हो गया।

सरकारी क्षेत्र नए जमाने का राज दरबार ही है। इसलिए सरकारी क्षेत्र में छोटी से छोटी नौकरी भी राजयोग ही मानी जाती है। इसका सीधा संबंध शायद जीवन की सुरक्षा से है। सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन से है। जरा गहराई से देखें तो यह राजयोग सत्ता की भागीदारी है। निर्णय शक्ति बहुत जनों के पास नहीं होती। निर्णय लेने के अधिकार के रूप में भले ही भागीदारी न हो, (क्योंकि वह शक्ति तो कुछ ही जनों के पास होगी) लेकिन निर्णयों को लागू करवाने के रूप में तो होती ही है। इस प्रयोग में सत्ता सुख भी है। ऐसे लोग सत्ता की छाया से ही काम चला लेते हैं। राज दरबार के भीतर तक पहुंच होगी, ऐसे अनेकानेक भय राज दरबार की छाया को विकराल बनाते जाते हैं। सत्ता इस रूप में भी बलशाली सिद्ध होती है। शायद इसीलिए अदना से अदना नौकरी भी राजयोग से विभूषित होती है। 

भाषा के मामले में राजयोग जरा टेढ़ा मसला है। एक जनभाषा पर राजभाषा की भूमिका निभाने की जिम्मेदारी आ पड़ी। राजभाषा की जिम्मेदारी एक भारी जिम्मेदारी है।  क्योंकि जनभाषा को राजभाषा में रूपांतरित होने में काफी समय लगेगा।  बीते हुए साल इसी संक्रमण के साल हैं।  जनभाषा यानी आम आदमी की भाषा उसके सुख-दुख, उसकी स्मृतियों-विस्मृतियों, सपनों-दुस्वप्नों को जबान देती है। उसमें सारा जीवन समग्रता में, सारी ऊंच-नीच के साथ समाया होता है। उसमें छल छद्म नहीं होता। उसमें चुहल होती है तो रुदन भी होता है। उसमें गाली होती है तो सदियों से संचित दर्शन भी होता है। हमारी जन भाषाओं में (हिन्दी ही नहीं सभी भाषाओं में) अध्यात्म फूल में खुशबू की तरह घुला हुआ है। षड्दर्शन की बड़ी से बड़ी गुत्थी को भारत के किसी भी गांव का बुजुर्ग एक आध कहावत से ही खोल देगा। यह ज्ञान जीवन में घुल मिल गया है। आम आदमी बड़े से बड़े सदमे को इसी ताकत से झेल जाता है। वो तो जब आधुनिकता का राजरोग फैलने लगा तब गांव के लोगों को निरक्षर करार दिया गया। निरक्षर कहकर फिर भी थोड़ी इज्जत बख्श दी गई, गनीमत है अनपढ़ नहीं कहा गया। सब जानते हैं कि जिसे अक्षर चीन्हने न आएं, वह मूर्ख सिद्ध नहीं हो जाता। पढ़ाई और विवेक में फर्क है। साक्षरता की बात भारत जैसे देश में और भी गैर जरूरी हो जाती है क्योंकि यहां तो श्रुति परंपरा रही है। तू कहता कागद की लेखी। मैं कहता आंखन देखी। वेदांत का सारा ज्ञान बिना लिखे, सुन सुन कर ही एक से दूसरी पीढ़ी तक यात्रा करता आया है। इसका यह मतलब नहीं कि लिखने के मामले में भारतीय लोग कोरे रहे हैं। वो एक अलग समृद्ध परंपरा है। विश्व की सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषाएं और लिपियां यहां विकसित हुईं। प्राचीनतम व्याकरण भारत में रचा गया। प्राचीन थिसारस यहां बना। यह सारा ज्ञान ध्यान इस जनभाषा में समाया हुआ है। जैसे पानी धरती में समाया हुआ होता है। धरती को सींचता भी है, बहुत सारे तत्व लेता भी रहता है। जगह जगह मधुर शीतल सोतों की तरह फूट पड़ता है। शताब्दियों की यात्रा में इस जनभाषा में और कई भाषाएं समाहित होती रहीं। दूसरे समुदायों की भाषाएं। दूसरी जीवन पद्धतियों की भाषाएं। जनभाषा का भंडार भरता रहा। कहने का मतलब यह कि जनभाषा उस सच्चे संत और ज्ञानी व्यक्ति की तरह होती है जिसका विवेक ही उसका आभूषण होता है। अध जल गगरी छलकत जाए जैसा अधकचरापन उसमें नहीं होता। ज्ञान जितना अधिक, सरलता सहजता उतनी ही अधिक। विवेक भी कैसा, सम्पूर्ण। जिसमें प्राकृतिक न्याय और समस्‍त प्राणियों का हित फल में बीज की तरह बैठा रहता है। इस फल को कोई जितना चखता है, इस विवेक का उतना ही विस्तार होता जाता है। तो यह है हमारी जनभाषाओं का मूल स्वभाव। प्रकृति में रमा हुआ। प्राणिमात्र की सुध-बुध रखने वाला। इस स्वभाव की पहचान जन भाषा के लोक-साहित्य से हो जाती है। लोक गीत की एक झलक मात्र प्रकृति और प्राणि प्रेम को सिद्ध कर देती है। शब्दों, कहावतों, मुहावरों के अकूत भंडार में झांक कर देखने पर शताब्दियों का संचित अनुभव साकार होने लगता है। ऐसी अक्षत सारस्वत जनभाषाओं में से एक है हमारी हिन्दी।

आजादी की लड़ाई के दौरान इसे एक मकसद मिला। राष्ट्र भावना, राष्ट्र प्रेम और आजादी के जज्बे जनभाषा के स्वभाव के अनुकूल थे। यह जनाकांक्षाएं थीं। जनभाषा ने अंगीकार कर लीं। भाषा को नए आयाम मिले। भाषा परवान चढ़ी। पुनर्जागरण का जमाना था। यूरोप की  ज्ञान की खिड़कियां भी खुल गई थीं। औद्योगिक क्रांति के बाद तकनीक भी सिर उठाने लगी थी। भाषा ने उसके साथ भी कदम मिला लिए। छापेखाने के आगमन के साथ भाषा के प्रचार-प्रसार की गति बढ़ गई। भाषा की भंगिमा भी बदलने लगी। उसमें किंचित आधुनिकता का सुरूर भी आ मिला। हिन्दी जैसी भाषा, जिसकी कई सहभाषाएं थीं, खड़ी बोली के रूप में प्रमुखता में आ गई। बाकी बोलियां कहलाई जाने लगीं। बावजूद इसके, इस खड़ी बोली ने भी अपना जनभाषा का चोला पहने रखा। बाना भले ही बदल गया हो, बानी? वही रही। जन साधारण की जन भाषा।

यूं राजभाषा भी कायदे से होनी तो जनभाषा ही चाहिए, लेकिन जो होना चाहिए वह होता कहां है! राज शब्द काफी गझिन शब्द है। राज राजा का होता है। राजा का काम होता है, राजकाज चलाना। कायदा कानून बनाना, उसे कायम रखना। कायदा कानून बनाने और कायम रखने का काम खासा पेचीदा है। इसे बरकरार रखने में कई हार गए, कई डूब गए। हर कोई जानता है, राजकाज के मूल में सत्ता है। सत्ता एक तरह की शक्ति है। सत्ता मद। जब कोई राजा कानून बनाता है और चलाता है तो उस कानून की ताकत राजा के पास होती है। हमारे इस मामले में ज्यादा डर की बात नहीं थी, क्योंकि नया निजाम जनता का था। लोकतंत्र था। निजाम जनता का होगा, अपनी जनता का, इसी भरोसे जनभाषा राजभाषा बनी थी। (बेलाग ढंग से देखा जाए तो जितना राज जनता का है, जनता की भाषा भी उतनी ही मात्रा में है।) सरकार चलाने, नए शब्दों में कहें तो प्रशासन चलाने, के तौर तरीके हमने अंग्रेजों वाले रखे। उसमें बहुत तब्दीलियां नहीं की गईं। अदालतों का ढांचा भी वही रखा गया। नौकरशाही भी उसी रूप में रही। सरकार चलाने के काम का एक तरह से संस्थानीकरण हो जाता है। जैसे राज का मूल स्वभाव सत्ता होता है, उसी तरह संस्थान का मूल स्वभाव नियमबद्धता होता है। हर चीज नियम में बंधती चली जाती है।  प्रशासन चलाने के लिए छोटी से छोटी चीज का ध्यान रखा जाता है। ध्यान तभी रखा जा सकता है जब नियम विनियम बनाए जाएं। वे भी ऐसे जो हर प्रत्यक्ष-परोक्ष संभावित पहलू को समेट लें। उन्हें उसी विस्तार के साथ लागू किया और कराया जाता है। लागू कराने में कायदे कानून का तामझाम बढ़ता चला जाता है और भावना लुप्त होती जाती है। यह कायदा कानून, पद्धति-प्रणाली सिद्धांत रूप में बनाई जाती है आम आदमी को ध्यान में रखकर। उसी का लाभ सर्वोपरि होता है। लेकिन संस्थानीकरण का जादू चल जाता है। ढांचा रह जाता है, आत्मा गायब हो जाती है। प्रशासन में या कायदे में आदमी इंसान नहीं रहता, व्यक्ति बन जाता है। व्यक्ति यानी नाम-गांव विहीन आदमी। सर्वनाम। (हालांकि सरकारी पर्चों में दस जगह आदमी का मय बालिद, मय गांव नाम दर्ज हुआ रहता है।) रह जाता है सर्वोपरि कायदा कानून, नियम, उप नियम। यहां तक तो फिर भी गनीमत है लेकिन यह व्यक्ति संस्थानीकरण की पेचीदगियों में संख्या में बदल जाता है। सिर्फ नंबर। संख्याओं का समूह। भाषा जब किसी संख्या को संबोधित होती है, तो उसका चरित्र बदलने लगता है। नाम को तो वह जन को संबोधित हो रही होती है, लेकिन वास्तव में वह किसी अदृश्य अनाम संख्या को मुखातिब हो रही होगी। मानवीय गर्माहट उसमें से गायब हो जाती है। सब जानते हैं कि व्यक्तित्व से ही व्यक्ति बनता है। जबकि कायदा कानून संख्या में बदल चुके व्यक्ति के  लिए होता है, मन मसि्तष्क वाले व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्ति के लिए नहीं। सामान्यीकरण के बिना कायदा चल नहीं सकता और सामान्यीकरण व्यक्तित्व के रास्ते का रोड़ा है। विलक्षणता व्यक्तित्व का स्वभाव है। कोई कायदा इस विलक्षणता को न संजो सकता है न पोस सकता है।

कायदे कानून में निष्पक्षता बनाए रखने के लिए वस्तुनिष्ठता लाई जाती है। वस्तुनिष्ठता के साथ साथ तार्किकता आती है। तर्क और तार्किकता एक ऐसा ऊंट है जो किसी भी करवट बैठ सकता है। तर्क तथ्य प्रधान होता है। लेकिन जरूरी नहीं कि सत्य प्रधान भी हो। तार्किकता की दृष्टि से सत्य वस्तुनिष्ठता की हद से बाहर भी रह सकता है। वस्तुनिष्ठता और तार्किकता कायदे-कानून को अकाट्य बना देते हैं। इनकी अपनी भाषा होती है। यह व्यक्ति निरपेक्ष, खुश्क और बेजान होती है। व्याकरण की रस्सी में बंधा शब्दों का पुलिंदा होती है। इन शब्दों में तार्किकता और निरपेक्षता से तराशे हुए अर्थ मढ़े जाते हैं। कायदे कानून के कागज में ताकत इसी तरह की भाषा से आती है।

ताकत तभी बनी रह पाती है जब सारे गुर प्रकट न हों। ताकतवर के अगर सारे भेद हर कोई जान लेगा तो हर कोई ताकतवर हो जाएगा। इसलिए ताकत की फितरत में ही लुकाव छिपाव शामिल होता है। कुशल प्रशासन के लिए कुछ भेद बनाए रखने पड़ते हैं। कुछ भेद खुले आम होते हैं। कुछ नियम विनियम की पेचीदगियों से पैदा हो जाते हैं। कुछ भाषा में पैदा किए जाते हैं। राजकाज को परिभाषित करने और चलाने में भाषा एक प्रमुख माध्यम होती है। यूं विचार से लेकर भूगोल तक कई कुछ राजकाज के माध्यमों में आ जाता है। विचार-दर्शन, भाषा, कला, व्यक्ति, वास्तु और भूगोल को अपने हिसाब से व्याख्यायित करना, अपने हित में मोड़ लेना सत्ता का स्वभाव है। प्रकृति की हर वस्तु का संसाधन की तरह प्रयोग सत्ता में होता है।

पुराने राजतंत्रों की सत्ता शायद एकायामी रही है। प्रकृति से उनका पूर्णतया संबंध विच्छेद नहीं हुआ था। उनकी कुटिलता-क्रूरता के अपने अन्तर्विरोध रहे हैं। आधुनिक सत्ता में पेचीदगियां बढ़ी हैं। प्रकृति पर विजय भाव ने सत्ता मद को प्रचंड किया है। ज्ञान विज्ञान की जटिलताओं ने राज्य सत्ता के माध्यमों को उसी अनुपात में बढ़ा दिया है। ये माध्यम जितने जटिल बने उतने ही अगम्य भी हुए। जनता के तंत्र के भीतर ही ये पेचीदगियां पनपीं हैं। आज जटिलता का आलम यह है कि संभवतः सत्ता को खुद पता नहीं चलता कि वह किस रुख चल रही है। सार्वदेशीय स्तर पर संपुंजन है। प्रकट लक्ष्य कुछ है, निहित लक्ष्य कुछ और है। जो लक्ष्य सिद्ध होता है, वह कुछ और ही होता है। मसलन सरकार अर्थव्यवस्था को सुधारना चाहती है। इसके लिए दूसरे बहुत से उपायों के साथ साथ विनिवेश करना चाहती है ताकि एक ओर कार्य संस्कृति में सुधार हो, दूसरी ओर धन का संकट भी दूर हो। यह प्रकट लक्ष्य है। निहित लक्ष्य है कि कारपोंरेट जगत फलता-फूलता रहे। हालांकि यह भी अब लगभग प्रकट लक्ष्य ही है। बाजार का दबाव सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका को उत्तरोत्तर सीमित करना चाहता है। तीसरे स्तर पर, यानी असल में क्या लक्ष्य सिद्ध हो रहा है? वह यह कि बाजार में वैश्विक स्तर पर जिसकी पूंजी सबसे ज्यादा है, वह अपनी शर्तों पर निर्णय करवा लेता है, ताकि वह अपना विस्तार अपने हिसाब से कर सके। सरकार की भूमिका न्यूनतम होती जाए। यूं ये लक्ष्य जनोन्मुखी हैं। इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए क्या किया जाता है, कार्यवाहियां क्या हैं, उनके भी ऐसे ही तीन स्तर हैं - प्रकट कुछ, निहित कुछ और वास्तविक कुछ।

इन जटिलताओं को लिपिबद्ध करने वाली भाषा की क्या गत होगी, समझा जा सकता है। इन जटिलताओं को ग्रहण करने, वहन करने, अभिव्यक्त करने, दस्तावेजीकरण करने में भाषा का पुनर्संस्कार होगा। पुनर्वातरण होगा। (ये शब्द उपयुक्त नहीं हैं। इसकी ध्वनि सकारात्मक है। लिखना चाहिए, मरण होगा, फिर जन्म होगा।) वह सत्ता की भाषा होगी। जनभाषा जब इस भार को संभालने की कोशिश करने लगेगी तो वही सब मुश्किलें सामने आएंगी जो हम कुछ हद तक हिन्दी के संबंध में देखते हैं। उसमें अन्तर्विरोध पैदा होंगे। हम चाहें कि भाषा कायदे कानून को यथावत् भी रखे और सरल भी रहे। प्रशासन की बात प्रशासन की शैली में बताए और  अपना स्वभाव, अपनी प्रकृति भी न खोए, तो यह कैसे संभव है। या तो कायदे कानून के तौर तरीकों को सरल यानी वास्तव में जनसापेक्ष होना होगा या भाषा जटिल और दुरूह होगी। राजकाज का कामकाज का तरीका बदल नहीं सकता, उस पर दूसरे कई दबाव हैं तो भाषा ही बदलेगी। यही भाषा का राजयोग है। यही जनभाषा की राजभाषा की ओर की यात्रा है।

हमारे देश में यह यात्रा और भी जटिल इस कारण से भी है, क्योंकि अंग्रेजों की गुलामी का समय लंबा रहा। शासन की भाषा अंग्रेजी रही। उससे पहले फारसी रही। दोनों कलमी भाषाएं हैं। उससे पहले की देवभाषा संस्कृत भी बड़े विलक्षण तरीके से राजभाषा है। वह भाषा लोक से उपजी है। लोक में नहीं है। साहित्य में है। धर्म में है। कर्मकांड में है। संस्कृत भाषा खुद में ही एक कर्मकांड है। संस्कृत संस्थानीकरण की भी भाषा है। पंडित घर परिवार, समाज के सारे कार्य व्यापार सम्पन्न कराता है, संस्कृत में। लोक परलोक सुधारने का काम भी इसी देवभाषा में होता है। जीवन व्यवहार की भाषाएं जन भाषाएं रही हैं। छोटे से छोटे संस्थानीय किस्म के कर्मकांड की भाषा संस्कृत। सत्ता बदली तो फारसी हो गई। फिर सत्ता बदली तो अंग्रेजी हो गई। फिर सत्ता बदली, अपने हाथ में आ गई तो केंद्र में हिन्दी और राज्यों में राज्यों की भाषाओं को लाने का प्रावधान हुआ, पर वे सभी जनभाषाएं रही हैं। वे राजभाषाएं उसी अनुपात में हैं जिस अनुपात में राजकाज में जन की भागीदारी है।