Saturday, March 10, 2018

सुरजीत पातर की कविताएं



पंजाबी कवि सुरजीत पातर साहब की इन कविताओं का अनुवाद 
शायद बीस से ज्‍यादा ही पुराना है। पिछले दिनों कवि अजेय ने व्‍ट्सऐप पर पातर साहब की कविता सझा की तो मुझे भी अपने अनुवादों की याद आई। ढूंढ़ने पर पोर्टेबल टाइपराइटर पर टाइप किए हुए जर्द पन्‍ने मिल गए। मतलब ये कंप्‍यूटर पर टाइप करना शुरू करने से पहले के हैं। ये तब पत्रिकाओं में छपे भी थे। पर वो अंक मेरे पास नहीं हैं। कहां छपे,यह भी याद नहीं है। तब पातर साहब को खत भी लिखा था, पर उनका जवाब नहीं आया। पता नहीं खत उन्‍हें मिला भी या नहीं। अब इन कविताओं का फिर से आनंद लिया जाए। खुशी की बात यह भी है कि  असगर वजाहत साहब ने इन कविताओं के साथ अपने चित्र यहां लगाने की इजाजत मुझे दे दी है।  


                                                        असगर वजाहत


1
जहां मैं खड़ा हूं

जहां मैं खड़ा हूं
यह मेरी धरती है
बार-बार मैं खुद को विश्वास दिलाता हूं

यह जो लोग मेरे आस-पास हैं
उनके हाथों में जो कुछ नहीं है वो
किसी अफवाह से चाकू
किसी अफवाह से पत्थर
किसी अफवाह से फूलों की नम डाल बन जाता है

मैं जो कह रहा हूं
वह पता नहीं धूप है या पानी है या हवा
या अरे के दंदे हैं

मेरे लफ्जों के सब भरोसे
खत्म हो गए

मेरे हर बोल की श्रृंखला में
एक कमजोर शायद की कड़ी है
मेरे बोलों की श्रृंखला किसी भी पल टूट सकती है
बिखर सकती है

यह सच है
कि मैं इस धरती से उगा हूं
पर यह भी सच है
कि खौफ पेड़ों की जड़ को भी
तीखे पैर बना देता है
पेड़ भी दौड़ते हैं तेज रातों-रात
एक दूसरे को काटते रौंदते फुफकारते हुए

चलो माना कि पेड़ों को
नहीं उगते कभी भी पैर
पर पेड़ को क्या पता
कल को उसकी करीबी एक लीक
निकल जाएगी चुपचाप

तब होगा निर्णय
कि पेड़ को चीरा जाएगा
या पेड़ को रख लिया जाएगा
अगर उसे चिर आ जाएगा
तो उसका बनेगा क्या

पेड़ों के घने जंगल बेचारे क्या जानें
पेड़ों की राय लेकर तो कभी
चलते नहीं हैं आरे।

2 comments:

  1. शिवम् जी धन्‍यवाद।

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  2. तेज कुमार सेठी
    सुरजीत पातर जी कबिता में संभवतः साम्प्रदायिक दंगो के ख़ौफ़ के प्रति आवाज़ है। जिस धरती पर वे खड़े हैं, उन्हें विश्वास नहीं होता है कि वह कौन सी धरती है। उनकी धरती तो विश्वास और प्यार की धरती हुआ करती थी, जो आज खौफ़ की भयावह धुन्ध में खो गई है। खौफ़ का जन्म झूठी अफवाहों से होता है और यही ख़ौफ़ पेड़ों की जड़ों को तीक्ष्ण कर देता है। यह भयाक्रांत मानवता दानवता में बदलने लगती है।उन मासूमों को पता ही नहीं चलेगा कब उनको हिट लिस्ट में ले लिया जाएगा। यह आरे बड़े वेरहम होते हैं। ये काटने के लिए पेड़ों से सलाह नहीं करते। यह कविता आतंक की जहरीली हवाओं के प्रति आगाह तो करती ही है साथ ही साथ अमानवता पर बहुत से प्रश्नों की बौछार भी करती है।

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