Thursday, May 7, 2015

आप सब की साक्षी में मैं उपस्‍थित हूं यहां पर

मधुकर भारती का यह कैरीकेचर कोई बीस एक साल पुराना है, सादे कागज पर पेन से फोटो देखकर बनाया था।

पिछले दिनों हिमाचल प्रदेश के एक बेहद जमीनी कवि, आलोचक और आयोजनकर्ता मधुकर भरती का हृदयाघात से अकाल देहावसान हो गया। मधुकर भरती सत्‍ता, शोहरत, सफलता के प्रति हमेशा  उदासीन रहे और साहित्‍य के प्रति बेहद उत्‍साही। मधुकर युवा संस्‍कृति कर्मियों के चहेते थे। उन्‍होंने साहित्‍यकारों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की। सर्जक नामक पत्रिका और सांस्‍कृतिक संस्‍था के माध्‍यम से हिमाचल प्रदेश के एक गुमनाम कस्‍बे  ठियोग को वे साहित्‍यिक मानचित्र पर ले आए। बहुत सी याद के साथ यह स्‍मृति लेख जो किंचित संपादित रूप में आज दैनिक जागरण के हिमाचल संस्‍करण में छपा है।




आज जब लिखने बैठा हूं तो मन परसों जैसा नहीं है। थोड़ा स्‍थिर है। परसों सुबह सुबह सोलन से अजेय ने फोन पर बुरी खबर सुनाई कि मधुकर भारती नहीं रहे। मैं जब यह बात सुमनिका को बताने लगा तो जोर से रुलाई फूट गई। फिर कई मित्रों को फोन किए। जब भी बात करता, मन कच्‍चा हुआ जा रहा था। भावना का यह बांध पता नहीं कब से रुका पड़ा था, जो अजेय के फोन से ढह गया। मधुकर के न रहने की खबर ने मुझे तरल बना दिया था। डांवाडोल। इसी फरवरी में माँ गुजरीं, तब भी मैं खुद को कड़ा किए रहा। लेकिन उस दिन मधुकर का जिक्र भर जैसे पानी की सतह को दोलाएमान किए दे रहा था।

ऐसा क्‍या था मधुकर भारती में जो मुझे भावुक बनाए दे रहा था  असल में मधुकर मेरे लेखन के शुरुआती दौर में मुझे मिला था। मैं तब धर्मशाला कालेज में पढ़ रहा था। एक बार शायद हिमप्रस्‍थ में मेरी कविता छपी। लोअर शाम नगर धर्मशाला का पता देख कर उसने मुझे ढूंढ़ निकाला। शायद एक साझे दोस्‍त जोगिंदर के जरिए जो मेरा सहपाठी था और कचहरी अड्डे पर अपने पिता की पान की दुकान पर बैठता था। सिगरेट और साहित्‍य का शौकीन मधुकर उस दुकान पर आता था। पता चला कि वह मेरे पड़ोस में ही डेरा ले कर रहता है। मुझे और क्‍या चाहिए था। जैसे भूखे को रोटी। मधुकर तब भी परिपक्‍व ही था। उसने मुझे कभी यह एहसास नहीं होने दिया कि मैं नौसिखिया हूं।

यूं नौसिखियों के साथ मधुकर की जिंदगी भर गहरी छनती रही। इसका सबसे बड़ा उदाहरण ठियोग नामक शहर और सर्जक नामक संस्‍था है। नौकरी करते करते मधुकर एक तरह से ठियोग में ही जम गया। वहां पर नए लेखकों को ढूंढ़ा और अपने काफिले में शामिल किया। इस काम में प्रोत्‍साहित करने या अगुआई करने जैसी सत्‍ताधारियों की शब्‍दावली मधुकर की नहीं थी। वह तो हमराही बना लेता था। मोहन साहिल, प्रकाश बादल, ओम भारद्वाज, सुरेश शांडिल्‍य, सुनील ग्रोवर, अश्‍विनी रमेश, रत्‍न निर्झर जैस और भी कई लोग मधुकरमय हो गए। ठियोग में ही सर्जक का जन्‍म हुआ। पत्रिका के रूप में तो ज्‍यादा अंक नहीं निकल पाए, पर साहित्‍यिक सांस्‍कृतिक आयोजनों में सर्जक खूब सक्रिय और सफल रहा।

गौरतलब है कि ठियोग हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला के पिछवाड़े का शहर है। सारे सूबे में साहित्‍यिक गतिविधि ज्‍यादातर शिमला और मंडी में ही चलती है। शिमला को सत्‍ता के नजदीक होने का लाभ भी मिल जाता है। मधुकर ने सत्‍ता की बैसाखियों के बिना जमीनी ढंग से सर्जक को खड़ा किया। एक साहित्‍यिक केंद्र के रूप में ठियोग इसी खूबी के कारण जाना जाएगा। यह खूबी है, सत्‍ता से निर्लिप्‍त रह कर, सत्‍ता के नाक के नीचे निर्ब्‍याज काम करना।
सत्‍ता से निर्लिप्‍त रहना और निर्ब्‍याज कर्मरत रहना मधुकर का स्‍वभाव था। वह चाहता तो शिमला में बस सकता था। शाही गलियारों में घूम सकता था। चौधराहट कर सकता था। लेकिन रिटायर होने के बाद भी उसने ठियोग में डेरा रखा। रहता वो अपने गांव रावग में ही था। गांव में लिखने पढ़ने का माहौल नहीं बन पा रहा था। पर वो साहित्‍यिक दुनिया के संपर्क में रहता था। मुंबई के कुशल कुमार ने व्‍ट्स ऐप पर पहाड़ी पंची नाम का ग्रुप बना रखा है। अन्‍य लेखकों कलाकारों के साथ साथ मधुकर भी उसका सदस्‍य था। कुछ दिन पहले फोन पर बात हुई तो उसने बताया कि कमेंट भले ही नहीं करता हूं पर पढ़ता सारे संदेश हूं।

हिमाचल मित्र के दौर में भी मधुकर का शुरू से आखिर तक सक्रिय और भरोसेमंद सहयोग रहा। पत्रिका मुंबई से छपती थी और अधिकांश सामग्री हिमाचल से जुटाई जाती थी। उन दिनों योजनाएं बनाने और उन्‍हें पूरा करने के सिलसिले में मधुकर से फोन पर लंबी चर्चाएं होती थीं। पहाड़ी भाषा पर बीज वक्‍तव्‍य मधुकर भारती का ही था जो हिमाचल मित्र के दूसरे अंक में छपा। दस यक्ष प्रश्‍नों के साथ यह बहस अगले कई अंकों तक चली। बाद में मेरी प्रिय कहानी स्‍तंभ में हरनोट, केशव और रेखा के साथ बातचीत मधुकर ने ही की। मधुकर बिना तैयारी के बातचीत के लिए तैयार नहीं होते थे। इसलिए किताबें जुटाने का काम करना पड़ता था। वे लेखक को पूरा पढ़ते, उसके बाद ही बातचीत की तारीख तय होती।

लिखने पढ़ने की मधुकर की लंबी योजनाएं थीं। ठियोग में डेरा रखने का एक मकसद यह भी था। कविता संग्रह तैयार करना भी इस योजना में शामिल था। हालांकि कागजों के पुलिंदों में अपनी कविताएं ढूंढ़ना एक भारी काम था। उसने अपने समकालीन कवियों पर आलोचनात्‍मक काम करने का मंसूबा भी बांध रखा था। कुछ कवियों पर उसने पत्र पत्रिकाओं में लिखा था। पर इधर एक दशक के दौरान छपे कविता संग्रहों पर विधिवत् लिखने की अपनी इच्‍छा उसने व्‍यक्‍त की थी। कोई शक नहीं कि जितना अच्‍छा वह कवि था, आलोचक भी उतना ही समर्थ था।

भावना-प्रवण गर्मजोशी मधुकर के स्‍वभाव में थी। पर वह भावुकता या भाववाद में नहीं बहता था। विचारों में वह दक्षिणपंथी तो नहीं था, वाम का घोषित पक्षधर भी नहीं था। जीवन अनुभवों के ताप ने जो 'जीवन द्रव्‍य' उसके अंदर भरा था, वह किसी वाम से कम नहीं था। बल्कि उसे हम देसी सांस्‍कृतिक वाम कह सकते हैं। मधुकर का सामाजिक और वैचारिक वयक्‍तित्‍व सेल्‍फ मेड था। वह स्‍वतंत्र-चेता था, पिछलग्‍गू नहीं। वह धौंस जमाने में यकीन नहीं रखता था, लेकिन पिलपिला कतई नहीं था। उसमें कन्‍विक्‍शन था, हेकड़ी नहीं। विनम्रता और दृढ़ता। खुलापन और स्‍वीकार। उसके इसी विलक्षण और पारदर्शी स्‍वभाव ने उसे युवा संस्‍कृतिकर्मियों का चहेता बना रखा था।

मधुकर भारती उम्र, अनुभव, और दृष्‍टि में मुझसे बड़ा था। पर मेरे प्रति उसका व्‍यवहार हमेशा आत्‍मीय मित्रवत् रहा। मैंने कभी उससे 'तू' कह कर बात नहीं की। उसके चले जाने के बाद उसकी याद में यह लिखने बैठा तो न जाने क्‍यों और कैसे वो मेरे बराबरी के धरातल पर उतर आया। और यह सारी बात 'तू-तू' कह कर ही लिखी गई। भीतर झांक कर देखता हूं तो उसके जाने का खालीपन रह रह कर महसूस होता है। ऐसा लगता है जैसे मेरा ही एक अंश मुझसे जुदा हो गया है। उसकी एक कविता है 'विचित्र अनुभव', जिसमें वह दृश्‍यों को फ्रीज होते हुए देखता है, वैसे ही जैसे उसके साथ बिताए हुए हमारे अनगिनत पल प्रशीतित समय यानी फ्रीज्‍ड टाइम में बदल गए हैं। जैसे कोई बीते हुए समय को पत्‍थर पर उकेर कर अनंत काल के लिए धरोहर में तब्‍दील कर देता है।

इस हृदयालाप से सड़क पर जैसे
सब कुछ थम सा गया है, हवा बंद है
अतिचैतन्‍य के इस निष्‍ठुर क्षण में
शाखाएं और पत्‍ते जम से गए हैं
पक्षियों की चोंचें अवाक और पंख बंद हो गए हैं
मिट्टी की सुगंध हो गई है पानी जैसी रंगहीन
चपर-शपर और शंग-पंग पर सर्वत्र
ओढ़ा दी गई है एक असाधारण चुप्‍पी
जैसे मैंने अपने को बिल्‍कुल खाली कर दिया है
या मैं एक बहुत बड़े खालीपन में हूं
या बहुत बड़ा खालीपन मेरे अंदर भर गया है
या मैं स्‍वयं ही एक बहुत बड़ा खालीपन हूं
इस विचित्र अनुभव के बावजूद
आप सब की साक्षी में मैं उपस्‍थित हूं यहां पर
ठीक इसी समय चुप्‍पी तोड़ता हुआ ....

4 comments:

  1. इस आलेख के बारे में क्या कहूँ- रोचक , मार्मिक, हृदय स्पर्शी या कुछ और- शब्द नहीं मिल रहे । 'तू' का चुनाव आपने क्या खूब किया है ,इससे आत्मीयता और सामीप्य की अनुभूति होती है।

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    1. जी शुक्रिया। हालांकि स्‍मृति लेख की तारीफ पर खुशी का एहसास भी अजीब सा लगता है।

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  2. आत्मीत्यता और बिछोड़ की पीड़ा से परिपूर्ण लेख। समय की परिपाटी से बंधे हम सब एक धूरी पर घूम रहे हैं। कौन कब और कहाँ छिटक कर अलग हो जाये कहा नहीं जा सकता।

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  3. जी महिंदर जी, देखिए कल हिंदी के एक और अनूठे कवि बीरेन डंगवाल भी चले गए।

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