Saturday, March 28, 2015

परमिंदरजीत



अक्खर के संपादक और पंजाबी कवि परमिंदरजीत और बाबा के नाम 
यह कविता 2008 में लिखी थी। 
तब भी मुलाकात नहीं हो पाई थी। 
उसके बाद कभी भी नहीं। 
और अब वो चला ही गया। 


अमृतसर में चौक हुसैनपुरा में
कारीगरों वाली एक गली में
त्रिकाल वेला में
मकैनिक कालिख धो रहे हैं मिट्टी के तेल में
घर जाना है हाथ पैर मनुक्खों जैसे लगें

इसी गली में
शब्दों के दो कारीगर
लगे हुए अंक दर अंक अक्खर की तैयारी में
निकले हैं दिन भर माथापच्ची करने के बाद
चिट्टे कागजों पर रोशनाई चमकेगी
कविताओं को मिलेगा नौजीवन
काव रसिकों को रस
कवियों को यश

कारीगर पुर्जे खोलते हैं
कवि के हरफ बोलते हैं
कवि निहारते लोहे का अंजर-पंजर
कारीगर भौंचक्क देख
कागजों पर लफ्ज-लकीरें
चलता आता साझा कारोबार
कारीगरों वाली गली में

त्रिकाल वेला में
खड़े हुए गली के मुहाने पर दोनों शब्दकार
खोए हुए दिखते हैं बातों में इतने
भूले भटके कोई पूछ ले उनसे उनका ही पता
लौटा दें कह के
त्रिकाल वेला है
कोई है नहीं ठिकाने में

थोड़ा ऊबे थोड़ा डूबे शब्दों  के आर पार
साइकिल थामे एक जिंदगानी हंडा ले जाएगा
दूसरा  मोटर साइकिल की पीठ पर चढ़कर
भीड़-भड़क्के को फांद जाएगा
अमृतसर में चौक हुसैनपुरा में
                                                साइकिल थामे एक जिंदगानी हंडा ले जाएगा
दूसरा  मोटर साइकिल की पीठ पर चढ़कर
भीड़-भड़क्के को फांद जाएगा
अमृतसर में चौक हुसैनपुरा में