Sunday, February 23, 2014

ब्लेड की धार पर

                                                                             छायांकन : अरूंधती 




कार के एफ एम में जैसे ही विज्ञापन बजा

बिस्‍तर पर जाने से पहले फलाने ब्‍लेड से शेव करो वरना

बीवी पास नहीं फटकने देगी

चिकना चेहरा दिखलाओगे दफ्तर में

बीवी को दाढ़ी चुभाओगे यह नहीं चलेगा

याद आया ओह! रेजर रह गया बाथरूम में बाल फंसा झाग सना



आदतन कार चलती चली जाती थी वो मुस्‍काराया

यह औरतों को बराबरी देने का बाजारी नुस्‍खा है या

ब्‍लेड की सेल बढ़ाने का इमोशनल पेंतरा

फिर उसे लगा सच में ही चुभती होगी दाढ़ी पर

कभी बोली नहीं

उसे प्‍यार आया बीवी पर

और वो स्‍वप्‍न-लोक में चला गया

जैसे ही देहों के रुपहले पट खुलने की कामना करने लगा



दुःस्‍वप्‍न ने डंक मारा मानो वो नर-वृषभ है

नारि‍यों के रक्‍त सने हैं उसके हाथ

मदमत्‍त वह चिंघाड़ता हुआ दौड़ रहा सड़क पर

रोड़ी की तरह बि‍खराता चला जा रहा संज्ञाविहीन नारी देह

एक के बाद एक अखंड भूखंड पर

तभी उसकी दौड़ती कार की विंड स्‍क्रीन पर

टीवी मटकने लगता है जिसमें

लाइव टेलिकास्‍ट आ रहा है दौड़ती बस का

फेंकती जाती नारी देहों का

बस के स्‍टीयरिंग पर वही है, कंडक्‍टर वही

सहस्रमुखी अमानुष वही है

हड़बड़ाहट में चैनल बदलता है

उसके हाथ की रॉड यहां मोमबत्‍ती बन गई है

दुख और क्रोध और हताशा और अपराध-बोध में गड़ा जाता

खड़ा पाता खुद को महिलाओं के साथ



नृप-वृषभों के सम्‍मुख है

सींग अड़ाता वही है युवा-वृष

सारे दृश्‍य को तत्‍काल बदल डालने को आतुर

कोमल और सुकुमार और मानवीय रचना को व्‍याकुल

जैसे टीवी की चैनल न बदली दुनिया बदल डाली



तभी सिग्‍नल पर उसकी कार धीमी पड़ती है

बगल से ट्रैफिक पुलिस शीशा खटखटाता है

कार के शीशे काले क्‍यों हैं

चलान कटवाइए या लाइसेंस लाइए

वह झुंझलाता है निकाल दूगा हां निकाल दूंगा

अभेद्य पर्दे तमाम

फिर भी कितना पारदर्शी दि‍खूंगा

और करोगे रक्षा क्‍या तुम भी इन्‍स्‍पेक्‍टर

हाथ फैलाए खड़ा वह रहा वर्दीधारी नर-पुंगव

भिक्षा की मुद्रा में फैली यह हथेली

दरअस्‍ल काठ के प्रधानमंत्री की हथेली थी

जिस पर देश का भविष्‍य अथाह कटी-फटी रेखाओं के जाले में फंसा था



बिना कुछ किए वो हरी बत्‍ती की पूंछ पकड़ कर

चौराहे का भंवर पार कर गया

अब विंड स्‍क्रीन से उसका बाथरूम दिखने लगा था

जहां बीवी ने उसका रेजर ही नहीं

चड्ढी बनियान भी धोए और

अब वो फर्श पोंछ रही थी

एफ एम वह कब का बंद कर चुका था

सोच रहा था विंड स्‍क्रीन पर निरंतर चलते चैनलों का रिमोट

हासिल करने के लिए

क्‍या वह पीआईएल दायर करे

करे तो करे पर कहां करे 
 

4 comments:

  1. अनूप जी बहुत सुंदर अभिव्यक्ति....कुछ इसी तरह के चलचित्र तकरीवन सभी की आँखोँ के सामने चतते है जब घर से दफ्तर या दफ्तर से घर की और गाडी ड्राईव कर रहे होते हैँ.

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    1. मोहिंदर जी, आप ठीक कह रहे हैं। ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों के मन में इस तरह के चलचित्र ज्‍यादा से ज्‍यादा चलें तो शायद पुरुष के बैल से मनुष्‍य बनने की प्रक्रिया भी तेज हो और वह स्‍त्री को महज मादा के बजाय व्‍यक्ति मानना शुरू करे।

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  2. रोचक परिकल्पना, पलट सत्य

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    1. प्रवीण जी, आपकी टिप्‍पणी बेहद संक्षिप्‍त लेकिन सटीक होती है। हां यह परिकल्‍पना ही है शायद। रोच‍क भी। और सत्‍य यानी यथार्थ। साथ ही इसमें उलझन, वेदना और हताशा भी है शायद।

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