Friday, November 22, 2013

किस बिनाह पर कहूं कि कवि हूं ?

Babaji 80s -1
रेखांकन : सुमनिका, कागज पर चारकोल



डायरी के ये अंश सन् 1997 से 2000 के बीच के हैं। तब तक आईडीबीआई छोड़कर यूटीआई में स्‍थाई तौर पर आ गया था। हालांकि यह स्‍थायित्‍व भी ज्‍यादा चला नहीं। इस समय में नौकरी और रोजमर्रा की जिंदगी के ढर्रे का तानपूरा लगातार छिडा़ हुआ है। बीच-बीच में लिख न पाने की टूटी-फूटी तानें हैं। अल्‍पज्ञ रह जाने का शोक है। कट्टरवाद की एक ठंडी लपट है और रत्‍ती भर वर्तमान में से अतीत में झांकना है। पता नहीं इन प्रविष्टियों के लिखे जाने, छपने और पढ़े जाने का कोई मतलब भी है या नहीं। डायरी के ये टुकड़े हिंदी साहित्‍य की नवीन नागरिक कविता-पत्रिका सदानीरा के हाल में आए दूसरे अंक में छपे हैं।

25/05/99
मसला यह है कि मैं कवि हूं कवि ऐसा हूं कि कविताएं लिखता हूं साल में चार। फिर भी कवि कहलाता हूं।

27/05/99
मसला यह है कि कवि कहलाता हूं या खुद को कवि मानता हूं या असल में कवि हूं। मसला यह है कि कविताएं पत्रिकाओं को भेजता हूं और वे छप जाती हैं। बाज़दफा पत्रिकाएं मंगवा लेती हैं, तो भी छप जाती हैं। छप जाती हैं तो मानना यह चाहिए कि वे ग्राहकों यानी पाठकों के पास पहुंचती हैं। लेखकों के पास भी पहुंचती हैं। पिछले करीब बीस साल से तो ऐसा ही हो रहा है। यह मसला अर्से से दिमाग में अटका हुआ है कि यूं तो पूरा ही साहित्य, लेकिन खास तौर से कविता, कितने लोगों द्वारा पढी़ जाती है। कोई सर्वेक्षण तो उपलब्ध है नहीं। पक्की सूचना भी नहीं है। पत्रिकाओं की वितरण संख्या से ही अंदाज़ होता है कि पाठक कविता पसंद नहीं करता।

जो बात मैं अर्से से दर्ज करना चाहता हूं, वह यह भी है कि मैं मानता हूं कवि हूं, परिवार और दोस्त मानते हैं। कुछ लेखक संपादक मानते हैं लेकिन जात-विरादरी में, पास-पडो़स में, काम-धंधे के माहौल में मैं भूल कर भी यह जिक्र नहीं कर सकता कि कवि हूं। इसकी क्या वजह है ?





3 comments:

  1. प्रिय अनूप सेठी जी,
    कवि होने कि विडंबनाओं को आपने सही-सही खंगाला
    है। आपके असमंजस को समझते-परखते हुए एक और
    कैफियत यहाँ दर्ज है…

    कविता में जिए हुए जीवन के अलफ़ाज़ होते हैं।
    जिन्हें जीवन से प्यार है, उन्हें कविता से भी प्यार है।
    कविता में जिए हुए लम्हों की ही बात होती है। पर ऑफ़िस
    में समाज में सोसाइटी में अपने कवि होने की बात छिपानी
    चाहिए। ऐसा कर यहाँ कविता की और अपनी इज़्ज़त
    बचानी होती है। कविताएं तो हम भी लिखते हैं जब हम
    हमसे बात करते हैं, खुद ही से या कहीं दूर किसी अपने
    से फ़रियाद करते हैं, या जब कभी प्रकृति में अपनी सच्ची
    जीवन मुक्ति पाते हैं, जीते हैं ! कुछ अपने से दोस्तों की
    हौंसलाअफ़ज़ाई पाने को भी हम कविता लिखते हैं।

    तो कवी को कहाँ-कहाँ बचना है उसकी बात हो रही
    थी। ऑफ़िस में हमारा एक दोस्त है जो कवि है। कुछ
    अन्य स्थानीय कवि मित्र उसकी अच्छी कविता से
    जल-भुनकर यह भी कह देते है कि वह तो एक उर्मि कवि
    है…कुछेक उर्मियों के साथ बस खेलता रहता है। जो हो,
    यह कवि मित्र कविताएं खूब लिखता है। आए दिन
    कविताएं उसका द्वार खटखटाती रहती है। और राज्य की
    हर अग्रिम पंक्ति की पत्रिकाओं में उसकी कविताएं छपती रहती
    है। हमारी कंपनी की वीकली बुलेटिन में भी कभी कभार
    हमारे PR Manager की कृपादृष्टि से उस कवि मित्र की
    कविता छपती रहती है। पर हाँ, कवि को कहाँ-कहाँ
    बचना चाहिए, बात वहीँ से चली थी। तो ये हमारे
    कवि मित्र प्रतिभाशाली होते हुए भी समाज और ऑफ़िस में
    उतना मानपान नहीं जुटा पाते जितना कि अन्य कुशल व
    प्रैक्टिकल सह कर्मचारी …अन्य कहीं भी समाज या ऑफ़िस
    में उनका ज़िक्र आते ही लोग काफी हलके और बेमानी से लहज़े में
    फटाक से कह देते हैं, 'छोड़ो न वह तो कवि है…!' जैसे कि कवि
    प्रैक्टिकल नहीं है या रोज़मर्रा की अन्य बातों में गंभीर नहीं है।

    पर उस कवि को अपनी हस्ती का पता है, पता है हम जैसे
    कुछ मित्रों को उसकी मेधा का और उसकी पहचान है कुछेक हमारे
    राज्य की पत्रिकाओं के वरिष्ठ संपादकों को। तभी तो वे उसकी
    कविता मंगवाकर छापते हैं और वह भी अपनी सुचारु टिप्पणी
    के साथ।

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    1. शेख साहब, आप सही फरमा रहे हैं। हालांकि कुछ कविगण कवि कहलाने में संकोच नहीं करते। अपना अपना स्‍वभाव है। वैसे मुझे यह भी लगता है कि समाज को अपने कवियों के बारे में पता होना चाहिए। (भले ही मैं खुद को प्रकट करने की हिम्‍मत नहीं कर पाता) समाज को अपने नेता और अभिनेता के बारे में ही पता होता है। बल्कि उन्‍हें तो वो सिर पर चढ़ाए रहता है। और वही उससे सबसे ज्‍यादा गुमराह करते हैं। समाज अपने वैज्ञानिक, मनोवैज्ञानिक, पुरातात्विक, भाषा वैज्ञानिक, कवि, शिक्षक को प्‍यार करना तो दूर, उसे कायदे से जानता भी नहीं है।

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  2. इसके सिर्फ दो ही कारण हो सकते हैं । या तो आप अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करने में संकोच करते हैं या आपके आसपास के या करीबी लोग सृजन को फालतू का काम समझते हैं ।

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