Saturday, October 12, 2013

परंपरा का बुजका

Pagdandi
पिछले दिनों हमारे एक चचेरे भाई का फोन आया कि वे मुंबई पहुंच गए हैं, कई दिन के सफर के कारण बच्‍चे बडे़ सभी बीमार पड़ गए हैं और रात को ही लौट भी जाना है, इसलिए घर नहीं आ पाएंगे। चाची जी के लिए कुछ सामान लाए थे, यहीं छोड़ रहे हैं, तुम आ कर ले जाना। सुबह का वक्‍त था। मैंने तैयार होते-होते ही फोन सुना था। यह भी बोल नहीं पाया कि कोई बात नहीं, मैं ही आता हूं मिलने। या शाम को प्‍लेटफार्म पर विदा करने आउंगा। दफ्तर से छुट्टी लेना नामुमकिन था। शाम को जाना भी बस में नहीं था। अच्‍छा अपना ख्‍याल रखिए, इतना भर कह पाया।
करीब दो महीने पहले से पता था वे आने वाले हैं और हिमाचल मित्र मंडल के गेस्‍ट हाउस में ठहरेंगे। भाई रिटायर हो गए हैं और हर साल पर्यटन पर निकलते हैं। पिछले साल भी आए थे तब नासिक में टिके थे। चाची को मत्‍था टेकने के वास्‍ते मुंबई का फेरा लगा के लौट गए। समझदारी यह की थी कि इतवार का दिन चुना था या क्‍या पता संयोग रहा हो।
इस बार संयोग नहीं बना। हफ्ते के बीच का दिन पड़ गया। एक ही शहर में होने के बावजूद मेरे और उनके बीच कई घंटों की दूरी थी। इस दूरी को इतवार के दिन ही पाटा जा सकता था। पर इतवार तक वे वापस हमीरपुर पहुंच चुके थे। इतवार के ही दिन मैं उनके रखे सामान को लेने हिमाचल मित्र मंडल पहुंचा। मंडल में और कुछ हो न हो, भाषा सुख खूब मिलता है। वहां आने वाले तकरीबन लोग अपनी बोली में बतियाते हैं। मुंबई में रहते हुए घर में मैं बीजी (मां) के साथ पहाडी़ बोलता हूं। फोन पर हिमाचल में बडे़ भाई से, यहां हिमाचल मित्र के संपादक कुशल से। पांच साल हमने यह पत्रिका निकाली और खूब भाषा सुख लूटा। हिमाचल मित्र मंडल में बाकी माहौल तो मुंबइया ही है, सिर्फ कानों को लगता है आप हिमाचल में हैं। और वहां पहुंच कर मन हलका हो जाता है।
भाई जिस थैले को उठाए-उठाए पूरा दक्षिण घूम आए थे, वह मेरा इंतजार कर रहा था। उसे उठा कर चलने लगा तो कई तरह के ख्‍याल मन में आए। मैंने थैले को नहीं, परंपरा को हाथ में उठाया है। यह परंपरा मुझे ले कर चल रही है या परंपरा को मैं चला रहा हूं। या जो परंपरा चली आती है, मैं उसका हरकारा हूं। तो क्‍या मैं परंपरा का बोझा उठा कर चल रहा हूं ? क्‍या यह सच में ही बोझ बन गई है।
बरसात का मौसम था। एक हाथ में छाता, एक में थैला लिए मैं चल निकला। आटो से विद्याविहार स्‍टेशन आया, वहां से लोकल ट्रेन पकड़ कर दादर। वहां से दूसरी ट्रेन लेकर गोरेगांव। वहां से फिर आटो। तब पहुंचा अपने घर। मतलब चार पडा़व के बाद आया घर। थैले को अपने सामने पाकर अस्‍सी वर्षीया बीजी इस तरह सजग हो गईं मानो डेढ़ हजार मील दूर से उनका कोई अपना उनके रू-ब-रू आ बैठा हो। सामान भरे थैले ने उनके तार जोड़ दिए और वे अपने लोगों से जुड़ गईं। वे सामान भेजने मंगवाने की परंपरा को आज भी नि:संकोच अमल में लाती हैं। वे इस तरह नहीं सोचतीं कि इससे दूसरे को असुविधा भी हो सकती है। खैर, सामान में क्‍या निकला – वड़ियां शायद घर की बनी हुईं, मक्‍की का आटा, चुख माने गलगल (बड़े नींबू) की काढ़ी हुई खटाई और उनके लिए सलवार कमीज का कपड़ा। सामान के उपयोग की उनकी योजनाएं शुरू हो गईं। मेरा आकलन यह था कि वड़ियां यहां मिल जाती हैं, मक्‍की का आटा ताजा पिस जाता है। यह सूट बीजी पहनेंगी नहीं। सिर्फ चुख ही नायाब चीज है। पर खटाई खाने से वैसे भी परहेज करने का दबाव बना रहता है क्‍योंकि‍ उनके घुटने जवाब दे चुके हैं।
तो फिर बाबू किस्‍म का एक भाई हजार किलोमीटर तक इसे ढोता रहा। यहां बाबू किस्‍म का दूसरा भाई महानगर की सड़कों पटड़ि‍यों को लांघ कर घर तक लाया। बिना भावुक हुए सोचने की बात है कि पहाड़ के इस बुजके (बोझ) को लादे रखा जाए या छोड़ दि‍या जाए। आज टेलिफोन क्रांति चरम पर है। बीजी भी अपने सगे संबंधियों की सुबह शाम की खबर नियमित रूप से रखे रहती हैं। थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ हमारे घर पर खाना भी तकरीबन उन्‍हीं के स्‍कूल का बनता है। रसना के दोनों सुख हमें मिल जाते हैं। मैं और बीजी पहाडी़ में बतियाते हैं और दाल भात खाते हैं। सिर्फ रहने की जगह फर्क है। छोटी जगहों के घरों में बरामदा आंगन होता है, यहां माचिस की डिबिया जैसे फ्लैट हैं।
आज चालीस पहले जैसा वक्‍त नहीं है। तब वहां पर सौ किलोमीटर दूर अपने ननिहाल भी बाकायदा प्रोग्राम बनाकर जाना पड़ता था। आज लोग सुबह जाकर शाम को लौट आते हैं। आवागमन तेज और आसान हुआ है। यह अगल बात है कि‍ जाने की फुर्सत कम मिलती है। संपर्क रहता है, पर आना जाना उतना नहीं होता। सोयशलाइजिंग कम हो गई है। उसकी जगह आभासी सामाजिकता अमर बेल की तरह फैल रही है। कुल मिलाकर अलग-अलग इलाकों में रहन-सहन, खान-पान में ज्‍यादा अंतर नहीं रहा। शहर भी ग्‍लोबल, गांव भी ग्‍लोबल। इसलिए अब इस बोझे में से कुछ सामान हटा देना ठीक नहीं रहेगा ? सारे के सारे अतीत को बुहार देने की जरूरत नहीं है पर थोड़ी बहुत छंटाई बीनाई तो हमें करते रहना चाहिए। जैसे थैले के बारे में ही सोचो, कपडे़ की जगह सिंथैटिक ने ले ली है। झोले की जगह पिट्ठू ने ले ली है। उसे पिट्ठू कहते भी नहीं, बैकसैक या बैगपैक कहते हैं क्‍योंकि पिट्ठू बड़े आकार का होता था और लंबी, खासकर पैदल यात्राओं में काम आता था। अब तो बैक सैक को बच्‍चे बूढे़ सब अपनी पीठ पर गांठ के चलते हैं। अगर सामान ढोने वाला बदल रहा है, सामान ढोने का साधन बदल रहा है तो उसके अंदर के सामान को भी बदलना चाहिए।
दुनिया मेरे आगे, जनसत्‍ता