Sunday, June 9, 2013

यह बुलडोजर समय है

  Chandrakant Devtale 6-1
 
वरिष्‍ठ कवि चंद्रकांत देवताले जी से मिलने का पहला मौका आकशवाणी इंदौर के एक कार्यक्रम के सिलसिले में मिला जब हम लोग दूरदर्शन के गेस्‍ट हाउस में एक रात ठहरे. उनसे मिल कर बहुत अच्‍छा लगा. वे बहुत सहज हैं और दूसरे व्‍यक्ति को भी पूरी तरह से सहज बना देते हैं. दूसरी सुबह मैंने देवताले जी से छोटी सी बातचीत रिकार्ड करने का अनुरोध किया. वे सहजता से मान गए. उस समय उनके एक मित्र भी उनसे मिलने आए हुए थे. यह बातचीत चिंतनदिशा के ताजा अंक में छपी है. 

प्रश्‍न
देवताले जी बातचीत शुरू करने से पहले आप अपने मित्र का परिचय हमें दीजिए, क्‍योंकि यह एक दुर्लभ संयोग है.
उत्‍तर
यह विट्ठल त्रि‍वेदी हैं, मेरे बचपन के दोस्‍त. जीवन के बहुत से उतार-चढ़ाव, संघर्ष हमने साथ-साथ देखे हैं. ये एक एक्‍टिविस्‍ट हैं और जनता और किसानों के बीच विचार के क्षेत्र में काम करते हैं. हम जब भी मिलते हें तो हमें ऐसा लगता है जैसे हम अपने बिछड़े हुए भाई से मिल रहे हैं.
Chandrakant Devtale 4-1
बिट्ठल त्रि‍वेदी ये जय प्रकाश नारायण के शताब्‍दी समारोह में मुख्‍य अतिथि के तौर पर आए, पर इस ढंग से मैं नहीं सोचता, यह मेरे हृदय का टुकड़ा हमेशा से रहा है और बड़े बड़े कार्यक्रमों में भी यह अपनी बात जिस ढंग से कहता है वह बड़ी बात है. मैं इन्‍हें बहुत मानता हूं. मैं पत्रम्-पुष्‍पम् के रूप में हूं. ये मुझे बहुत प्‍यार देते हैं. यही मेरे जीने का कारण है. 
प्रश्‍न धन्‍यवाद त्रि‍वेदी जी. अब देवताले जी मैं आपसे जानना चाहता हूं कि आप उम्‍मीद कहां से पाते हैं क्‍योंकि आजकल हम लोग प्रायः निराशा बहुत ज्‍यादा देखते हैं.
उत्‍तर उम्‍मीद तो हमें जगह जगह से मिलती है. बचा-खुचा जो पर्यावरण है, पशु-पक्षी हैं, पेड़ हैं, इन सब में जो संगीत है, सृष्टि की प्रेरणा है. और यह धरती माता जहां पत्‍थरों के बीच भी दूब उग आती है. रेत का प्रदेश (मरूस्‍थल) जहां पानी की दो बूंद आ जाती है. बेचैन हो रहे मनुष्‍य जो दुखों के बावजूद हत्‍यारे नहीं हैं, बल्कि उन्‍हें बर्दाश्‍त कर रहे हैं और दूसरों को दुआएं दे रहे हैं. उम्‍मीद तो रचनाकार के भीतर एक स्‍थाई भाव है. अगर स्‍थाई भाव नष्‍ट हो जाएगा तो न तो आदमी बचेगा, न उम्‍मीद बचेगी और जीवन अजीब तरह का हो जाएगा. वैसे कवि का अपना कोई देश नहीं होता है. वह सबका होता है. हमारे हिंदुस्‍तान में अभी भी बहुत सी आशाजनक स्थितियां मौजूद हैं. बस दिक्‍कत यह है कि उम्‍मीद के जो कण हैं, दूब है, घास है, आवाज है, वह बहुत कम है. और नाउम्‍मीदी के आक्रमण बहुत ज्‍यादा हैं इसलिए असहायता का बोध होता है. इसका कोई रेडिमेड जबाव नहीं दिया जा सकता.
Chandrakant Devtale 1-1
प्रश्‍न तो इस स्थिति से पार कैसे पाएं ?
उत्‍तर उम्‍मीद हमें अपने भीतर से पैदा करनी पड़ेगी. इसके लिए परिस्थितियों से हमें जूझना पड़ेगा और उनमें परिवर्तन करना पड़ेगा. उम्‍मीद को हम कहीं से उधार नहीं मांग सकते, कि आप हमें पांच सौ करोड़ डॉलर की उम्‍मीद भेज दीजिए. वो उम्‍मीद अगर आएगी तो उसमें जहर होगा. वह हमें नष्‍ट कर देगी.
प्रश्‍न तो क्‍या हमारी सभ्‍यता और तंत्र की भूमिका उम्‍मीद को नष्‍ट करने में ज्‍यादा रहती है?
उत्‍तर उसे यह समझ नहीं आता कि वह उम्‍मीद को पनपा रहा है या उम्‍मीद को नष्‍ट कर रहा है. उसको यही समझ में आता है कि वह अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है. और शब्‍दों का, भाषा का प्रपंच रचते हुए वह मनुष्‍य को धोखा दे रहा है. और उसके मन में यह भी भ्रम होता है कि वह इसे आगे बढ़ाने का काम कर रहा है. वो यह नहीं जानता कि वह आगे की धरती को नष्‍ट कर रहा है. क्‍यों ? क्‍योंकि इसमें ईमानदारी, प्रतिबद्धता, जनता के प्रति समर्पण नहीं बचा है. यह एक बीमार समाज का समय है.
प्रश्‍न जबकि हम उम्‍मीद यह करते हैं कि समाज आगे तरक्‍की करेगा.
उत्‍तर वो दिखाते भी यही हैं कि समाज आगे आगे तरक्‍की कर रहा है. लेकिन हकीकत वह नहीं हे. वो एक भ्रम पैदा करते हैं. और वो सच्‍चाई को छुपाने के वास्‍ते भ्रम का ऐसा प्रपंच रचते हैं कि सच्‍चाई दब जाती है और भ्रम सच हो जाता है. यह उनकी खूबी है. और वो कोई ब‍हुत समझदार नहीं हैं. यह उनका कपट है. जैसे बाबा लोग करते हैं, वैसे ये कर रहे हैं. ये राजनैतिक बाबा हैं, कुर्सी पर बैठने वाले. वो मंदिर मस्जिद और अखाड़े में बैठने वाले बाबा हैं. सब करोड़पति हैं.
प्रश्‍न यह कैसा सा समय है?
उत्‍तर यह बुलडोजर टाइम है... विस्‍थापित करने वाला समय... और ऐसे समय में कवि जैसा कि तुकाराम ने कहा, निरंतर अपने आप से संवाद करते हुए सबसे संवाद कर रहा है. एक युद्ध उसका भीतर अपने आप से और दूसरा बाहर जमाने से.
प्रश्‍न यही मैं पूछना चाह रहा था कि एक कवि के नाते इस समय के साथ आप कैसे तालमेल बिठाते हैं ?
उत्‍तर यह द्वंद्वात्‍मक संबंध है उसका. वह खुद से भी लड़ता है और समाज से लड़ने की भी कोशिश करता है. एक कवि के लिए यह संभव नहीं है कि वह पूरे मैदान को बचा ले. वह बित्‍ता भर जमीन को बचा ले, उसके लिए वही काफी है. और हर आदमी को चाहिए कि वह अपने आसपास की बित्‍ता भर जमीन को बचा के रखे. और जमीन का मतलब जमीन ही नहीं है, मतलब मनुष्‍यता को बचा के रखे.
प्रश्‍न आपकी अपनी कविता के बारे में पूछना चाहता हूं कि आप कविता का कच्‍चा माल कहां से पाते हैं और उसे कविता में तटदील कैसे करते हैं ?
उत्‍तर कविता मेरे लिए कमोडिटी नहीं है. इसलिए कच्‍चा माल या रॉ मैटीरियल इक्‍ट्ठा करना मेरा काम नहीं है. जो उत्‍पादक होता है वह कच्‍चा माल इकट्ठा करता है. मेरे लिए मनुष्‍य होने और कवि होने के बीच में कोई फर्क नहीं है. जैसे मनुष्‍य होना मेरा पेशा नहीं है, इसी तरह कवि होना भी मेरा पेशा नहीं है.
प्रश्‍न तो कवि होना आपका स्‍वभाव है.
उत्‍तर यह मेरी मनुष्‍यता से जुड़ा हुआ है, उससे भिन्‍न नहीं है. मैं यही कहूंगा कि मैं मनुष्‍य हूं और कवि और आदिवासी जनपद से आया हुआ. इतने भौतिक विस्‍फोट, आधुनिकीकरण, भूमंडलीकरण, यंत्र सभ्‍यता, मशीनों और ताम-झाम... उसके बीच भी एक कवि के सरोकार आदिवासी की तरह होते हैं. उसकी चिंता अपनी भाषा, अपने जन, अपने दरख्‍तों को बचाने की होती है जिसमें उसकी देशीयता, अस्मिता और पहचान भी है. क्‍योंकि किसी भी आदिवासी की चिंता यही होती है.
प्रश्‍न कविता अगर आपका स्‍वभाव है तो भी आप कविता किस तरह लिखते हैं ?
उत्‍तर जीवन के अनुभव, रोजमर्रा की घटनाएं, हर चीज जो आती है और मेरे अंदर जैसे अंकुर फूटते हैं, वैसे फूटती है. तैयार हो जाती है तो बड़ी मुश्किल से मैं उसे कागज पर उतारता हूं.
प्रश्‍न कागज पर पहले ही ड्राफ्ट में हो जाती है या..
उत्‍तर हो जाती थी. पिछले कुछ समय से, विस्‍मृति के कारण, बहुत देर तक रखी रहती है और फिर उसमें काट-छांट भी होती है. बन जाए तो ठीक, नहीं तो में उसे छोड़ देता हूं.
प्रश्‍न कितनी कविताएं ऐसी होंगी जो छोड़नी पड़ीं ?
उत्‍तर (हाथ से अंदाजा देते हुए)
इतना बड़ा गट्ठर है, करीबन पांच-छः किलो का. उसको मैं किसी को दे तो सकता नहीं. फेंक भी नहीं सकता
( इस बीच हम तीनों की हंसी निकल जाती है)
मुझे पता है कि विस्‍लावा शिंबोर्स्‍का पचास साल से कविता लिख रही थी और उसने सिर्फ ढाई सौ कविताएं लिखी हैं. एक साल में पांच छह कविताएं. यह जानकर मुझे इतना अद्भुत लगा कि यह है इंसान और कवि का एक साथ होना. मैं साक्षात्‍कार दे रहा हूं, आपकी वजह से. वो महान कवयित्री साक्षात्‍कार देने से भी बचती थी.

प्रश्‍न आपकी लगभग कितनी कविताएं होगीं ?
उत्‍तर
बनिए की तरह कविताओं का हिसाब नहीं रखता.
(फिर से हंसी और इसी बीच उनके मित्र कहते हैं यह उनकी किताबों की सूची से पता चल जाएगा. तो मैं कहता हूं यह तो मैं ऐसे ही, शिंबोर्स्‍का की बात निकली इसलिए, पूछ रहा था).
उसकी तो फोटो देखकर ही मेरे मन में मां के जैसे भाव आए और हाथ प्रणाम में उठ गए. मदर टेरेसा, शिंबोर्स्‍का और सड़क पर हमारी ग्रामीण बूढ़ी औरतें जो बैठी रहती हैं न, उन्‍हें देखकर मेरे हाथ अपने आप छाती पे (प्रणाम मुद्रा में) आ जाते हैं, मेरी इस बात पे आप भरोसा करना. और आपने मुझे इतने घंटों से देखा है तो आप समझ सकते हैं कि इस पर भरोसा किया जा सकता है. आप इतने बड़े बॉम्‍बे शहर से आए है. अगर आप में चीजों की परख है तो आदमी की भी परख होगी. (देवताले जी की इस चुटकी से भी हंसी की फुलझड़ी खिल उठी).
प्रश्‍न जब आप पूरी न हो सकी कविताओं को छोड़ देते हें तो पता चलता है आप कितने निर्मम हैं कविता को कविता मानने में. इस संबंध में मैं यह जानना चाहता हूं कि आप अपनी कविता से कितने संतुष्‍ट हैं ?
उत्‍तर मैं असंतुष्‍ट नहीं रहता. मेरी कविता हो गई, मेरा काम हो गया. परफेक्‍शन करना, उसको काट-छांट के सुंदर बनाना, मोहक बनाना और कविताओं के स्‍वर्ण गुंबद खड़े करने में मेरा यकीन नहीं है. मैं जमीन पर खड़ा हूं, आज की परिस्थितियों ओर दबावों के बीच हूं और आज की बात कह रहा हूं. मेरी इसमें कोई दिलचस्‍पी नहीं कि पचपन साल बाद या मेरे जाने के बाद किसी को मेरा नाम याद रहेगा या नहीं. हमें किस-किस के नाम याद हैं ? 
प्रश्‍न तो क्‍या आप यह यकीन भी करते हैं कि कविता क्‍लासिक हो जाती है ?
उत्‍तर प्रमुख कवियों की कविताओं में यकीन करता हूं. गालिब का दीवान, तुकाराम के ग्रंथ, कबीर के पद, गुप्‍त जी की पंक्तियां, और सियारात शरण की एक कविता तो ताजिंदगी याद रहने वाली कविता है. बचपन में उसने मुझे इंसान बनाने में मदद की- 'फूल की चाह' और नवीन जी की पंक्तियों ने कि 'जिस दिन मैंने नर को देखा लपक चाटते जूठे पत्‍ते, दस दिन सोचा क्‍यों न लगा दूं आग आज दुनिया भर में''. नास्‍तिक बनने के लिए मुझे भगत सिंह का निबंध नहीं पढ़ना पड़ा. मेरी मौसी जब गांव से आती थी और मैं दस बारह साल का था तो मेरी मां कहती थी, सुखिया यह मेरा सबसे छोटा बेटा चंदू एकदम नास्तिक है. और मुझे बहुत अच्‍छा लगता था कि मैं नास्तिक हूं. और मैंने अपने मां के शब्‍दों को सार्थक करने की पूरी जिंदगी भर कोशिश की.
प्रश्‍न यह अनायास हुआ या...
उत्‍तर हां.. मेरी बच्‍चों वाली कविता में है कि अगर भगवान होता तो अब तक तेजाब के कुंड में कूद जाता. आप सोचो, एक बहुत बड़ा आदमी है और दानी है और उसने एक आश्रम बनाया है और लोग भूखे मर रहे हैं तो वो कैसा दानी है ? वो कृपावंत है और वो इतना ताकतवर है तो लोग भूखे क्‍यों मर रहे हैं ? नरक में होने जैसा अन्‍याय यहां क्‍यों हो रहा है. तो स्‍वर्ग क्‍या सिर्फ भगवानों के वास्‍ते है ?
प्रश्‍न जब आप इस तरह बोलते हें तो लगता है कविता की पंक्तियां ही कह रहे हैं.
उत्‍तर इसलिए तो कहा न कि मेरे कवि होने और मनुष्‍य होने में कोई फांक नहीं है. मैं जब पति होता हूं तब भी कवि पति होता हूं, शिक्षक था तब भी कवि शिक्षक था, बाजार में सब्‍जी खरीदता हूं तो कवि सब्‍जी खरीद रहा है. ग्राहक की तरह नहीं खरीदता हूं.
प्रश्‍न अच्‍छा यह तो आपने बताया कि एक कविताओं की इन पंक्तियों से आपका जीवन बदल गया, यह बताइए कि कविता शुरू कब हुई ?
उत्‍तर मैंने 1952 में पहली कविता लिखी, तब आठवीं में पढ़ता था. यह नर्मदा किनारे बड़वाह की बात है. नर्मदा में हम नहा रहे थे, तैराकी करके आया तो सूरज को देख कर कविता उमची. वो कविता जैसी तैसी थी. उसको बाद में कुछ ठीक किया और कापी में उतार दिया. फिर नौवीं में पढ़ने के लिए मुझे इंदौर शहर में आना पड़ा. तब इंदौर भी बहुत छोटा था. मेरे भाई बी. ए. में थे क्रिश्‍चियन कालेज में. एक भाई बी. कॉम. हो चुके थे. हमारे घर में बहुत सी किताबें थीं, गुप्‍त जी, बच्‍चन जी, सियाराम शरण गुप्‍त और नवीन जी की कविताएं घर में थीं. कुछ साहित्‍यकार घर पर आते थे. मेरे बड़े भाई स्‍वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, गिरफ्तार हो चुके थे. और दूसरे भाई ने बाद में हिंदी में एम. ए. किया था. मतलब घर में साहित्‍य का माहौल था. पिताजी रामायण पढ़ते थे और मेरे नंबर दो के भाई, मुन्‍ना भैया मां को साकेत वगैरह पढ़ कर सुनाया करते थे, उसका आठवां सर्ग. मेरे भाई के एक मित्र थे प्रहलाद पांडेय शशि, वे मुझे 51-52 में एक किताब भेंट कर गए. छोटी सी किताब थी. चार आने कीमत थी उसकी और नाम था तूफान. और वो मेरी गतिविधियों के कारण मुझे तूफान कहा करते थे. उस पर उन्‍होंने लिख दिया चंद्रकांत तूफान को यह तूफान आशीर्वाद सहित भेंट. मैं उसको वांचता था. वो बहुत विद्रोही कवि थे. दूसरी कविता नौंवी की मैग्‍जीन में छपी. मजदूर शीर्षक था उसका. तो मेरी कविता की जमीन यही है – साधारणता की. मेरे बारे में कहते हैं कि यह तो अकविता से आया हुआ कवि है, तो मैं चकित हो जाता हूं. जो अकविता की शुरुआत का समय था तब मैं होशंगाबाद जिले की सुहागपुर तहसील के पिपरिया टप्‍पे में (जहां से पचमढ़ी और छिंदवाड़ा जाते हैं) में हिंदी का व्‍याख्‍याता या कहें सहायक प्राध्‍यापक था. तब तक मेरी बहुत सी कविताएं ज्ञानोदय और धर्मयुग में छप चुकी थीं.
प्रश्‍न थोड़ा सा पीछे लौटें, अभी जो आपने कहा था कि कविता जैसी आती है, मैं कह देता हूं. मैं जानना चाहता हूं कि आप कविता में क्राफ्ट को कितना महत्‍व देते हैं.
उत्‍तर मेरा जो कथ्‍य है या मेरी बात है वही तय करती है मेरी अभिव्‍यक्ति और भाषा. और शिल्‍प शब्‍द से मेरा कोई घनिष्‍ट वास्‍ता नहीं है. मैं हिंदी का प्राध्‍यापक भी रहा पर मैंने कविता को इस तरह से कभी नहीं पढ़ाया. डोरिस लेसिंग (नोबल पुरस्‍कार प्राप्‍त ब्रितानी उपन्‍यासकार) से मेरी सितंबर 1987 में इटली में बातचीत हुई थी.
प्रश्‍न तो डोरिस लेसिंग से क्‍या चर्चा हुई ?
उत्‍तर
जब उन्‍होंने पूछा क्‍या करते हो तो मैंने कहा बीस साल से साहित्‍य का प्राध्‍यापक हूं. वो कुछ पूछना चाहती थीं. मैंने कहा मेरी अंग्रेजी अच्‍छी नहीं है. उन्‍होंने कहा घबराओ मत मैं भी अफ्रीका में पढ़ी हूं और बहुत संघर्षपूर्ण जीवन बिताया है. मैं भद्र समाज की अंग्रेजी बोलने वाली नहीं हूं. और उससे मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता. फिर उन्‍होंने कहा कि साहित्‍य पढ़ाते हो तो सब विद्यार्थी साहित्‍य से विमुख हो जाते होंगे. पढ़ने के बाद कविता से उनका कोई रिश्‍ता नहीं बचता होगा. तो मैंने कहा, नहीं मैं वैसे नहीं पढ़ाता. जिन छोटी छोटी जगहों में मैंने पढ़ाया वहां साहित्‍य के प्रति अनुराग जगाया. पत्रि‍का, साहित्‍य, कविता पढ़ने वाले मेरे छात्र वहां मिल जाएंगे. मैंने अपनी पत्रि‍काएं उनको दीं. कई जगह मैंने वादा लिया कि मेरे जाने के बाद पत्रि‍का निकले. राजगढ़, पिपरिया से निकलीं. पिपरि‍या से वंशी माहेश्‍वरी तनाव अब तक निकालते हैं. ये बीए में थे उस समय. आकंठ निकला. मैंने पहली बार वहां मुक्तिबोध दिवस मनाया था. वहां भवानी प्रसाद मिश्र आए, हरि शंकर परसाई आए, मुकुट बिहारी सरोज आए. हमने वहां कई आयोजन किए.
तो डोरिस लेसिंग ने कहा कि साहित्‍य को पढ़ाने की जो विधि है, जिसमें यांत्रि‍क ढंग से पढ़ाया जाता है, परिभाषा, तत्‍व आदि.. जैसे जीव विज्ञान के लाग चीर-फाड़ करते हैं उस तरह से पढ़ाया जाता है. यह तरीका साहित्‍य के सौंदर्य को, उसकी अनुभूति को, उसके मनोभाव और मनोजगत को नष्‍ट करता है. परीक्षा के वास्‍ते पढ़ाया जाता है. कुंजी की तरह. मैंने कहा मैंने ऐसा कभी नहीं पढ़ाया. अपने पढ़ाने से मुझे बहुत संतोष भी है. मैं तो कविता को अभिव्‍यक्ति मानता हूं कि कवि कैसे बात कह रहा है.
Chandrakant Devtale 2-2
प्रश्‍न आप पिछले पांच दशकों से लिख रहे हैं, अपनी कविता में आपने इस दौरान किस-किस तरह के बदलाव महसूस किए हैं.
उत्‍तर मैं तो एक निरंतरता में लिख रहा हूं. मैं चीजों को काट काट कर कि पांच साल बाद, दस साल बाद क्‍या हो गया, उस तरह से नहीं देख पाता. जो परिवर्तन होता है, नया घटित होता है, वह उसी निरंतरता में समाहित होता है. घटनाओं को अलग करके नहीं सोचता कि अमुक जगह आतंकवादी हमला हो गया तो वह अलग घटना है. सब निरंतरता में ही चलता है. आतंकवादी महाभारत और रामायण युग में भी थे. और अंग्रेजों ने हम पर जो आक्रमण किया, वह तो भद्र आतंकवाद था, जो मैकाले ने हमारी रीढ़ की हड्डी तोड़ी. उसने 1835 में ब्रिटिश संसद में भाषण दिया था कि हिंदुस्‍तानी बहुत अच्छे हैं, मैं इस कोने से उस कोने, उस कोने से इस कोने में चारों ओर घूमा हूं. उन्‍हें मैंने भीख मांगते नहीं देखा, वे बहुत निष्‍ठावान हैं, समर्पित हैं, सीधे सच्‍चे हैं, और एक दूसरे को ठगते नहीं हैं. हम हिंदुस्‍तान को जीत नहीं सकते. किंतु यदि उन्‍हें जीतना है तो इनकी रीढ़ की हड्डी तोड़ना पड़ेगी. इनकी भाषा, इनके विचार आरैर इनकी जमीन से इनको उखाड़ना पड़ेगा. अंग्रेजों ने यह किया और वो इसमें कामयाब हो गए. और हम बेवकूफों की तरह उस कामयाबी को बर्दाश्‍त करते रहे.
प्रश्‍न और आजादी के बाद उसी पथ पर चलते रहे.
उत्‍तर हां. और आजादी तक जो हमारा सांस्‍कृतिक आंदोलन था, उसको हमने समझा कि 15 अगस्‍त 1947 को हमारा काम पूरा हो गया. जबकि वह प्रारंभिक चरण था. उसको आगे बढ़ाना था. हम उससे भटक गए. और गांधी जी को अप्रासंगिक समझ बैठे. ठीक है हमें दुनिया की समझ को ग्रहण करना था, हमें तरक्‍की करना थी. वैचारिक समृद्धि करना थी. पर उधार लेकर नहीं. जो चीजें थीं, उन्‍हें आत्‍मसात करके, अपना बना के करना था. वो हमने नहीं किया.
प्रश्‍न तो आज के भूमंडलीकरण के दौर में, बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों की पूंजी के दौर में गांधी जी आपको कहीं उम्‍मीद की तरह दिखते हैं या आज भी प्रासंगिक लगते हैं ?
उत्‍तर गांधीजी, लोहिया, कबीर, तुकाराम, जेपी, ये कभी अप्रासंगिक होंगे ऐसा मुझे नहीं लगता. यदि मनुष्‍य जाति की सहजता, सादगी, जीवंतता, मानवीयता, प्रेम, सद्भाव, करुणा को बचाना है और स्‍वार्थ से या माया, लोभ से बचना है तो ये हमारे स्‍थाई प्रेरक तत्‍व हैं.
प्रश्‍न मैं आपसे यह जानना चाहता हूं जिसकी हालांकि साहित्यिक हलकों में प्रायः चर्चा भी होती है कि आपके हिसाब से बुजुर्ग और युवा साहित्‍यकारों में परस्‍पर किस तरह का संवाद होना चाहिए ?
उत्‍तर बुजुर्ग को न समझना चाहिए बुजुर्ग और युवा को न समझना चाहिए युवा. उनमें मित्रवत्, आत्‍मीय रिश्‍ता होना चाहिए किंतु अतिनिकटता से सम्‍मान नष्‍ट होता है, इसकी जिम्‍मेदारी युवाओं की है. अगर एक बुजुर्ग कवि उनको प्‍यार अधिकार और सम्‍मान देता है तो युवा उसकी टोपी न उतारने लग जाएं. और बुजुर्ग की जिम्‍मेदारी है कि युवा को निरक्षर समझ कर अपनी हर बात उस पर थोपने न लग जाए.
प्रश्‍न आखिर में सनातन किस्‍म का सवाल है, हालांकि आपने शुरू में मनुष्‍य होने और कवि होने की व्‍याख्‍या की, पर क्‍या जो अच्‍छा मनुष्‍य होगा वही अच्‍छा कवि होगा ?
उत्‍तर अच्‍छा मनुष्‍य है और अच्‍छा कवि अगर नहीं भी है तो वह हमारे लिए ज्‍यादा वरेण्‍य है. बुरा आदमी अच्‍छी कविता नहीं लिख सकता. वो कविता तैयार कर लेता है. जेसे मिलावटी व्‍यापारी अच्‍छा पेटेंट तैयार कर लेता है. हमें सावधान रहना चाहिए. और हमें तमीज होना चाहिए कि हम फर्क कर सकें. अगर फर्क करने की तमीज नहीं है तो हमारे लिए सब एक सरीखे हैं.
प्रश्‍न मतलब यह एक बुनियादी शर्त की तरह हो जाता है...
उत्‍तर अच्‍छा आदमी हुए बिना कविता काहे को करेगा कोई ? उसको बुखार आ रहा है ? क्‍या किसी वैद्य ने कहा है ?
प्रश्‍न कई लोग तो कर लेते हैं न ...
उत्‍तर वो करते हैं तो उन पर डाउट करो. संदेह शब्‍द काहे के वास्‍ते है ? बहुत बडा़ शब्‍द है. हर चीज पर अपुन संदेह ही तो कर रहे हैं. यह सारी बहस संदेह के कारण है क्‍योंकि हमें ठगा जा रहा है. और हम संदेह नहीं कर रहे.
Chandrakant Devtale 7-1
अनूप जी. इतना समय निकालने के लिए आपका बहुत बहुत धन्‍यवाद.


27 comments:

  1. अच्छा लगा इसे पढ़कर। पोस्ट करने के लिये आभार!

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    1. अपूप जी,
      पढ़ने और प्रतिक्रिया देने के लिए धन्‍यवाद. देवताले जी की बातें हैं ही सच्‍ची और खरी.

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  2. देवताले जी से आपका साक्षात्कार बहुत ही अच्छा व उपयोगी है । मेरे विचार से हर अच्छा कवि ऐसा ही सच्चा और धरातल के स्तर पर ही सोचता होगा । बहुत सुन्दर ।

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    1. गिरिजा जी, धरातल के स्‍तर पर सोचने की आपकी बात काबिले गौर है, न सिर्फ कवियों के लिए बल्कि कलाकर्म में लगे सभी व्‍यक्तियों के लिए. आभार.

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  3. एक बहुत ही अलग तरह का साक्षात्कार रहा चंद्रकांत देवताले जी से ...
    बहुत सी बातें उनके अनुभव का निर्णायक फ़ोर्स लिए हुए थी ...
    हमारे कितने ही राजकीय नायकों को, हमारे कितने ही बाबाओं को,
    हमारे बने हुए कई रहनुमाओं को वे एक निर्भ्रांत दृष्टि से देख परख
    सकते हैं ...हमारे वर्तमान समय का सही चित्रण है उनकी सोच के
    दायरे में ...

    प्रकृति और मनुष्य के कितने क़रीब व उनसे संलग्न है देवताले
    जी ...कविता में शिल्प को लेकर भी उनके विचार पहली बार सुने जो
    मौलिक भी लगे ...शिल्प के नाम पर कुछ कहने को हमारा गला
    तो न घोंटा जाए ...! शिल्प की महत्ता अपनी जगह है पर देवताले जी के
    विचारों से भी असहमत नहीं हुआ जाए ...आज जहां समृद्धि है वहां
    असुख है, समृद्धि को दूर से देखने वालों को भी असुख है ...और जो
    वंचित है उनका जीवन तो नर्कागार के धरातल में धंसता ही जा रहा है ...
    आज ज़्यादातर लोग पैसों के घपला व्यवहोरों में अपने जीवन को और
    अपने परिवार को नर्कागार बनाए जा रहा है ...

    श्री चंद्रकांत देवताले जी की कविताएं तो नहीं पढ़ी है पर यहाँ उनका
    परिचय बहुत ही सुखद रहा ...हमारे राष्ट्र के वर्तमान का एक सही परिप्रक्ष्य
    है उनके दर्शन और चिंतन में ...

    अनूप शेठी जी आपका भी धन्यवाद इस साक्षात्कार को लेने के लिए और
    हम तक पहुँचाने के लिए ...बहुत कुछ आपने कहेलवा लिया श्री चंद्रकांत
    देवताले जी से क्योंकि आपके प्रश्न ही उतने अर्थपूर्ण और महत्वपूर्ण थे ...

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    1. शेख साहब आपने देवताले जी की बातों को सही पकड़ा है.

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  4. चंद्रकात देवताले जी के साथ आपका यह साक्षात्कार नवोदित लेखकों के कविता कर्म में सहायक सिद्ध होगा।

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    1. जी.
      वरिष्‍ठ लेखक से मार्गदर्शन मिले, यह तो अभीष्‍ट होता ही है.

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    2. सही कहा . ये साक्षात्कार कविता के नए लेखकों के लिए बहुत उपयोगी है . साथ में उन पुरानों के लिए भी, जो जो भूल गए हैं कि उन्हो ने कविता लिखना शुरू क्यों किया था .

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  5. बहुत पहले कभी एक ज़माने के बहु चर्चित मार्क्सवादी आलोचक जार्ज लुकाच की एक असर डालने वाली किताब पढी़ थी, -'अंटोलाजी आफ़ पोएट एंड पोएटिक सेल्फ़' (ऐसा ही कुछ शीर्षक था. उसमें तमाम तथ्यों और संदर्भों के साथ यह चेतावनी दी गयी थी कि कवि को अपने आत्म को काव्यात्म से कभी मिलाना नहीं चाहिए. ऐसा होने पर कवि के जीवन में त्रासदियां पैदा होती हैं.
    लेकिन देवताले जी का यह साक्षात्कार पढ़ते हुए बार-बार लगता रहा कि वे एक ऐसे विरल कवि हैं, जिन्होंने कभी अपने सेल्फ़ को विभक्त नहीं होने दिया. यह जीवन कविता का ही जीवन था. ...और है. हम सब जानते हैं कि जब कभी धूमिल ने कहा था कि कविता पूरे आदमी की खुराक मांगती है, तो उनका यह वक्तव्य कितने-कैसे अनुभवों के बीच से पैदा हुआ होगा.
    यह एक बहुत अच्छा और कभी न भुलाया जा सकने वाला साक्षात्कार था. आपका आभार अनूप जी.

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    1. उदय जी, आपने देवताले जी के पाठ के हवाले से कवि और मनुष्‍य के अंतर्संबंधों पर सटीक टिप्‍पणी की है. इससे इस चर्चा को और आयाम मिलते हैं.
      मेरे मन में संकोच था कि यह 'ऐसी सी ही' बातचीत है पर आपने इसका महत्‍व रेखांकित करके मेरे लिए मुंबई की पहली बौछारों को और खुशनुमा बना दिया.
      कल ओमा शर्मा जी ने भी फोन पर इस साक्षात्‍कार के महत्‍व को समझाया था.

      आभार

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    2. अजेय की यह टिप्‍पणी स्‍पैम में फंस गई थी और मुझसे गलती से डिलीट हो गई। संयोग से मेल में मिल गई।


      उदय जी की टिप्पणियाँ हमेशा एक अलग एंगल लिए होतीं हैं । और विचार के नए आयाम प्रस्तुत करती हैं.... *सेल्फ को विभक्त न होने देना* मुझे एक रूहानी ( माने अभौतिक) उपलब्धि लगती रही है जो कि अनिवार्य रूप से निर्लिप्तता और साक्षी भाव से जुड़ा प्रश्न है . अब यह तय करना बड़ा कठिन है कि कवि की इस वेयक्तिक उलझन और जद्दो जहद का सामूहिक पाठ क्या होगा ? देवताले जी इस रूहानियत से एक दम अप्रदूषित दिखते हैं अपने इस साक्षातकार में. क्या उन की कविता में उन की इस उपलब्धि के संकेत / आशय / ध्वनियाँ नहीं दिखतीं ? जिज्ञासा है

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  6. ''जैसे मनुष्य होना मेरा पेशा नहीं है , उसी तरह कवि होना भी मेरा पेशा नहीं है .''

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  7. पढ़कर सुनता रहा और देर तक डूब गया .

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  8. विजय कुमारJune 10, 2013 at 1:06 PM

    यह बहुत ही सुन्दर बातचीत है. देवताले जी हमेशा ही जीवन- उष्मा से लबालब व्यक्ति रहे हैं . उनकी यह सहजता मार्मिक भी है और चीजों के आर – पार देखती हुई भी. यह हमें जीना सिखाती है .बधाई !!

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  9. यह पंक्ति जैसे भीतर बैठ गयी "ग्राहक की तरह कवि नहीं खरीद सकता"!

    देवताले जी का यह साक्षात्कार पढ़कर वैसा ही लगा जैसा उनसे फोन पर बतियाते हुए या उनके घर पर बैठकर बतियाते हुए लगता है...जीवन और कविता में इतना एक्य कम ही दिखता है कहीं...

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  10. bahut marmik. yah padh kar maine unse abhi baat ki!

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  11. रचनात्मकता को 'मांग और पूर्ति' का सिद्धांत समझने के दौर में सच्चे कवि और सच्ची कविता की समझ इस साक्षात्कार को पढ़ने के बाद स्पष्ट होती है . यह साक्षात्कार हर ईमानदार और सच्चे लेखक को आश्वस्त करता है, भरोसा दिलाता है अपने रास्ते पर बिना कोई समझौता किये आगे बढ़ने का . धन्यवाद .

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  12. आदरणीय अनूप सेठी जी
    देवताले जी से आपकी बातचीत उनके कवि और मनुष्‍य रूप को खोलती है तथा बताती है कि तमाम कृत्रिमताओं से अलग यह कवि कविता वैसे ही करता है जैसे जीवन जीता है। साफगोई इसकी कविता और बतकही दोनों का सहज सुभाव है।

    बधाई ऐसी बातचीत के लिए।

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  13. अच्छे साक्षात्कार के लिए, बधाई।
    आज की कविता का दुर्भाग्य यह कि कविजीवन में उस तलुएभर जमीन को बचाने का भाव नहीं है, जिस पर वह खड़ा है। आसपास के बित्ताभर जमीन को बचाना तो उसके लिए बहुत मुश्किल काम है। कवि बेचारा, हजार तिकड़म से मिला अपना चुटकीभर यश और दो कौड़ी का तमगा बचाये या मनुष्यता का परिसर ? काश, कविजी लोग देवताले की तरह सचमुच मनुष्यता की चिंता में लगते।

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  14. अच्छे साक्षात्कार के लिए बधाई, अनूप सर .
    इंसान और कवि का एकसाथ होना ..

    मैं ज़मीन पर खड़ा हूँ,आज की परिस्थितियों और दबाबों के बीच हूँ और आज की बात कर रहा हूँ ..

    बुरा आदमी अच्छी कविता नहीं लिख सकता .वो कविता तैयार कर लेता है ,जैसे मिलावटी व्यापारी अच्छा पेटेंट तैयार कर लेता है

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  15. कविता तो जिन्दगी लिखती है महत्व्पूर्ण साक्षात्कार

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  16. इस साक्षात्कार से देवताले जी के अनमोल विचार जानने को मिले । प्रकाशक को बधाई और धन्यवाद ।

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  17. बहुत दिनों बाद किसी ने भाषा और हमारे होने पर खरी-खरी बातें कहीं। पढ़ कर बहुत ही खुशी हुई। देवताले जी ने जहां ऊंगली रखी है उस बित्ता भर जमीन का ही तो रोना है। सच है हम एक दूसरे को नहीं ठगते हैं हम सदियों से खुद को ही ठगते आ रहे हैं। मैकाले का उदाहरण तो सभी देते हैं पर यह कोई नहीं बताता है कि हम मैकाले को गलत सिद्व करने के लिए क्या करें कि हम उसके भूत से मुक्त हो सकें। एक सार्थक बातचीत प्रस्तुलत करने के लिए अनूप जी को बधाई।

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  18. भोपाल से आग्‍नेय जी ने फोन पर बताया कि इस बातचीत में डोरिस लेसिंग, जिनसे देवताले जी की मुलाकात का जिक्र है, ब्रिटिश उपन्‍यासकार हैं, इटली की नहीं. इस तथ्‍यात्‍मक भूल के लिए खेद है. बातचीत में सुधार कर दिया है. विकीपीडिया का लिंक भी दे दिया है ताकि लेखिका के बारे में और जानकारी प्राप्‍त की जा सके.

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  19. जी बहुत सुन्दर . देवताले जी की अपनी कविताओं जैसे ही सहज विचार हैं उन के ; कविता के बारे में . पर एक बात यह है कि अच्छा आदमी हुए बिना ही बहुत से लोग कविता लिखना मेनेज कर लेते हैं .उन्हे कोई बुखार नहीं आया होता और न ही किसी डॉक्टर ने कहा होता है . मुझे लगता है वे केवल अच्छा *दिखने* के लिए कविता करते हैं और यह पक्का है कि वे इधर बहुसंख्यक हैं . पहले भी वे बहुसंख्यक ही रहे होंगे ..... अब उन सब पर डाऊट करने बैठेंगे तो अपनी कविता के लिए समय नहीं मिल पाएगा . बेहतर यही होगा कि हम अपनी कविताओं इस मेनेजमेंट टेक्टिक्स से बचा रक्खें. हम अपने *बुरे* को भी अपने पाठक के सामने उघाड- रखना सीखें .... पूरी सहजता के साथ.

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  20. जय प्रकाश जी की टिप्‍पणी मेल में मिली जो यहां नहीं दिखी। स्‍पैम में फंस गई थी। वहां अजेय की भी एक टिप्‍पणी थी। गलती से दोनों डिलीट हो गईं। जय प्रकाश की मेल से पेसट कर रहा हूं।
    अनूप जी,कवि की आत्मीयता के घेरे में कोई भी सहज ही शामिल हो जाता है। देवताले जी की सहजता उनसे मिलते ही फ़ौरन घेर लेती है। तस्वीर में जिस तरह से उन्होंने आपको अपनी बांहों में घेर लिया है,उसे देख कर मुझे कुछ वर्ष पूर्व उनसे हुई मुलाक़ात की याद आ रही है। बारनवापारा ( रायपुर ) के जंगल में एक रेस्ट हॉउस में कविता शिविर में हम तीन दिन साथ रहे थे।एक सुबह सैर से लौटने पर किसी ने हमारी तस्वीर उतारी, जिसमें ठीक उसी मुद्रा में उनका दाहिना हाथ मेरे कंधे पर था, जिस तरह से उनके साथ आपकी तस्वीर में। आपने ठीक कहा है ,और उनसे मिल कर सहज ही महसूस होता है, कि उनकी बातचीत भी कविता की तरह होती है --संवेदना और आत्मीयता की गर्माहट से भरी हुई। विचार और कर्म की एकता से ही वह नैतिक संवेदनशीलता उत्पन्न होती है ,जो एक कवि की पहचान है. चंद्रकांत देवताले की कविता में यह भरपूर है. एक उम्दा साक्षात्कार के लिए आपको आभार

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