Tuesday, March 12, 2013

बचपन की कुछ यादें और


कुछ अर्सा पहले मैंने अपने बचपन की कुछ यादें यहां पर आपके साथ साझा की थीं. उन्‍हें पढ़कर हिमाचल के ठियोग केहमारे मित्र और कवि मोहन साहिल इतने उद्वेलित हो उठे कि टिप्‍पणी लिखते लिखते अपने बचपन की गलियों में ही खो गए. अपनी बात कहने की मस्‍तीऔर जल्‍दबाजी के साथ यह मेल उन्‍होंने मुझे भेजी. आप भी पढ़िए. ठियोग में बर्फ के ये फोटो भी मोहन ने भेजे हैं. आजकल मुंबई में जिस तरह से गर्मी पड़ रही है, यह दृश्‍य आंखों के रास्‍ते राहत पहुंचाते हैं.
 
आपके ब्लाग में जब आपके बचपन की कुछ यादें पढीं तो रहा नहीं गया. महान व्यक्ति न होते हुए भी मेरे जन्म को लेकर विवाद है. मां कहती थीं कि हम शिमला के स्नोडन अस्पताल में जिस दिन पैदा हुए उस दिन लोहड़ी थी और उन्होंने इसका पता ऐसे लगाया कि हमारे पैदा होने के बाद जब उन्हें होश आया और उन्हें बहुत भूख लगी , दया कर किसी साथ के बिस्तर की महिला के घर से लाई खिचड़ी (जो लोहड़ी पर बनती है) उन्हें दी गई थी. वे यह भी कहती थीं कि 1963 की उन सर्दियों में बहुत बर्फ पड़ी थी और ठियोग से हमारे बड़े भाई जब कई दिनों बाद शिमला अस्पताल पहुंचे तो वे बाजार से 2 ब्रेड लाए जिन्हें मां एक साथ दूध के साथ खा गई थीं. उनका कहना था कि वे बहुत भूखी थीं और मुझ आठवें बच्चे को पिलाने के लिए उनके पास दूध नहीं था. जिसकी कहानी ही भूख से शुरू हुई हो तो यह भी जान लीजिए कि जन्म टिपड़ा आदि कौन बनाएगा. हांलाकि मां मुझे यह दिलासा कई बार देती थीं कि मेरे जन्म का पूर्वानुमान एक बाबा यह कह कर लगा गए थे कि हे देवी तुम्हारे घर में अभी मोतीराम नाम का बालक आठवें बच्चे के रूप में आएगा. मुझसे बड़ी एक बहन ने जब स्कूल में भर्ती करवाया तो नाम के साथ आठ फरवरी जन्म तिथि लिखवा दी. लेकिन बाबा का यह वरदान मेरे लिए शाप था. 

मैं ऐसे घर में पैदा हुआ जहां पहले से आए लोगों की हालत भी ठीक नही थी. वैसे तो हम पांच भाईयों ने जैसा बचपन बिताया वैसा इस पहाड़ी इलाके में बहुत से बच्चे बिताते थे लेकिन शायद हमारी हालत आठ भाई बहन होने और पिता के गुजर जाने के बाद काफी खराब हो गई थी. मैं पिता के जाने के समय 6 साल का था और मुझे याद है कि पिता को ठियोग कस्बे में उनकी दूकान के बाहर जब नहलाया जा रहा था तो मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा था. मुझे कई दिनों बाद समझ आया था कि अब ठियोग में न हमारी दूकान है न पिता. 

मेरे पास स्कूल जाने के समय तक पाजामा मलेशिए के कपड़े का होता था. उस समय आटे की थैलियां भी इसी कपड़े की होती थीं. बाद में वर्दी के लिए बड़े भाई जो पीडब्लयूडी में मजदूर थे ने मेरे लिए खाकी कपड़े का पाजामा बनवाया जो वर्दी भी थी, और नीली कमीज. हमारे पास बिस्तर के नाम पर बोरियों या पुराने कपड़ों की खिंदे होतीं थीं. बर्फ के दिनों में एक बड़ा भाई और मुझसे कुछ ही बड़े दो भाई चमड़े या रबड़ के डकबैक बूटों के उपर टांगों पर बोरियां लपेटकर फागू और कुफरी के बेहद सर्द इलाकों में एनएच22 पर बर्फ हटाने जाते थे. उस समय एक भाई 15 साल और एक 17 साल का था. उन्हें दो रुपए दिहाड़ी मिलती थी, वे शाम को कई बार मुंगफली और गुड़ लाते जिसे हम चाव से खाते. उस समय बिजली नहीं थी. बिजली हमारे गांव में 1972 में आई. सब भाई एक ही बिस्तर में सोते. मैं मां के साथ सोता, मुझे रात में पेशाब करने की आदत थी, जिस कारण सर्दियों में मां बिस्‍तर गीला होने के बावजूद मुझे कुछ नहीं कहतीं, सुबह बिस्तर सुखाए जाते. 


मेरी बड़ी बहन मुझे पीठ पर उठाकर दो मील दूर सबसे बड़े भाई को दोपहर में रोटी देने जाते. वे वहां नई सड़क के काम पर होते. एक बार रास्ते में ही थे कि जबरदस्त ओले पड़ने लगे. बहन ने मुझे पीठ से उतारा और अपने शरीर की ओट में लेकर बचाया. इस दौरान उसे कई ओले कानों और सिर पर जोर से लगे. हम दोनों भाई बहनों का काम पड़ोसियों से कभी छाछ कभी आलू कभी आटा या और कोई चीज मांगना या उधार मांगना था जो हमें बुरा लगता था, लेकिन और कोई चारा भी नहीं था. गांव के लाला से उधार सामान लाने भी हम ही जाते. कई बार झिड़के भी जाते. 

कंचे मेरा प्रिय खेल था क्रिकेट भी. गांव का एक सूखा तालाब हमें शाम तक धूल से धूसरित कर देता था.
जिन दिनों पिता के साथ ठियोग में रहते थे हमारे पास एक कुत्ता था जिसका नाम जीपू था; पिता के मरने के दूसरे दिन ही हम भेखलटी अपने गांव आ गए. ट्रक में सामान के साथ जीपू भी पीछे था. जब उसे उतारने लगे तो जीपू की एक टांग डाले में फंस कर टूट गई. बडे़ भाई और बहन कई दिन जीपू का ईलाज करते रहे. उस पर छांबर लगाते, उसे सेक देते लेकिन उसकी एक टांग हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई. उन बेहद दुख के दिनों में जीपू हमारे लिए मन बहलाने का साधन और परिवार का सदस्य जैसा था. कई साल तक वह रहा....जब मरा तो सभी बहुत रोए थे, खासकर मुझे उससे बड़ा लगाव था. 

हमारे लिए वह दिन बड़ा खुशियों से भरा था जब एक बार गांव से कुछ दूर सड़क से गुजर रहे फौजियों के एक ट्रक से एक तंबू गिर गया. वह तंबू मेरे भाईयों को मिला, जिसकी मां ने कई खिंदें बनाईं और उस साल ही नहीं, बाद के भी कई साल बर्फ के दिन आराम से गुजरे. 

हमारें मामा जी जालंधर में बस स्टैंड के पास रहते थे. कई कई सालों के बाद मां सर्दियों के दिनों में जालंधर जातीं तो छोटा होने के कारण मुझे साथ ले जातीं. जाने के लिए किराया भी मामा ही भेजा करते. बस का वह सफर बड़ा मजेदार रहता. हमें बड़ा भाई छोड़ने जाता तो वही होता जो सभी बच्चों के साथ होता है. बस चलने को होती और भाई बाहर. मैं चिल्ला कर बुलाने लगाता मां भी परेशान हो उठती और भाई के लौट आने पर उन्हें डांटती. दो महीने के बाद जब हम वापिस लौटते तो मामा नए पुराने कपड़े देते. वे कपड़े पहन कर स्कूल जाते तो अकड़ कर. लेकिन ऐसा कई सालों में कभी कभी ही होता. बाकि समय तो वहीं मलेशिया या खद्दर पहनने को मिलता. या गांव में माड़ू राम के हाथों के चमड़े के जूते जो पांव खा जाते थे और हम रो भी नहीं पाते. वैसे ज़ूते भी काफी समय के बाद ही मिले थे. 

घर का खर्च मुश्किल से चलता लेकिन मजा बहुत आता. बड़े भाई और हम तीन भाईयों के बीच आयु में काफी अन्तर था. एक भाई बाहर ही रहता था. दो बहनों का विवाह मेरे जन्म से पहले ही हो गया था और एक बहन हमारे साथ रहती. हम सब बड़े भैया से डरते थे. वे पिता का स्थान ले चुके थे. उन्हीं से सारी मांगे, शिकायतें होतीं, उन्हीं से दिवाली, होली, लोहड़ी, शिवरात्रि‍ सभी त्यौहारों पर उम्मीदें रहतीं. ठियोग का सबसें बड़ा त्योहार 15 अगस्त का मेला था जिसे देखने ब्‍याही हुई बहनें भी आ जातीं. उनके साथ उनके पति और बच्चे भी आते. हम उन दिनों में मेहमानों से छिपते रहते। न अच्छे कपड़े होते न ढंग से बाल कटे होते. और भी कमियां महसूस होतीं जिस कारण संकोच रहता. उन दिनों में हम सब और एकजुट हो जाते, घर की सफाई, अच्छा खाना बनाना आदि सब कुछ मिलकर करते. मां का साथ देने को आतुर रहते. 

जब मैं तीसरी कक्षा में था तो भाई एक पुराना रेडियो किश्‍तों पर खरीदकर लाए, उस समय भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध चल रहा था और बाद में हम पाकिस्तान के बन्दी फौजियों के संदेश अपने परिजनों के नाम ऑलइंडिया रेडियों से सुनते थे. विविध भारती में अमीन सायनी का कार्यक्रम बड़े भाई सुनते. बर्फ के दिनों में क्रिकेट की कमेंटरी भी खूब सुनी जाती. पूरे गांव में एक ही रेडियो था, तो कई बार पडौ़सी मांग कर ले जाते. हम पड़ौसियों से खूब लड़ते. कई बार हमारी पिटाई भी हो जाती. बड़े भैया के घर आने पर रेडियो को कोई छू नहीं सकता था और हम उनके सोने के बाद ही चुपचाप रेडियो सुनते.

स्कूल में भी हमारी हालत ऐसी थी कि अध्यापक हम पर रहम करते. हांलाकि पढ़ने में मैं होशियार था और पहली से ही प्रथम आता रहा. इसका कारण क्या था मैं नहीं जानता क्योंकि हमारी कक्षा का सबसे अमीर सहपाठी फिर भी मुझसे अधिक अकड़ा हुआ और अध्यापकों का प्रिय रहता था..... 

सोच रहा हूं कि लिखता गया तो लिखता ही चला जाउंगा. आज चार दिनों बाद बिजली आई तो आधी रात के बाद ही लिखने बैठ गया... 

बाकी कभी बाद में लिखूंगा... स्कूल के बाद का बचपन दिल्ली के फुटपाथों पर कैसे बीता...

10 comments:

  1. पढ़ते समय सब चलचित्र सा चलता हुआ लग रहा है...प्रतीक्षा रहेगी..

    ReplyDelete
  2. मार्मिक !
    तुम आधी रात को आधी रात ही लिखना दोस्त !!

    ReplyDelete
  3. पहाड़ का यथार्थ लिख दिया -लगा ये सब हमारे बारे में लिखा जा रहा था- लेखक का जन्म हम से एक मास पहले हुआ लगता है-इसी लिए तत्कालीन पारिस्थितियों में अद्भुत सॅम्या अनुभव हुआ और संभवता साधारणीकरण भी-यथार्थमय अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद .

    ReplyDelete
  4. दिल को छू जाने वाले सच्चे दृश्य एक के बाद एक..मलेशिये और खद्दर के कपड़े और माड़ू राम के बनाये चमड़े के जूतों को पढ़ कर मुझे भी बचपन की यादें ताज़ा हो उठीं. मैंने आपकी यादों के सफर को अक्षरस: जी लिया और आंखों के कोने डलडल भर आये...बहुत अच्छे.

    ReplyDelete
  5. बातें भूल जाती हैं, यादें याद आती हैं......बेहद मार्मिक।

    ReplyDelete
  6. दो बार सबका आभर व्यक्त करने के लिए टाइप किया लेकिन ...हो नहीं रहा ..

    ReplyDelete
    Replies
    1. आखिर हो तो गया, इस रूप में ही सही.

      Delete
  7. हाँ अब सफल हुआ ..मैं कहना चाहता था कि अनूप जी के आग्रह ने जीवन के ५०वे साल में मुझसे मेरे बचपन के वे दिन सबके साथ साझा करवा दिए जो एक बोझ की तरह मन पैर चढ़े बैठे थे ...आपने जो टिप्पणियाँ की हैं उनसे बाकि की बातें जो याद् हैं उन्हें लिखने भी का सहस आया है ...जल्दी ही समय मिलने पर लिखूंगा ....अनूप जी मुझे सदा ही प्रेरित करते हैं ...इनका आभारी हं ........मोहन साहिल शाली बाजार ठियोग ..शिमला ..

    ReplyDelete