Thursday, February 28, 2013

क्या था, आशीष का आशय



पिछले दिनों जयपुर लिटरेचर फेस्टिबल में आशीष नंदी के एक बयान से शुरू हुआ विवाद मीडिया में दूध में बाल की तरह उफना जिससे जरा सी तपन हुई और दुनिया उसी रफतार से चलती रही. इस तरह की घटनाओं का घटित होना हमारे समय में हो रहे आमूल परिवर्तनों के लक्षणों के उभर आने के जैसा है, जिससे आपको मर्ज को पहचानने में मदद मिल सकती है. इस प्रसंग में कथाकार, चित्रकार, प्रसारणकार प्रभु जोशी ने नई दुनिया में दो टिप्‍पणियां  लिखी हैं, जिन्‍हें हम बारी बारी से यहां पढ़ेंगे. पहली टिप्‍पणी आप पढ़ चुके, यह रही दूसरी टिप्‍पणी.   



आशीष नन्दी प्रकरण ने उन तमाम गंभीर विमर्शों के लिये यह चेतावनी दे दी है कि नकली रौशनियों से चमचमाते मंचों पर, कोई जटिल-सिद्धांतिकी रखना अपनी सार्वजनिक छीछालेदर का पुख्ता इंतजाम कर लेना है। हां मालवी के मुहावरे में कहा जाये तो 'बाप बता, वर्ना श्राद्ध कर' की शर्त है। क्योंकि, आशीष नन्दी से देश भर के लोगों की तरफ से विवाद लोलुप मीडिया ने पूछना शुरु कर दिया कि आपके पास आंकड़े कहां से आये? दरअसल, वित्त बुद्धि के समय में अब सब कुछ आंकड़े ही आंकड़े हैं। जबकि, आशीष नंदी को जो पिछले चालीस वर्षों से पढ़ते आ रहे हैं, वे जानते हैं कि उनके यहां आकड़ों का प्रश्न ही नहीं है। उन्होंने सामाजिक संरचना में दलितों के भ्रष्टाचार-विवेचन में जो सिद्धांतिकी रखी, उसमें भ्रष्टाचार की उस 'वर्ग-सापेक्षता' की बात है, जो पूंजीवादी अमानवीय गैर-बराबरी के बीच एक संभावना की तरह अपनी उपस्थिति प्रमाणित कर रहा है। इसलिए, जब अण्णा का 'भ्रष्टाचार-मुक्त भारत' का आंदोलन खड़ा हुआ था तो आशीष इसे असंभव मान रहे थे और कह रहे थे कि भारत की एकाधिकारवादी अर्थव्यवस्था में, इसकी कल्पना ही असंभव है। फिर भारत, वर्ग-समाज की भिन्नताओं से भरा, एक महाद्वीप है, सिंगापुर जैसा छोटा-सा देश नहीं है, जिसमें भ्रष्टाचार लगभग शून्य है।

हम राजनीतिक-परिदृश्य को देखें कि वर्ग-संघर्ष के सहारे 'समतावादी-समाज' की रचना का संकल्प व्यक्त करने वाली पार्टियां, अपनी ऐतिहासिक असफलता के बाद, 'आशा के स्रोत' के रूप में समाप्त हैं। वे पैंसठ वर्षों में कहीं भी 'वर्ग  समाज' को समाप्त नहीं कर पायीं। दरअसल, उनकी असफलता ने ही 'वर्ग' को एक ओर रखकर, 'वर्ण' को प्राथमिक बनाया। और कुछेक वर्षों में ही जातिवादी राजनीति विराट हो गयी। कहने की जरूरत नहीं कि यह यदुवंशियों से नहीं, कांशीराम और मायावती से संभव हुआ। इन दलों के पास पृष्ठभूमि के रूप में चुनावी राजनीति के लिए कोई पूंजी नहीं थी। ना ही कोई उद्योग। प्रश्न यह भी उठता है कि जातिगत रोजगारों को नेहरू की भारी उद्योग नीति ने नेस्तनाबूद कर दिया था। बहरहाल, संगठित होने के लिए पूंजी कहां से आती? किस उद्योग से आती? जबकि आप-हम जानते हैं कि भारतीय चुनावों में औद्योगिक-पूंजी ही निर्णायक भूमिका अदा करती है। ऐसे में दलित-वर्ग के लिए 'पूंजी' के रूप में उसकी 'जाति' की शक्ति ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी। उसके लिए 'राजनीति' ही 'औद्योगिक शक्ति' का रूपक बन गयी। आप देख लें कि जितने भी बड़े औद्योगिक संस्थान हैं, उनमें उस परिवार का सदस्य या रक्त-संबंधी ही बड़े ओहदे पर आया, क्योंकि वही भरोसेदार है। जब जातिवादी-राजनीति का उदय हुआ और उसने 'पूंजी जीवी औद्योगिक' शक्ति से लोहा लेना शुरु किया तो उसके राजनीतिक-उद्योग में सबसे भरोसेदार व्यक्ति 'जाति का ही व्यक्ति' हुआ। कुलीन तन की शुद्धतावादी दृष्टि ने इसकी भर्त्सनाएं शुरु की

आशीष नन्दी ठीक कहते हैं कि 'खेल या मनोरंजन' के क्षेत्र में प्रतिभा की सफलता की कसौटी उसकी शारीरिक पर्फार्मेन्स में होती है - अत: यहां ग़ैर-बराबरी मिटने लगती है, लेकिन, ज्यों ही 'सामाजिक-हैसियत' का प्रश्न आता है, तुरन्त 'वर्ग और जातिभेद' अपनी जगह संभाल लेता है। अब प्रश्न यह उठता है कि एकाधिकारवादी इस पूंजी आश्रित सामाजिक व्यवस्था में, पूंजी कहां से आये, जो 'जातियों' को कुलीनों के बराबर की सामाजिक हैसित में ला सके। क्या अम्बानी और मायावती एक साथ बैठ सकते थे, यदि 'सत्ता की हैसियत' उसमें नहीं होती। निश्चय ही मायावती ने 'जातिवादी राजनीति' को औद्योगिक हैसियत तक पहँचा दिया। कहना न होगा कि 'राजनीति और वित्तीय पूंजी' की यह पारस्परिक भागीदारी थी, जिसके चलते मायावती, लालू प्रसाद यादव, मधु कौड़ा भ्रष्टाचार के प्रकट पुरोधा की तरह चिन्हित हो गए। आशीष नन्दी, इसलिए जातियों द्वारा किये जा रहे भ्रष्टाचार को ग़ैर बराबरी की अमिटता के विरुद्ध एकमात्र संभावना मानते हैं। क्योंकि कुलीन का 'शुद्धतावाद' 'आचरणवाद' 'नैतिकतावाद', इस 'जाति-घृणा' का उन्मूलन करने में आने वाली कई शताब्दियां लेता। 'आरक्षण' एक क्षीण-सा मार्ग था, जिसे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की पूंजी ने वैसे ही निस्तेज कर दिया है। यदि, 'आत्म-संयम', 'आचरण की पवित्रता' 'आत्म शुद्धि' जैसे सामासिक-पद की दुहाई देने वाला कुलीन वर्ग आज तक भ्रष्ट-आचरण को तिलांजलि नहीं दे पाया। लेकिन, वह शोषित दलित वर्ग को इस उपकरण से अनुशासित करने की युक्ति करता है। 'राजू गरीब लेकिन ईमानदार लड़का था' जैस वाक्य-रचना में भी वह वर्ग-घृणा छुपी है, जो बताती है कि गरीब मूलत: बेईमान होते हैं, लेकिन पता नहीं कैसे राजू गरीब होने के बावजूद ईमानदार निकल गया। यह उसकी व्यक्तिगत भिन्नता थी।

कुल मिलाकर, 'ग्राम्शी से लेकर झिझेक' तक तमाम उत्तर-मार्क्सीय चिंतक इसी 'सिद्धांतिकी' को रेखांकित करते हैं कि 'शुद्धतावाद' संकटग्रस्त है और 'नैतिकी' विखण्डित। अत: इससे निपटारा संभव नहीं है। नतीजतन, समस्या में ही समाधान का प्रस्ताव किया जाना चाहिये। आशीष नंदी भी भ्रष्टाचार को 'अमानवीयता' विरुद्ध एक उपचार मानते हैं, जो कुलीन दृष्टि से भर्त्सना के योग्य है, जबकि वह अपनी परिष्कृत-प्रविधियों से उससे कहीं ज्यादा और बड़ा भ्रष्टाचार करता है, लेकिन वह अप्रकट रहता है।

आशीष नंदी ही नहीं, बल्कि तमाम उत्तर-औपनिवेशिक विचार के शब्दकारों की यही प्रस्तावना है कि अब सारे यूटोपिया, डिसटोपिया में बदल गए है और सारे 'इज्म', 'वाज्म' में। अब गोदो का इंतजार व्यर्थ है, क्योंकि, वह नहीं आयेगा। उसकी प्रतीक्षा की मूर्खता से बाहर आना चाहिये। 'शुद्धतावाद' की सीढ़ियां चढ़कर कभी भी वर्ग-विहीन समाज की रचना संभव नहीं हो पायेगी। इसलिए, अमानवीय होती, वर्ण-व्यवस्था में 'शुद्धतावाद' एक किस्म की यथास्थिति का पोषक है। वहां कोई 'वैध-विकल्प' कारगर नहीं है। जो वंचितों को शताब्दियों के दमन से विमुक्त कर सके। सिर्फ, भ्रष्टाचार पूंजी की छलांग लगाकर वर्चस्व की समानता पैदा कर सकता है। यह पॉवर-स्ट्रक्चर का एक अवश्यंभावी चरण है।
यहां, नोम चोमस्की का कथन याद आता है कि राजनीति अब एक 'निवेश' है। और जनतंत्र अब उसकी जेब में रहेगा, जिसकी जेब में सबसे ऊँची बोली लगाने की सामर्थ्य है। जातिवादी, राजनीति अब एक प्रकट-उद्यम है, इसलिए इसमें तमाम अन्तर्विरोध दिखायी देते हैं, जो उद्योग में होते हैं। अब यही कल्कि अवतार है, जिसका घोड़ा और उसकी दौड़ का यह नया उदाहरण है।













prabhu.joshi@gmail.com

5 comments:

  1. सन्दर्भ वश सुन्दर खुलासा (व्याख्या) है. अब असल आशय तो नन्दी जी खुद ही जान सकते हैं भले जो भी रहा हो , भारत यदि विविधताओं भरा देस है तो यहाँ के बौद्धिकों को यहाँ की जन बुद्धि का अन्दाज़ा होना चाहिए और तदानुसार पब्लिक प्लेसेज़ पर एम्बिगुअस ( जिस के गलत अर्थ निकाले जाने की सम्भवना बनती हो ) बयान बाज़ी से बचना चाहिए. आशय आयोजकों का भी खराब रहा हो सकता है . लोकप्रियता के लिए ये उत्सवधर्मी अयोजक कुछ भी कर गुज़रेंगे . अनियंत्रित पूँजी से संचालित इन मेगा आयोजनो के इस पक्ष की टोह लेना भी लाज़िमी है.

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  2. आप जो कहते हैं वो ज्ञान नही राजनीति की कसौटी पर तौला जाता है

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    1. आप को करेक्ट करना चाहूँगा -- आज कल राजनीति ही ज्ञान की कसौटी है. पॉलिटिकल समझ ही सही समझ है .

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  3. Nandy has a right to be wrong, and hounding him and slapping charges against him for alleged violation of the Schedule Castes and Scheduled Tribes (Prevention of Atrocities) Act amounts to rank misuse of the Act. India, of course, has a patchy record of defending free-speech absolutism, and increasingly even journalists have bizarrely taken to demanding limits on free speech provisions (as this report shows). Yet, it’s worth reiterating every time that the only appropriate response to an idea – even if it’s as horribly skewed as Nandy’s original proposition and his equally bizarre clarification – is to challenge it intellectually and disprove it.

    Yet, it’s easy to see how Nandy landed himself in this colossal mess. Much of his early academic writing was given over to making sense of India through the prism of two of its abiding passions: cricket and Bollywood. And in the straitjacketed world of academia, Nandy has always been something of an eccentric. For these reasons, his work was initially seen to be lacking in the gravitas that the left-liberal academic community cloaked itself in, and therefore he was denied full membership into their elite world – until overseas recognition gave him the badge of honour. Nandy burnished those credentials even further with his excessively shrill denunciation of the Indian right-wing movement, and in particular of Gujarat Chief Minister Narendra Modi in the context of the 2002 riots.

    Well, so long as you are only abusing the right-wing in India, you can get away with pretty much anything. It’s true of course that the Gujarat government too filed a case against him on the grounds that he was inciting hatred among communities, but nothing ever came of it. If anything, it only served to endear him even further to the liberal academic community.

    But with his most recent pronouncements, targeting Dalits, Scheduled Tribes and Other Backward Classes for his pop-sociological ruminations on corruption, Nandy has squandered all that hard-earned political and academic goodwill.

    Perhaps Nandy should stick to Modi-bashing. It’s a comfortable cocoon for an academician. And a good career move, too.

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  4. I think what's very clear is that populism is very frequently a mask for corruption - and there are a lot of low-caste populist politicians. They use that knee-jerk populist politics to hide their corrupt games.

    I think that Narendra Modi is an example of a low-caste politician who has an excellent track record in opposing corruption. This is a rare feat among any Indian politician, leave alone a low-caste politician. I think it's great that Modi stands as a shining example to us all.

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