Thursday, October 4, 2012

समकालीन कविता




जैसा कि आप जानते हैं, मुंबई से प्रकाशित पत्रि‍का चिंतनदिशा में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियों के जरिए समकालीन कविता पर बहस शुरू हुई थी. अगले अंकों में इन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह; राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी. ताजा अंक में विमल कुमार और नित्‍यानंद श्रीवास्‍तव की टिप्‍पणियां छपी हैंपहले पढ़िए विमल कुमार के विचार      

मुझे यह देखकर अत्यंत प्रसन्नता हुई की 'चिंतन दिशा' में समकालीन कविता के संकट को लेकर एक बहस चल रही है। विजयकुमार, विजेंद्र और विजय बहादुर सिंह की टिप्पणियों को लेकर यह बहस कुछ तीखी और कुछ निजी किस्म की भी हो गयी है और एक ध्रुवीकरण भी दिखाई देने लगा है। हिन्दी में अक्सर बहसें दो शिविरों में बंट जाती है। हम यह मानकर चलते हैं कि कविता या रचना का सच श्वेत-श्याम होता है, वह या तो इस पाले में होता है या उस पाले में। इस दृष्टि का नुकसान यह होता है कि रचना का 'सत्य' पकड़ में नहीं आता है। हालांकि मुझे विजयकुमार और विजेंद्र तथा विजय बहादुर सिंह की चिंताओं से सहमति है और कई बिंदुओं पर असहमतियां भी है। मेरे ख्याल से मूल प्रश्न है कि हम साहित्य में अच्छी और बुरी रचना की पहचान कैसे करें? असली और नकली किस्म की रचना की कसौटियां क्या हों? उत्कृष्ट और निकृष्ट रचना का पैमाना क्या हो? क्या पाठक वर्ग ही अंतिम कसौटी है या आलोचक वर्ग? हिन्दी साहित्य के इतिहास में यह भी देखा गया है कि किसी रचना के विशाल पाठक वर्ग हैं पर वह रचना साहित्य की कसौटियों पर खरी नहीं उतरीं। इसका एक उदाहरण 'मधुशाला' ही है। दूसरी तरफ यह भी देखा गया है कि किसी रचना के पाठक वर्ग कम हैं पर वह रचना उत्कृष्ट मानी गयी। मुक्तिबोध की कविताओं का वह पाठक वर्ग नहीं जो 'मधुशाला' या दिनकर की या मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं का है।

इसी तरह धर्मवीर भारती की कविताओं का पाठक वर्ग अज्ञेय की कविताओं के पाठक वर्ग से भिन्न है। या शमशेर का पाठक वर्ग वह नहीं है जो नागार्जुन का पाठक वर्ग है? प्रश्न यह है कि कोई कवि अपने समय के यथार्थ की जटिलता और संशलिष्टता का, अंतर्विरोध और विडंबनाओं का चित्रण कर पा रहा है या नहीं? क्या वह अपनी परंपरा में कही गयी भाषा और शैली में उसका चित्रण कर पा रहा है या वह कोई नयी भाषा, नयी शैली और नये शिल्प में प्रस्तुत कर पा रहा है। पर यह भी प्रश्न है कि नएपन से उसका आग्रह क्या है? क्या वह नयापन केवल शिल्पगत है या कथ्यगत?

विजयकुमार की इन चिंताओं को सही मानता हूं कि समकालीन हिन्दी कविता अपने समय के भयावह यथार्थ और उसकी क्रूरता को तीखे अंदाज़ में व्यक्त नहीं कर पा रही है, पर वह कवियों का जो रोल मॉडल पेश करते हैं, मुझे तो उन कवियों की कविताओं पर भी विजयकुमार की कसौटियां लागू होती प्रतीत होती है, लेकिन विजयकुमार को आठवें दशक में सब कुछ हरा-हरा दिखता है। वह मानते हैं कि हिन्दी कविता की असली समझ आठवें दशक के बाद की कविता को प्राप्त होती है। वह आठवें दशक में व्याप्त दो काव्य प्रवृत्तियों की तरफ इशारा नहीं करते। वह यह मानकर चलते हैं कि एक दशक या एक समय में एक ही काव्य प्रवृत्ति काम कर रही है, यही मुश्किल विजय बहादुर सिंह और विजेंद्र के साथ भी है। वह भी एक sweeping statement दे देते हैं और समकालीन कविता को नागार्जुन, त्रिलोचन के मॉडल के आधार पर पूरी तरह खारिज कर देते हैं। हम उनकी इन चिंताओं में साझीदार है कि हिन्दी कविता में एक रुढ़ि बन गयी है पर काव्य रूढ़ियां तो हर दौर में बनीं चाहे वो छायावाद हो या प्रगतिवाद या नयी कविता - शायद यही कारण है कि हर दस-पंद्रह साल में हिन्दी कविता में कुछ कवि तोड़-फोड़ करते हैं पर यह भी अजीब विडंबना है कि वे ख़ुद अपनी काव्य रूढ़ियों के शिकार भी हो जाते हैं। कितने कवि ख़ुद को बदल पाते हैं, अतिक्रमण कर पाते हैं। क्या वे दुहराव के शिकार नहीं होते। दरअसल हिन्दी में हम रचना पर नहीं, बल्कि रचनाकार पर बात करते हैं। हम यह मान लेते हैं कि एक रचनाकार की सभी रचनाएं साहित्य की कसौटियों पर या पाठक की कसौटियों पर खरी होंगी ही। हम या तो नागार्जुन की पूर्ति बताते हैं या फिर रघुवीर सहाय की और उसे कभी अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध या शमशेर बनाम भारती या रघुवीर सहाय बनाम केदारनाथ सिंह बनाकर पेश करते हैं। यह माना जा सकता है कि हिन्दी कविता में तुलसी और कबीर के समय से ही या नाथों और सिद्धों के समय से दो काव्यधाराएं काम कर रही हैं पर तुलसी बनाम कबीर की बहस में हम एक को खारिज करते हैं और दूसरे को स्थापित करते हैं जबकि दोनों कवियों के पाठक वर्ग हैं और दोनों कवियों का योगदान है।

 लेकिन समकालीन कविता के संदर्भ में बात करते हुए हम अपने-अपने रोल मॉडलों को दूसरों पर थोपने की कोशिश करते हैं। रचना का विश्लेषण करने की बजाय रचनाकार व्यक्ति का विश्लेषण अधिक करते हैं और यह नहीं देखते कि कौन-सी रचना किस ऐतिहासिक दवाब की उपज है। क्या सातवें-आठवें दशक के ऐतिहासिक दवाब वही हैं जो नवें दशक के कवियों पर काम कर रहे हैं? सोवियत संघ के पतन के पहले या बाद में, भूमंडलीकरण तथा बाज़ारवाद के पहले या बाद में हिन्दी कविता का वही स्वरूप है या सकंट वही है जो पूर्ववर्ती कवियों के यहां दिखाई देता है। लेकिन विजयकुमार, विजेंद्र और विजय बहादुर सिंह का हमला कवियों पर अधिक है, काव्य प्रवृत्तियों और समय तथा इतिहास पर कम है। लगता है, ये लोग अपने personal agenda और निजी खुंदकों तथा पूर्वाग्रहों को समकालीन कविता पर अधिक लागू कर रहे हैं। यह सच है कि हिन्दी कविता इस समय संकट में है पर यह संकट केवल कविता के साथ नहीं, बल्कि पूरी भारतीय राजनीति और समाज में व्याप्त है। यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विचारधारात्मक संकट का भी reflection है। लेकिन यह भी सच है कि हिन्दी कविता को अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करना चाहिए. लेकिन यह काम आलोचकों और संपादकों का भी है कि वे अच्छी और बुरी रचना का फ़र्क करें। हिन्दी में बहुत खराब कविताएं और कहानियां भी प्रकाशित होती रहती हैं और उनकी पीठ थपथपायी जाती है। इससे नुकसान यह हुआ है कि अच्छी रचना कई बार अलक्षित रह जाती है। 'चिंतन दिशा' अगर पिछले तीस साल की अच्छी कविताओं पर बातचीत करे तो यह बेहतर होगा, इससे कुछ धुंध छंट जाएगा। हिन्दी कविता के श्रेष्ठ संचयन निकलें और संपादक यह बताएं कि अमुक रचना क्यों महत्वपूर्ण है, लेकिन सार्थक और ठोस काम न होने की बजाय हवा में तलवारबाज़ी अधिक चलती है।

लेकिन समकालीन हिन्दी कविता को इस संकट में ले आने के लिए केवल कविगण ही जिम्मेदार नहीं हैं। उनकी पहली और प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है पर ज़रूरी है कि एक ही दशक में सक्रिय दो काव्य-प्रवृत्तियों की पड़ताल की जाए, न कि कुछ कवियों के नाम गिना दिए जाएं। बेहतर हो रचनाओं के नाम गिनाए जाएं. एक बात यह भी जोड़ना चाहूंगा कि समकालीन कविता 'विलक्षणतावादी' की भी शिकार है। कविता में कवि की ईमानदारी दिखनी चाहिए, केवल काव्य-कौशल अर्जित करने से अच्छी कविता नहीं लिखी जाती। इस समय दुर्भाग्य से काव्य-कौशल पर अधिक ज़ोर दिया जाता है। कविता में संवेदना तत्व पर ध्यान कम केंद्रित है। कविता केवल विचारधारा से नहीं लिखी जाती, वह हृदय की पीड़ा और अनुभव की तिक्तता से लिखी जाती है। हिन्दी कविता का मर्म कहां खोता जा रहा है यह एक गंभीर प्रश्न है? क्या हम सब को नयी भाषा और शिल्प में बात कहनी होगी या प्रचलित शिल्प और रोज़मर्रा की भाषा में नयी बात पैदा करनी होगी। यह जिम्मेदारी सामूहिक जिम्मेदारी है। उसे कवि, संपादक, आलोचक और प्रकाशक सभी उठाएं। समकालीन कविता की इस जड़ता को तोड़ा जाना बहुत ज़रूरी है। मेरे ख्याल से विजयकुमार, विजेंद्र और विजय बहादुर सिंह की मूल चिंता एक ही है, फ़र्क केवल अपनी-अपनी दृष्टियों और सीमाओं का है, आरोप-प्रत्यारोप अधिक है। संवाद कम है।











09968400416

5 comments:

  1. वही उद्बोधन स्टाइल...जिसमें समकालीन कविता पर मोटे पूर्वाग्रहों और सुनी-सुनाई बातों के सहारे बात की जाती है. कहीं किसी कवि/कविता का ज़िक्र नहीं, किसी प्रवृति पर सोदाहरण कोई बात नहीं. ये बहसें टाइम पास क्यूं बन जाती हैं?

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  2. भाई अनूप जी, पहले का तो पढ़ नहीं पाया हूँ। पर विमल जी का देखा। विकल जी ने कुछ अच्छी बातें कही हैं। अशोक की टिप्पणी भी गौरतलब है। पर असल खतरा तो कवि और कविताओं को चुनने का है। विजय कुमार जैसे साफ-साफ कहते हैं कि मुक्तिबोध की कविता और मधुशाला एक जैसी महत्व की कविता नहीं है। ऐसे ही साफ-साफ कौन कहेगा कि दिल्ली के प्रमोटरों ने अमुक-अमुक कवि और अमुक-अमुक कविता को प्रमोट करने में कमीशन खाया है। कोई संपादक दिल्ली में बैठा होगा तो इतने अहंकार में होगा कि बाहर के सारे कवि दौडकर उसके दरबार में मत्था टेकने क्यों नहीं आते हैं। कविताएँ तो मोटी-मोटी पत्रिकाओं में या साहित्यवार्षिकियों में उसी की छपेंगी जो संपादक को प्रिय होगा। किसी भ्रष्ट संपादक के लिए कविता का अच्छी होना क्यों जरूरी नहीं है ?यह अलग बात है कि इन साहित्यवार्षिकियों में अधिकांश औसत या उससे भी कम होता है। फिर वही सवाल की अच्छी कविता की पहचान करेगा कौन ? संपादक की कुर्सी पर बैठे कवि ने ही कौन -सा तीर मार रखा है कविता में ? कविताओं का चयन निकालने वाले भी कम भ्रष्ट नहीं होते है। ये सब दिक्कतें हैं। पर सब दिक्कतों का बाप साहित्य का भ्रष्टाचार है। खासकर साहित्यिक पत्रकारिता और आलोचना का महाभ्रष्टाचार। संकट तो यह भी है कि जिन युवाओं को इस भ्रष्टाचार के विरोध में होना चाहिए वे भी अनेक प्रलोभनों और आकर्षण में फंस जाते है। पर आज नहीं तो कल... मजबूत इरादों वाले युवा ही साहित्य के राक्षसों को उनके अंजाम तक पहुँचाएँगे।

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  3. बेहतर और सतही कविता की प्रवृत्तियों की ओर इशारा ठीक है । पर बात वहीं ठहर जाती है जब लेखक समकालीन कविता के उदाहरण या नाम लेने से बचता है । यह जोखिम उठाए बिना बात आगे नहीं बढ़ेगी ।

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  4. पिछले आलेखों पर अच्छी प्रतिक्रिया है .पर समकालीन क्या है, यह तो स्पष्ट हो. बेहतर और सतही कविता हर युग मे रही है. आज भी है . आज उस के सतही होने के अनेक कारणों मे एक यह भी है कि उस पर बाज़ार हावी है . और दूसरा उतना ही बड़ा कारण यह है कि उस पर विचार हावी है . ऐसा हम साफ साफ क्यों नही कह सकते ?
    और साथ मे यह भी साफ कयों नहीं कह देते कि हर तरह की कविता के टार्गेट ग्रूप (पाठक) अलग होते हैं. बेहतर कविता की कसौटी लोकप्रियता नहीं हो सकती.क्यों कि बेहतर कविता आमफहम नही हो सकती.आमफहमी को ध्वस्त करती कविता बेहतर कविता होती है. ऐसी कविताएं आ रही हैं लेकिन पाठक को हज़म नही हो रही. (पाठक माने, आलोचक भी) . क्यों न इसे प्रक्रिया के रूप मे देखा जाय ? बजाय आज की कविता से बहुत ऊँची अपेक्षाएं करने के क्यों न इस की डायलेक्टिक्स और डायनामिज़्म पर गौर करें ? शायद हम आज की कविता पर इसी अपच वजह से बात करने से बच रहे है और भाग कर तीसरे चौथे पाँचवे छटे ......दशक की कविता पर टिक जाते हैं "समकालीनता" ढूँढने. क्यों कि वहाँ बहुत सुविधा है. उन पर पहले ही बहुत कहा जा चुका है . जुगाली करना आसान है .
    या फिर आज की कविता पर बात न करने के इतर कारण भी हो सकते हैं ..... जो कि ज़ाहिर तौर पर ज़्यादा वाहियात होंगे. :(

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  5. विचार और बाजार दोनों तो होंगे ही। खुले या बंद। भाषा को लेकर एक गलतफहमी के चलते कि पढ़े-लिखे हिन्‍दी नहीं पढ़ते हैं। हिंदी समाचारपत्रों का कबाड़ा कर दिया गया। दूसरी गलतफहमी बेहतर साहित्‍य आमफहम नही हो सकता के चलते डाक्‍टरों और इंजीनियरों के जरनल की तरह साहित्‍य की पत्रिकाएं प्रकाशित की जाती हैं। जिस तरह डाक्‍टरों के जरनल में मानव शरीर और उसको होने वाली बीमारियों और उनके ईलाज की नई-पुरानी तकनीक पर तकनीकी शब्‍दावली में बात की जाती है। जो डाक्‍टरों के ही पल्‍ले पड़ती है। उसी तरह इन पत्रिकाओं में साहित्‍य के डाक्‍टर बात करते हैं। मेरा मानना है साहित्‍य आम पाठक को ही संबोधित होना चाहिए और लिखने वाले का प्रयास उन तक पहुंचने का होना चाहिए।

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