Friday, September 14, 2012

देवनागरी लिपि का सौंदर्य और तकनीक




  
हिंदी दिवस पर हिंदी की सेवा में प्रस्‍तुत   



लिपि का विकास शायद आद्य बिंबों की तरह हुआ है। अक्षर,वर्ण,व्यंजन आदि के रूप सैकड़ों हजारों वर्षों की यात्रा करके स्थिर हुए हैं। अक्षरों के रूपाकार या रेखाओं के पैटर्न में प्रकृति और प्राणिजगत प्रतिबिंबित होता है। भौगोलिक यात्राओं का असर भी इन पर पड़ा लगता है। लिपियों ने दिक् और काल दोनों में लंबी यात्राएं की हैं।

हिन्दी वर्णमाला के अक्षरों को अगर ध्यान से देखा जाए तो इनका सौंदर्य खुलने लगता है। अक्षर रेखाओं से बनते हैं। रेखाओं के पैटर्न, रेखाओं की गति, अक्षरों में सौंदर्य पैदा करती है। इस गति से एक तरह की प्रवहमानता और ऊर्जा भी नि:सृत होती है। ध्यान से देखें तो हमारे अक्षरों में सभी दिशाओं में जानेवाली रेखाएं हैं। लगभग प्रत्येक वर्ण में एक खड़ी रेखा है; जिस के सहारे वर्ण खड़ा है। और वर्णों में यह सीधी रेखा मध्य में है। अक्षर को बनानेवाली बाकी रेखाएं गोलाकार और घुमावदार हैं। ,,,,,ध व ब ल में तो लगभग पूरे पूरे बंकिम चक्र हैं। , , , , , आदि में अर्ध गोलाकार रेखाएं, या चापें हैं। उनमें भी और में घूंगर बनता है। अक्षरों की ये गोलाकार, अर्धगोलाकार रेखाएं सीधी रेखाओं के कारण तमिल, तेलुगु, कन्नड़ आदि से अलग हैं। इन द्रविड़ भाषाओं में गोलाकारों की प्रधानता है। देवनागरी में आधे से ज्यादा अक्षरों में एक खड़ी रेखा है। इस कारण अक्षरों में एक तरह की स्थिरता आती है। यह जड़ता नहीं है, बल्कि दृढ़ता है। गोलाकार लिपि में लहरीलापन ज्यादा दिखता है। सीधी पाई के कारण आई दृढ़ता से मानो अक्षर में सौष्ठव आता है। उसे एक रीढ़ मिल जाती है। सीधी और गोल या अर्धगोलाकार रेखा के बाद बंकिमता तब आती है जब अक्षर जुड़ कर शब्द बनने लगते हैं और उनमें स्वरों के चिह्न लगते हैं। छोटी और बडी इ की मात्राएं ( ि ी ) बंदनवार की तरह अक्षर को ढकती हैं। दीर्घ () और आधे () की सूचक दराती  भी ध्वजा की तरह अक्षर पर लहराती है। () और () की मात्राओं का तिरछापन इ ( र् ) की गोलाई के विपरीत दिशा में रेखांकन को पूर्णता प्रदान करता है। इसी तरह अक्षरों के पैरों में भी (र) (रि) (उ) और (ऊ) के ध्वनि चिह्न दोनों दिशाओं में फैलते हैं। अनुस्वार और चंद्र बिंदु अक्षर के रेखांकन को जीवंतता प्रदान करते हैं। इसी तरह शब्द और अक्षर पर शिरोरेखा लिपि-चित्र को आधार प्रदान करती है। अब आप शब्द को कल्पना के भाव से देखें तो ऐसा चित्र बनेगा - शब्द लेखन में एक खड़ी रेखा (लंबवत) है। एक पड़ी रेखा (क्षैतिज) है। सीधी रेखा के अगल बगल गोलाकार, अर्धगोलाकार और घूंघरवाली रेखांओं के झुरमुट हैं। पड़ी रेखा के नीचे मानो रेखाओं का यह झुरमुट नृत्यरत रहता है और मात्राएं लताओं की तरह ऊपर चढ़ आती हैं या लहरों का उच्छवास मानो तट से उछल उछल पड़ता है। सीधी और पड़ी रेखा से एक एक फ्रेम, बनता चलता है। इस फ्रेम में बंकिम रेखाओं का कुंज गुंथा रहता है। यह फ्रेम एक पंक्ति, एक वाक्य,एक पदबंध या एक शब्द का बनता है। और बारीकी से देखें तो यह फ्रेम एक अक्षर का भी बनता है। रेखाओं की यह विविधता ही शायद लिपि को सर्वांग बनाती है। सर्वांग होने के कारण ही शायद यह सुंदर दिखती है। अक्षरों के ये रूप प्रकृति और प्राणिजगत के बहुत करीब हैं। जिन्होंने विष्णु चिंचालकर की अक्षरों पर खुलते अक्षर खिलते अंक पुस्तक देखी हो, वे सारा रहस्य समझ जाएंगे। इस पुस्तक में बच्चों को अक्षरों के बारे में चित्रों के माध्यम से समझाया गया है। विष्णु जी तो अपने आसपास की चीजों से चित्र ढूंढने वाले गुणी कलाकार हैं। प्रकृति के गुणग्राहक हैं। इसलिए अक्षरों में भी प्रकृति देख सके हैं। उन्हीं रेखाओं से जिनसे अक्षर बनता है, पेड़ या कोई प्राणी बन जाएगा। ऐसा लगेगा मानो आकार उस अक्षर में छिपा हुआ है।  

       


हमारे यहां लघु चित्रकला में खासतौर से जहां काव्य पर चित्र बने हैं, लिपि चित्रकला में घुली हुई मिल जाती है। इस लेखन में अक्षरों, शब्दों, वाक्यों के फ्रेम साफ साफ दिखते हैं। सुलेखन एक कला के रूप में दुनिया भर में प्रचलित रहा है। छापेखाने के आने से लिपि के रूपाकार में आमूलचूल परिवर्तन हुआ। बल्कि मशीनीकरण के कारण लिपि के सारे सौंदर्यबोध में ही परिवर्तन हुआ। अक्षरों का आकार प्रकार रूढ़ हो गया। लैटर टाइप प्रेस में अखबारें , पत्रिकाएं और पुस्तकें छपकर निकलने लगीं। अक्षरों का आकार, मोटाई, पन्नों पर कम्पोजिंग, सजावट एक समान हो गई। अखबारों के नाम और पुस्तकों के आवरण में कैलिग्राफी का प्रयोग होता रहा जिसके कारण विविधता और विशिष्ट पहचान बनती रही लेकिन शेष सामग्री में मशीनीकरण के प्रताप से गजब की समानता पैदा हुई। थोड़ा भेद अखबार, पुस्तक के आकार और कागज के प्रकार के कारण बना रहा लेकिन छपे हुए अक्षर कमोबेश इकसार बने। छपाई की नई तकनीकें आने तक यह एकरसता हिन्दी में विद्यमान रही। यह एकरसता दूसरी चीजों में भी रही है, वह भी बीसीयों बरसों तक। जैसे ट्रकों, बसों, कारों ,स्कूटरों ,साइकलों के मॉडल अर्से तक एक जैसे ही रहे। थोड़े बहुत हेरफेर के साथ एक ही ढर्रा बरसों तक चलता रहा। नेहरूवादी समाजवाद की तरह।

मारुति के आने के बाद नए जमाने के वाहन और मॉडल भारतीय समाज में घुसे। एशियाई खेलों के साथ रंगीन टेलिविजन आया। उसके कुछ वर्षों बाद नई आर्थिक नीति की हवा चली तो चीजों में आमूलचूल परिवर्तन दिखने लगे। खासतौर से शहरों में यह परिवर्तन कई प्रकार से दृष्टिगोचर होने लगा। वाहनों की तो बाढ़ ही आ गई। तुरत फ़ुरत हजम कर ली जाने वाली चीजों (जिन्हें एफएमसीजी कहा जाता है) की तो अपील ही बदल गई। वह इतनी आक्रामक और ग्राह्य हुईं कि मानो सारे मनुष्य समाज को वह अपना गुलाम बना के छोड़ेंगी। इसे चोली दामन जैसा साथ टेलिविजन का मिला। दोनों एक दूसरे पर सवार होकर उपभोक्ता को लील जाने को आतुर होते दिखने लगे।

लैटर टाइप छापेखाने के साथ साथ टाइपराइटर ने भी अक्षरों को अपने दायरे में बांधा है। टाइपराइटर की सीमाओं ने वर्णमाला के साथ भी छेड़छाड़ की है। जैसे हिन्दी के कुछ टाइपराइटरों में प्रश्नवाचक चिह्न ही नहीं है। प्रयोगशील लोग 9 की संख्या से प्रश्नवाचक चिह्न का काम लेते हैं। टाइपराइटर ने संयुक्ताक्षरों का भी बोरिया बिस्तर बांध दिया। वहां हलन्त का प्रयोग धड़ल्ले से होता था। जिस हिन्दी के शब्दों को शिरोरेखा से जोड़ा जाता है और शब्द सुकुमार सुंदर झालर की तरह डोलते रहते हैं, टाइपमशीन ने उन्हीं शब्दों पर भीतरघात की। शब्द अक्षरों से बनता है और अक्षर का क्षरण नहीं होता। लेकिन टाइप मशीन ने कई अक्षरों का ही विखंडन कर दिया। टाइप मशीन ने ख, क्ष,श,भ,स,ध,घ,ष,थ,ण,फ अक्षरों का क्षरण कर दिया। टाइप मशीन में एक कुंजी दबाने से आधे अक्षर टाइप होते हैं,ख् ,क्ष् , श्, भ् आदि। इसे पूरा करने के लिए अ की मात्रा लगानी पड़ती है। तभी यह पूर्णता प्राप्त कर पाता है। नई मशीन पर टाइप करने में तो ये जुड़े हुए दिखते हैं, लेकिन जैसे जैसे मशीन पुरानी पड़ती जाती है, मशीन की तरह अक्षरों के भी अंजर पंजर हिलते डुलते, लस्टम पस्टम पड़े हुए दिखते हैं। इन मशीनों ने के साथ बड़े (ऊ) की मात्रा का तो हरण ही कर लिया है। आप रूप को रुप के सिवा और कुछ नहीं लिख सकते। रुख को लाख चाहने पर भी रूख नहीं बना सकते। इसी तरह फ लिखने के लिए पर रु   वाली पूंछ लगानी पड़ती है। लेकिन मजबूरी है आप साफ साफ टंकित किया हुआ पढ़ना चाहते हैं तो ये समझौते करने ही पड़ेंगे। कोई चारा नहीं।

जुगाड़ करने में हमारे लोग माहिर हैं। वैसे भी जहां लोगों को पूरी वर्णमाला तक याद नहीं होती हो, वहां अक्षरों की इस मशीनी ठुकाई पर कोई क्यों चितिंत होने लगा। वर्णमाला के साथ यह खिलवाड़ शायद इसलिए भी हो गया क्योंकि टाइप मशीन का ढांचा कामोबेश अंग्रेजी वाला ही है। उसमें हिन्दी के हिसाब से कुंजियां नहीं लगाई जा सकतीं। आखिर यही हुआ कि साहब इसी में एडजेस्ट कर लो। अंग्रेजी के हिसाब से हिन्दी को तो आज तक एडजेस्ट करते ही आ रहे हैं। असल में भारतीयों को तो एडजेस्ट करने की आदत ही है। वे कहीं भी एडजेस्ट कर लेते हैं। दूसरे शहर में नए हैं और रहने को जगह नहीं है, कोई बात नहीं ,प्लेटफार्म पर ही रात काट लेंगे। शौक पूरा करना है, जेब इजाजत नहीं देती, तो क्या हुआ , नकली और घटिया माल से ही चैन कर लेंगे। और कुछ हो न हो, संतोष धन इफरात में है। इस संतोष ने लद्धड़ भी बनाया है, काम चोर भी और समझौतापरस्त भी। लेकिन जमाने की चाल देखिए, संतोष नाम का यह अस्त्र उपभोक्तावाद की काट सिद्ध हो सकता है। अगर विवेक से इस्तेमाल करना आ जाए तो संतोषास्‍त्र से उपभोक्तावाद की सिट्टी पिट्टी गुम हो सकती है।

यह तो मशीन में वर्णमाला को एडजेस्ट करना था, पिछले साठ सालों से पूरी की पूरी भाषा को अंग्रेजी के साथ एडजेस्ट किया जा रहा है। प्रशासन तंत्र का सारा काम अंग्रेजी में हो जाता है फिर शब्द शब्द हिन्दी में बिठाया जाता है। इस बिठाने में भाषा ऐसे ठस तरीके से बैठती है कि जड़ीभूत हुई रहती है। पढ़ने और समझने वाला अपने बाल नोचता रहता है। थुक्का-फजीहत उस फौज की होती है, जो धारासार अनुवाद करती चली जाती है और शब्दों में अर्थ ढूंढने के अहर्निश प्रयास करती रहती है।

हमारे यहां मध्यवर्ग इतना बड़ा नहीं था, जो निजी चिट्ठियां टाइप करके भेजने की फैनसूफियां करता। बाबू तबका दफ्तर के ही काम से उकताया रहता है। अपनी कलोलें इन साधनों से पूरी क्यों करने लगा। लेखक भी गरीब देश के बेचारे कलम घिस्सू ही रहे, सो पचास पैसे वाली कार्ड संस्कृति ही पुष्पित पल्लवित करते रहे। इक्का दुक्का ही लेखक हुए जो टाइपराइटर का प्रयोग करते थे। मोहन राकेश टाइपराइटर साथ ले के चलते थे। उनके नाटकों के ड्राफ्ट तक मशीन पर टंकित होते थे। नेमिचंद जैन के पत्र टाइप किए हुए आते थे। ज्ञानरंजन ने टाइपराइटर का भरपूर प्रयोग किया है, पहल के मनभावन अभिनव पत्र शीर्षों पर भी और पोस्ट कार्डों पर भी। एक बार उनके टाइप किए हुए पत्र के मिलने पर जब पूछा कि आप के पास तो ईमेल पता है फिर भी टाइप की हुई चिट्ठी? बोले मुझे टाइपराइटर का नॉस्टेल्जिया है। ऐसे लेखक हमारे यहां कम ही हुए। ज्यादातर तो कैसे भी, कहीं भी घसीट देने वाले ही हुए शायद।

इलैक्ट्रॉनिक टाइप के मशीन आने पर कागज पर मुद्रित होते अक्षरों के रूप लावण्य ने करवट लेनी शुरू की। इलैक्ट्रॉनिक टाइप मशीन शायद कम्प्यूटरीय परिघटना की पूर्वसूचना ही है। अक्षरों की बनावट में विविधता और लचीलापन इसके चलते आया। यह दौर बहुत देर नहीं चला। कम्प्यूटर का आगमन मुद्रण में हो गया और छपाई का रूप स्वरूप ही बदल गया। अखबारों,पत्रिकाओं और पुस्तकों की छपाई में युगान्तरकारी परिवर्तन आ गया। यह परिवर्तन केवल वर्णाक्षरों तक सीमित नहीं था। छपाई की सारी तकनीक ही आमूलचूल परिवर्तित हो गई। मुद्रण का नया सौंदर्यबोध बना। इलैक्‍ट्रॉनिक मीडिया और कम्प्यूटर मिलकर मुद्रण और प्रस्तुति को और अधिक बारीकियों के साथ, हर संभव डिटेल के साथ, असली से थोड़ा ज्यादा असली बना कर पेश करता है। चटखपन हो या धूसरपन,मसृणता हो या खुरदरापन, सपाटता हो या त्रिआयामी गहराई, धार हो या भोंथरापन, हर रूपाकार में थोड़ा अतिरिक्त जुड़ जाता है। या शायद कम्प्यूटर का नपा तुला बिल्कुल सही अनुपात अपना कमाल दिखाता है। थोड़े बहुत झोल के कारण जो प्राकृतिक सहजता लगती थी, वह कम्प्यूटरी परफैक्टनेस के कारण थोड़ा अतिरिक्त दिखता है।

प्रकाशकों, अखबारों और सरकारी दफ्तरों की जरूरतों को पूरा करने के लिए हिंदी और भारतीय भाषाओं के कई सॉफ्टवेअर पिछले कुछ सालों में बाजार में आए। कई छोटी छोटी कंपनियों ने भारतीय भाषाओं के प्रोग्राम तैयार किए। पूना में स्थित सरकारी कंपनी 'सीडैक' ने इस दिशा में बड़ा काम किया। उन्होंने प्रमुख भारतीय भाषाओं को एक तरह के आंतरिक सूत्र में बांध दिया। आप किसी भी भाषा में लिखिए और कंम्प्यूटर की मदद से लिपि बदल लीजिए। हमारे यहां बहुभाषी लोग हैं, हरेक पढ़ा लिखा व्यक्ति कुछेक भाषाएं लिख, पढ़, बोल लेता है। कुछ लोग किसी भाषा को बोल पाते हैं, लिख नहीं पाते। सीडैक के सॉफ्टवेयर की मदद से वे अपने बोल पाने को दूसरी भाषा की मदद से लिख यानी टाइप भी कर सकते हैं। इस तरह से लिखना बड़ा दिलचस्प है। मान लीजिए आप बांग्ला बोल लेते हैं लेकिन लिख नहीं पाते। हिंदी लिख पाते हैं तो बांग्ला हिंदी में टाइप करते जाए। इस टाइप किए हुए को बांग्ला फोंट में तब्दील कर दीजिए। यह तकनीक भाषा की ध्वन्यात्मकता पर आधारित है। भारतीय भाषाएं ध्वन्यात्मक हैं। इसीलिए लिप्यंतरण आसान है। अंग्रेजी के साथ यह मेल नहीं बैठता। हालांकि, अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं को टाइप करने का काम ध्वन्यात्मकता के माध्यम से ही लिया जा रहा है। जैसे आप कमल लिखना चाहते हैं तो रोमन में kamal टाइप करिए।

टाइप करने के लिए अब ज्यादातर सॉफ्टवेअरों में ध्वनि के आधार पर रोमन से टाइप करने वाले कुंजी पटल बन गए हैं। बरसों पहले बहस चलती थी कि हिंदी रोमन में कैसे लिखी जाए। अब यह बरस्ता इंटरनेट धड़ल्ले से लिखी जाने लगी है। अब तो अंग्रेजी यानी रोमन में टाइप करिए और संदेश देवनागरी या भारतीय भाषाओं में तैयार हो जाता है। उच्चारण की शुद्धता और लिपि की वैज्ञानिकता जैसे सैद्धांतिक सवाल और देवनागरी के पक्ष के तर्क बाजार के दबाव के सामने बौने हो गए हैं। यह हुआ इसलिए है क्योंकि जो कम्प्यूटर बाजार में मिलते हैं, उनका की बोर्ड अंग्रेजी की वर्णमाला का मानक क्वर्टी की बोर्ड है। कम्प्यूटर के इंटरफेस अंगेजी में हैं। कुछेक सॉफ्टवेअर कंपनियों ने हिन्दी के अपने की बोर्ड बनाए। वे ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुए। फिर टाइप मशीनों जैसे गोदरेज,रेमिंग्डन जैसे की बोर्ड लाए गए। अब सर्वाधिक प्रचलित की बोर्ड रोमन आधारित है जो फोनेटिक या एंग्लोनागरी आदि नामों से जाना जाता है। इससे यह पता चलता है कि हमारे यहां टाइपराइटर का इस्तेमाल लोकप्रिय नहीं रहा है। सरकारी क्लर्कों को छोड़कर कोई उस की बोर्ड का इस्तेमाल नहीं करता। जो लेखक टाइप करते भी थे, या हैं उनमें ज्यादातर कम्प्यूटर संजाल को जी का जंजाल ही मानते हैं। बाकी जो भारतीय भाषाओं और हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं, वे अंग्रेजी जानने वाले हैं। हिन्दी का प्रयोग इसीलिए करते हैं कि या तो अपनी भाषा का नॉस्टेल्जिया है या पुरानी पीढ़ी से सम्पर्क करना है या फिर अंग्रेजी में हाथ तंग है। हालांकि इंटरनेट का प्रयोग इधर छोटे शहरों में ज्यादा बढ़ा है और प्रयोग करने वाले अंग्रेजी दां नहीं हैं। क्या यह किसी भिन्न समय की आहट है।

कम्प्यूटर पर की बोर्ड बनाए जाने से जहां एक तरफ, यह खतरा पैदा होता दिखता है कि हिन्दी रोमन में टाइप होने लगेगी तो देवनागरी लिपि का क्या होगा? दूसरी तरफ, यह फायदा हुआ दिखता है कि जो कमियां टाइपराइटर में थीं वे यहां दूर हो गईं। टाइप मशीन में ,क्ष फ आदि जोड़ कर लिखने पड़ते थे, वे यहां जुड़े हुए दिखते हैं। टाइप मशीन में और स्वर तिरोहित ही हो गए थे। बहुत से लोग इनका अस्तित्व ही भूल चुके हैं। कम्प्यूटरी कुंजी पटल ने इनका पुनर्जन्म किया। इसी तरह टाइप मशीन में संयुक्ताक्षरों के लिए भी कोई स्थान नहीं था। लेकिन कम्प्यूटर ने उनका पुनर्मिलन करा दिया है, जैसे क्‍त अब फिर से वक्त लिखा जा सकता है। पद्म में का हलन्त ओझल हो गया और पद्म में आधा होने की वजह से की गोद में आ गया। उद्योग में भी द य के पास चला गया और उद्योग लिखा जाने लगा। द्वारा में जो भयंकर भूल टाइप मशीन में व्‍दारा लिख कर होती थी, वह सुधर गई। व्याकरण संबंधी शुद्वता का पालन करते हुए कम्यूटर ने सम्बद्-ध के आधे ध्‍ को पूरा स्थान दिलवा दिया, लेकिन पूरा होते हुए भी पहले की तरह के पैर में सिमट गया। सम्बद्ध में के चरणों में के बद्व हो जाने से इसके रूप में ज्यादा अंतर नहीं पड़ता, क्योंकि शायद हाथ से भी इसी तरह लिखने की आदत रही है (खास तौर से हमारी पीढ़ी को) और के गोलार्थ में के घूंघर बंदरिया की छाती से उसके बच्चे की तरह चिपके नजर आते हैं। यह बंधन मनभावन भी लगता है। लेकिन जब अद्भुत के में का अकार विहीन हिस्सा के पैर में जा खुभता है और की मूठ बाहर निकली रहती है ( द्भ ) तो लगता है मानो के पैर में कील गड़ गई हो। शायद के आधे हिस्से वाले रूपाकार के कारण ऐसा है। के पैर में जब आधा लगता है तब कील गड़ने का यह एहसास नहीं होता बल्कि जैसे द्रव्य के द्र को टिकने को एक सहारा मिल जाता है। व्याकरण सम्मत यह सम्मिलन बहुत लोगों को रास नहीं आया और नए सॉफ्टवेअरों में अक्षरों को आधा या हलन्त के साथ अलग रखे रहने का प्रावधान आना शुरू हो गया।

कम्यूटर में अक्षर यानी फॉन्ट का एक लाभ यह हुआ है कि अक्षरों की बनावट में अतीव विविधता आ गई है। इसमें कैलीग्राफी यानी सुलेखन जैसी शैलियां विकसित हो गई हैं। हमारी बाराखड़ी अचानक नए नए रूप धर कर और अधिक नयनाभिराम हो गई है। अक्षरांकन की यह छटा कल्पनाशील पत्र पत्रिकाओं, और टेलिविजन और विज्ञापनों में सहज ही दिख जाती है। साधारण पत्र पत्रिकाओं तक में इस वजह से एक नवलता नजर आती है। नए ढब की छपाई का असर लघु पत्रिकाओं पर भी पड़ा है। इसमें अब साज सज्जा की ओर भी ध्यान दिया जाने लगा है। पहले ठसाठस भरी हुई साम्रगी के कारण पत्रिकाओं को गुरु गंभीर माना जाता था। बल्कि गांभीर्य दिखाने के लिए वैसा होना जरूरी समझा जाता था। साजसज्जा को कलावादी विलासिता और शायद जनवाद विरोधी माना जाता था। लेकिन इधर इस रवैये में परिवर्तन आया लगता है। सादगी और सुरुचि को बनाए रखते हुए कलात्मकता के दर्शन होन लगे हैं।

मीडिया के प्रसार के चलते देवनागरी लिपि का प्रयोग इधर बढ़ा प्रतीत होता है। दो दशक पहले तक हिन्दी फिल्मों की कास्टिंग अंग्रेजी, हिन्दी और उर्दू में होती थी। धीरे धीरे उर्दू कम होती गई है। हिंदी पिछलग्गू की तरह ही बनी रही है। पिछले दशक में टेलिविजन चैनलों की बाढ़ आने पर भी रोमन का ही बोलबाला था। धीरे धीरे चैनल वालों को समझ में आया कि हिंदी के बिना काम नहीं चल सकता। बोली हुई हिंदी तो अहिंदी भाषी प्रदेशों में भी सम्प्रेषित हो जाती है लेकिन लिपि के मामले में मामला अटक जाता है। वहां रोमन का सहारा लिया जाता रहा है। लेकिन खुद को ज्यादा देसी दिखाने के फेर में देवनागरी लिपि का भी प्रयोग होने लगा। स्टार टी वी ने टेलिविजन के पर्दे पर और विज्ञापनों में देवनागरी का प्रयोग किया। 'कौन बनेगा करोड़पति' जगह जगह देवनागरी में लिखा गया। इधर धारावाहिकों और फिल्मों के नाम इतने लंबे भी होने लगे कि रोमन में कुछ का कुछ पढ़ा जाता। शायद इसलिए भी देवनागरी का सहारा लेना पड़ा। अभी हाल तक शेअर बाजार और मौसम की सूचियां अंग्रेजी में हुआ करती थीं। लेकिन अब वे देवनागरी में दिखने लगी हैं। हमारा समाज अचानक हिंदी यानी देवनागरी प्रवीण कैसे हो गया है? शायद मीडिया यह समझ गया कि रोमन को देखकर और हिंदी सुनकर यह समाज काम तो चला लेता था लेकिन देवनागरी दर्शक के लिए ज्यादा सुविधाजनक है। दर्शक को लुभाने के लिए मीडिया कुछ भी करेगा। मीडिया अपने संदेश को सुविधाजनक ही नहीं लोक लुभावन भी बनाता है। लिपि पर इसका यह असर हुआ कि लिपि कैलीग्राफी का रूप लेने लगी। टीवी पर देवनागरी के अक्षर जगरमगर के साथ कलाबाजियां दिखाने लगे हैं। होंर्डिगों पर पहले हिंदी सरकारी बोर्डों जैसी रूखे सूखे, टेढ़े-मेढ़े और गलत-सलत अक्षरों वाली होती थी। अचानक जैसे इसने चोला बदल लिया है। इधर होर्डिंग के रूप स्वरूप में भी परिवर्तन आया है। इलैक्‍ट्रॉनिक पट्टियों वाली सूचनाओं में रेलवे और एअर लाइनों ने एक समय में हिंदी का प्रसार किया है। नई किस्म के होर्डिंगों में विज्ञापन एक खास किस्म के कागज पर छाप कर होर्डिंग पर चिपकाया जाता है। यह प्रिंटिंग कम्प्यूटर के माध्यम से होती है। प्रौद्योगिकी का चमत्कार इसमें हैं। हालांकि इसमें भारतीय भाषाएं अभी ज्यादा तादाद में नहीं दिख रही हैं लेकिन परिवर्तन की आहट सुनाई पड़ती है।

लिपि के इस प्रौद्योगीकीय विस्तार में हिंदी सॉफ्टवेअर कंपनियों का योगदान है। अक्षरों की बनावट में वैविध्य आया है। मीडिया, बाजार और प्रौद्योगिकी मिलकर दबाव पैदा करते हैं। एक तरफ जहां भाषा के अस्तित्व मात्र पर खतरा मंडराता नजर आता है, वहीं लिपि का ऐसा मुक्तहस्त विस्तार चौंकाता है। आशा भी बंधने लगती है, शायद भाषा को लिपि के इस तरह के प्रयोग से संजीवनी मिल जाए।

एक बड़ी सरकारी कंपनी के अध्यक्ष ने सरकारी हिंदी के प्रयोग के बारे में एक बार एक पते की बात कही थी। उनके यहां एक पुस्तक केवल हिंदी में छापी गई। उसके पढ़े जाने को लेकर लोगों में संदेह था। अध्यक्ष ने जिद करके वितरण करवाया। तर्क यह था कि जिन लोगों को देवनागरी लिपि देखने की आदत नहीं है, उन पर भी इसका असर पड़ेगा। विकल्प उपलब्ध हो तो सुविधा से रोमन पढ़ लेंगे, देवनागरी छूट जाएगी। अगर सामने हो ही सिर्फ देवनागरी, तो लोग भले ही उसे पढ़ न पाएं लेकिन अक्षरों को निहारेंगे तो सही। हालांकि यह पता नहीं कि वे अक्षर मीडिया के चपल अक्षरों की तुलना में कितने ठस्स थे। उन्होंने सरकारी हिंदी के प्रसार के लिए मनोवैज्ञानिक तकनीक अपनाई थी। मीडिया ने अपनी जगर मगर के हिस्से के रूप में लिपि का प्रयोग दर्शक को बांधने के लिए किया है । लेकिन यह तो तय है कि विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा की लिपि इस नए दौर में नई सजधज के साथ व्यापक जन समाज तक जाने के लिए कमर कस रही है। उम्मीद है इस यात्रा में इसमें और निखार आएगा।

यह लेख कुछ साल पहले सुभाष गाताड़े की पत्रि‍का संधान में छपा था. 

Friday, September 7, 2012

कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ?



इधर हिंदी साहित्‍य जगत में बात-बात में बहसें क्‍या उठ खड़ी हो जा रही हैं, मानो पानी को उबाल कर गाढ़ा करने का खेल चल रहा हो. पत्रि‍काओं के चूल्‍हे पर जहां पतीलियों में पानी चढ़ाया जाता है, वहां इंटरनेट का पंखा आग को हवा देने की ड्यूटी संभाल लेता है. सब जानते हैं पानी गाढ़ा नही होता, अलबत्‍ता सूखने लगता है. और जो इस उबाल-कर्म के नजदीक जाता है, वह हाथ मुंह पर फफोले ले कर लौटता है. लेकिन दो अंक पहले कथादेश में दो कविताओं की व्‍याख्‍याओं का जो बीड़ा शलिनी माथुर ने उठाया, उससे लगा था कि इस पर आगे गंभीरता से चर्चा होगी. लेकिन जिस तरह शालिनी को साहित्‍य-बाहर का व्‍यक्ति और साहित्‍य की समझ न रखने वाला सिद्ध करने की कोशिशें की गई हैं, उससे हिंदी साहित्‍य कर्मियों की अलोकतां‍त्रि‍क मनःस्थिति और भय-भीरुता का ही परिचय मिलता है. इस बहस में हस्‍तक्षेप करते हुए कथाकार चित्रकार प्रभु जोशी ने कथादेश के ताजा अंक में विस्‍तृत टिप्‍पणी की है. इस टिप्‍पणी का अविकल पाठ यहां दिया जा रहा है. इससे हमें अपने समकालीन साहित्‍यकार और साहित्‍य की नब्‍ज पकड़ने में मदद मिलेगी.



‘कथादेश‘ के ताजा अंक को देखकर यह सुखद विस्मय हुआ कि मूलतः कहानी पर केन्द्रित एक पत्रिका ने अपने पृष्ठों पर कविता को लेकर, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, सर्वथा नये कोण से एक ऐसी बहस को जन्म दे दिया है, जिसे जरूरी तौर पर किसी कविता-केन्द्रित पत्रिका से बहुत पहले उठना चाहिए था। कदाचित् यह वहां इसलिए सम्भव नहीं हो सका, चूंकि एक लम्बे कालखण्ड से वहां से बहस विदा हो चुकी है। और अब बहस इस पर भी नहीं होती कि बहस क्यों नहीं हो रही है ? दरअस्ल, यह क्षम्य है क्योंकि उनकी किंचित् अपरिहार्य-सी विवशताएं हैं। मसलन, सम्प्रति वे एक दूसरे की कविता के ‘श्रेष्ठ’ और ‘श्रेष्ठतर’ बताने और सिद्ध करने की परिश्रम-साध्य तार्किक युक्तियों को आविष्कृत करने में लगे हुए हैं। नतीजतन उनके पास अवकाश का ही सबसे बड़ा अभाव है। वे यदा-कदा अपनी उन एक-सी जान पड़ने वाली पत्रिकाओं के पृष्ठों पर , परस्पर एक दूसरे से मिथ्या-असहमति प्रकट करते रहते हैं, जबकि अप्रत्यक्ष रूप से वे एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं। वस्तुतः वहां उन सब के बीच एक अप्रकट समन्वय है। एक ऐसा मतैक्य है, जिसके पार्श्व में हितों की अखण्ड सूत्रबद्धता है। वे मोलियर के पात्रों की तरह एक दूसरे को बधाइयां देते हुए बरामद किये जा सकते हैं।

बहरहाल कहना न होगा कि उनके बीच मूल-समस्या ‘महानता‘ के निर्धारण की है। सबके अपने-अपने महान् हैं, और गाहे-ब-गाहे जिनका प्रायोजित ‘महा-मस्तकाभिषेक’ चलता रहता है। सबके अपने-अपने कवि ’कुलश्रेष्ठ‘ हैं तथा यह चेतावनी जारी कर दी गई है कि उनके ‘रचे हुए‘ की ‘मौलिकता‘ और ‘महानता‘ के प्रति सभी प्रकार की आशंकाओं को पूर्णतः स्वाहा करने के बाद ही कोई उनकी कविता के निकट आये। संदिग्धों का प्रवेश निषिद्ध है। यह आकस्मिक नहीं कि, कविता के कुछेक ’कुलशील‘ तो ऐसे भी हैं, जो ऐसे अप्रत्याशित खतरे का पूर्वानुमान लगा कर अपने काव्य-कुटुम्ब के सदस्यों की कविता के विषय में होठों को ‘अद्भुत’ शब्द से ही खोलते हैं। और यदि उनके लिए इस शब्द को प्रतिबंधित कर दिया जाये तो वे हमेशा के लिए गूंगे ही हो जायें। वे ‘वाक् अनाथ‘ हो जायें।

यह अब कतई विस्मय की बात नहीं कि कविता के क्षेत्र में ‘प्रतिमान‘ शब्द को अब पूरी तरह लज्जास्पद बना दिया गया है। और ‘आलोचना-दृष्टि‘ के सन्दर्भ में विचारधारा की बात करने वालों को मुनादी के शिल्प में ताकीद कर दी गई है कि वे इस शब्द से एक किस्म की ‘हाइजेनिक-डिस्टेंस‘ बनाकर रखें। यह अवश्यम्भावी है, ताकि आप ‘समझ की असाध्य रूग्णता‘ के शिकार होने से बचे रह सकें।......कहना न होगा कि अब उस ‘काल‘ की तो कभी की अन्त्येष्टि हो चुकी है, जिसमें कभी कविता के नये पुराने ’प्रतिमानों’ की कागारौल मची रहती थी। अब ‘प्रतिमान‘ नहीं बस ‘पैराडाइम‘ हैं, जो साहित्य में पूर्व ‘प्रतिमानों’ की मरणासन्नता की सर्वज्ञात सूचना है। ‘पैराडाइम‘ सुविधाजनक प्रविधि से ‘दायें या ‘बायें’ शिफ्ट होता रहता है। हालांकि, एक ‘विचारधारा‘ के पराभव के पश्चात् बायीं तरफ शिफ्ट होने में किंचित् अड़चनें उठ आती हैं। अतः अब किसी भी कोण के शिफ्ट को अनिवार्यतः बायां ही मान लिये जाने का अभूतपूर्व और अघोषित प्रस्ताव है। और, अब वामांगियों को विषयवस्तु बनाकर तो जो कुछ भी रचा जायेगा, वह स्तुत्य ही होगा। चूंकि यह ’दबी हुई अस्मिताओं‘ का उदयकाल है। कुल मिलाकर निश्चय ही ‘घनमंथन’ की इस परिस्थिति की निर्मिति में वामालोचना की वयोवृद्धता ने भी काफी हद तक गौरतलब इमदाद की है। फिर नव-उदारवाद के आगमन के साथ ही उन्हें अनिश्चितकाल के लिये अवकाश पर भी भेज दिया गया है। उनकी ज्वाइनिंग की सम्भावना ही अत्यन्त क्षीण हो चली है।

बहरहाल, ‘कथादेश‘ के दो अंकों में कदाचित् साहित्य में पहली दफा ‘‘कविता और पोर्नोग्राफी’’ के अप्रत्यक्ष गठजोड़ पर हो रही इस तरह की जिरह को पढ़कर मुझे साठ के दशक की यूरो-अमेरिकी गर्ली-मेगजींस का स्मरण हो आया, जिनमें पोर्न-इंडस्ट्री की पूंजी लगी हुई थी। यह प्रिण्ट में पोर्न को पर्याप्त प्रविष्टि दिलाने का ही सुविचारित उपक्रम था, ताकि उसे एक यथेष्ट कानून-सम्मत हैसियत हासिल हो सके।

उन महिला पत्रिकाओं में उनके सम्पादकीय एकांश के कर्मचारी ही हर अंक में नित नये नामों से चिट्ठियां लिखा करते थे। पत्र-सम्पादक नामक स्तंभ में वे स्वयं ही स्त्रियां बनकर अपनी यौन-संबंधी समस्याओं के विषय में विस्तार से निर्भीक भाषा में लिखते थे कि उनके ‘स्तन‘ का आकार या कुचाग्रों का रंग ऐसा-वैसा होता जा रहा है। योनि-संकुचन में अप्रत्याशित शिथिलता बढ़ गयी है....भगोष्ठों की कोई शल्य-क्रिया सम्भव है...संसर्ग में आनन्द का चरमोत्कर्ष चला गया है.....‘बताइये मैं क्या करूं?‘ बाद में वे ही ऐसे प्रश्नों के सन्दर्भ में ’विज्ञान का मुखौटा’ लगाकर मिथ्या-गंभीरता के साथ उत्तर तैयार कर के छापते थे, जो उत्तरोत्तर, भाषा के ‘सेन्सुअस-इडियम‘ से अलंकृत किये जाने लगे कि जिसके चलते स्त्रियों से ज्यादा पुरुष पाठकों के ’यौनिक-आनंद‘ का पाठ-विस्तार होने लगा। रति रोगों की समस्या के समाधान के बहाने, धीरे-धीरे इन पत्रिकाओं में सेक्स को इतना ‘ट्रांसपेरेण्ट‘ बनाया जाने लगा कि हिन्दी के हमारे ‘खुला खेल फरूक्काबादी‘ वाले जुमले का सफल चरितार्थ होने लगा। अब युवतियां पुरुष मित्रों से अपने संसर्ग की इच्छा समस्या और सलाह को समूचे सांस्कृतिक संकोच को तोड़कर रखने लगी। और जब आर्गेज्म को लेकर समस्याएं रखी जाने लगीं तो थोड़े ही वक्त में वे पत्रिकाएं लगभग ‘सॉफ्ट पोर्न’ की रूप-सज्जा में आ गयीं और उन्होंने बिक्री के मार-तमाम अकल्पित कीर्तिमान बनाने शुरू कर दिये। युवतियों से कहीं ज्यादा वे युवकों की प्रिय पत्रिका बनने लगीं।....... बहरहाल, दुर्भाग्यवश प्रिण्ट में हमारे यहां स्त्री-यौनिकता का ऐसा सार्वदेशीय खुलापन हासिल करने में मार-तमाम कई अड़चने थीं, लेकिन भला हो कि भारत में एड्स का छींका सौभाग्यवश अमेरिका के ‘सेण्टर फॉर डिसीज कण्ट्रोल’ की कृपा से ऐसा टूटा कि हम बहुत जल्दी उन तमाम गर्ली-मेगजींस को पछाड़ने की हैसियत में आ गये। ‘नाको‘ के कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम ने इस उपलब्धि में आशाजनक अभिवृद्धि की। ये माध्यमिक शाला के बच्चों तक में ज्ञानार्जनार्थ वितरित किये गये। केले पर कण्डोम चढ़ा कर किये गये डिमांस्ट्रेशन ने किशोरवय के लिये नयी स्वाद निर्मिति की। बिल क्लिण्टन के भारत आगमन पर बैंगलोर में कण्डोम के विराट स्वागत द्वार बनाये गये। टेलिजेनिक पिता विज्ञापनों में अपने सुपुत्र को एड्स नामक महारोग से बचाने के लिये उसकी जीन्स की जेब में चुपचाप कण्डोम रखकर अपनी ‘विज्ञानवादी सांस्कृतिक भूमिका’ में आ गया। बदचलनी बदलकर उत्तर-आधुनिक जीवनशैली कहलाने लगी। मांए सैक्सी कहला कर दर्पवती होने लगीं। वस्त्र देह पर गनीमत होने लगे। फैशन ने भारतीय स्त्री की देह का नया लोकार्पण किया। प्रोढ़ाओं का यौनिक-निजता को ढांपते रहने वाला पल्ला उड़ा और युवतियों के लिये ’डॉगी-फक‘ की फैण्टसी फार्म करने वाली जीन्स की ‘बैक-फिटिंग’ आने लगी। फैशन-टेक्नोलाजी ने युवतियों की जीन्स की सिलाई और आर्गेज्म में अन्तर-सम्बन्ध आविष्कृत किया। यह पोर्न इंडस्ट्री के भारत में प्रवेश पूर्व ‘संकीर्ण-सांस्कृतिक-पुलिया’ की प्रशस्तीकरण-प्रक्रिया थी। क्योंकि, जितनी विदेशी पूंजी के लिए हमने अपनी अर्थ-व्यवस्था के दरवाजे खोले, उससे कई गुना राजस्व चीन अमेरिका से सेक्सटॉयज के व्यापार से अर्जित कर लेता है। एक हम हैं कि इस क्षेत्र में ठिठके और ठहरे हुए हैं। फिर हमारे यहां सेक्स-वर्जनाओं की बहुत सारी बाधाएं हैं। वे स्पीड ब्रेकर्स हैं। यदि इसे एक गतिमान समाज बनाना है तो उनकी ‘सिद्धान्तिकी‘ बताती है कि ‘सामाजिक आघात‘ ही ‘सामाजिक विकास’ है। भारत को इस दिशा में शीघ्र ही कार्यवाही करना है। कहना न होगा कि बाजार के वर्चस्व के बढ़ने के साथ ही यह सम्भव भी होने लगा है। सांस्कृतिक संकोच की विदाई बेला का पूर्वरंग है।

जब भाई आशुतोष कुमार ने अपने आलेख में पोर्नोग्राफिक होने के लांछन से इरादतन बदनाम की जा रही हिन्दी की श्रेष्ठतम कविताएं उद्धृत कीं तो सचमुच ही मैंने उन्हें पहली बार अविकल रूप में पढ़ा। और पाया कि हिन्दी में कैंसर एक नयी ‘काव्य-युक्ति’ बनकर ऐन्द्रिकता से निर्विघ्न क्रीड़ा के लिए ‘‘उपर्युक्त नई और निर्द्वन्द संकोचहीनता’’ के साथ मनोवांछित स्पेस निर्मित करने में सफलतापूर्वक इमदाद कर रहा है। यह रोग और कविता के मध्य नया सहकार है जो कविता की दुनिया को पहली बार इस सूत्र से सेन्सुअसली सम्पन्न और समृद्ध बना रहा है ।

बहरहाल अब हम ‘स्तन‘ नामक कविता के आन्तरिक स्थापत्य को देखें तो वहां, उसकी आरंभिक चालीस पंक्तियां प्रकारान्तर से ‘प्लेजर विथ बेबी बूब्स‘ के ऐन्द्रिक कौशल का ही वितान रचती है। अतः ‘स्तन‘ कविता की संरचना के बारे में यदि मैं अपनी स्थानीय मालवी बोली में बताऊं तो कहना होगा, ‘ये तो मांड्या में टिपकी धर देणे का काम है।‘ अर्थात् आप मांडना तो अपनी मन-मर्जी का जैसा चाहे वैसा बनाइये बस उसके अंत में कहीं ‘टिपकी‘ (बिन्दी) लगा दीजिये। यह आपके किये धरे को ‘अनालोच्य‘ बनाने की चतुराई होगी। यह आपके ’चित्रावण’ को लेकर उठ सकने वाली किसी भी किस्म की आपत्तियों को छीन लेगी। इसलिए कविता में अपनी आरंभिक-संरचना में कवि कुचों से पूर्वरंग की तरह कितनी ही किस्म की ‘कुचमात‘ करता रहे और चाहे कविश्रेष्ठ के लिये यही कविता का आत्यन्तिक अभीष्ट भी हो, लेकिन अंत में करूणा का तिनके की आड़ की तरह उपयोग कर लीजिए। यह आलोचना के खतरे से परिचित होना तथा संभावना को सफलता से दुहना होगा। यह आपत्ति उठाने के लिए मुंहतोड़ उत्तर का आधार होगा। वह आलोचना की आवाजाही पर रोक लगा देगा। क्योंकि ’करूणा का आचमन‘ अवशिष्ट की भी शुद्धि करके उसे स्वीकार्य बना देगा। दरअस्ल, कविता में यह अपनी ’चतुराई पर आश्वस्त‘ कवि का स्वयम् को जरूरत से ज्यादा मेधाग्रस्त समझ लेने का संकट है।

दूसरी कविता ‘ब्रेस्टकेंसर‘ है। दोनों ही कविताओं में ‘दुद्धुओं‘ से ‘भाषा से भाषा में पैदा किये जाने वाले खेल’ में स्वयम् को पारंगत समझने वाले कवि का युक्ति-प्रदर्शन है। शायद, इसे ही विटगेंस्टाइन ने ‘भाषा के छुट्टी पर जाने से पैदा हुई मौज‘ कहा है। यहां कविता में मौज ही प्रतिपाद्य है। नतीजन यहां ध्यान देने की एक महत्वपूर्ण बात और भी है। देखें कि दोनों ही सर्जक अतिरिक्त रूप से सतर्क हैं कि वहां कहीं शिशु न आ धमके। क्योंकि कविता में आते ही वह कमबख्त दुधमुंहा उसकी ‘अमानत’ होने के दावे को खारिज कर देगा, क्योंकि ‘जैविक-रूप’ से तो वे उसकी ही अमानतें हैं। उन पर उसका ‘बॉयोलॉजिकल-पजेशन‘ है। उसके जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है, उनसे। वह अपनी अबोधता के सहारे सस्पेन्शन ऑफ सेक्चुअल्टी की अवांछनीय-स्थिति निर्मित कर देगा। कविता में व्यर्थ ही ‘यौनिकता‘ और ‘मातृत्व’ का द्वैत खड़ा कर देगा। क्योंकि अभी तक संसार में कहीं भी ऐसी स्त्री का बिम्ब नहीं है। न किसी चित्रकृति में न ही किसी कविता में। जिसमें ‘मैथुन और मातृत्व‘ एक साथ रख दिये गये हों। यहां तक कि कोई महान् पोर्नोग्राफर भी ऐसा धृष्टतम दुस्साहस नहीं कर पाया है कि वह बच्चे को स्तनपान कराती स्त्री को सम्भोगरत चित्रित कर दे। न कहो ‘सृजनात्मक-स्वायत्तता’ को ‘वर्जनाहीन ध्रुवान्त‘ तक ले जाने का जो नया स्त्रैण-शौर्य ऐसी कविता में देह के जिस चातुर्य के साथ दिगम्बरत्व का दिग्दर्शन करा रहा है वह कुछ भी करवा सकता है। यह हिन्दी के किसी प्रतिभाग्रस्त कवि के लिये दुःसाध्य तो कतई नहीं है। बहरहाल, स्त्री, स्तनों के साथ वहां कविता से धात्री के रूप में तयशुदा ढंग से विस्थापित कर दी गई है। वह बहिष्कृत है। केवल कुचवती है; जो स्त्री को केवल शिश्न-कीलित ऑब्जेक्ट में अवघटित कर देती है।

कविद्वय बखूबी यह जानते हैं कि वस्तुतः बच्चा अपनी अबोधता में ही इतना दुष्ट है कि वह कविता में दाखिल होते ही कविता के निर्धारित स्थापत्य को ध्वस्त कर देगा। वह कविता में स्पन्दित ऐन्द्रिकता को दन्तविहीन होकर भी दंश लगा देगा। कविता नीली पड़ जायेगी। ब्लू हो जायेगी। उसकी किलकारी से कविता कामाश्रयी होने की रंजकता से हाथ धो बैठेगी। यौनानंद का नियोजित ‘उपादानी वृत्त’ टूट जायेगा। वह ‘रमणीत्व‘ की ऐन्द्रिकता से पैदा होने वाले ‘सुख मे प्रवंचना‘ खड़ी कर देगा। इसलिए स्पष्टतः दोनों बच्चे को बहिष्कृत कर के रखते हैं। वह कविता-बदर है। इससे स्पष्टतः प्रतिपादित होता है कि कविद्वय की कविता का अभीष्ट भिन्न नहीं है। अलबत्ता, दूसरे नम्बर की कविता पहले नम्बर की कविता को चुनौती देती है,। जैसे कहती है, ‘‘यह विषय स्त्री का है, कवि बाबू! अतः देखो, एक नयी स्त्रैण युक्ति से ऐसे विषय पर कविता की चमकीली गढ़न्त कैसे संभव होती है। आओ , मैं बताती हूं।’’ इस कविता में पवन करण की कविता को पीछे छोड़ने का सृजन-संकल्प है। यह कविता नहीं है, बल्कि पुरूषवादी नहले पर , स्त्री-वादी दहला मारने देने की तसल्ली है।

पहली कविता की अपेक्षा यहां इस कविता में सर्जक के पास अपने ‘स्त्री-वर्चस्व’ की निर्भीकता भी है। वह निर्द्वन्द्व होकर कुचों से क्रीड़ा रचती है। यह ‘माय वैजाइना माय रूल‘ की पोर्नोग्राफिक मुनादी का वक्ष के इलाके में कवि द्वारा प्रदर्शित नया साहस है . जिसके चलते स्त्री की यौनिक-निजता का पोर्न-उद्योग के व्यापक हित में लोकार्पण कराना संभव हुआ था। पहली कविता में तो मात्र एक को ही खो देने का हादसा था। यहां एक के बजाय दोनों को खो देने से कवि के लिये कविता में ‘क्रीड़ा का वृत्त’ वृहद् होने की गुंजाइशें बनीं। विषय विस्तार के लिये क्षेत्रफल दुगुना सुलभ हुआ। यह मेसेक्टटॉमी पर एकाग्र कविता है। यहां मेरा मन्तव्य दोनों कविताओं के बीच तुलना करने का कतई नहीं है। ‘श्रेष्ठ’ और ‘श्रेष्ठतर‘ के पंगे का प्रश्न मेरे लिये सर्वथा निर्मूल है। यह कवि बिरादरी के कौटुम्बिक कलह का आन्तरिक प्रकरण है। पर दूसरी कविता में स्त्री में रजोनिवृत्ति के बाद सेक्स को लेकर जो खिलन्दड़पन अपने पूर्ण प्राकट्य पर होता है, उसका भी यथोचित योगदान है। घरों में हमें रजोनिवृत्‍त प्रौढ़ा चाचियों मासियों व बुआओं की नवोढ़ाओं से होने वाली चुहल में इसके स्पष्ट दर्शन मिलते हैं।

बहरहाल यहां तुलनाएं सिर्फ उनके मंसूबों की हैं, जो कि अपनी प्रकृति में ‘रचना‘ के सृजन-साम्य‘ के लिये दोनों सर्जकों को पूर्णतः वशीभूत कर के रखते हैं। क्योंकि दोनों ही कवि ‘गोपन’ को खोलने की ‘थ्रिल’ को करूणा के कतरों से छुपाने का स्वांग रचते हुए , उन्हें खोलकर उनसे खेलने को ही अपना ’काव्याभीष्ट‘ बनाते हैं। वही उनका और कविता के लिये अलभ्य प्रतिपाद्य है। यहां नवगीतकार नईम की बात याद आ रही है, जिसमें वे गोश्तखोरी की ओर संकेत करते हुए कहते हैं, ‘ईद-बकरीद तो बस बहाना है।’ यह वैसा ही चातुर्य है, जो करूणा का कारोबार करते हुए फिल्मों के पेशेवर लोग दृष्य-भाषा के माध्यम से दर्शक की ‘यौनेत्तजना’ से इस तरह खेलते हैं कि दृष्य से आंख से ज्यादा अन्तर्वस्त्र भींग उठें।

निश्चय ही ऐसे में टिप्पणीकर्ता शालिनी माथुर ने इसमें चतुराई से छुपा ली गई ‘पोर्नोग्राफिक-नीयत’ को पढ़ लिया। उसके पाठ को महान् रचनाओं पर ‘पोर्नो‘ होने के लांछन लगाना मानते हुए कविता बिरादरी के पारखियों का एक समूह सहसा तमतमा उठा। दरअसल एक , पोर्नोग्राफर शब्द के सहारे चित्रात्मक ढंग से ‘मिथ्या-यौन तुष्टि’ की तरफ ले जाता है। जबकि, ‘विजुअल-लैंग्विज‘ का पोर्नोग्राफर धीरे-धीरे स्त्री को राजी करता है, स्वयं को खोलने के लिए। वह स्वयं को खोलती है और बाद इसके, खुद से खुलकर खेलने लगती है। अपनी यौनिकता भर से नहीं, यौनांगों से खेलते हुए वह ‘अन्य’ को ‘आनन्द’ का उपभोक्ता बना लेती है। जो फ्रेम और टेक्स्ट से बाहर है। उसमें पीड़ा और प्रश्नों से भरा कोई सांस्कृतिक संकोच नहीं होता। उसका खिलन्दड़ापन ही माल का सौंदर्यीकरण है। वह जितना खेल के वृत्त का विस्तार करेगी, उतना ही उसके उपभोक्ता की तसल्ली का दायरा वृहद बनता जायेगा। यह ‘ब्रेस्ट कैंसर’ के लेबल के साथ ‘वुमन-सेक्सुअल्टी’ की सेंसुअसनेस की पण्य-उद्देश्य के लिये की गई प्रीतिकर पैकेजिंग है। इन बातों को ध्यान में रखकर देखें तो लगता है, यहां कविता से मंजा हुआ चातुर्य झलकता है। इस कविता का कवि कुचों को उम्र के दस वर्षों में ले जाता है। पहाड़ों पर चढ़ता है। दूध की नदियां बहाता है। पहाड़ खोद कर अपने शब्दों के शिकन्जे से चुहिया को पकड़ कर लाता है। ज्वैलथीफ के फिल्मी-स्मगलर की तर्ज पर वहां से हीरे निकालता है-- यानी एक शब्द की छाया से दूसरे शब्द की तरफ फलांगते हुए , कई-कई तरह से ‘दुद्धुओं’ से पर्याप्त दिलेरी के साथ खेलता है। वह ‘पुरूष-कवि’ को अपनी असली औकात बताता भी चलता है कि ‘ अब ठीक से अपने दीदे खोल कर देख ले ‘कवि-पुंगव’ वह अमानत और मिल्कियत पुरूष की नहीं हम स्त्रियों की है कवि भैया ! इसलिये देखो मेरा कवि उसका कैसे काव्य-दोहन करता है। वह कभी उन्हें एब्सट्रैक्ट में ले जाता है फिर कंक्रीट में ले आता है। मुहावरे के परम्परागत अर्थ की छांह में छुपता है और फिर अर्थ से बाहर निकल कर ‘अनर्थ को निचोड़ कर अलभ्य आनंद’ पैदा करता है। यह शब्द में सेक्सुअल की सोलो पर्फार्मेंस है। एक ‘इमेजिनेटिव सिन्थेसिस’ से ‘भाषान्ध’ बनाने की अचूक तकनीक है।

हमारे समीक्षकों का वृद्ध-वृन्द जो अपनी तकनीक-विरक्त दयनीयता को ‘‘स्वयं के भीतर बचा कर रख ली गई मनुष्यता’’ के रूप में विज्ञापित करता है। वे नहीं जानते कि ये ‘मौलिकता’ की कथित ‘मार्मिकता’ से भरी कविताएं सिर्फ सिन्थेटिक कविताएं हैं-जो साइबर स्पेस को खंगालते रहने की अभ्यस्तता से बहुतेरी गढ़ी जा सकती हैं। इस खदान से कविता के कई चमकीले हीरे जवाहरात निकाल कर उसकी द्युति से हिन्दी आलोचना के अधिपतियों को अभिभूत करते हुए ‘भाषान्ध’ बनाया जा सकता है। आप गूगल का आश्रय लेकर ‘ब्रेस्ट केंसर’ को लेकर लिखी गयी कविताओं की राई ढूंढने जायेंगे तो वह आपके कम्प्यूटर के डेस्कटॉप पर राइयों का पहाड़ लगा देगा। आप अपने माउस की मदद से उस पहाड़ में से अपनी कविता के काम की चुहिया निकाल लीजिये। निश्चय ही कवि होने की अर्हता वाले के पास भाषा की इतनी पूंजी तो होनी ही चाहिये कि आप चुटकी भर ‘रसना‘ से बारह गिलास बना लें।......वहां एक नहीं दोनों स्तनों की शल्यक्रिया से की जाने वाली ‘बाई-लेटरल मेसटक्टॉमी’ पर अलग से कविताएं भरी पड़ी हैं, जिनका किसी भी साहित्यिक दृष्टि से कोई काव्य-मूल्य नहीं है। वहां ‘गेट-वेल‘ पोएट्री है, जो रस्मी तौर पर रोगियों के बीच नर्सों और शुभाकांक्षी-समूहों द्वारा अस्पताल के वोर्डों में वितरित की जाती हैं, ताकि उनकी जिजीविषा और आत्मबल बढ़े। वे रोगी के लिए की जाने वाली लैंग्विज-थैरेपी का हिस्सा हें। वहां हर किस्म की व्याधियों पर लिखी गई कविताओं का जखीरा भरा पड़ा है, जिसको उठाकर कोई ‘चतुर कविताभ्यासी‘ अन्य रोगों पर हिन्दी के वृद्ध समीक्षकों को चमत्कृत कर डालने वाली कविताएं थमा कर , महानता की कतार में खड़े होने के लिए, उनके हाथों से इतिहास के दरवाजे का गेटपास छीन सकता है। ‘वी ऑर क्रैक्ड पॉट्स‘ रजस्वला होने के साथ स्त्री से जुड़ जाने वाले नियमित रक्तस्राव को लेकर तंजिया कविताएं हैं। रजोनिवृत्ति पर भी मसखरी करती कई कविताएं हैं। और तो और आप मासिक धर्म के रक्त से सने सेनेट्री नेपकिन को लेकर कविता और पेण्टिंग्स दोनों ही बरामद कर सकते हैं। पेण्टिंग में कैनवास पर अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौन्दर्य नहीं है। वहां ‘दुद्धू‘ और ‘पद्दू‘ पर भी पोएट्री है। हिप-फोरम में समलैंगिक-समुदाय में कई अज्ञातकुलशील कवि हैं। नॉन-डिस्क्रिप्ट पोएट। बहरहाल कई कई तरह की बीमारियों की सनसनी और सच्चाई से लथपथ ऐसी कई संभावनाशील कविताएं और कवि वहां हचर-हचर कर रहे हैं। सड़ांध में स्वाद निर्माण करने की व्यंजन विधि में निष्णात हिन्दी के कुछ अतिरिक्त प्रतिभाग्रस्त कवि वहां से वांछित रोग की सामग्री उठायें और उसमें अपने पास से ‘मिथ्या-भावमयता‘ भर कर कई ताजा ‘भरवाँ‘ कविताएं बना सकते हैं। वे गर्मागर्म भी रहेंगीं और आस्वाद के स्तर पर आलोचक के मुखारविन्द से विशेषणों को लार की तरह लगातार टपकायेंगी।

कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी तमाम चमकीली कविताएं किसी दिन मौलिकता के संदर्भ में ‘विश्वास को इरादतन मुअत्तल‘ करने का काम करेंगी। यदि ऐसी ‘सिन्थेटिक’ कविताओं की फसल को आलोचना की टेढ़ी नजरों से बचाने के लिए कोई भाषा के कांटेदार तर्कों की बागड़ करेगा तो वह स्वयं संदिग्ध हो जायेगा। यह गंजे के सिर पर टोपी का इंतजाम की कोशिश कही जायेगी। एक फ्रेंच कहावत है ‘ डोंट ट्राय टू कीप द कैप्स ऑन बाल्ड हेड‘।

यहां मैं साठ के दशक का स्मरण करना चाहता हूं, जब योरप में आमतौर पर और अमेरिका में खासतौर पर ‘कल के विरूद्ध बिना किसी कल‘ वाली पीढ़ी ‘विचारहीनता के विचार‘ की सुरंग में फंस चुकी थी। वह उस वक्त की अंधी कोख से जन्मी थी, ‘एण्ट्री-पोयट्री‘ जिसके विकृत अनुकरण में हिन्दी में ‘अकविता-आंदोलन‘ खड़ा हो गया था। तब कविता स्त्री की जांघ में पीप और मवाद ढूंढ रही थी। कवि सड़क पर चलती हर स्त्री को छेद की तरह देख रहा था। मरे हुए बत्तखों की सी लटकती छातियों पर हस्तमैथुन से वीर्याभिषेक कर रहा था। उस समय की अमेरिकी ‘एण्टी-पोएट्री‘ में ‘ब्लैक-पोएट्री‘ नाम की कविता का फैलाया हुआ ‘घृणा का समाजशास्त्र‘ अपने कपड़े उतार रहा था। नग्नता और फूहड़ता विकृति का नया कीर्तिमान बन रही थी। वह सर्जन नहीं उत्सर्जन था। साथ ही साथ अकहानियों की धमचक भी शुरू हो गई थी। जिसमें समुद्र तट की रेत में श्वेत-स्त्री के साथ संभोग करते हुए, पात्र को ‘वह अमेरिका की ले रहा है‘, जैसा शौर्यानुभव हो रहा था। शायद तभी धर्मवीर भारती ने ‘चिकनी सतहें बहते आन्दोलन’ तथा कमलेश्वर ने ‘ऐय्याश प्रेतों का विद्रोह‘ नामक लेख बहुत आक्रामकता के साथ लिखे थे। लेकिन यहां हिन्दी आलोचना के सामाजिक विवेक की सराहना की जाना चाहिए कि उसने ‘बेहतर के लिए मेहतर‘ की भूमिका निभाई और नाबदान को समय रहते निर्ममता के साथ साफ कर दिया था। ‘विजप’ ( गंगाप्रसाद विमल , जगदीष चतुर्वेदी और श्‍याम परमार ) की उस कवि-त्रयी की उन रचनाओं का आज कोई अता-पता नहीं है। वक्त के गन्दे नाले में बह कर जाने कहां चलीं गईं। लोगों को सिर्फ राजकमल चौधरी की ‘‘मुक्ति-प्रसंग’’ भर की स्मृति है। चन्द्रकान्त देवताले आदि भी जल्दी ही अलग हो गये थे - और स्वयं को व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर आज अपने समय के एक महत्वपूर्ण कवि होने का सम्मान अर्जित किये हुए हैं।

इसकी वजह यही थी कि आलोचना के पास तब व्यापक सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में सृजन को नाथने का विचारधारा से उर्जस्वित प्रतिबद्ध संकल्प था। कुछ निश्चित प्रतिमान थे। लगता है दुर्भाग्यवश वैसी साहसिक आलोचना अब नहीं रह गयी है। अब वह ललाटों पर लाल टीका लगाने की लपक से भर चुकी है। नयी ‘दमित अस्मिताओं की अभिव्यक्ति के नाम पर आ रही ऐसी फूहड़ता के बारे में कुछ भी बोलते हुए आलोचना की अब घिग्घी बंध जाती है। आलोचना गोलमोल भाषा में अपना छद्म-वक्तव्य देकर बच निकलती है। या फिर मारे डर के वह उल्टे उनकी आरतियों और स्तुतिगान की तैयारियों में जुट जाती है।

दरअसल सृजनात्मकता के क्षेत्र में ऐसी दारूण वैचारिक दयनीयता इसलिए भी आ गयी है कि वामपंथ के पराभव के पश्चात के इस उत्तरआधुनिक दौर ने आलोचकों के हाथों से वे उपकरण छीन कर घूरे पर फेंक दिये हैं, जिनसे वे ’सृजन‘ को कठोरता के साथ कसौटी पर रखते थे। तब वे समूचे सृजन क्षेत्र को विचार से दहकते सवालों को नोंक पर रखते हुए पूछते थे ‘‘कविश्री तुम्हारे पैमाने और प्रतिमान क्या हैं ?’’ पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?’’ लेकिन, बकौल नोम चोमस्की ‘अब राजनीति एक बड़ा निवेश हो गयी है और हरेक की जेब में अब अपने-अपने सुभीते और साइज का जनतंत्र है। अब मार्केट-फ्रेण्डली फ्रीडम का फण्डा है। चयन को ही सृजन की स्वतंत्रता’ की तरह बताया जा रहा है। इसलिए कविता व्यापक जन-संदर्भों के सवालों से मुक्त हो गयी है। नतीजतन कवि तथा कविता में ‘कैरियरिज्म‘ ने ‘विषय वैचित्र्य’ की अनियन्त्रित लिप्सा भर दी है। वह वहां जाना चाहता है, जहां कभी कोई गया नहीं और कोई जाएगा भी नहीं। यह संस्कृत के ‘अगम्यागमन’ का ही संकल्प है। वही अब नया ‘काव्याभीष्ट‘ है। फिर भारत जैसे अत्यन्त जटिलता से अंतरग्रथित समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक निषेधों को तोड़े जाने से जो ‘थ्रिल‘ बनती है, वह अब बहुत बिकाऊ सिद्ध हो रही है। भारतीय अंग्रेजी में ऐसे लेखन को लगे हाथ प्रकाशक सर पर उठाने के लिए आगे आ जाता है। अतः ‘इनसेस्ट‘ अर्थात् रक्त-संबंधियों से सेक्स का चित्रण बहुत सेलेबल है। याद करिए कि कैसे ‘ब्लू-बेडस्प्रेड के प्रकाशन का सौदा पिकाडोर से तत्काल सत्तर लाख में हो गया। क्योंकि वह सहोदरा से सेक्स को चित्रित करता था। न कहो किसी दिन हिन्दी में कोई प्रतिभात्रस्त ‘भगिनीभोक्ता’ जैसा चरित्र गढ़ कर चमत्कार करने वाले सर्जक के रूप में प्रकट हो जाये। यदि ऐसे साहित्य को हिन्दी में अनूदित कर दिया जाये तो उसकी औकात उस पल्प-लिट्रेचर की रह जायेगी जो रेलों तथा छात्रावासों में पढ़ने के बाद कूड़े में अपनी जगह पाती हैं। हकीकत ये है कि अब ’फैशन‘ और ’उपभोग‘ साहित्य में शिफ्ट हो गया है। यह निश्चय ही ‘विचारहीनता के विचार’ की सर्वग्रासी अवस्था है। बहरहाल ऐसे समय ‘विचार’ की बात करने का अर्थ ‘दिगम्बरों’ के मुहल्ले में लॉण्ड्री खोलने की जिद करना है। नंगा नहाने पर क्या निचोड़ेगा..?

कुछ वर्षों से ‘माय मॉम्स लवर‘, ‘माय मॉम्स न्यू ब्वाय फ्रेण्ड‘, ‘डोण्ट टेल इट टू मॉम‘ शीर्षकों वाली कविताओं और कहानियों ने साइबर-बिजनेस में करोड़ों की संख्या में ‘हिट्स‘ दीं। अब तो इन टाइटिल के वीडियो आ गये हैं और उनकी क्लिप्स को अपने ब्लैक-बेरी के जरिये मित्रों को भेजना युवा पीढ़ी का नया उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक-आदान-प्रदान है। ‘सविता भाभी’ की अपने प्रेमियों के साथ सेक्स-कथा ग्राफिक्स और एनीमेशन में खासा व्यवसाय कर चुकी है। यदि हिन्दी का कोई कवि ऐसे विषयों को कविता में शामिल करके अपनी प्रतिभा के विस्फोट का चमत्कार पैदा करने लगे और हम उसकी प्रेरणा के मुख्य स्रोतों से अनभिज्ञ हैं तो यह हमारी आलोचना की सूचना सम्पन्नता नहीं बल्कि दरिद्रता का प्रमाणीकरण है। यह सामाजिक संदर्भों के इलाके का नया अंधत्व है, जिन्हें चमत्कार की चौंध ने ‘फोटोफोबिया’ पैदा कर दिया है। उनसे ऐसी चमक में विकृतियों की शक्लों की शिनाख्त नहीं हो पा रही है। यह उनके द्वारा गन्धाते गोबर में गालिब का दिग्दर्शन कर लिया जाना है ।

अब अंत में थोड़ी बातें ‘ब्रेस्ट कैंसर‘ नामक कविता की। रचयिता विदुषी अनामिका की प्रति-टिप्पणी को लेकर। टिप्पणी पढ़कर लगा कि उनमें भरपूर कवि-चातुर्य तो है , लेकिन टिप्पणी की भाषा में कुछ अतिरिक्त चतुराई है। वे टिप्पणी के आरंभ में पहले ही अंग्रेजी की छतरी तान कर रख देती हैं। बीच टिप्पणी में डराने के लिए एक अश्वेत कवयित्री की कविता का बिजूका भी गाड़ देती हैं। जैसे वह कोई कविता न होकर धमकी हो कि अभी ऐसा सृजन-वैराट्य तो मैंने प्रदर्शित ही नहीं किया है शालिनी बाबू..।। लेकिन अब बिजूकों के दिन लद गये। वीरेन्द्र कुमार बर्नवाल और रमेश दवे जिन्होंने सबसे ज्यादा अफ्रीकी तथा ब्लैक लिट्रेचर खंगाला है , वे बता सकते हैं कि वहां की हालत क्या है। रोजन कॉज ने ब्लैक कविता में जहां-तहां छितरायी हुई इस तरह की फूहड़ता की पर्याप्त निर्ममता से सफाई की है। नेट-युग में अब ऐसे बिजूकों से शायद ही हिन्दी का कोई प्रबुद्ध पाठक डरता हो। बहरहाल, वे शालिनी माथुर की टिप्पणी से जागृत अपने क्रोध की ‘धधक‘ को कोमल के कौशल‘ से ‘केमोफ्लैज’ करती हुई , बाहर से बहुत विनम्र जान पड़ती हैं, लेकिन जिस तरह शुरू में ही बहनापे को छोड़ कर , प्रेमचन्द के भाई साहब में काया प्रवेश करते ही , उनके भीतर की उस ज्ञान-वर्चस्व प्रदर्शन की लालसा लगे हाथ लपक कर बाहर आ गयी, वे अपनी सहोदरा की विवेचनात्मक टिप्पणी को ‘कोसने और कलपने‘ का पर्याय बता कर उसे खारिज करने का अप्रकट उपक्रम करती हैं। फिर कविता के स्वभाव को स्त्री का स्वभाव का पर्याय बताने लगती हैं। हालांकि कविता का अगर यही स्वभाव है, तो उन कविताओं का क्या होगा, जो गरेबान पकड़ कर सच को उगलवाने के लिए आगे आती रही है ? खैर ऐसे में मुझे सहसा भोपाल स्कूल की समीक्षा-भाषा के स्वांग की याद हो आयी। जहां स्वामीनाथन की कलाकृति या कृष्णबलदेव वैद की कहानियों पर बातें शुरू करते हुए कहा जाता था ‘उनकी कृति का कहें कि प्रकारान्तर से क्वचित् यह स्वभाव ही रहा आया है कि वे पाठक से सहसा सम्वाद के लिए तैयार ही नहीं होतीं। अपितु वह उसकी तरफ इरादतन अपनी पीठ फेरे रहती हैं। उन्हें शनैः शनैः राजी करना होता है।‘ ज्ञान चतुर्वेदी ने इस चतुराई पर अपनी निर्मल विनोदी टिप्पणी में कहा ‘क्या ये यह कहना चाहते हैं कि इनकी कृतियों को औरतों की तरह पटाने की जरूरत होती है ? यानी पाठकजी आयें फिर कविताजी की पीठ पर हाथ फेरें। गुदगुदी करने लगें। तब न कहो कविता जी बुरा ही मान जाएं। तब क्या होगा ? ..........बहरहाल, गनीमत थी कि वे अपनी में टिप्पणी मिथिला तक ही गई और खजुराहो या अजंता-एलोरा की गुफाओं में नहीं घुसीं। वर्ना जब भी हमारे यहां यौनिकता के फूहड़पन पर किसी भी किस्म की टिप्पणी की जाती है, तो विद्वज्जन तर्काकाश में उड़ कर तुरत वहां पहुंच जाते हैं। ऐसी लम्बी दौड़ के बिना वे विचार को वार्म अप नहीं कर पाते। और फिर उनकी ही छतों और शिखरों पर चढ़ कर टीवी एंकर्स की तरह बोलने लगते हैं-- ‘‘ये देखिये..यहां पत्थरों में मूर्तियों के स्तन भारी हैं , इनके नितम्ब भी भारी हैं और ये सम्भोगरत भी हैं........अब आप ही बताइये कि क्या ये अश्लील हैं ? पर किससे कहें कि खजुराहों के पहाडों में से चुहिया निकालना मुश्किल है।

आगे देखें... वे दृष्टि में मर्दवाद के महीन लांछन के लिए टिप्पणीकार को ‘शालिनी बाबू’ भी कहती हैं। उन्हें अपनी कविता पर मंडराते संकट से ईसा का क्रूसीफिकेशन भी याद हो आया। यहां तक कि लगे हाथ फासीवाद तक भी याद आ गया। टक्कर के पुरूष और स्त्री की यौनिकता जगा पाने की जैविक चुनौतियों के पार्श्व में खड़े ‘आर्गेज्म’ को भी वे टिप्पणी में ले आयीं है। पोर्न का सारा व्यवसाय ही ‘आर्गेज्म’ को रचने या आविष्कृत करने की प्रविधि पर ही टिका है । कहना ना होगा कि किसी दिन ऐसे ही ‘पवन-वेग’ से भरा कविता के महाभारत का कोई नया ‘करण’ अतिरिक्त-प्रशंसा का शिकार‘ हिन्दी कविता का धरोष्ण अपनी बाजारीकृत दिव्यता के साथ इस विषय पर अनामिका और पवन को पछाड़ता हुआ दृष्य में अपना कीर्ति कलश स्थापित कर सकता है।

कुल मिलाकर कविता की इन विदुषी की प्रति-टिप्पणी पढ़कर लगा कि उनके भीतर क्रोध का छुपा हुआ तारत्व तो इतना है कि यदि उनके पास भाषा का कोई बघनखा होता तो वे चतुराई से ऐसी टिप्पणी का पेट चीर कर उसकी अंतड़ियां निकाल कर बाहर कर देतीं।

मुझे उनकी ऐसी चतुराई देखकर संयोगवश हमारे गांव में हर वर्ष दीवाली के समय आने वाला एक अत्यन्त दक्ष तमाशबीन याद आता है, जिसको सामने जमीन पर रखा गया सिक्का उठाना होता था तो वह पहले उस सिक्के के चारों ओर दौड़-दौड़ कर बनेठी घुमाता। फिर हवा में कोड़ा घुमाकर खुद की पीठ पर भी मार लेता। बाद इसके उस सिक्के के ऊपर से चारों दिशा में से पचीसों गुलांटियां लगाता रहता और थक कर अंत में उस सिक्के को उठाता था। कुल मिलाकर, वह इन करतबों के प्रदर्शन से दर्शकों में यह बोध पैदा करने की जुगत भिड़ाया करता था कि कितने-कितने जतन के बाद पहुंच पाया है - वो सिक्के के पास। यह संघर्ष का हासिल है। भोपाल में अशोक-युग के ‘पूर्वग्रह‘ में कविताओं की समीक्षा की यही प्रविधि होती थी। इस प्रविधि के अनुकरण से हिन्दी में कई प्रतिभाग्रस्त समीक्षक पैदा हुए जिन्होंने कई तिलों में ‘ताड़त्व’ और वामनों में ’विराटत्व’ भरने की कोशिशें कीं। वहां समीक्षा भाषा में गंभीरता का ‘उर्ध्व-उत्कीर्णन‘ होता था। कविता ‘प्रश्नकीलन‘ करती रहती थी। आलोचना में शब्दाम्बर की इस वृत्ति पर ज्ञान चतुर्वेदी ने एक टिप्पणी भी लिखी थी-‘प्रश्नकीलन से उत्पन्न अर्थ-सीलन।’ जिससे कविता की कठिनता की विवेचना के लिए और और कठिन भाषा में लिखी जा रही समीक्षा-भाषा पर उपालम्भ था। उसमें एक पंक्ति थी कि ‘‘ कहीं ऐसा तो नहीं कि गोरखपुर का कल्याण अपने नये गेट-अप में भारत-भवन से निकलने लगा हो और मैं गलती से वही उठा लाया होउं ? ’’

दरअस्ल, यह भाषा की चतुराई की सतही इलेक्ट्रोप्लेटिंग है। यह ऐसी कलई है, जो पढ़ते ही खुल जाती है। मुझे काव्य-विदुषी अनामिका की कविता तथा टिप्पणी के तिलस्म को देख कर भवानीप्रसाद मिश्र की एक काव्य पंक्ति याद आ गयी--‘‘चतुर मुझे कुछ नहीं भाया , ना स्त्री ना कविता।’’ चतुराई निश्चय ही आपके चिंतन और अभिव्यक्ति दोनों को ही संदिग्ध बनाती है। एक कवि को अपनी कविता पर स्वयम् ही स्वस्थ-संदेह करना आना चाहिये कि क्या रुग्णता पर लिखी ऐसी सिन्थेटिक कविता मृत्यु के भय या विभीषिका के विरुद्ध खड़ी रह सकती है ? ‘हलो! कैसी रही ?‘ की मसखरी से क्या मृत्यु से निबटा जा सकता है..? अगर उनकी समझ ऐसी है तो निश्चय ही वे पाठकीय विवेक का गलत आकलन कर रही हैं।

हालांकि, जीवन में अपनी रचनात्मकता के बीच हर बड़ा रचनाकार, एक बार ‘ईश्वर‘, ‘समय‘ और ‘मृत्यु‘ से भिड़े बगैर नहीं रहता । अलबत्ता ये कि कोई भी इन तीनों से भिड़े बिना बड़ा सर्जक भी नही हो पाता है। जी हां न वह न उसकी रचना। क्योंकि ये तीनों प्रश्न शताब्दियों से कला और साहित्य क्षेत्र के रचनाकर्म के लिए चुनौती की तरह बने रहे हैं। यदि इन दो कवियों की कविता इतनी बड़ी है तो फिर इस बात का कैसा डर कि मात्र एक टिप्पणी के उनके विरोध में प्रकाशन से इतनी थरथरा गयीं कि उस कविता को बचाने के लिए हांक लगानी पड़े और वो लोग आपातकालीन सहायता के लिए दौड़ पड़े जो इन दो कविताओं की रक्षा के प्रश्न से ‘कीलित’ हैं।

बहरहाल जरा गौर से देखें तो यह प्रकरण वस्तुतः पोर्न के आक्षेप से बचने भर की हलातोल नहीं है। इसे लोक-विवेक से जांचें तो समस्या बुढ़िया के मरने के अफसोस की नहीं बल्कि चिन्ता तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है। इसलिये काव्य-कुटुम्ब की घबड़ाहट अनुचित तो कतई नहीं है। उन्हें डर है कि ऐसी नागिन सी दंश मारती ‘शालिनी-भैया मार्का’ आलोचना का कैंसर अन्य कविताओं के भीतर भी वायरस की तरह घुस जायेगा। तब तो ऐसी ‘कैंसर-कीलित’ कविताओं की उत्तरजीविता ही संदिग्ध हो जायेगी। बहरहाल जो कविता ऐसी टिप्पणी के खिलाफ नहीं लड़ सकी तो वह कैंसर के खिलाफ कैसे और कितनी दूर तक लड़ पायेगी ?
हैलन गार्डनर ने कहीं लिखा था ‘सच्चा समालोचक कभी कवि पर छत्र लगाकर नहीं चलता।‘ लेकिन यहां तो समालोचक छत्र ही नहीं, रक्षा-पाठ व उसका पारायण करता हुआ अंगरक्षक बन जाता है। कवि पर पुरस्कारों की बौछारें भी कर दी जाती है। इससे कविताओं को आलोचना का अभयदान प्राप्त हो जाता है। वे कविता के कवच-कुण्डल बन जाते हैं। जबकि, हकीकतन, जो प्रसंशाएं कवि को बिलकुल आरंभ में मिल जाती हैं, वे बाद में उसके साथ बहुत बुरी तरह से पेश आती हैं। यह नहीं भूलना चाहिए।
सृजन के क्षेत्र में एक बात यह भी है, जिसे नहीं भुलाया जाना चाहिए कि ‘महानों‘ के रचे हुए में भी बहुत कूड़ा होता है। प्रेमचन्द ने कोई चार सौ कहानियां लिखीं हैं, लेकिन आज चर्चा में वे बस दस-पन्द्रह ही आती हैं। पिकासो का सारा ‘रचा हुआ‘ महान् नहीं है और ना ही हुसैन का। उनका बहुत सारा ऐसा है, जिसका दर्जा ‘कलर्ड गारबेज‘ से ज्यादा नहीं है। हर ‘रचा‘ या ‘लिखा‘ हुआ कृति का दर्जा या ‘कृति‘ का सम्मान हासिल नहीं कर सकता। बर्गसाँ ने रचनात्मकता के क्षेत्र में सर्जक के आत्म की परिपक्वता के स्तर के संदर्भ में कहा था ‘टू चेंज मीन्स टू मैच्योर एण्ड टू मैच्योर मींस टू क्रिएट एण्ड रिजेक्ट अवर ओन सेल्फ। सो टू से दि प्रॉसेस आव क्रिएशन इज इनेविटेबली अ प्रॉसेस ऑफ रिजेक्शन टू।‘

बहरहाल, यदि आपने सृजनात्मकता के इलाके में उतरने के बाद स्वयं के रचे हुए को रद्द करने का वस्तुगत विवेक अर्जित नहीं किया तो वक्त की छलनी खुद उसे छान कर घूरे पर फेंक देगी। गांधी के आत्म विवेक ने तो सैकड़ों बार अपनी धारणाओं को डिस-ओन कर दिया था। क्या हम ऐसी कविता को छाती से चिपकाये रखेंगें..? स्तनों के कट जाने से प्रसन्नता व्यक्त करने वाले कवि के भीतर यह कैसी अपरिभाषित सी आसक्ति है..? कविता को छाती से चिपकाये रखने की..?
अंत में पता नहीं भाई आशुतोष कुमार इस सारी बहस में सनी लियोन को क्यों ले आये? साहित्य के बाणभट्टों के समक्ष सिने जगत के महेश भट्टों की-सी आर्थिक विवशताएं थोड़े ही हैं कि वे सनी लियोन का ‘प्रतिष्ठा-मूल्य बनाये। ‘जिस्म-दो‘ में भट्ट की पूंजी लगी हुई है, अतः पोर्न इंडस्ट्री की इस ‘‘भग-वती’’ की आरती अर्चना उनके लिए जरूरी है, लेकिन हिन्दी जगत के सर्जनात्मक लोगों का ऐसा कोई पूंजी आधारित प्रोजेक्ट नहीं, जिसके चलते वे पोर्न का ‘प्रतिष्ठा-मूल्य’ बढ़ाने के लिए आगे आयें। आशुतोष भाई आपकी ऐसी कोशिशों से मुझे लग रहा है कि कहीं पवन करण प्रेरणा ग्रहण करके ‘ प्रिय पोर्न-पुत्री के नाम पिता का पत्र ’ शीर्षक से कविता लिखने न बैठ जायें। क्योंकि ‘सिन्थेटिक कविता’ नेट-प्रसूत होतीं हैं। वे तुरन्त ही कवि की गोद में चढ़ने के लिये मचल उठतीं हैं।

बहरहाल, विचार के कुरूक्षेत्र में न अस्त्र की जरूरत पड़ती है, न शस्त्र की। विचार स्वयं में ही अस्त्र भी है और शस्त्र भी है। विचार से ‘मगध’ डरता है हस्तिनापुर डरता है, ऐसी सूचना श्रीकान्त वर्मा की कविताओं से बरामद हुई थीं। लेकिन ‘सृजनात्मकता’ भी विचार से डरने लगे, यह ज्यादा विचारणीय है। ये खतरनाक संकेत हैं उसके सल्तनत के-से बरताव के। बहरहाल दिल्ली में कविता का कहीं कोई ‘मगध’ तो नहीं बनने लगा है.......?