Friday, June 29, 2012

अबे! ओ!! कवि!!!

Achhi kavita likh 0612
तू लिक्‍ख
कागज को घोच मत
अच्‍छी कविता लिक्‍ख

Saturday, June 16, 2012

समकालीन कविता

samkalin kavita1
चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्‍हें बारी बारी से यहां रख रहा हूं. इस क्रम में राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा और सुलतान अहमद की प्रतिक्रिया आप पढ़ चुके हैं. अब यह रही मेरी टिप्‍पणी.
 

समकालीन कविता पर यहां अभी तक हुई बातचीत में हमेशा की तरह विचारधारात्मक सरणियां बनाने की कोशिश हुई है। इसमें खींचतान भी हुई है। आलोचक का वस्तुनिष्ठ होना ज़रूरी होता है। अक्सर निजी पसंद और आग्रह सीमा बन जाते हैं। इसलिए निष्कर्षों में झोल आ जाता है।
विजय बहादुर जी के परंपरा या भारतीयता खोजने के आग्रह सिद्धांत रूप में ठीक हो सकते हैं पर आधुनिक विचार को विदेशी कह कर दर किनार कैसे किया जा सकता है? वे अपनी पसंद के कुछ ही कवियों के नाम लेते हैं। नागार्जुन उनकी चर्चा के केंद्र में हैं। नागार्जुन विजेंद्र जी की चर्चा के भी केंद्र में हैं। लेकिन उनकी अवधारणात्मक लाइन विचारधारात्मक लाइन में चली जाती है, जो आगे क्रांतिकामी लाइन पकड़ लेती है और विजय कुमार जी की बातों, निष्पत्तियों और आशंकाओं को काटती चली जाती है। विजेंद्र जी के लिए अस्तित्ववाद वर्ज्य है, कविता में आता अवसाद और निराशा के भाव भी। क्या हम इस तरह यथार्थ से आंखें मूंदे रह सकते हैं या अपनी सुविधा से यथार्थ दर्शन कर सकते हैं? हमारे देखते देखते मार्क्सवादी पार्टियां किस तरह अप्रासंगिक हुई हैं, पहले उन्होंने सांस्कृतिक क्षेत्र में काम नहीं किया और इधर नक्सलबात्रडी ने जनता के बीच अपनी और फजीहत करवा ली है, इतर जनांदोलनों की शक्ति भी क्षीण हुई है। चाहे पानी, बांध और जंगल का मसला हो, या शासकीय हिंसा का, जनआंदोलनों को एनजीओ ने ग्रस लिया है। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद तो सिविल सोसाइटी शब्द ने आंदोलनों की साख को ही संदेह के घेरे में ला पटका है। संघर्ष और जनांदोलन और परिवर्तन की नई जमीन तोड़नी पडे़गी, नए औजारों के साथ। पता नहीं विजेंद्र जी और जीवन सिंह जी के फार्मुलेशन कितने काम आएंगे। यहां पुराना सवाल फिर सामने आ जाता है कि क्या कविता को मात्र विचारधारात्मक औजार तक सीमित किया जा सकता है?
हमें यह भी सोचना होगा कि बदलते हुए समय में क्या लोक का चेहरा और चित्त वैसा ही है? ऊपर से नब्बे के बाद, और नई आर्थिक नीति के बाद लोक की कैसी फजीहत हुई है? जो बदसूरत, बदरंग, बेढंगा शहरीकरण हुआ है, विस्थापन हुआ है, उसमें से लोक का किस तरह का चेहरा निकल के आ रहा है? शहर तो शहर आज गांव का क्या हाल है? बाज़ार, इंटरनेट, केबल, टैक्सी, लोक को क्या से क्या बना रहा है? गांव ही क्यों, शहरी निम्नमध्य वर्ग की क्या हालत है? यह लोक त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार, विजेंद्र, बद्री, देवी, एकांत या चेतनक्रांति, किसके लोक में दिखता है? किसी एक के या हरेक की अलग छटा है?
ऐसे में क्या हम मान सकते हैं कि रघुवीर सहाय प्रासंगिक नहीं थे या नहीं रहे? क्या रघुवीर सहाय मुक्तिबोध की अगली कड़ी नहीं हैं?
आज हमारे समय का सौंदर्यदृष्टि विहीन, आपाधापी से भरा, रौंदते चले जाने को उद्धत (या विवश) और तथाकथित सैटल होते जाने को आतुर, उखड़ा हुआ, जो भद्दा रूप है, मूल्य-हीनता के लिए विकलता-विहीनता, अतीत के प्रति उदासीनता, अवसाद के उजाड़ वाला जो व्यक्ति के भीतर का खालीपन है क्या उसे रघुवीर सहाय के बहाने शहर और नागार्जुन के बहाने गांव में बांटने से काम चल जाएगा। क्या चंद्रकांत देवताले, जगूड़ी, विष्णु खरे की कविता समकालीनता को समझने में कोई मदद नहीं करती?
यहां पर यह सवाल इस तरह भी उठता है कि समाज में व्याप्त बहुलता, बहुआयामी यथार्थ और पेचीदगी के बिना बात कैसे हो सकती है? क्या उसे आधुनिकता या आधुनिकतावाद कह कर खारिज किया जा सकता है? आधुनिकता ही क्यों (चाहे वह आधी अधूरी हो और हमारे जीवन में बलात् प्रविष्ट हुई हो), क्या आज उत्तरआधुनिकता की पदचाप भी सुनाई नहीं पड़ती, जो जीवन को और अधिक जटिल बना रही है?
विजय कुमार जिन चिंताओं, दुश्चिंताओं की बात उठाते हैं, उनके बिना कविता की बात पूरी होती नहीं लगती। लेकिन उनकी भी निजी पसंद साथ साथ काम करती रहती है। प्राय: उनकी अपेक्षाओं पर कविता खरी नहीं उतर पाती। ख़ास तौर से मंगलेश, असद, राजेश जोशी, नरेंद्र जैन के बाद के कवि उन्हें ख़ास प्रभावित नहीं कर पाते। इसकी वजह शायद यह है कि वे समय को जिस तरह देखते हैं, कविता उन्हें उस तरह देखती प्रतीत नहीं होती। वे समकाल को अपने हिसाब से खोलते हैं, जिससे हमें बेशक एक तरह की अंतदृर्ष्टि मिलती है।
इस नजरिए से देखने पर एक बात सामने आती है, जो हमें यह देखने के लिए उकसाती है कि हमारी कविता इस वक्त कहां खड़ी है? वह कितनी श्रेष्ठ है और कितनी साधारण? विष्णु खरे कुछ वर्ष पहले तक हिंदी कविता को विश्व कविता के समकक्ष रखते थे। लेकिन इधर भारतभूषण अग्रवाल सम्मान प्राप्त कई कवियों में उन्हें वैसी श्रेष्ठता और श्रेष्ठता की निरंतरता नज़र नहीं आई। मतलब कविता से विजेंद की एक अलग तरह की मांग है, विजय कुमार की अलग तरह की, और विष्णु खरे की और भी अलग तरह की। यानी जो आलोचक को चाहिए वह कविता में नहीं है। तो क्या समकालीन कविता बेकार है? या जो कविता में है उसे आलोचक देख नहीं रहा? जैसा कि अशोक कुमार पांडे की टिप्पणी है कि पहले कविता तो पढ़ लो। इसका मतलब है कि असंतोष की जड़ इस बात में भी है कि क्या कविता सनातन होती है या वह युग सापेक्ष भी होती है? या सनातन और युग सापेक्ष के बीच कहीं संतुलन साधना ज़रूरी होता है?
समकालीन कविता की परख करने के लिए कुछ और बाहरी यानी संरचनागत बातों को भी ध्यान में रखना होगा -
  • आज कविता बहुतायत में लिखी जा रही है। उसमें विविधता कितनी है, एकरूपता कितनी?
  • आज एक साथ कई पीढ़‍ियां सक्रिय हैं। क्या सबकी कविता एक जैसी है?
  • आज हिंदी कविता का भौगोलिक विस्तार भी अभूतपूर्व है, रोहतांग पार के लाहौल से उत्तर पूर्व तक, कोलकाता से गुजरात, महाराष्ट्र तक। किसान कवि तो ढूंढने पर मिलता है पर दलितों और जनजातियों के प्रतिनिधि मिल जाते हैं। कवयित्रियों की संख्या में भी उत्साहवर्धक इजाफा हुआ है। इधर विदेश में भी कविता लिखी जा रही है। इस बहुविध विस्तार वाली कविता का मिजाज क्या है?
  • पाठक समाज में कविता की पैठ कितनी है? कविता में समाज है पर क्या समाज में भी कविता है? या कविता सिर्फ़ कवियों के लिए है, जैसे बहुत सी लघु पत्रिकाएं सिर्फ़ लेखकों के लिए हैं।
और अंत में, क्या हम सिर्फ़ कविता के कथ्य के आधार पर ही बात करेंगे या पूरे सौंदर्यबोध की तरफ भी ध्यान देंगे? जहां कविता को एक सम्पूर्ण कलाकृति की तरह परखा जाएगा - जिसमें कथ्य अपने आप आ जाएगा, हम कविता को सिर्फ़ समाजार्थिक-शास्त्रीय वस्तु समझने की लंगड़ी चाल हीं चलते रहेंगे।
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अनूप सेठी
मो.: 09820696684

Thursday, June 14, 2012

समकालीन कविता

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चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्‍हें बारी बारी से यहां रख रहा हूं. इस क्रम में राधेश्‍याम उपाध्‍याय और महेश पुनेठा की प्रतिक्रिया आप पढ़ चुके हैं. आइए अब देखें सुलतान अहमद क्‍या कहते हैं.

 
प्रिय भाई शैलेश सिंह,
पाँच तारीख़ को जब आपका फोन आया, तब मैं रास्ते में था। 'चिंतन दिशा' पर बात करने का बिल्कुल मन नहीं था, फिर भी कुछ बातें हो ही गयीं। उन बातों को आगे न बढ़ाया जाय, तो ये बुज़दिली ही कहलायेगी। शुरूआत ऐसी बात से करूँगा, जिसका फोन पर बिल्कुल ज़िक्र नहीं आया था।
सबसे पहले तो 'चिंतन दिशा' के चौथे अंक में भाई श्री विजयकुमार की विजय का डंका चाहे जितना बजा हो, 'चिंतन दिशा' के चिंतन की चिंदियाँ उड़कर रह गयी हैं। ऐसी कौन-सी क्रांति अटकी जा रही थी कि एक ही अंक में उनकी लिखी हुई आलोचना, उनका ख़त और उन्हीं के द्वारा लिया हुआ इंटरव्यू दे देना निहायत ज़रूरी हो गया? एक अंक में एक ही लेखक की कई चीज़ें देने का मतलब तो यही निकलता है कि चीज़ें मिल नहीं पा रही हैं और किसी तरह पत्रिका का पेट पाला जा रहा है। और ऐसा भी नहीं है कि चीज़ें मिल नहीं पा रही हैं। आप लोग उन्हें अटकाते भी ख़ूब रहते हैं।
विजयकुमार और विजयबहादुर सिंह ने बातें तो बहुत सारी कीं, लेकिन मुद्दे चार ही उभरे -- कवियों के 'नाम' यानी उनकी देवमाला, 'छंद', 'सपाटपन' और अंत में 'विचारधारा'।
विजयकुमार कहते हैं, 'सभाओं और गोष्ठियों में आज एक भक्ति-रस की धारा बहती रहती है। बल्कि यह सही मायने में भक्ति और श्रद्धा भी नहीं उसका एक 'मेलोड्रामा' है। शिखर आलोचक सुबह-शाम प्रवचन की मुद्रा में अपने पिट्ठुओं को आस्मान पर चढ़ाते रहते हैं। भक्तगण श्रद्धा विगलित होने का नाटक करते हुए उनकी धोती पकड़कर भवसागर पार कर जाना चाहते हैं। गुरु जितने चतुर, चेले उनसे ज्यादा चतुर। कहाँ हैं बहसें?'
'शिखर आलोचक' के बिंब में फ़िट करने के लिए मैंने कई आलोचकों, मसलन परमानंद श्रीवास्तव, अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे और नंदकिशोर नवल वग़ैरह पर नज़र डाली, मगर हाथ में नामवर सिंह ही आये। मुश्किल तो ये हुई कि उनके पिट्ठुओं में विजयकुमार के द्वारा प्रशंसा के लिए पेश की गयी फ़ेहरिस्त के ही कई कवि नज़र आने लगे। इसके बाद मैं ये सोचने लगा कि आख़िर विजयकुमार ने नामवर सिंह का नाम क्यों नहीं लिया? नाम लेने में ख़तरा है कि 'शिखर आलोचक' कभी भी उनका नाम नहीं लेंगे। नाम न लेने पर ये लुभावनी संभावना तो बनी ही रहती है कि हो सकता है कभी वो उन्हें भी 'आस्मान पर' चढ़ा दें। यहाँ फ़िक्र फ़ेहरिस्त की ही ज्यादा नज़र आयी, किसी मुद्दे या विचारधारा की नहीं। फ़ेहरिस्त की फ़िक्र भी हमारे समय का एक नागवार लक्षण है।
आगे विजयकुमार कहते हैं, 'आपकी इस बात से एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है कि वर्तमान में समकालीन कविता की कुछ रूढ़‍ियाँ बन गयी हैं। हमें पता नहीं कि कवियों की एक छोटी-सी बिरादरी के बाहर वास्तविक रसिक कितने हैं!' इस सिलसिले में विजयबहादुर सिंह की बात से 'समकालीन हिंदी कविता' की किन्हीं रूढ़‍ियों का तो पता नहीं चलता, उसमें उनकी इस तरह की अरुचि का ज़रूर पता चलता है, 'समकालीन कविताएं भी अपनी शक्ल-सूरत में मुझे कभी-कभार ही खींच पाती हैं।' उनकी तान टूटती है छंद पर। कहते हैं, 'मैं जब दुष्यंत रचनावली पर काम कर रहा था, उनकी दो-तीन सौ गीतात्मक कविताओं को देख हैरान होता रहा कि इस आदमी ने कविता के इन छंदों में कितनी उठक-बैठक की है।' विजयबहादुर सिंह मुग्ध भाव से दुष्यंत की आरती ही उतारते रहे, मानो ये काम हिंदी में कम हुआ हो। उन्होंने तटस्थ मूल्यांकन के मक़सद से ये देखने की कोशिश नहीं की कि दुष्यंत इस 'उठक-बैठक' में कैसी-कैसी ग़लतियाँ करते रहे। आप देख ही रहे होंगे कि इन ग़लतियों का कितना बुरा असर 'समकालीन हिंदी कविता' के उस हिस्से पर पड़ा, जो दुष्यंतकुमार जैसी लोकप्रियता की लालच में बिना किसी दायित्व-बोध के अंधाधुंध ग़ज़लें कहता और वैसी ही बल्कि उनसे भी बढ़चढ़ कर ग़लतियाँ करता चला जा रहा है। आलोचकों के पास ऐसी नज़र तो होनी ही चाहिए कि वो इन ग़लतियों को देखकर दिखा सकें। चलिए, हम दुष्यंत के सबसे लोकप्रिय संग्रह 'साये में धूप' से इस तरह की ग़लतियों के कुछ नमूने देखते हैं। सबसे पहले छंद के लिए --
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग,
चुप कैसे रहूँ,
हर ग़ज़ल अब सल्तनत के नाम
एक बयान है।
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उनको क्या मालूम विरूपित
इस सिकता पर क्या बीती,
वे आये तो यहाँ
शंख-सीपियाँ उठाने आयेंगे।
क़ाफ़िये की ख़ामी के लिए ये देखें कि उन्होंने 'भूख है तो सबा कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुद्दआ।' मत्लेवाली ग़ज़ल में ये शे'र भी डाल रक्खा है, 'क्या वजह है प्यास ज्यादा तेज़ लगती है यहाँ, लोग कहते हैं कि पहले इस जगह पर था कुऑं।'
इसी तरह की दूसरी ख़ामी पर नज़र डालने के लिए देखें कि 'आज सड़कों पर लिखे हैं सैकड़ों नारे न देख, घर अंधेरा देख तू, आकाश के तारे न देख।' मत्लेवाली ग़ज़ल में ये शे'र डाल रक्खा है, 'एक दरिया है यहाँ पर दूर तक फैला हुआ, आज अपने बाज़ुओं को देख, पतवारें न देख।'
रदीफ़ की ख़ामी के लिए उनका ये मत्ला देखें, 'पक गयी हैं आदतें, बातों से सर होंगी नहीं, कोई हंगामा करो, ऐसे गुज़र होगी नहीं।
दुष्यंत के यहाँ छंद की दुर्दशा की चिंता शायद विजयबहादुर सिंह ने इसलिए नहीं की कि कहाँ कोई 'समकालीन हिंदी कवि' इसे समझता है! लगता है आजकल की छंदों में लिखी जा रही चीज़ें इन तक पहुँचती नहीं या आम लोगों की तरह वो भी यही समझते हैं कि 'समकालीन हिंदी कवि' तो उसी मूर्ख को कहा जाता है, जिसे छंद आता ही नहीं। मज़े की बात ये है कि आजकल के 'कविता के जनपद' में इस तरह की मूर्खता पर गर्व करने का रिवाज बडे़ पैमाने पर मक़बूल हो चला है। 'समकालीन हिंदी कविता' के पहले के आधुनिक कवियों नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल और शमशेर बहादुर सिंह को छोड़ दिया जाय तो विजयकुमार की फ़ेहरिस्त में एक भी ऐसा नाम नहीं आता, जिसने कभी ये ग़लतफ़हमी पैदा होने दी हो कि देखो ये भी छंद को गंभीरता से लेता है। अपनी इस फ़ेहरिस्त को छंदों से पाक रखने के लिए ही शायद वो दुष्यंत का नाम लेने से ही कतरा जाते हैं। वो नामों की तमाम दाख़िल-ख़ारिज और मर्तबे की उलट-फेर के बावजूद 'समकालीन हिंदी कविता' की प्रचलित या कह लें रूढ़ फ़ेहरिस्त का ही अनुसरण करते हैं। वो इस 'देवमाला' में उन्हीं को शामिल करते हैं, जो अक्सर 'छंदहीन' कविताएं ही लिखते हैं। इनमें से एकाध ऐसे भी हैं जो कभी-कभी छंद पर हाथ मार तो ज़रूर देते हैं, मगर इसपर लजा भी जाते होंगे। विजयकुमार चाहे जितनी 'कविता की संगत' करते हों, क्या दुष्यंत की ग़ज़लों की संगत उनसे हो पायेगी? छंद में लिखनेवाले बाद के कवियों को तो जाने ही दें। क्या वो रूप की अपनी रूढ़ रुचि को रवादार बना पायेंगे?
रही बात 'सभ्यता-समीक्षा' की तो जो बातें छंदहीन कविताएं कहती हैं, उसी तरह की बाते ग़ज़लें भी कहती हैं, दोहे और गीत भी कह जाते हैं। ग़ज़लों, गीतों और दोहो में कमज़ोरियाँ ज्यादा हो सकती हैं, लेकिन छुआछूत की भावना छंदहीन कविताओं के कवियों में कहीं ज्यादा पायी जाती है। अरुण कमल, राजेश जोशी, देवीप्रसाद मिश्र वग़ैरह की चर्चा करने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन हरजीत सिंह, नूर मुहम्मद 'नूर' और ज्ञानप्रकाश विवेक वग़ैरह की ग़ज़लों और अब्दुल बिस्मिल्लाह के दोहों की चर्चा करने से 'आधुनिक प्रगतिशीलता' की इज्ज़त लुट जायेगी, ऐसा सोचने में एक जड़ पूर्वग्रह के सिवा शायद ही कोई और तत्व हो। इनकी चर्चा कीजिए। ज़रूरत पडे़ तो कसकर खिंचायी भी कर दीजिए। आप सोच रहे होंगे कि जब छंदवाले रूपों का समर्थन ही करना था, तो विजयबहादुर सिंह ने जब दुष्यंतकुमार की तारीफ़ की तो मैंने उनकी हाँ में हाँ क्यों नहीं मिलायी? इसलिए कि वो 'समकालीन हिंदी कविता' के किसी भी रूप का ठीक से मूल्यांकन किये बिना उसपर दुष्यंतकुमार के छंदों की मक़बूलियत की नाजायज़ धौंस जमा रहे थे।
देवमाला की बात अधूरी ही रह गयी। उससे जुड़ी एक मज़ेदार बात भी सुन लें। छायावाद के बाद की आधुनिक हिंदी कविता की देवमाला का ब्राहृा अज्ञेय को कहा जा सकता है। इनके तीन सप्तकों में शामिल अधिकांश कवि ही चर्चा के केंद्र में रहे। मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और विजयदेव नारायण साही वग़ैरह की चर्चा करके नामवर सिंह ने सिर्फ़ अज्ञेय की देवमाला का अनुगमन भर किया था।
अज्ञेय की देवमाला के बाहर के कवि नागार्जुन, त्रिलोचन और केदारनाथ अग्रवाल चर्चा में तब आये जब 'समकालीन हिंदी कविता' के कवियों को अपनी कमज़ोरियों को ढँकने और परंपरा द्वारा पुष्ट दिखाने के लिए यानी एक तरह की क्षतिपूर्ति के लिए कुछ नामों की ज़रूरत पड़ी। मुक्तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय तो उन्हें अज्ञेय की देवमाला में से ही मिल गये। इन 'समकालीन कवियों' की बहुत बड़ी कमज़ोरी है कि अक्सर ये छंद में नहीं लिख पाते। ये कोई बहुत बड़ा दोष नहीं है। दोष है इसके प्रति उनकी भयानक उपेक्षा में। लगता है कि ये सब इसी में ख़ुश हैं कि वो न सही उनके पुरोधा नागार्जुन, त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, मुक्तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय तो छंद में लिख गये हैं। इनके पुरखों ने घी खाया था तो ये अपना हाथ सुँघाते रहते हैं। ये ख़ुद घी खा लेंगे तो क्या होगा? ये सोचिए तो बड़ा मज़ा आयेगा। अगर विजयकुमार इन्हें छोड़कर छंदों में लिखी जा रही चीज़ों की चर्चा करने लग जायेंगे तो वो फ़ौरन इनकी 'संगत' छोड़कर भाग खडे़ होंगे। अपने साथ चर्चा के चमकदार केंद्रों की सुविधाएं भी गठिया ले जायेंगे।
इसी से जुड़ी एक और मज़ेदार बात बताने से रह गयी कि 'तीसरा सप्तक' तक तो अज्ञेय द्वारा बनायी गयी देवमाला ख़ूब चली, लेकिन उन्होंने जब 'चौथा सप्तक' के रूप में 'समकालीन हिंदी कविता' की देवमाला बनायी तो वो बुरी तरह से 'फ्लॉप' साबित हुए। उसका एक भी कवि ठीक से चर्चा के केंद्र में नहीं आ पाया। अब तक लगातार ये संकट बना हुआ है कि 'समकालीन हिंदी कविता' की देवमाला न ठीक से आकार ले पा रही है, न उसे आम स्वीकृति मिल पा रही है। उसकी तरह-तरह की फ़ेहरिस्तें ज़रूर बनती-बिगड़ती रहती हैं।
छंद की ही तरह कविता के शिल्प से संबंधित एक और तत्व है तहदारी। इसका उलटा है सपाटपन। इस का ज़िक्र विजय बहादुर सिंह ने तो नहीं, विजयकुमार ने ज़रूर किया है, मगर इसका इस्तेमाल उन्होंने किसी को हलाल करने और किसी की आरती उतारने भर के लिए किया है, मूल्यांकन के लिए नहीं।
जब विजयबहादुर सिंह बताते हैं, 'रघुवीर सहाय को पढ़ते हुए तबीयत बैठ-सी जाती है। बेहद अकेलेपन और लाचारी से पाठक भर जाता है।' तब उनका मतलब था कि उनकी ही तबीयत बैठ जाती है, वे ही अकेलेपन और लाचारी से भर जाते हैं। ठीक ऐसा ही मामला विजयकुमार के साथ भी पेश आता है। जब वो बताते हैं, 'ये अपने-अपने इंप्रेशन हैं। इंप्रेशन भर। वे अंतिम सत्य नहीं कहलाते।' फिर अंतिम सत्य बतलाते हुए वो कहते हैं, 'आपको भवानीप्रसाद मिश्र पसंद हैं, किसी अन्य को उनमें कुछेक कविताओं को छोड़कर बेहद सपाटपन भी नज़र आ सकता है।' तो उनका मतलब था कि उन्हें ही भवानीप्रसाद मिश्र में बेहद सपाटपन नज़र आता है। दोनों के द्वारा 'पाठक' और 'किसी' को घसीटने से सिर्फ़ बात की धार ही कुछ कम हुई है। और कुछ तो हासिल नहीं हुआ। इस सपाटपन का मसला कविता के रूप से जुड़ा हुआ है। दोनों ही आलोचक इससे भागते हुए नज़र आते हैं। विजयबहादुर सिंह ये नहीं बताते कि रघुवीर सहाय की कविताएं अपने रूप की वजह से उनकी तबीयत बैठा देती हैं कि अपनी विचारधारा की वजह से। ग़ौर से देखा जाय तो रघुवीर सहाय के यहाँ इन दोनों मामलों में तरह-तरह के झोल दिखायी पड़ सकते हैं। मिसाल के लिए 'रामदास' कविता में रामदास के द्वारा अपनी हत्या की नियति को बिना चीख़े-चिल्लाये परमहंस की तरह ठंडी उदासी से स्वीकार कर लेने में आज के सामाजिक यथार्थ को नज़रअंदाज़ करने और उसपर नक़ली क़िस्म के आभिजात्य को थोपने की विचारधारात्मक भूल है। रहा रूप, तो उनकी कविताओं के अख़बारी अंदाज़ के उबाऊपन पर तो बहुत सारी बातें हो सकती हैं।
इन कमज़ोरियों के बावजूद रघुवीर सहाय 'समकालीन हिंदी कविता' के लिए मैथिलीशरण गुप्त से ज्यादा महत्वपूर्ण बने रहेंगे। लगता है 'मैथिलीशरण आदि की विरासत' की चिंता में डूबे विजयबहादुर सिंह 'राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज संभाव्य है।' सुनकर गद्गद् ही हो जाते होंगे। ऐसी भाववादी कविताओं के आदी आलोचक का रघुवीर सहाय से नाउम्मीद हो जाना स्वाभाविक ही है; क्योंकि वो तो इस तरह की कविताएं भी लिखते हैं, 'पढ़‍िए गीता बनिए सीता फिर इन सबमें लगा पलीता किसी मूर्ख की हो परिणीता निज घर-बार बसाइए।' (प्रतिनिधि कविताएं - रघुवीर सहाय, पृ. 28)
विजयकुमार कहते हैं, 'नागार्जुन की कविता को यदि आप कहते हैं कि वह 'विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई है।' तो लगभग यही राय कोई दूसरा आदमी मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, चंद्रकांत देवताले, अरुण कमल और नरेंद्र जैन की कविताओं के बारे में व्यक्त कर सकता है।' इस तरह की आरती उतारने में विजयकुमार को ये याद नहीं रह जाता कि चाहे लोग बोलने से कितना भी कतराते हों, लेकिन नागार्जुन के यहाँ सपाट कविताओं की बहुत बड़ी तादाद मौजूद है। लेकिन इससे उनका महत्व कम नहीं हो जाता। सपाटपन तो सभी तरह के कवियों में पाया जा सकता है, यहाँ तक कि मुक्तिबोध में भी। मिसाल के लिए उनकी 'ओ चीन के किसानो!' की ये पंक्तियाँ 'सपाटपन' की मिसाल नहीं तो और क्या हैं-
'ओ चीन के किसानो! खेतों में काम के संग गीतों में तान के संग उड़ते हो तुम गगन में द्युतिमान देवता-से' (मुक्तिबोध रचनावली - 1, पृ. 386)
नरेंद्र जैन ने तो जैसे 'सपाटपन' की मिसाल पेश करने के लिए ही ये पंक्तियाँ लिखी थीं --
'धर्मनिरपेक्षता हमारे यहाँ राजनैतिक, सांप्रदायिक कुचक्र का मोहक नाम है' (पहल - 37, कविता विशेषांक, पृ. 185)
इन सबकी आरती उतारने में इस तरह की ख़ामियों को नज़रअंदाज़ कर देना किसी भी तरह मुनासिब नहीं कहा जायेगा। ख़ामियाँ अगर दिखती हैं तो उन्हें दिखाने में हरज क्या है? इससे आरती उतारने का मज़ा कुछ किरकिरा ज़रूर हो जाता है, मगर कविताओं के सृजन और मूल्यांकन को ताक़त ज़रूर मिलती है।
ऐसा नहीं कि इन दोनों आलोचकों ने सिर्फ़ कविता के रूप से ही संबंधित बातें ही की हैं; एक ने छंद पर ज़ोर दिया तो दूसरे ने 'सपाटपन' पर। विचारधारा से संबंधित बातें भी उन्होंने की हैं। 'तार सप्तक' की आलोचना करते हुए विजयबहादुर सिंह ने कहा है, 'अगर आप 'तार सप्तक' की उन कविताओं को देखें तो उनमें से कोई एक भी कविता लोक-हृदय पर अपनी छाप छोड़ नहीं पायी है। यहाँ तक कि मुक्तिबोध और अज्ञेय की भी।'
इस कथन का तेवर तो ऐसा लगा कि जैसे अब ये उन दोनों की तमाम कमज़ोरियाँ उजागर करके धर देंगे। मगर हुआ उलटा। वो तो इन दोनों की कविताएं उद्धृतत कर लगे उनकी व्याख्या करने। यानी 'तार सप्तक' ने लोक-हृदय पर कोई छाप न छोड़ी हो, लेकिन ऐसे कवि ज़रूर दिये, जिनकी कविताओं की व्याख्या में विजयबहादुर सिंह भी मगन हो गये। विजयकुमार की 'संगत' में रहनेवाले कवियों को हलाल करने के लिए वो मुक्तिबोध को इस तरह याद करते हैं, 'आप मुक्तिबोध की उन पंक्तियों की याद करें जिनमें वे अत्यंत क्षुब्ध, आत्म और कातर हो ग्लानि से भरे हुए स्वयं से पूछते हैं -- 'ओ मेरे सिद्धांतवादी मन! ओ मेरे आदर्शवादी मन! अब तक क्या किया जीवन क्या जिया?' यह केवल कवि का आत्मप्रन क्यों माना जाय? हमारा अपना भी क्यों नहीं? पर यह कौन कह सकता है? कौन स्वयं को कटघरे में खड़ा करने के आत्मबल से संयुक्त है? आप तो कवियों की 'संगत' में रहने का दावा ही करते रहे हैं, कृपया ज़रूर सूचित करिएगा कि कितने इस 'आत्म' का साक्षात्कार कर सके हैं? मेरी अपनी समझ से तो वे सब एक प्रायोजित और प्रदत्त संसार में रहते रहे हैं बग़ैर किसी ईमानदार पूर्ण लगाव या संलिप्ति के। उनके ज्ञानात्मक संवेदनों में इस 'आत्म' की उपस्थिति कहाँ है? अगर होती तो निश्चय ही वे संवादरत कहीं-न-कहीं ज़रूर दिखते।' विजयबहादुर सिंह के हिसाब से जिन मुक्तिबोध की 'एक भी कविता लोक-हृदय पर अपनी छाप नहीं छोड़ पायी है।' उनकी जगह उनके मुताबिक लोक-हृदय पर छाप छोड़नेवाले कवियों मैथिलीशरण गुप्त, भवानीप्रसाद मिश्र, माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', जैसे कवियों की कविताओं में से ऐसा सवाल उठाने की कोशिश वो करते तो ये भी पता चलता कि हरदम लोक-हृदय के पीछे पडे़ रहने के क्या ख़तरे हो सकते हैं! ऐसे में लोक-हृदय से जुड़के जी तो जुड़ा जाता है, लेकिन सच्चाई कहीं पीछे छूट जाती है यानी गैलीलियो जैसे आदमी को नज़रबंदी में अंधा होकर रह जाना पड़ता है।
मुक्तिबोध की दुन्यावी मसलों से घिरी हुई कविता ' अंधेरे में' की पंक्तियाँ उद्धृत करने के बाद वो 'तार सप्तक' के ही दूसरे कवि अज्ञेय की भाववादी कविता 'असाध्य वीणा' की प्रशंसा में तो एकदम मगन होकर कह उठते हैं, 'यह कोई रहस्यवाद नहीं है, आप चाहें तो इसे छायावादी विदात्मवाद ज़रूर कह सकते है, जहाँ चर-अचर, मनुष्य और मनुष्येतर का भेद बेमानी हो उठता है।' ऐसे में वर्गों के भेद का तो और भी अर्थ नहीं रह जायेगा। लेकिन 'भाववादियों' को भी भौतिक समस्याएं सताती हैं यानी 'आग सबको जलाती है' (मोचीराम, संसद से सड़क तक - धूमिल, पृ. 40) तब उन्हें लिखना पड़ता है, 'बह चुकीं बहकी हवाएं चेत की कट गयीं पूलें हमारे खेत की कोठरी में लौ बढ़ाकर दीप की गिन रहा होगा महाजन सेंत की।' (सदानीरा - 1, अज्ञेय, पृ. 264) यहाँ किसान और महाजन का भेद भुलाया नहीं जा पाता।
'तार सप्तक' के सिलसिले में विजय बहादुर सिंह कहते हैं, 'पर यह कविता भी अपनी सोच और भाव-भंगिमा में न तो मैथिलीशरण आदि की विरासत का विकास लगती है, न छायावादियों की।' छायावाद, प्रगतिवाद और प्रयोगवाद के हंगामी झगड़ों को भुलाकर अब तो उनकी एकता को क़बूल कर लेना चाहिए। सुमित्रानंदन पंत तक ने इसे क़ुबूल कर लिया था, 'छायावाद वस्तुत: नवीन युग के काव्य का एक व्यापक संचरण था, जिसे प्रगतिवादी तथा नयी कवितावादी भी अभिव्यक्ति देते रहे हैं।' (छायावाद : पुनर्मूल्यांकन - सुमित्रानंदन पंत, पृ. 102) मुक्तिबोध छायावाद की 'प्रगतिवादी शाखा' से किस बुरी तरह प्रभावित थे, इसे साबित करने के लिए ही जैसे 'तार सप्तक' की उनकी कविता 'पूँजीवादी समाज के प्रति' लिखी गयी थी। अज्ञेय पर तो छायावाद से प्रभावित होने का इल्ज़ाम लगाया ही जाता रहा है। 'तार सप्तक' की योजना की बारीकियों में न जायें तो भी प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की एकता उतनी इससे नहीं साबित होती कि उसमें मुक्तिबोध शामिल थे, जितनी इससे कि 'तार सप्तक' के लिए अज्ञेय ने रामविलास शर्मा को आमंत्रित किया था। विचारधारा से ही संबंधित एक और बात पर भी ग़ौर करना ज़रूरी है। अपनी उदारता दिखाने में जिसपर विजयकुमार का ध्यान नहीं गया। वो ख़ुद एक तरफ़ कुछ कवियों को पढ़ने से परहेज़ करते हैं तो दूसरी तरफ़ रवादारी की नसीहत देते हुए कहते है, 'कवियों के अपने-अपने व्यक्तित्व और अनुभव संसार होते हैं। एक का आधार लेकर दूसरे को पछाड़ना मैं समझता हूँ कि एकांगी दृष्टिकोण है। कोई भी एक रचनाकार किसी भी दौर में यह नहीं कह सकता कि सत्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे पास है। यदि ऐसा होता तो हम तुलसी के साथ सूर को न पढ़ रहे होते। सिर्फ़ कबीर से काम चल जाता, मीरा को पढ़ने की आवश्यकता न रहती।'
समस्या मध्यकाल के इन कवियों को पढ़ने या न पढ़ने की नहीं है। किसी-न-किसी तरह इन्हें तो सभी कवि कुछ-न-कुछ पढ़ ही लेते हैं। समस्या तो है 'समकालीन हिंदी कविता' में से कुछ को 'पढ़ने' कुछ को 'न पढ़ने' और कुछ से 'परहेज़ करने' की। सच तो ये है कि 'शिखर आलोचक' ही नहीं विजयकुमार भी अच्छा-ख़ासा परहेज़ बरतते हैं। इस समस्या से सीधे-सीधे सामना न करने की नीयत से ही शायद उन्होंने तुलसी, सूर, कबीर और मीरा को अपनी बातों में शामिल कर लिया है। बात निकल ही आयी है तो ये कहना भी ज़रूरी है कि इन कवियों पर मुग्ध होने भर से काम नहीं चलेगा। पढ़ना तो इन्हें सावधानी से ही पडे़गा। कौन नहीं जानता कि ये सारे-के-सारे कवि भाववादी पटरी के हैं। उनकी कविताओं में आ गये मानवीय जीवन के प्रसंगों से आज के कवि चाहे जितना लाभ उठा लें, उनकी भक्ति-भावना से आज की भयावह सभ्यता की समीक्षा में कोई सहायता नहीं ली जा सकती, उसे बदलना तो दूर की बात है। वही 'आज की सभ्यता' जिसका विजयकुमार ने इतना अख़बारी और जोशीला वर्णन किया कि ख़ुद सकुचाकर बोल उठे, 'मैं यह मानकर चल रहा हूँ, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तो आप कम-से-कम इसे 'साहित्येतर' विषय या 'सुपरफ़ीशयल' विवेचना के खाते में नहीं डाल देंगे।'
यहाँ कहना ये है कि उदारतावाद भर के चलते उन कवियों को याद करने से काम नहीं चलेगा। उन्हें उस तीखे 'इतिहास-बोध' के नज़रिये से देखने की ज़रूरत पडे़गी, जिससे देखते हुए मुक्तिबोध इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे, 'एक बार भक्ति-आन्दोलन में ब्राह्मणों का प्रभाव जम जाने पर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा में कोई देर नहीं थी। ये घोषणा तुलसीदासजी ने की थी। निर्गुण मत में निम्नजातीय धार्मिक जनवाद का पूरा ज़ोर था, उसका क्रान्तिकारी सन्देश था। कृष्णभक्ति में वह बिल्कुल कम हो गया, किन्तु फिर भी निम्नजातीय प्रभाव अभी भी पर्याप्त था। तुलसीदास ने भी निम्नजातीय भक्ति स्वीकार की, किन्तु उसको अपना सामाजिक दायरा बतला दिया। निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रान्तिकारी जातिवाद-विरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदास जी ने पुराण-मतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया। (मुक्तिबोध रचनावली : 5 पेज 291)
कुल मिलाकर विजयकुमार और विजयबहादुर सिंह दोनों की पहली चिंता अपने प्रिय कवियों की देवमाला स्वीकृत कराने की ही प्रतीत हुई, उनका मूल्यांकन करने-कराने की नहीं। दूसरी चिंता में ज़रूर दोनों में फ़र्क़ है। जहाँ विजयबहादुर सिंह इसपर ख़ुश होते हुए दिखायी देते हैं, वहीं विजयकुमार इसपर दुखी होते हुए नज़र आते हैं कि तमाम चर्चाओं के बावजूद ये देव अलोकप्रिय ही बने रह जाते हैं। इनकी अलोकप्रियता के भीतरी और गहरे कारणों में उतरने की ज़हमत दोनों ही नहीं उठाते।
समझ में नहीं आता कि 'समकालीन हिंदी कविता' का 'छंदहीन हिस्सा' चर्चा का आख़िर कितना भुक्खड़ है कि 'शिखर आलोचक' से लेकर विजयकुमार तक सभी की चर्चाएं खाकर भी उसका पेट एकदम पिचका ही रहता है कि उसे देखकर दया आती है और विजयकुमार को कहना पड़ता है, 'समकालीन कविता से मेरे असंतोष कम नहीं हैं और यदा-कदा मैंने लिखित रूप में व्यक्त भी किया है। पर समूची समकालीन कविता को एक सिरे से नकार देने की यह स्थिति मुझे अंग्रेज़ी के उस मुहावरे की याद दिलाती है कि 'कुछ लोग बच्चे को नहलाने के बाद टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं।' ख़ैर - -! मैं इतना ही कहूँगा कि मेरे लिए आज भी तमाम साथी रचनाकारों को एक गहरी सहानुभूति और तटस्थता के साथ पढ़ना, उनके अच्छ-बुरे पहलुओं को समझना, उसके अंतर्विरोधों को पकड़ना एक प्रकार से अपने समय को समझना है।'
अफ़सोस कि विजयकुमार इतने पूर्वग्रह से भरे हुए हैं कि उनके 'साथी रचनाकारों' की तादाद बहुत कम है। भले उन्होंने कहा हो, 'नाम गिनाना मेरा उद्देश्‍य नहीं है।' लेकिन काम उन्होंने यही किया है। पूर्वग्रह तो उनके इतने सख्त हैं कि उनकी फ़ेहरिस्त में 'समकालीन हिंदी कविता' के वो ही कवि समा पाते हैं, जो अक्सर 'छंदहीन' कविताएं ही लिखते हैं और उन्हें ही 'मुक्तछंद' में लिखा समझते हैं। उन कवियों में से भी वो उन्हें छोड़ देते हैं, जो उनकी 'संगत' में नहीं रह पाते। उन कवियों से तो वो सख्त परहेज़ बरतते हैं, जो छंद में लिखते हैं। हिंसा के जिन मसलों के लिए उन्होंने अरुण कमल या बद्रीनारायण की कविताओं को याद किया, उनसे कम मार्मिक चित्र ग़ज़लों, गीतो या दोहों में नहीं पाये जाते। इसे जानने के लिए तो उन्हें पढ़ना पडे़गा। उनके मूल्यांकन की बात आयी तो उनकी ख़ामियों-ख़ूबियों को दिखाने के लिए छंद का अनुशासन भी सीखना पडे़गा और वो 'सिलहली गैल' ऐसी है कि उसमें पाँव रपट जाने का डर लगातार बना रहेगा। ये तो बडे़ झंझट का काम है। इससे तो यही अच्छा है कि हम हों, 'छंदहीन कविताएं' हों, समाजशास्त्र की अख़बारी सूचनाएं हों और दोस्तों की ऐसी चमकदार पत्रिकाएं हों, जिनमें हमारी लिखी चर्चाएं छप जाया करें।
मेरी इन बातों पर कहीं 'आपसी सहमति का 'गुडी-गुडी' संसार' असर तो नहीं डाल गया या मैं कहीं 'समूची समकालीन कविता को एक सिरे से नकार' तो नहीं गया?











मो.: 09979451243

Monday, June 11, 2012

समकालीन कविता

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चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्‍हें बारी बारी से यहां रखने का इरादा है. इस क्रम में राधेश्‍याम उपाध्‍याय की प्रतिक्रिया आप पढ़ चुके. आइए अब पढ़ें महेश पुनेठा के विचार.

 
अभी तक 'चितंन दिशा' देखने का सुअवसर तो नहीं मिला लेकिन 'समकालीन कविता' को लेकर इसके अलग-अलग अंकों में छपे बहुचर्चित पत्रों को अनूप सेठी जी के ब्लाग में पढ़ा। चारों पत्र बहुत महत्वपूर्ण एवं विचारोत्तेजक हैं। अपनी-अपनी बातों को दमदार तरीके से रखते हैं। समकालीन कविता पर एक गंभीर बहस को आगे बढ़ाते हैं। विजय बहादुर सिंह जी के पत्र में जहाँ परम्परा के प्रति अधिक आग्रह दिखाई देता है तो विजय कुमार जी के पत्र में आधुनिकता के प्रति। विजेन्द्र जी और जीवन सिंह जी ने इन दोनों अतिवादों से बचते हुए परंपरा और आधुनिकता को द्वंद्वात्मक रूप से देखने की बात कही है। पहले दो पत्रों में कविता पर अधिक बात हुई है तो बाद के दो पत्रों में कविता के साथ-साथ कवि कर्म और कवि-दायित्व को भी बहस के केंद्र में लाया गया है, मुझे लगता है जो किसी भी काल की रचनाधर्मिता के सही मूल्यांकन के लिए ज़रूरी भी है। हिंदी में बहुत कम कवि-आलोचक हैं जो कवि-दायित्व पर इतना जोर देते हैं। इस तरह बाद के दो पत्रों में अधिक संतुलित, व्यावहारिक और व्यापक दृष्टिकोण अपनाया गया है। कविवर विजेंद्र जी ने बहुत सारे प्रश्न खडे़ कर बहस को नया आयाम प्रदान किया है। आशा है जिन पर आगे सुधी आलोचकगण अपना पक्ष प्रस्तुत करेंगे। ताकि समकालीन कविता की एक मुक्कमल तस्वीर सामने आ पाए।
विजेंद्र जी ने अपने पत्र में आलोचक द्वय की मान्यताओं पर अपनी सहमति-असहमति दर्ज करते हुए तीन बिंदुओं पर अपनी बात को विशेष रूप से केंद्रित किया है - कवि की पक्षधरता, परम्परा का ज्ञान और लोक से उसका जुड़ाव। ये तीनों बिंदु एक दूसरे से जुडे़ हुए हैं। कविता में पक्षधरता का सवाल बहुत ज़रूरी सवाल है। कला पर थोड़ा समझौता हो सकता है पर पक्षधरता पर नहीं। यह पहली शर्त है। ऐसी कविता का कोई मूल्य नहीं जो अतीतगामी, प्रतिगामी और यथास्थितिकामी हो। पक्षधरता का ही सवाल है जो कविता प्रयोजन से जुड़ा है। कविता वाग्विलास या मनोरंजन का साधन नहीं है बल्कि परिवर्तन का औजार है। अकल्याणकारी को नष्ट करना कविता का प्रयोजन है। आपकी कविता इस प्रयोजन को पूरा करती है या नहीं, यह आपके पक्ष को बताता है। बिना इस पक्षधरता के कवि कर्म की कोई महत्ता नहीं। यही कवि की प्रतिबद्धता है। विजेंद्र जी बिल्कुल सही कहते हैं कि प्रतिबद्धता एक रचनात्मक अनुशासन है। इनमें विकार या विकृतियाँ तभी आती हैं जब रचनाकार अपने आचरण से गिरता है। वास्तव में कविता का काम मात्र यथास्थिति का चित्रण या उद्घाटन करना नहीं बल्कि विकल्प प्रस्तुत करना भी है। विकल्प ही बताता है कि कवि किसके पक्ष में खड़ा है। इससे कवि और कविता का कद तय होता है। 'भक्त कवियों' की कविता 'रीत कवियों' की कविता से बड़ी अपने पक्ष को लेकर ही सिद्ध होती है। लोर्का, पाब्लो नेरूदा, वाल्ट हिटमन, ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, सारोवीवा, कार्देनाल से लेकर निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन, केदार, मुक्तिबोध, गोरख पांडे, पाश, फैज, गिर्दा, अदम गोंडवी तक की कविता अपनी पक्षधरता से ही महत्वपूर्ण है। इनका पक्ष शोषित-पीडि़त किंतु संघर्षशील जनता का पक्ष है। ये सभी कवि जीवन और कविता दोनों मोर्चों पर बराबर सक्रिय रहे। इन कवियों ने संघर्षशील लोक से एकात्म होकर उसके मुक्ति संग्राम को आगे बढ़ाया। सर्वहारा के उत्पीड़कों तथा दमनकारियों का विरोध किया। इनकी कविता 'आत्माभिव्यक्ति' के संकीर्ण दायरों को तोड़कर जनता से एकात्म होती है। इसीलिए बुर्जुआ मन इनकी संघर्षधर्मी कविता से डरता है। उसे इनकी कविता में अपने विनाश के बीज अंकुरित होते दिखाई देते हैं। इसके लिए जीवन में अच्छा मनुष्य होना ज़रूरी है। विजेंद्र जी की इस बात से मेरी पूरी सहमति है कि जीवन में गिरा हुआ मनुष्य एक बड़ा कवि या समीक्षक नहीं हो सकता है। एक बेहतर इंसान होना रचना कर्म की पूर्वशर्त है। हमारा पक्ष इसको निर्धारित करता है। यदि हम मनुष्यता के पक्ष में है तो यह हमारे बेहतर इसांन होने का प्रमाण है।
हमारी पक्षधरता को परम्परा का ज्ञान बल प्रदान करता है। परंपरा की जितनी अच्छी द्वंद्वात्मक समझ कवि को होगी वह उतनी अधिक मजबूती के साथ अपने पक्ष को लेकर खड़ा रह सकता है क्योंकि अपनी परंपरा और इतिहास का गहरा ज्ञान वर्तमान का सही विश्लेषण करने का विवेक प्रदान करता है। जैसा कि टेरी ईगल्टन ने भी कहा है, ''जो कला अपने दौर की महत्वपूर्ण गतिविधियों से अपने को काट लेती है और जिसने स्वयं को इतिहास से अलग कर लिया है वह अपना महत्व खो देती है।'' इतिहास और परम्परा ज्ञान से ही उन शक्तियों की सही-सही पहचान हो सकती है जो इतिहास और समाज को गति प्रदान करने वाले हैं। बदलाव के कारक हैं। मुक्ति-संग्राम को अग्रसर करने वाले हैं। साथ ही परंपरा का ज्ञान उसको नवीकृत कर विकसित करने में सहायक होता है। विजेन्द्र जी का यह कहना तर्कसंगत है कि परंपरा और इतिहास से हम यही तो सीखते हैं कि कठिन दौर में रहकर भी मनुष्य ने अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष किया है। वही इस दुनिया को रूपांतरित कर स्वयं भी बदला। वह आज भी जिंदा है। यह अहसास आगे लड़ने का साहस भी प्रदान करता है। जीवन सिंह जी का यह कहना मुझे उचित लगा कि परंपरा और नवीनता में हर युग में तनावपूर्ण सामंजस्य का रिश्ता होना चाहिए। जिस तरह परंपरा और रूढि़ के बीच अंतर करने की आवश्यकता है उसी तरह आधुनिकता और औपनिवेशिक आधुनिकता के बीच भी। न हर पुराना त्याज्य है और न हर नया ग्राह्य।
परंपरा के ज्ञान के लिए जहाँ एक ओर हमें विश्व क्लैसिक्स का अध्ययन करना ज़रूरी है वहीं दूसरी ओर लोक और उसके जीवन से जुड़ाव उससे भी अधिक ज़रूरी है। तभी उससे एकात्म होना संभव है। यहाँ लोक से मेरा आशय जैसा कि विजेन्द्र जी भी अपने पत्र में स्पष्ट करते हैं-लोक सर्वहारा के रूप में ऐसी वैश्विक शक्ति है जो दमन और शोषण के विरुद्ध खड़ी होती है। जीवन में धँस कर ही जीवन की गति को हम अधिक अच्छी तरह से पकड़ सकते हैं। एक कवि का जीवन से जीवंत संबंध होना बहुत ज़रूरी है। तभी वह जीवन को अधिक गहराई, प्रमाणिकता, मानवीयता और ऐतिहासिक संवेदना के साथ समझ और चित्रित कर सकता है। ऊपर हमने जिन कवियों का नामोल्लेख किया है उनकी कविता की ताजगी और श्रेष्ठता का एक कारण अपने जन-जनपद के समाज और प्रकृति से उनका सीधा, सक्रिय एवं गहरा संबंध रहा। इसीलिए विजेंद्र जी एक कवि के लिए लोक से जुड़ना अनिवार्य बताते हैं। उनकी दृढ़ एवं स्पष्ट मान्यता है कि लोक से जितनी दूर जाएंगे हम उतने ही असहाय, संशकित, डरे हुए, दिशाहीन महसूस करेंगे। आज के लोक से कटे मध्यवर्गीय कवियों में यह बात हमें दिखाई भी देती है। यही वजह है कि 'आज की अधिकांश कविताओं में श्रमिक, छोटे भूमिहीन किसान, बुनकर तथा कठिन श्रम में लगे लोगों के चित्र गायब हैं। उनकी तीखी अंतर्विरोधी स्थितियों के प्रसंग लगभग लुप्त हैं।'
ढुलमुल पक्षधरता, परंपरा-ज्ञान और लोक-संपृक्ति के अभाव के चलते आज की अधिकांश कविता में वाग्मिता और चमत्कार की प्रवृत्ति बढ़ी है और जीवन के चित्र गायब हुए हैं। बुनियादी जीवन-चिंताओं और क्रियाशील जीवनानुभवों की रिक्ति के चलते ही कविता अमूर्तन, काव्य-चमत्कृति, जादुई कौशल का शिकार होती है। जीवन सिंह जी के इस मत से मेरी बहुत अधिक सहमति बनती है। उनका यह मानना सही है कि- ''आधुनिकतावादी वितान के नीचे काम करने वाले कवियों ने कविता को समकानीन कला-समृद्धि प्रदान की है।'' जबकि ज़रूरत है जीवन समृद्धि प्रदान करने की। साहित्य-चिंता की अपेक्षा जीवन-चिंता को अधिक प्राथमिकता देने की। मनुष्यता विरोधी प्रवृत्तियों के खिलाफ खडे़ होने की। इसके लिए 'नागार्जुन और मुक्तिबोध जैसे कवियों की तरह समयबद्ध विचार की जटिल और सहज प्रक्रियाओं के साथ जीवनानुभवों का एक समावेशी कोश मौजूद होना ज़रूरी है।' उन्होंने 'शक्ति संरचना' का जो सवाल उठाया है वह भी विचारणीय है। शक्ति संरचना केवल राजनीतिक-सत्ता स्तरों तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर स्तर पर उसे देखा और महसूस किया जा सकता है। साहित्य-संगीत-कला-संस्कृति के क्षेत्र भी उससे अछूते नहीं है। यदि गौर से देखा जाय तो यह संसार छोटी-छोटी सत्ताओं का एक संजाल है जो मिलकर एक बड़ी सत्ता का निर्माण करता है। ये छोटी-छोटी सत्ताएं राजनीतिक-सत्ता को मजबूत करने का काम करती हैं। इनके बीच अन्यान्योश्रित संबंध है। इस शक्ति संरचना को एक समकालीन कवि के लिए समझना ज़रूरी है।
वास्तव में यह विडंबना है ''कि जिस कविता जगत के पास नागार्जुन और मुक्तिबोध सरीखे दो बडे़ प्रेरक प्रकाश पुंज मौजूद हैं। वह अपनी भविष्य गति के लिए रघुवीर सहाय सरीखे महत्वपूर्ण किंतु अनिर्णय के कवि को सिर चढ़ाए घूम रहा है।''(जीवन सिंह) यहाँ यह विचार करने की आवश्यकता है कि आख़िर ऐसा क्यों किया जाता है? इसके पीछे किसके और कौनसे हित छुपे रहते हैं? हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह एक सुनियोजित राजनीति के चलते होता है। इसको भी कहीं न कहीं शक्ति संरचना के परिप्रेक्ष्य में देखने की ज़रूरत है। इसके पीछे भी कहीं न कहीं जीवन-चिंता और पक्षधरता के सवाल मुख्य हैं।
मुझे लगता है आज की कविता पर कोई भी बात तब तक पूरी नहीं होगी जब तक उक्त बिंदुओं के आलोक में आज की कविता और कवि-कर्म को नहीं देखा जाता है। किसी भी दौर की कविता और कवि का सही-सही मूल्यांकन 'एक पंक्तीय आलोचकीय वक्तव्य' से नहीं किया जा सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि खराब कविता के लिए खराब आलोचना भी बराबर की जिम्मेदार है। एक अच्छे आलोचक को अपने आलोचकीय दायित्व का बोध होना चाहिए। आलोचना किसी व्यक्तिगत आग्रह या पूर्वाग्रह के चलते नहीं होनी चाहिए। अभी इतना ही अधिक फिर कभी।
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महेश पुनेठा
मो.: 09411707470

Friday, June 8, 2012

समकालीन कविता


चिंतनदिशा में समकालीन कविता पर विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार की चिट्ठियां आप पढ़ चुके हैं. फिर अगले अंक में उन चिट्ठियों पर विजेंद्र और जीवन सिंह की प्रतिक्रिया भी पढ़ चुके हैं. चिंतनदिशा के ताजा अंक में राधेश्‍याम उपाध्‍याय, महेश पुनेठा, सुलतान अहमद और मेरी प्रतिक्रियाएं छपी हैं. इन्‍हें बारी बारी से यहां रखने का इरादा है. आइए पहले राधेश्‍याम उपाध्‍याय की प्रतिक्रिया पढ़ें.


चिंतन-दिशा में आपने विजय बहादुर सिंह तथा विजय कुमार के बीच हुए निजी पत्राचार को प्रकाशित कर एक अच्छी पहल की थी। उम्मीद यह थी कि दोनों के बीच हुआ यह पत्र-व्यवहार हिंदी की समकालीन कविता पर एक सार्थक बहस को जन्म देगा और कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर केंद्रित होकर यह बहस आगे बढ़ेगी, पर अक्टूबर-दिसंबर 2011 के अंक में वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी के पत्र ने सब गुड़ गोबर कर दिया। अपने पत्र में विजेंद्र जी अनावश्यक रूप से आक्रामक, बौखलाए हुए से तथा उपदेशक की मुद्रा में लगते हैं। इतना ही नहीं, कवियों को लेकर वे जिस तरह की गुटबाजी करने में लगे हुए हैं, वह उनकी संकीर्ण दृष्टि का परिचायक तो है ही, आज की कविता पर हो रही एक महत्वपूर्ण बहस को दिग्भ्रमित करने का प्रयास भी है समकालीन कविता के परिदृश्य में रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह तथा कुंवर नारायण का अवदान महत्वपूर्ण माना गया है। हिंदी जगत में ये नाम समादृत रहे हैं। बिना मार्क्सवाद का ढोल पीटे भी ये कवि दूसरे किसी कवि से कम लोकतांत्रिक तथा प्रगतिशील नहीं हैं। विजेंद्र जी यदि इनके महत्व को नकारते हैं तो, इनका तो कुछ भी नहीं बिगड़ता, पर विजेंद्रजी की निजी कुंठाएं ही ज़ाहिर होती हैं। विजेंद्र जी के भीतर की फांस तब और ज़ाहिर हो जाती है जब वे अपने साथ के कवियों राजकमल चौधरी, धूमिल, जगूड़ी, विनोद कुमार शुक्ल, अशोक वाजपेयी, ॠतुराज, विष्णु खरे तथा भगवत रावत जैसे महत्वपूर्ण कवियों को तो छोड़ देते हैं, पर कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह या शलभ श्री रामसिंह जैसे कवियों को याद करने लगते हैं। उनकी यह कोशिश लगभग अप्रासंगिक हो चुके कवियों को प्रासंगिक नहीं बना देती। इसके लिए जो आवश्यक औजार चाहिए, वे भी नहीं हैं उनके पास। इसके अलावा आज जो कविता लिखी जा रही है, उसमें कुछ नाम तो ऐसे हैं जिनके बिना समकालीन कविता की कोई भी चर्चा अधूरी है। जैसे राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल या नरेश सक्सेना की कविताओं को व्यापक स्तर पर सराहना मिली है। इन्होंने अस्सी के दशक के बाद की धारा को बदला है, लेकिन विजेंद्रजी जानबूझकर इन नामों की तरफ से आंखें फेर लेते हैं। हद तो तब हो जाती है जब वे अपने ही द्वारा संपादित पत्रिका 'कृति ओर' में अपने कुछ 'टहलुआ' किस्म के आलोचकों से निरंतर अपना ही प्रशस्तिगान करवाते रहते हैं। इसमें उन्हें न तो कोई संकोच होता है और न कोई ग्लानि होती है। यानी एक तो करेला, ऊपर से नीम चढ़ा, लेकिन ऐसी तमाम कोशिशें भी उन्हें आज की कविता के लिए प्रासंगिक नहीं बना पातीं। समय निर्मम होता है। वह ऐसी सारी आत्ममुग्धताओं तथा उठापटक को ठिकाने लगाकर आगे बढ़ जाता है। रचनाशीलता की बहती धारा में आप कहीं पीछे छूट जाते हैं।

बहरहाल विजेंद्रजी की सोच और उनकी रचनात्मकता को लेकर आपत्तियां कहीं इससे भी अधिक गंभीर हैं और वे ज्यादा बड़े मुद्दों को उठाती हैं। समकालीन कविता में विजेंद्र जैसे लोग जिस तरह की बहसें चलाते हैं, उनके अंतर्विरोधों पर बात करना भी ज़रूरी है। इसीलिए यह पत्र लिखने के लिए विवश भी हुआ हूं। बड़ा मुद्दा यह है कि विजेंद्र जी आधुनिकता का अर्थ औपनिवेशिक चेतना से जोड़कर किसी अमूर्त 'भारतीयता' की खोह में घुस जाना चाहते हैं। कोई भी विचारवान व्यक्ति यह जानता है कि भारतीयता की कोई सरल और एकपक्षीय अवधारणा नहीं बनाई जा सकती। भारतीयता में अनेक देश, काल तथा संस्कृतियां एक साथ उपस्थित हैं। पिछले हजार वर्षों में भारतीयता का रूप विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, संस्कृतियों, परपंराओं जीवन-शैलियों तथा चेतनाओं के आपसी समागम से बना है। यह निरंतर बनता और बदलता रहा है। भारतीयता की किसी एकल या अमूर्त अवधारणा को बनाना कठमुल्ले किस्म की सांप्रदायिक शक्तियों और सांस्कृतिक पुन्तरूत्थानवाद की तरफ चले जाना है। भारतीयता और लोकजीवन या 'लोक संस्कृति' की भी कोई काल निरपेक्ष, इतिहास-निरपेक्ष या स्वायत्त अवधारणा नहीं बनाई जा सकती। आज निरंतरता और परिवर्तन की जटिल अंत: क्रियाओं को समझने की ज़रूरत है। इन्हीं के द्वारा हम अपनी समकालीनता को परिभाषित कर सकते हैं। एक 'भारत' के भीतर कई भारत हैं। एक 'लोक' के भीतर कई तरह के 'लोक' हैं। एक 'समय' के भीतर कई तरह के समय हैं। लोक की जीवन स्थितियां हमारे समूचे इतिहास में परिवर्तनशील रही हैं, लेकिन आज भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण के दबावों में इस 'लोकजीवन' को समझना ज्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण हो गया है। नए सूचना समाज, टेक्‍नोलॉजी, औद्योगिक उत्पादन, बाज़ार की ताकतों तथा पूंजी के आबाध प्रसार ने हमारे चारों तरफ परिवर्तनों की गति को बहुत अधिक तेज़ कर दिया है और ये परिवर्तन बहुआयामी हैं। इन परिवर्तनों तथा मनुष्य जीवन पर उनके प्रभावों-परिणामों को जो कि भूमंडलीकरण की प्रक्रिया की ही परिणति है, किसी एक जगह पर केंद्रित करना तक कठिन हो गया है। जीवन का कोई क्षेत्र आज ऐसा नहीं है जो इन परिवर्तनों से अछूता रह गया हो।

विजेंद्रजी जैसे लोगों के लोकजीवन की अवधारणा बहुत यांत्रिक तथा जड़ाऊ किस्म की है, जबकि डॉ. रामविलास शर्मा, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रेणु, हरिशंकर परसाई या श्रीलाल शुक्ल जैसे रचनाकारों ने लगातार लोकजीवन, समाज, राजनीति, परंपरा, मूल्य दृष्टि, सामूहिक अवचेतन, रहन-सहन, परिवेश तथा पर्यावरण की अवधारणाओं पर पड़ रहे दबावों को व्याख्यायित करते हुए 'भारतीयता' की खोज की है। लोकजीवन का जो लालित्य नागार्जुन की कविताओं में है या श्रम का जैसा सौंदर्य केदारनाथ अग्रवाल रचते हैं, क्या वैसा कुछ भी विजेंद्र जी के पास है? उन रचनाकारों के यहां लोकजीवन स्वायत्त, अमूर्त, अवैज्ञानिक, समाज निरपेक्ष तथा इतिहास विहीन नहीं है, लेकिन विजेंद्रजी लोकजीवन और लोक संस्कृति की अमूर्त बातें ही करते रहते हैं। वे 'लोक-लोक-लोक-लोक' इस तरह से करते रहते हैं जैसे साहित्य में कबड्डी खेल रहे हों और दूसरे पाले में घुसकर उन्हें चित कर देना चाहते हों। सवाल तो यह है कि पहले का कवि जब कहता था कि 'अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है क्यों न इसे सबका मन चाहे' तो क्या वही स्थिति आज भी है? विजेंद्रजी जिस 'चैत की लाल टहनी', 'उठे गूमड़ नीले' तथा 'कठफोड़वा पक्षी' को अपनी कविता में लाते हैं, क्या वह इतिहास निरपेक्ष हो सकता है? यह उनका कैसा 'लोक' है जिसमें अपने समय की स्थितियों का कोई दबाव ही नहीं है। उत्तर प्रदेश के ग्रामांचल से मेरा गहरा संबंध रहा है। गांवों के जीवन की परंपरागत लय, सादगी, सरलता, निष्कपटता, आत्मनिर्भरता, उच्च जीवन मूल्यों से जुड़ाव भाई चारे, स्नेह, आपसी सौहार्द तथा सामूहिक सह अस्तित्व की स्थितियों पर मंडराते संकट को मैं देख रहा हूं। मूल्य विहीन राजनीति, स्वार्थ, तिकड़मबाजी, क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं, स्पर्धा, जातिवाद तथा संगठित अपराध ने ग्रामीण समाज को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। क्या यह हमारे समय का बड़ा संक्रमण नहीं है? विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नज़र भारत के ग्रामीण बाज़ार पर है। विजेंद्रजी बताएं कि वह परंपरागत लोकजीवन अब कहां रह गया है? गांवों में रोजगार नहीं है। भूमंडलीकरण के इस दौर में ग्रामीण विकास पर खर्च होने वाली राशि में भारी कटौती और विकास की बदलती परिभाषाओं ने किस कदर उथल-पुथल मचा रखी है। गाय-बैल, खेती के काम आने वाले उपकरणों, कारीगरों, परंपरागत काम-धंधों तथा आत्मनिर्भरता के तमाम स्रोतों का कितनी तेज़ी से क्षरण हो रहा है। कुएं, ताल-तलैया , पोखर, नदियों, अमराई चौपाल से जुड़े वे संस्कार अब बीते जमाने की बातें हो रही हैं। कृषि का वह आत्मनिर्भर ढांचा बदल रहा है। वहीं कारपोरेट कंपनियों की घुसपैठ, उर्वरक, कीटनाशक दवाओं, सिंचाई की आधुनिक मशीनों, निर्माण सामग्री, टेलीविजन, मोबाइल, बैंकों की निवेश योजनाओं के बड़े-बडे़ पोस्टर, शीतल पेय, टूथपेस्ट, चाय-काफ़ी, मोटर साइकिलों के विज्ञापन तो आज गांवों में देख ही रहे हैं। अब शीघ्र ही बीयरबारों हेयर ड्रेसिंग सैलूनों, ब्यूटी पार्लरों तथा साइबर कैफे की मौजूदगी भी संभव है। बाज़ार खोलने के बाद कृषि तंत्र को खोलने की तैयारी भी हो रही है!

इस दृश्य के साथ यह कौन सा समय गांवों में आ रहा है? क्या इसकी व्याख्या लोकजीवन की कविता लिखने वाले ये लोग करेंगे? गांव में अब कितना गांव बचा है? अब तो आपसी विवाद चौपाल पर नहीं, पुलिस थानों तथा कचहरियों में निपटाए जाते हैं। जिला अदालतों में चले जाइए, गांवों के लोग वकीलों के पास बैठे मिलेंगे। छोटे-छोटे विवाद, मारपीट के मुकदमों से लेकर धोखाधड़ी, खून-खराबे तथा कत्ल के किस्से जैसे अब रोजमर्रा की बातें हैं। ग्राम केंद्रित विकास विकेंद्रीकरण, आत्मनिर्भरता तथा आमजन की सहभागिता वाला वह सपना कहां तिरोहित हो गया है? बडे़-बडे़ पूंजीपति, कारपोरेट घराने साम्राज्यवाद के दलाल हमारे लोक जीवन तथा लोक संस्कृति के सौदागर बन गए हैं। भू-माफियाओं का उदय, लाखों किसानों की आत्महत्याएं, विशेष आर्थिक क्षेत्रों तथा राजमार्गों के निर्माण, छोटे-छोटे किसानों की ज़मीनों का छीना जाना, जंगलों तथा पहाड़ों से आदिवासियों का खदेडा़ जाना, चारागाहों पर पूंजी का कब्जा और पर्यावरण का विनाश, क्या इस नई औपनिवेशिक दासता को हमारी लोकसंस्कृति की ये तथाकथित अलम्वरदार अपनी कविता में कुछ भी महसूस कर पा रहे हैं। कहां है भारत का यह बदलता गांव और उसका लोकजीवन इनकी कविता में? 'भारतीयता' और 'लोक संस्कृति' का राग अलापने वाले इन बौद्धिकों के कविता-विमर्श में विस्थापन का वह दर्द क्यों नहीं उभरता जो आज भारत का आम किसान और आदिवासी भोग रहा है।

आज की कविता में शहरी जीवन के यथार्थ को पश्चिमी औपनिवेशिक मानसिकता कह देने से पहले यदि विजेंद्रजी गांवों से विस्थापित हो रहे किसानों को रेल के डिब्बे में खचाखच भरे आदिवासियों, पलायन कर रहे खेतिहर मजदूरों को बडे़-बडे़ शहरों के सीमांत पर फैलती झुग्गी झोपड़‍ियों को, गंदी बस्तियों के जीवन को एक बार देख लेते तो उन्हें समझ में आ जाता कि आज के भारतीय ग्राम जीवन का वास्तविक यथार्थ क्या है? मैं उन्हें मुंबई में असल्फा, धारावी, गोवंडी तथा कुरार गांव की धूल सनी बस्तियों में घूमने के लिए आमंत्रित करता हूं। वे लोकसंस्कृति के अपने शीश महल से बाहर निकलकर समकालीन समय को देखें तो उन्हें समझ में आ जाएगा कि किसानों, खेतिहर मजदूरों और आदिवासियों के जीवन में किस तरह का रूपांतरण हुआ है और हो रहा है। हो सकता है कि उन्हें यह बदलता हुआ यथार्थ कुछ समझ में आने लगे और वे एक बेहतर कविता की ओर अग्रसर हों। वे इस ओर ज़रूर देखें कि वास्तव में श्रमजीवी जनता के जीवन में रोजमर्रा की आपाधापी के बीच कितने सूर, तुलसी और मीरा बन पा रहे हैं और उनकी झुग्गी-झोपड़‍ियों में शाहरुख खान, सलमान खान, करीना कपूर, बिपाशा बसु तथा कैटरीना कैफ आकर बस गए हैं। बड़ी-बड़ी किताबी बातें करने से कुछ नहीं होता। वे देखें कि गांवों में किस तरह अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आई हुई है। वे इस बदलते यथार्थ को देखें और आज के लोकजीवन को समझने की कोशिश करें। शाश्वत किस्म का लोकजीवन तो कालीदास की कविता में भी आ चुका है और उनसे ज्यादा प्रकृति-चित्रण करना किसके बूते का है! अपने पूर्वग्रहों तथा यांत्रिक समझ से थोड़ा बाहर निकलने पर इस संक्रमणशील समय को अधिक समझा जा सकता है और अपने लिए एक नई ऊर्जा भी प्राप्त की जा सकती है।

अच्छी बात तो यह है कि हिंदी की समकालीन कविता में आज इस बात की अभिव्यक्ति अनेक प्रकार से हो रही है कि केंद्रीकृत विकास पूंजीवाद का सबसे बड़ा रोग है। विजेंद्रजी जैसे हमारे कुछ अग्रज कवियों को भले ही गांव की समकालीन स्थितियों तथा बनवासियों की समस्याओं का कोई अंदाजा न हो, पर हिंदी कविता इस संक्रमणशील वर्तमान की अनेक प्रकार से व्याख्या कर रही है। नंदीग्राम, सिंगुर से लेकर भट्टा पारसौल तथा नियमगिरी की पहाड़‍ियों तक लड़ते हुए किसान और आदिवासियों के साथ जो नया यथार्थ उभर रहा है, वह बहुत सारे युवा कवियों के यहां अभिव्यक्ति पा रहा है। खाप पंचायत, लड़कियों की भ्रूण हत्या, भूमि अधिग्रहण, ग्रामीण बेरोजगारी, बड़ी-बड़ी बांध योजनाओं के कारण विस्थापित होते किसानों और डूब क्षेत्र में आने वाले गांवों पर इधर अनेक कविताएं आई हैं। यही हमारी वास्तविक समकालीनता है। डॉ. रामविलास शर्मा की आड़ में अपनी कविता की कमजोरियों को छिपाने की कोशिश करने वाले कुछ लोग काश रामविलाजी के कविता संबंधी कथन की गहराई को समझ पाते। 'वसुधा' के ताजे अंक में स्व. रामविलास से हुई सुधीर रंजन सिंह की बातचीत पढ़ें। रामविलास जी स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि 'राजनीतिक कविता केवल विचारों की कविता नहीं होती, विचारों के साथ जब तक भावशक्ति नहीं होगी तब तक राजनीतिक कविता प्रभावशाली नहीं होगी। भावशक्ति के बिना विचार शक्ति अधूरी है। विचार में जान होनी चाहिए। ताकत होनी चाहिए- उधार लिए विचार से काम नहीं चलेगा।

इसी तरह मुक्तिबोध ने भी बहुत पहले साहित्य में 'जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि' के खतरे का सवाल उठाया था। उन्होंने इस बात को रेखांकित किया था कि मार्क्सवाद की किताबों की बातें करने से वर्ग चरित्र नहीं बदल जाता। आपको 'संवेदनात्मक ज्ञान' और ज्ञानात्मक 'संवेदन' की लड़ाई लड़नी होगी। एक बहुत बड़ी लड़ाई अपने भीतर के बने दिमाग़ और उसके यथास्थितिवाद में है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए रघुवीर सहाय ने कहा था-
टूट रे मेरे मन टूट
एक बार टूट
अच्छी तरह से टूट
यह जो रचनाकार का आत्म संघर्ष है, अपनी ही गढ़ी हुई मूरत को तोड़ने का साहस- वह एक दिन की चीज़ नहीं, वह तो रोज-रोज की लड़ाई है। रघुवीर सहाय ने ही कहा था-' पावों में यह कील जो रोज-रोज गड़ती है रोज इस दर्द को समझना पड़ता है।' तीस पैंतीस वर्षों में और भी कितना कुछ बदल गया है।

कविता में 21वीं सदी की लड़ाइयां और भी जटिल हैं। आज लोक संस्कृति बनाम नगर संस्कृति या मुख्य धारा बनाम आंचलिकता की सारी बहसें कृत्रिम और बेमानी हो चुकी हैं। गांव हो या शहर आम आदमी हर जगह परेशान है और अपनी जड़ों से बेदखल हो रहा है। उसका यह विस्थापन जितना भौतिक है, उतना ही आत्मिक भी है। विकास के तमाम रोज़ रोज़ गढे़ जाते मिथकों तथा वस्तुओं के उपभोग के भीतर छिपी अन्याय, हिंसा शोषण, बदहाली तथा उन्मूलन की नंगी सच्चाइयों को समझना ज़रूरी है। ठीक है कि मनुष्य जब तक ज़िंदा है, स्वप्न देखेगा और संघर्ष भी करेगा, पर उसका यह स्वप्न देखना और उसकी यह जिजीविषा बहुत कठिन किस्म की चीज़ है। उसे बहुत सरलीकृत रूप में कविता में रुपायित करना खेल नहीं है, जैसा कि हमारे ऐसे कुछ कवियों ने समझ रखा है। मनुष्य की जिजीविषा उसके संकटों के बीच से ही परिभाषित होगी। आप संकटों की चर्चा ही नहीं करेंगे तो जिजीविषा को कैसे रचेंगे? यह असल में तो कुछ ऐसा होना चाहिए जो जितना हृदय विदारक हो, उतना ही आस्था जगाने वाले भी हो। इस द्वंद्वात्मकता को हासिल किए बिना कोई भी असाधारण रचना संभव नहीं है। खोखले आशावाद तथा लोक संस्कृति की ठहरी हुई अवधारणा और सतही ऐश्वर्य गायन से कुछ नहीं होता। इस तरह तो लोक संस्कृति को भी पंच सितारा होटल या शॉपिंग माल में बिकने वाली एक वस्तु में बदल दिया जाता है। आज की कविता का सामना सत्ता की उस संस्कृति से है जहां व्यवस्था हर विपत्ति को एक सामान्य स्थिति बना देती है। सारी नृशंशता रोजमर्रा के एक अनुभव में बदल जाती हैं। उनके एक तरफ फासिस्ट राजनीति है और दूसरी तरफ कवि का एक मध्यमवर्गीय सुविधापरस्त, सुखी, प्रसन्न संसार है। धूमिल ने कभी क्या इसी पूंजीवादी मानसिकता की ओर तो इशारा नहीं किया था-
यद्यपि यह सही है कि मैं
कोई ठंडा आदमी नहीं हूं
मुझमें भी आग... है
मगर वह
भभककर बाहर नहीं आती
क्योंकि उसके चारों तरफ
चक्कर काटता हुआ
एक पूंजीवादी दिमाग़ है
जो परिवर्तन तो चाहता है
मगर आहिस्सा आहिस्ता
कुछ इस तरह कि चीज़ों की
शालीनता बनी रहे
कुछ इस तरह कि कांख भी दबी रहे
और विरोध में उठे हुए हाथ की
मुट्ठी भी तनी रहे
और यही वजह कि बात
फैसले के हद तक
आते-आते रुक जाती है
क्योकि हर बार
चंद टुच्ची सुविधाओं की
लालच के सामने
अभियोग की भाषा चुक जाती है।

अंत में मैं विजेंद्र जी से सिर्फ़ इतना ही निवेदन करना चाहता हूं कि बंधुवर, हम कविता के चाहे जितने खांचे बना लें, पर हमारा पाठक उसकी चिंता नहीं करता। वह तो कविता में सिर्फ़ एक सिर्फ़ एक गहरा मर्मस्पर्शी अनुभव ढूंढता है। यदि यह अनुभव उसे मिलता है तो वह आपको स्वीकार करता है और यदि आप मर्मस्पर्शी कविता नहीं रच पाते हैं तो चाहे जितनी बड़ी-बड़ी बातें कर लें, चाहे जितने सिद्धांतों तथा विचारधाराओं का घटाटोप खड़ा कर लें, वह सब बेकार है। अनुभूति और 'संवेदनात्मक ज्ञान य ज्ञानात्मक संवेदन' के बिना ये सारे 'स्कूल' दुकानदारी में बदल जाते हैं। आप 'लोक संस्कृति' की भी दुकानदारी कर सकते हैं और नागर संस्कृति की भी, लेकिन इसके परे मनुष्य का जीवन बहुत विराट है। उसमें हर तरह के रंग की ज़रूरत है। हमें जितनी नागार्जुन की ज़रूरत है, उतनी ही शमशेर की भी। जितनी अज्ञेय की ज़रूरत है, उतनी ही मुक्तिबोध की भी। हर अच्छी कविता चाहे जिस ज़मीन से उठी हो, पाठकों द्वारा सराही ही जाएगी।

रघुवीर सहाय बनाम नागार्जुन या केदारनाथ सिंह बनाम पारसनाथ सिंह जैसी तमाम बहसें नकली बहसें है। ये आलोचकों की ख़ास तरह के धंधे हैं। और साहित्य के सट्टा बाज़ार में उनका कोई भरोसा नहीं होता। हमारा आलोचक कल तक मुक्तिबोध को बड़ा कवि बता रहा था आज अचानक अज्ञेय जन्मसदी में अज्ञेय को बड़ा कवि बता रहा है यह बौद्धिक कलाबाजी नहीं तो और क्या है। कविता अच्छी है तो चिंता नहीं कि वह गांव के पोखर पर है या शहर के ट्रैफिक सिग्नल पर। अच्छी नहीं तो तमाम विषयवस्तु और सारी कवियों से यह वसुंधरा पटी रहती है।

विजेंद्रजी के इस निरर्थक और वाग्जाल से भरे पत्र के बाद मैं संपादक जी से उम्मीद करता हूं कि आगे कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं देंगे जो समकालीन कविता की हमारी समझ को आगे बढ़ा सके।
Radheshyam Upadhyaya
 
 
 
 
 
 





राधेश्याम उपाध्याय 
मो.: 09969382160