Saturday, January 14, 2012

समकालीन कविता


जैसा कि आप जानते हैं मुंबई के कुछ मित्रों ने चिंतनदिशा का प्रकाशन फिर से शुरू किया है. इसके पिछले अंक में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार के बीच कविता की चिंताओं को लेकर हुआ पत्राचार छपा है. पिछली पोस्‍ट में आपने विजय बहादुर का पत्र पढ़ा.अब पेश है विजय कुमार का पत्र

 
माननीय डॉक्टर विजय बहादुरजी,
आपके 157 और 317 के संयुक्त पत्र का उत्तर उसी समय मैंने आपको दे दिया था जो काफ़ी हडबडी में दिया गया उत्तर था। इसलिए जब भाई हृदयेश मयंक ने आपके इस पत्र और उस मेरे जवाब को 'चिंतन दिशा' में प्रकाशित करने की इच्छा प्रगट की तो मुझे यह आवश्यक लगा कि मैं अपने उस जवाब को थोडा व्यवस्थित करने के बाद ही छपवाऊं। उत्तर तो शायद यह भी व्यवस्थित नहीं है, पर कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो चर्चा का एक ठोस आधार बना सकें तो अच्छा है। आपने ही कहा था कि हमारे इस पत्राचार का उद्देश्य एक दूसरे पर कुछ निजी तौर पर साबित करने के बजाय समकालीन समय में लिखी जा रही कविता पर कुछ चर्चा बिंदुओं को रेखांकित करनेवाला होना चाहिए। यह पत्र विशुद्धद उसी उद्देश्य से लिखा गया है।
आपने अपने पत्र में जिन मुद्दों को उठाया है, पत्र पतढते ही मैं समझ गया था कि मैं तो उस पत्र में महज एक निमित्त हूं, आपके निशाने पर कौन लोग हैं यह स्पष्ट था। पर पहले यह बात स्पष्ट कर दूं कि श्री राजेंद्र यादव के नाम 'रचना समय' के कविता विशेषांक में जो मेरा पत्र छपा है, वह बरसों से मेरे रद्दी काग़ज़ों में पडा हुआ था। हल्के-फुल्के अंदाज़ में लिखे गये उस पत्र को छपवाना उचित था या नहीं, यह मैं नहीं जानता पर अब जब छप गया तो छप गया। मुझे लगता है कि उसमें कुछ बातें हैं जिन पर कायदे से बहस हो सकती है। हिन्दी का हमारा यह वर्तमान दृश्य शायद अब संवाद-उन्मुख नहीं है। बहसें होती नहीं हैं। ज्यादातर तो एक आपसी सहमति का 'गुडी गुडी' संसार फैला हुआ है। फारसी की कहावत है कि 'मन तुरा हाजी ब गुयम, तू मरा हाजी ब गो'। (अर्थात् मैं तुझे हाजी कहता हूं, तू मुझे हाजी कह दे। और पता चला कि दोनों में से कोई हज करके नहीं आया है।) सभाओं और गोष्ठियों में आज एक भक्ति-रस की धारा बहती रहती है। बल्कि वह सही मायने में भक्ति और श्रद्धा भी नहीं, उसका एक 'मेलोड्रामा' है। शिखर आलोचक सुबह-शाम प्रवचन की मुद्रा में अपने पिट्ठुओं को आसमान पर चढाते रहते हैं। भक्तगण श्रद्धा विगलित होने का नाटक करते हुए उनकी धोती पकडकर भवसागर पार कर जाना चाहते हैं। गुरु जितने चतुर, चेले उनसे ज्यादा चतुर। कहां हैं बहसें? प्रश्नाकुलता का वह ताप जो अभी तीस-चालीस साल पहले तक दृश्य में बना रहता था, वह अब नज़र नहीं आता।
आपकी इस बात से एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है कि वर्तमान में समकालीन कविता की कुछ रुढि़यां बन गयी हैं। हमें पता नहीं कि कवियों की एक छोटी-सी बिरादरी के बाहर कविता के वास्तविक रसिक कितने हैं! पर इस मुद्दे पर आपके पत्र में एक भयावह सरलीकरण भी दिखाई पडता है। मैं आपकी अनेक बातों से सहमत होते हुए भी आपसे असहमत भी हूं। और यह अच्छा ही है कि आपके सुर में सुर मिलाने के बजाये अपनी कुछ बातें आपके सामने रखूं। आपके पत्र को ध्यान से पढने के बाद कई एक बातें ऐसी लगी हैं, जहां यह लगता है कि आप समकालीन कविता से असहमत तो हैं पर साथ ही एक बडी हद तक अपने बहुत सारे पूर्वाग्रह लेकर भी चल रहे हैं। आज की कविता का दायरा यदि इसलिए सीमित है कि वह पाठकों के हृदय के तारों को झंकृत नहीं कर पा रही तो यह एक बडा मुद्दा है। इसके अनेक पहलू हैं और उन पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। कविता और पाठक के बीच की दूरी का मसला जितना साहित्यिक प्रतिभा की श्रेष्ठता या हीनता का है, उतना ही आधुनिक समाज की संरचना, संप्रेषण के साधनों की वर्तमान स्थिति, हिन्दी भाषी समाज के सांस्कृतिक हालात और सर्जनात्मक भाषा के सम्मुख उपस्थित तमाम तरह के संकटों का भी है। कम से कम ऐसा मैं तो मानता हूं और आगे भी इस पर अपनी बात को जारी रखना चाहता हूं। कवियों के आचरण में कथनी करनी के अंतर या उनके आपसी राग-द्वेष या उनकी सफलताकामी क्षुद्र दुनिया पर आपकी टिप्पणियां भी अपनी जगह पर सही हो सकती हैं पर वह एक बडी चर्चा का छोटा-सा हिस्सा मात्र है। आप हिन्दी कविता के पिछले कुछ दशकों की स्थिति से बेशक बहुत असंतुष्ट हो सकते हैं और आपको अपनी राय रखने का पूरा अधिकार भी है पर अजीब तब लगता है जब आप इस सारी स्थिति को 'विशुद्ध साहित्य' के दायरे में रखकर ही सोचना विचारना चाहते हैं। इसीलिए तो कहीं आप एक झटके में पूरी प्रगतिशील या प्रयोगवादी कविता को नकार दे रहे हैं। कहीं समूची आधुनिकतावादी और तथाकथित उत्तर आधुनिकतावादी बहसों के बारे में ये निष्कर्ष निकाल ले रहे हैं कि इनमें हमारी दो हजार साल की साहित्यिक विरासत और सृजनात्मक सिरे से अनुपस्थित है और कहीं आप पश्चिम से संपर्क से नाक-भौं सिकोडते हुए किसी 'आदर्श भारतीयता' की शरण में चले जाना चाहते हैं। नागार्जुन और भवानीप्रसाद मिश्र आपके पसंद के कवि हैं और आप कहते हैं कि ''नागार्जुन और भवानीप्रसाद मिश्र में तो परंपरागत सामूहिकता का बोध है और इनके यहां विचार हैं पर वे वादग्रस्तता से मुक्त हैं। इन्हें पढते हुए बार-बार अनुभव होता है कि हम अपने आस-पास की उन सच्चाइयों से रूबरू हो रहे हैं जो सिर्फ़ कवि-कल्पना या काव्य कौशल की मनगंढत सच्चाइयां नहीं है। ये विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई है।'' इसी संदर्भ में आप आगे कहते हैं कि ''रघुबीर सहाय को पढते हुए तबियत बैठ-सी जाती है। बेहद अकेलेपन और लाचारी से पाठक भर उठता है।'' ये अपने अपने इंप्रेशन हैं। इंप्रेशन भर। ये अंतिम सत्य नहीं कहलाते। आपको भवानी प्रसाद मिश्र पसंद हैं, किसी अन्य को उनमें कुछेक कविताओं को छोडकर बेहद सपाटपन भी नज़र आ सकता है। नागार्जुन की कविता को यदि आप कहते हैं कि वह 'विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई है' तो लगभग यही राय कोई दूसरा आदमी मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, चंद्रकांत देवताले, अरुण कमल, राजेश जोशी और नरेंद्र जैन की कविताओं के बारे में व्यक्त कर सकता है। बल्कि मुक्तिबोध और रघुबीर सहाय के यहां वह सब देख सकता है जो नागार्जुन, त्रिलोचन या भवानी प्रसाद के यहां सिरे से अनुपस्थित है। कवियों के अपने-अपने व्यक्तित्व और अनुभव संसार होते हैं। एक का आधार लेकर दूसरे को पछाडना मैं समझता हूं कि एकांगी दृष्टिकोण है। कोई भी एक रचनाकार किसी भी दौर में यह नहीं कह सकता कि सत्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे पास है। यदि ऐसा होता तो हम तुलसी के साथ सूर को न पढ रहे होते। सिर्फ़ कबीर से काम चल जाता, मीरा को पढने की आवश्यकता न रहती। माफ कीजिएगा डाक्टर साहब मुझे आपका दृष्टिकोण बहुत कुछ एकांगी लग रहा है और किसी हद तक दुराग्रही भी। वह सही तरीके की 'साहित्यिक पॉलिमिक्स' का आभास भी नहीं दे रहा।
समकालीन कविता पर आपसे चर्चा करते हुए मैं अपनी स्थिति को स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह सब लिखते हुए न तो मैं स्वयं को इस कविता का कोई प्रवक्ता या पैरोकार मान रहा हूं न उसकी कतिपय सीमाओं के बचाव में खडा होना चाहता हूं। मेरी वैसी क्षमता भी नहीं है। आज लिखी जा रही कविता और कवियों की तमाम सीमाओं को मैं गिना सकता हूं और बाज वक्त मेरा बहुत आलोचनात्मक रवैया भी रहा है पर साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि हर युग में कविता ही क्यों, हर कला की हर सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का मसला सर्जक के व्यक्तित्व की संरचना से जुडा रहता है। समय के बहुत सारे अंतर्विरोध सर्जक के व्यक्तित्व में होते हैं। हर कला का एक स्वप्न होता है कि वह मनुष्य के मन की किसी आदिम पवित्रता को संजोए पर अपने इस उपक्रम में उसकी राह तो अपने समय के इतिहास के तमाम भूलभुलैया से होकर ही है। रवींद्र नाथ टेगौर की पंक्तियां याद आती हैं कि ''साहित्य पर विचार करते समय दो चीज़ें देखनी होती हैं। पहली विश्व पर साहित्यकार के हृदय का अधिकार कितना है; दूसरी, उसका कितना अंश स्थायी आकार में व्यक्त हुआ है। यह जो मनुष्य का संसार है यही हम सबके हृदय-हृदय में बसता आ रहा है, यह प्रवाह पुरातन है और नित्य नूतन भी।'' कला में अपने समय के इतिहास बोध और एक सनातन पवित्रता के द्वंद्व को रवींद्र ने कितने अच्छे ढंग से व्यक्त किया है। मूल बात यही है कि साहित्य में जिस सनातन को हम रचना चाहते हैं वह हर बार बाहर के विश्व से ही विविध रसों, रंगों, सांचों में तैयार होता रहता है। हम बिना इतिहास के उस झंझावात से गुज़रे उस शाश्वत मूल्यवत्ता को कैसे हासिल कर सकते हैं। भक्तिकाल हो या रीतिकाल, प्रगतिवाद हो या प्रयोगवाद, आधुनिकता का बोध हो या उत्तर आधुनिक विमर्श - हर समय, झंझावात है।
आचार्य शुक्ल ने जब यह कहा था कि सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता जायेगा, कवि-कर्म उतना ही कठिन होता जायेगा और कविता की आवश्यकता भी उतनी ही बढती जायेगी तो एक प्रकार से वे इतिहास और सनातन दोनों की इस द्वंद्वात्मकता को ही सामने रख रहे थे। हम टेक्‍नोलोजी, बाज़ार, पूंजी, संचार और उपभोग की दुनिया में चाहे जितने धंसे हुए हों, पर प्रकृति का कोई अनुपम दृश्य, चांदनी रात की कोई नीरव शांति, नदी के कल कल बहते पानी की आवाज़, वृक्ष का झूमना या हवा का हल्के से देह को स्पर्श करना यह सब क्यों आज भी हमारे अंतर्मन को उसी तरह से सहसा मुक्त कर देते हैं? क्यों वह क्षण कविता का क्षण लगने लगता है? लेकिन यहीं आचार्य शुक्ल की वह बात ध्यान में आती हैं कि द्वंद्वात्मकता के बिना किसी चीज़ का कोई अर्थ नहीं है। हमारे चारों ओर घिराव और फंसाव हैं, इसीलिए अवकाश के क्षण मोहक लगते हैं। घुटन है तभी तो हवा का स्पर्श कोई मायने रखता है। मैं बस यही कहना चाहता हूं कि कला में 'आत्म के जिस साक्षात्कार' की बात आप अपने पत्र में कर रहे हैं वह इतिहास के तमाम दाग-धब्बों, कल्मष, अंतर्विरोधों, पाखंड और आडंबरों की भूल-भुलैया से गुज़र कर ही है। 'आत्म का साक्षात्कार' कोई 'फास्ट फूड' या 'रेडीमेड वस्त्र' नहीं है जिसे लपक कर हासिल कर लिया जाये। आप जब नागार्जुन की कविता में मनुष्य की जिजीविषा और बुनियादी रोमान का हवाला देते हैं तो मेरे सरीखे पाठक के लिए वह सबकुछ इसलिए मायने रखता है कि कवि अपनी समसामयिकता और तात्कालिकता, स्थितियों-प्रसंगों की समयबध्दता, क्षणिकता, क्षणभगुंरता, क्षुद्रता और साधारणता से गुज़रते हुए ही वहां तक पहुंच रहा है। उसकी कविता में विपरीत स्थितियों का 'जस्टापोजीशन' ही उसे एक बडा कवि बनाते हैं। चारों ओर के तमाम संदर्भों में उसकी संवेदना का सने होना, उसके दाग-धब्बे, उसका लिथडना, उसकी यह 'अशुध्दता' ही उसका मूल्य है। उसका यह स्वर-वह जैसे कि हर स्थिति में बध्द है और साथ ही उसका अतिक्रमण भी कर देना चाहता है। यह अतिक्रमण उसका रोमान है। और यदि आप एक बार इस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो आगे दलील यह है कि नागार्जुन के इस ॠण को स्वीकार करते हुए भी अगली पीढी का कवि अपने ढंग से अपना वस्तुजगत और अपना रोमान 'डिस्कवर' करेगा। वह नागार्जुन से प्रभावित होते हुए भी उनका 'कॉपी कैट मॉडेल' नहीं हो सकता, न उसे होना चाहिए। उसे अपने तरीके से अपने इतिहास को पाना होगा। बल्कि एक नया कवि का रचना जगत सहसा पुराने के सृजन को एक नया अर्थ भी देगा। आख़िर यह कैसे हुआ कि आठवें दशक में जब युवा कवियों की एक नयी रचनाशीलता सामने आयी तो उनकी समवेत उपस्थिति ने समूचे परिदृश्य को बदल दिया। जिस प्रगतिशील कविता की परंपरा से ये जुडे, उस जुडाव ने ही आठवें दशक में नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन को पुन:प्रांसगिक बनाया, उनकी उपेक्षा का दौर ख़त्म हुआ। मुक्तिबोध और शमशेर को एक नये तरीके से समझाने की कोशिशें हुईं। वह सब जो ओझल था, अचानक नयी और युवा रचनाशीलता के संदर्भ में केंद्र में आ गया। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि पीढि़यों के इस अंर्तसंबंध की अभिक्रियाएं दोनों ओर से चलती हैं। इलियट ने तो इस बात को बहुत अच्छे ढंग से प्रतिपादित किया है। और यहीं आकर मैं आपसे यह ज़िरह करना चाहता हूं कि -
जब इतिहास बोध की बात हम करते हैं, 'अशुद्ध्‍ा' कविता की बात करते हैं, समसामयिकता की बात करते हैं तो कविता की कोई भी अवधारणा अमूर्त, समाज निरपेक्ष, ठहरी हुई और 'यूनीफार्म' कैसे हो सकती है। जो किसी पुरखे ने लिखा, ठीक वही आज का युवक क्यों दोहरायेगा? एक दौर था जब एक पीढी ने अपना इतिहास बोध दो महायुद्धों के बीच के घटनाक्रमों से, राष्ट्रीय चेतना के उभार से, असहयोग आंदोलन, जलियांवाल बाग हत्याकांड, खिलाफ़त आंदोलन, तिलक की मृत्यु, भगतसिंह की फांसी, सांप्रदायिकता के उभार, विभाजन, परंपरा और आधुनिकता की बहसों और एक नये राष्ट्र के निर्माण के सपनों से पाया था। बीसवीं सदी बीत गयी। इसकी विराट उपलब्धियों और चिंताजनक असफलताओं का एक बोझ हम सब पर है। हमारे समय के अंतर्विरोध बहुत अलग तरह के हैं। एक तरफ़ टेक्‍नोलॉजी का इतना विकास और दूसरी तरफ़ जाति, धर्म, संप्रदाय और वर्ण की और भी सख्त होती जाती घेराबंदियां। चारों तरफ़ जानकारियों का इतना विशाल कूडेदान और अपने ही 'स्व' की कोई स्मृति नहीं। पूंजी, उपभोग और उन्माद की संस्कृति का आज मनुष्य के मनोजगत पर जितना नियंत्रण हो चुका है, क्या वह पिछले किसी भी दौर में था? समय की ऐसी तेज़ रफ्तार और मनुष्य का एक भयावह रूप से विस्थापित और स्मृतिविहीन अस्तित्व। क्या हम कभी इस पर विस्तार से बात नहीं करना चाहेंगे? सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक घेरेबंदियों का यह दौर और इस सबके बीच मध्यवर्ग से आता हुआ हमारा यह लेखक और कवि। आप ने अपने पत्र में टिपिकल मध्यवर्ग की हताश और किंकर्तव्यविमूढ मानसिकता का संदर्भ उठाया है। क्या यह मसला हमारी आधुनिकता के सारे झमेले से जुडा हुआ नहीं है? क्या इस पर आज बहुत 'डिस्पेशनेट' होकर एक बडे संदर्भ में बात करने की आवश्यकता नहीं है। हां, यह सच है कि हम एक हद तक आज पश्चिम से आक्रांत है, क्योंकि आधुनिकता बोध की वह ज़मीन ही हमने वहां से उठायी है। और यह एक ऐसी दुश्वार स्थिति है, जिसमें न हमारा पुराना जातीय बोध अक्षुण्ण रह गया है, न हम पश्चिमी आधुनिकता के वास्तविक लाभों को प्राप्त कर पाये हैं। बीसवीं सदी में एशियाई देशों, अफ्रीका, लातीनी अमरीका - क्या सभी जगह पर यह दुश्वारी नहीं है। अभी कल मैं चीन में खुली अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों पर बना एक मार्मिक वृत-चित्र देख रहा था। बाज़ार अर्थव्यवस्था में वहां नगरों का भीषण गति से विकास हो रहा है और पीछे छूट गये गांवों का उजाड जीवन और अशक्त और लाचार लोगों की बदहाली। वह आधुनिकता का तलघर है। यह फ़िल्म हाशिये के अस्तित्व की कथा को कहती है। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स की चीनी छात्रा डॉ. ली पिंग किन ने यह वृत-चित्र बनाया है। तो यह एक नयी पीढी की सृजनात्मकता है, जो पुरानों के संसार से बहुत दूर चली आयी है। (आशा है इस उदाहरण के लिए आप मुझे पश्चिम से प्रभावित होने के सतही और हास्यास्पद आरोप से मुक्त रखेंगे।) शायद आपको जानकारी हो कि अभी चंद दिनों पहले विश्व बैंक की 'वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009' में आयी है, जिसमें खुलेआम इस बात की वकालत की गयी है कि आबादी के गांवों से शहरों की ओर पलायन को बढावा दिया जाना चाहिए इसी से विकासशील देशों की ग़रीबी दूर होगी। यह रिपोर्ट कहती है कि देश के सभी हिस्सों में एक समान आर्थिक गतिविधियों का विस्तार करने के बजाय औद्योगिक शहरों के संकुलों को महत्व देना चाहिए। बाज़ार अर्थव्यवस्था पर केंद्रित हमारे देश की आगामी वर्षों की सोशियॉलॉजी क्या होगी, इसे हम समझ सकते हैं। ग्लोबलाइजेशन का अलग-अलग लोगों के लिए आज अलग-अलग अर्थ बन रहा है। ग़रीब और पिछडे हुए देशों के छोटे किसानों और ग्रामीण जनता के लिए भूमंडलीकरण का अर्थ वही नहीं है जो इन देशों के शासक वर्ग और नीति निर्माताओं के लिए। जो किसान कल तक अपनी और अपने परिवार की रोटी के लिए आत्म निर्भर था, वह अब बाहरी स्रोतों पर निर्भर हो गया है। भारत की ग्रामीण जनता का अपने जीवन पर अब कोई अख्तियार नहीं रहा। देश में हजारों किसान अब तक आत्महत्या कर चुके हैं। लाखों किसान अब विवश होकर मजदूरी करने शहरों की तरफ़ भाग रहे हैं। 90 के दशक में वैश्विक पूंजी, प्रत्यक्ष वित्त निवेश, मेगा प्रोजेक्टों, कारपोरेट कृषि, खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बत्रडे औद्योगिक घरानों की घुसपैठ और उपभोगमूलक संस्कृति का सबसे बडा हमला हमारे ग्रामीण समाज और परंपरागत जीवन-स्रोतों पर हुआ है। निर्यात को बढावा देने के लिए देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बनाये जा रहे हैं। यह वही ज़मीन है जो किसानों से छीन कर बडे-बडे उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय निगमों को दी जा रही है। विस्थापन हमारे समय का सबसे बडा सच बन रहा है। क्या यह अनुभव क्षेत्र हमसे पिछली पीढी के पास था? हम किस परंपरा की बात कर रहे हैं? गांवों से उजडकर शहर की नारकीय झोपडपट्टियों में मनुष्य से एक दर्जा नीचे का जीवन बिताने वाले उस किसान के भीतर अब कितने तुलसीदास, कबीर, केशव या सूर बचे रह गये हैं? जीवंत मनुष्य की चेतना का बाज़ार जितनी तेज़ी से 'पदार्थीकरण' (कमोडीफिकेशन) कर रहा है उस सच को क्या कहेंगे आप? पिछली पीढी के किस कवि ने इस भयावह स्थिति को देखा था? किसी भी समाज में जीवनयापन की प्रणालियां विभिन्न घटकों के आपसी तालमेल से बनी होती हैं, जिनमें भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक सभी परिवेश एक दूसरे में घुले-मिले रहते हैं। हम साहित्य में परंपरा की जिस ठहरी और यांत्रिक अवधारणा के गीत गाते रहते हैं, क्या वह किसी भी तरह से हमें कोई राहत दे सकती है? मैं यह मानकर चल रहा हूं जब मैं यह सब लिख रहा हूं तो आप कम से कम इसे 'साहित्येतर' विषय या 'सुपरफीशियल' विवेचना के खाते में नहीं डाल देंगे। नागार्जुन की कविता में साधारण मनुष्य के चारों ओर के अमानवीय संसार और उसकी विडंबनाओं का जो चित्रण है, अरुण कमल उससे प्रेरित होते हुए भी आज उससे कितना आगे आ चुके हैं यह जानने में मेरी दिलचस्पी है। और जब मैं यह जानने की कोशिश करता हूं तो आज के रचनाकार का परिवेश और उसमें उसकी सृजनात्मक मुश्किलें, उसकी चुनौतियों पर बात करना मेरे लिए ज्यादा अनिवार्य हो जाता है। नागार्जुन या मुक्तिबोध या भवानीप्रसाद मिश्र मेरे लिए ठहरी हुई अवधारणाओं की तरह नहीं है कि मैं उनकी रचनाशीलता में निहित अंतर्धाराओं के विकास को अगली पीत्रढी में न खोजूं। आपने बडी आसानी से रघुवीर सहाय को ख़ारिज़ कर दिया है। काश! आप इस विवेचना में जाते कि शक्ति-संरचना और साधारण मनुष्य के जटिल संबंधों पर अमानवीयकरण की प्रक्रिया और उसके विभिन्न शेड्स पर जितना काम अकेले रघुवीर सहाय ने किया है, वह क्यों सहज ही उन्हें उस पीढी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि बना देता है। किसी की कविता पढकर ऐसी प्रतिक्रिया देना कि उससे मेरे भीतर हताशा जागी या मेरा दिल बैठ गया एक लगभग हस्यास्पद प्रतिक्रिया है। शक्ति संरचना और साधारण मनुष्य के जटिल संबंधों की इसी समझ को जो रघुवीर सहाय ने हिन्दी कविता को दी, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, चंद्रकांत देवताले, लीलाधर जगूत्रडी, नरेश सक्सेना, भगवत रावत, ॠतुराज, राजेश जोशी, अरुण कमल, नरेंद्र जैन, विष्णु नागर, कुमार अंबुज, देवीप्रसाद मिश्र, आशुतोष दुबे या मोहन कुमार डहेरिया जैसे तमाम बाद के कवि अपनी रचनाओं में उसे आगे बत्रढाते हैं। और भी नाम हैं। नाम गिनाना मेरा उद्देश्य नहीं है। हमें उस विकास-यात्रा को देखना होगा, न कि हमारी विवेचना का विषय यह होना चाहिए कि ये कवि कितने 'पांखडी और बेइमान हैं, कितने सफलताओं के तात्कालिक गुणा-भाग से जुडे हुए हैं, कितने पश्चिम के नकलची हैं और अंध प्रतिबध्दतावादी हैं। आदि-आदि।'
समकालीन कवियों के ये ही सारे गुण-धर्म तो आप अपने पत्र में गिनवा रहे हैं। अच्छा है! पर काश आप इसके साथ यह भी बताते कि इन पिछले तमाम वर्षों में एक मध्यवर्गीय रचनाकार के विघटन की भीषण स्थितियां क्या रही हैं और समकालीन कविता किस हद तक बाहर से लादी जा रही छद्म चेतना के रूपों को अनावृत कर सकी है, उसकी प्रविधियां क्या रही हैं, उसका संघर्ष क्या रहा है। मुक्तिबोध ने एक समय 'अंधेरे में' कविता में शहर के माफिया डोमाजी उस्ताद के रात के अंधेरे में निकले जुलूस में शहर के बुध्दिजीवियों, कवियों, कलाकारों, चिंतकों को चुपचाप शामिल होते देखा था। पचास बरस बाद आज कवि देखता है कि ये बुध्दिजीवी, कवि, कलाकार, चिंतक अब खुले आम दिन के उजाल में माफियाओं के साथ मंच शेयर कर रहे हैं। पुरस्कार ले रहे हैं, अभिनंदन करवा रहे हैं, यात्राएं कर रहे हैं, वज़ीफे पा रहे हैं। पर यही अंतिम सच नहीं है। इसी सबके बीच कोई कवि यह भी तो लिख रहा है कि ''जो हत्यारों के इस जुलूस में शामिल नहीं होंगे वे मारे जायेंगे। सबसे बडा अपराध है इस वक्त निरपराधी होना।'' आप बताइये कि 'अंधेरे में' कविता से 'जो मारे जायेंगे' कविता तक की संवेदना-यात्रा रचनाकार की किस सोशियॉलाजी की यात्रा है और रचनाकार के मन पर किस तरह के दबाव हैं। जिस दौर में मनुष्य की नियति को बदलनेवाले विराट स्वप्नों और यूटोपिया को अप्रासंगिक कहा जा रहा हो, मनुष्य का विचार जगत स्वयं बाज़ार में बिकनेवाली एक जिंस बन गया हो और विचार का मतलब केवल सूचनाएं रह गया हो तब वर्चस्व की इस संस्कृति से रचना में मुठभेड की नयी सच्चाइयां क्या बिल्कुल गैर-हाजिर हैं? आपने अरुण कमल की कविता 'जिसने ख़ून होते देखा' पढी है? आम आदमी के चारों तरफ़ हिंसा का जो संसार बुन दिया गया है उसमें अपनी सारी निरूपायता के बावजूद उसमें बचे रहने की जो इच्छा शक्ति है, जो 'सर्वाइवल इंस्टिंक्ट है उसे कितने अभूतपूर्व ढंग से यह कविता उजागर करती है। जो बाहरी तौर पर कुछ भी अलग दिखाई नहीं देता उसी के बीच आख़िर किस तरह कोमलता का कोई चिह्न छिपा रहता है, कैसे आदमी अपने को बचाने के 'मैकेनिज्म' को ईजाद करता है यह कविता हमें उस अनुभव से दो-चार कराती है। क्या यह कविता नागार्जुन की कविता 'मंत्र' के बहुत आगे की कविता नहीं है? कवि यहां यथार्थ के सिर्फ़ ब्यौरे नहीं दे रहा है वहां यथार्थ की कतली है और उसके दूसरी तरफ़ गुंफित है सारे संकेत सूत्र। जो जितना व्यक्त है, उतना ही अव्यक्त है। यह कविता हमारी बदलती दुनिया की कविता है। यूटोपिया और सपनों के ध्वंस के बाद की दुनिया की कविता, जिसमें लोगों के जीने के प्रोसेस को दिखाया गया। हादसों, अपघातों, आशंकाओं और घिरावों के बीच जीते हुए लोगों की सांसों को - उसकी आवाज़ों को आप यहां सुन सकते हैं। आपको कविता में और कैसी मार्मिकता चाहिए? क्या कोई इससे इंकार कर सकता है कि 'चंपा काले अक्षर नहीं चीह्नती' के बाद 'सीलमपुर की लडकियां' जैसी कविता जब लिखी जाती है तो युवा कवि का संसार अपने पूर्वज के संसार और उसके यथार्थ बोध से बहुत आगे निकल आया है? 30-40 वर्षों में हुए बदलाव को समझने के बाद ही ऐसी कविता लिखी जा सकती है। बद्रीनारायण के कविता संग्रह 'खुदाई में हिंसा' में तमाम ऐसी कविताएं हैं जहां कोई मूलभूत सपना एक ऐसी काव्यात्मक इंटेसिटी बन कर प्रकट हो रहा है जिसे तमाम तरह के अंतर्विरोध घेरे हुए हैं। यहां अप्रचलित मिथकीय आख्यानों के पुनर्पाठ की कोशिश को नहीं, बल्कि ऐसी जातियों और मानव समूहों के आख्यानों और जन-इतिहास के चरित्रों को कविता में लाया गया है जो उत्पादन की गतिविधियों से जुत्रडे होने के बावजूद समाज की परिधि पर नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। मोहन कुमार डहेरिया जैसे एक युवा कवि की रचनाएं जिनमें स्त्री-पुरुष संबंधों के अनेक निहितार्थ बहुत समसामयिकता के साथ प्रकट हुए हैं। भय, असुरक्षा, आशंकाओं और दु:स्वप्नों से घिरा एक वर्तमान जिसमें रहकर अब भी कोमलता, उम्मीद, लगाव, उत्ताप, समर्पण और करुणा के रंगों को सजाने की कोशिश है वहां। एक ऐसी दुनिया जिसमें कोई आश्वासन नहीं, कोई सुरक्षा नहीं, वहां सिर्फ़ एक बावला मन है, एक उत्ताप है और जीवन-मृत्यु के मिलन बिंदु है।
पत्र काफ़ी लंबा हो गया है। आपके पत्र में जो बातें आयी हैं, उनसे असहमत होने और एक बुनियादी ज़िरह में उतरने के और भी तमाम मुद्दे हैं। आधुनिकता और परंपरा की बहस, पश्चिम से प्रभावित होने या न होने का मुद्दा, संप्रेषण की समस्याएं - इन तमाम चीज़ों पर विस्तार से बात होनी चाहिए। पत्र में बातें बहुत सीमित हो जाती हैं। आपका पत्र पाने के बाद तात्कालिक रूप से जो मैंने अपना पत्र आपको लिखा था, उसे लेकर मैं संतुष्ट नहीं था। तभी उसका जवाब देते हुए मुझे यह पत्र दोबारा लिखना पत्रडा है, हालांकि सच तो यह है कि संतुष्ट मैं अपने इस पत्र से भी नहीं हूं। लगता है कि बातें जिस तरह से उठानी चाहिए थीं, वैसा नहीं हो पाया है।
समकालीन कविता से मेरे अपने असंतोष कम नहीं हैं और यदा-कदा मैंने उन्हें लिखित रूप में भी व्यक्त भी किया है। पर समूची समकालीन कविता को एक सिरे से नकार देने की यह स्थिति मुझे अंग्रेजी के उस मुहावरे की याद दिलाती है कि ''कुछ लोग बच्चे को नहलाने के बाद टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं।'' ख़ैर...! मैं इतना ही कहूंगा कि मेरे लिए आज भी तमाम साथी रचनाकारों को एक गहरी सहानुभूति और तटस्थता के साथ पत्रढना, उनके अच्छे-बुरे पहलुओं को समझना, उनके अंतर्विरोधों को पकडना एक प्रकार से अपने समय को समझना है। इसके अलावा और कोई राह है भी कहां? जो है उससे बेहतर चाहिए पर साथ ही जो है उसी की तो 'संगत' करनी होगी। यही 'समकालीन कविता के रेगिस्तान होते जाते चेहरे' को लेकर मेरी चिंताएं और मेरी पक्षधरता है। अपनी पीढी के बहुत सारे कवियों से मेरे प्रशंसा और आलोचना के द्वंद्वात्मक संबंध रहे हैं और कवियों से नहीं, उनकी कविता से इस 'संगत' को मैं आज भी अपने लिए बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं।
अंत में, यही कहूंगा कि आप वरिष्ठ हैं, अधिक जानकार हैं। मैं अपनी समझ की सीमाओं के कारण यदि कुछ आप्रांसगिक कह गया हूं तो उसे बिसार देंगे। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है कि मैं आपका सम्मान करते हुए भी जहां भी ज़रूरी हो आपसे पूरी तरह असहमत रहूं। यह इजाज़त तो आपको मुझे देनी ही पत्रडेगी।
आपने इतना लंबा पत्र मुझे लिखा उसके लिए आभारी हूं।
सादर,
विजय कुमार
 




 

6 comments:

  1. बेहद महत्वपूर्ण पत्र है, अच्छी, सुचिंतित पोलेमिक्स का नमूना. चूंकि यह एक पत्र का जवाब है-रचनाओं पर केंद्रित होते हुए भी, यहां ज़ोर पत्र में उठाए गए फुटकर मुद्दों को सिलटाने पर ही ज़्यादा है. बीज टिप्पणियां बड़ी संख्या में हैं यहां, जिन्हें विकसित किए जाने की ज़रूरत है, और विजय कुमार इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं. बहुत दिनों बाद एक अच्छा बेलाग पत्र पढ़ा है. कामना कीजिए कि इसका उत्तर भी आए और उसे आप यहां साझा कर सकें. आपने मुझे स्मरण दिलाया कि मैं इसे पढूं, इसके लिए आभार.

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  2. कुछ तकनीकी गड़बड़ी है, मोहन श्रोत्रि‍य जी का यह कमेंट भी मेल पर तो आया, पर यहां नहीं दिखा, इसलिए कापी पेस्‍ट कर रहा हूं.

    जबकि विजय बहादुर सिंह के पत्र पर एक जिद्दी धुन का कमेंट मेल में भी है, और ब्‍लाग में भी.


    मोहन श्रोत्रिय has left a new comment on your post "समकालीन कविता":

    बेहद महत्वपूर्ण पत्र है, अच्छी, सुचिंतित पोलेमिक्स का नमूना. चूंकि यह एक पत्र का जवाब है-रचनाओं पर केंद्रित होते हुए भी, यहां ज़ोर पत्र में उठाए गए फुटकर मुद्दों को सिलटाने पर ही ज़्यादा है. बीज टिप्पणियां बड़ी संख्या में हैं यहां, जिन्हें विकसित किए जाने की ज़रूरत है, और विजय कुमार इस काम को बखूबी अंजाम दे सकते हैं. बहुत दिनों बाद एक अच्छा बेलाग पत्र पढ़ा है. कामना कीजिए कि इसका उत्तर भी आए और उसे आप यहां साझा कर सकें. आपने मुझे स्मरण दिलाया कि मैं इसे पढूं, इसके लिए आभार.

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  3. कहीं आप ने ऑटो स्पम डिटेक्शन एनेबल तो नही किया है? इसे सेट्टिंग्स मे जा कर चेक कीजिए, कुछ कमेंट्स वहाँ आप की इजाज़त की प्रतीक्षा मे दुबके रहते हैं......आप अलाऊ करेंगे तभी नज़र आते हैं.

    विजय कुमार जी पत्र उत्तर मैने "चिंतन दिशा" पत्रिका मे देख लिया था. कुछ आलोचकों को पढ़ने मे कविता या कहानी पढ़ने जैसा ही रस आता है. और दृष्टि भी साफ होती है..... विजय कुमार का नाम उन मे सब से ऊपर आता है.

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  4. अलाउ कर दिया. ज्ञानदान के लिए धन्‍यवाद.

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  5. या रब वो न समझे हैं न समझेंगे वो मेरी बात/ दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और- ग़ालिब


    विजय बहादुर सिंह ने जो पत्र लिखा था वो समकालीन कविता की समस्याओं को लेकर उनकी अपनी समस्याओं को ही सामने लाता था, उनके दुराग्रहों को, उनकी समझ को। लेकिन, उसकी वजह से विजय कुमार का यह पत्र पढ़ने को मिला सो उसका `महत्व` भी तस्लीम। अब इस पत्र पर गंभीरता से बात हो तो बेहतर हो।

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  6. चिंतनदि‍शा के पास कुछ प्रतिक्रियाएं आई हैं जो अगले अंक में छप रही हैं. अंक प्रेस में है.

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