Wednesday, January 25, 2012

मैं अनुभव और भाषा का आजाद गुलाम हूं



हाल में पर्वत राग का लीलाधर जगूड़ी अंक छपा है. उसमें जगूड़ी जी ने अपने और अपनी कविताई के बारे में लिखा है. आप भी पढि़ए.


मेरा जन्म 1 जुलाई, 1940 के सोमवार को साढ़े नौ बजे सुबह हुआ। मुझे कैसा लगा, नहीं मालूम, पर अपने आज के अनुभव से जानता हूं कि मां और पिता जी को बहुत अच्छा लगा होगा। संभवत: उन्होंने भेली फाड़कर बांटी होगी। तब पहाड़ पर मिठाइयां और चीनी दुर्लभ वस्तुओं में होती थीं, सिर्फ मेरठ, मुज्‍जफरनगर और देहरादून से गुड़ की भेलियां ही आदमियों और खच्चरों की पीठ पर पहाड़ चढ़ पाती थीं। पहाड़ी गन्ना सिर्फ कोदे के डंठलों को कहते थे जिसे जानवर ज्‍यादा पसंद करते थे। आज भी कृषि अनुसंधान के क्षेत्र में कोदे को पहाड़ी गन्ना बनाने पर कोई शोध नहीं हुआ है। मेरी बहुत दिनों से यह मांग रहीं है....? मैं जितनी विकट परिस्थितियों में पैदा हुआ, युवा होते ही मुझे वे विषमताएं बड़ी काव्यात्मक लगने लगीं। गांवों में सुने हुए बचपन के लोकगीत और स्कूल में पढ़ी हुई कविताओं से बार-बार एक आवेग सा मन में पैदा होता था कि मैं भी ऐसा कुछ लिख बोल सकता हूं, या कि मैं इसे कुछ अपने ढंग से अपनी स्थितियों के बीच कहूं तो कैसे कहूंगा ? संभवत: इसी अनुकरणप्रियता की जद्दोजेहद में मेरे प्रारंभिक कवि का जन्म हुआ। जाहिर है कि यह एक तरह से दूसरा जन्म था। युवा होते ही मुझे जयशंकर प्रसाद, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', मैथिलीशण गुप्त, सुमित्रा नंदन पंत, निराला और दिनकर ने बहुत प्रभावित किया। वाक्देवी के विपुल संसार में कविता के परिसर की ओर ले जाने वाले पुराने जोगी दरअसल पुराने कवि ही होते हैं। नये कवि का पहला जन्म पुराने कवियों के वैचारिक आशयों से होता है। बाद में लगभग 21-22 वर्ष की उम्र में मैं अज्ञेय, मुक्तिबोध, नरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह, विजयदेव नारायण साही, कुंवर नारायण, शंभुनाथ सिंह, केदारनाथ सिंह आदि स्थापित कवियों की रचनाओं से प्रभावित हुआ। यानी कि 1960 के बाद मैं तेजी से अपने लिए अपना कोई ढंग और अपना कोई रास्ता तलाशने में लग गया। युवा कवियों में राजकमल चौधरी और धूमिल मुझ से उम्र, अनुभव और अध्ययन में बड़े थे। उनसे भी प्रभावित हुआ। अपने को दुनिया से संलग्‍न करते हुए कविता की अभिव्यक्ति में अलग करते चलने का संघर्ष आज भी जारी है।

कविता में इतिहास का होते हुए भी अपने समय का होना पड़ता है। जो अपने समय का नहीं वह इतिहास का भी नहीं हो सकता। कुछ लोग समय को अपने इतिहास से अलग इकाई समझते हैं लेकिन मैं समझता हूं कि सारे काल इतिहास के बस्ते में ठूंसे हुए हैं। सारा इतिहास अपने समय का वर्तमान रहा हुआ होता है। इसलिए वर्तमान ही है जो रोज इतिहास में दैनिक इतिहास होकर दाखिल हो रहा है। जो अपने समय का होता है, इस तरह वह इतिहास का हो जाता है। इतिहास के लिए जो इतिहास में घुसे हुए रहते हैं वे कविता क्षेत्र में अपने होने के इतिहास से वंचित हो जाते हैं। कहीं एक जगह जमा वर्तमान ही अतीत बन जाता है।

मैं काशी (बनारस) और उत्तरकाशी का विशेष मुरीद हूं कि उनकी प्रकृति और जीवन पद्धति ने मुझे कविता की ओर अधिकतम संलग्‍न किया। धूमिल और काशीनाथ सिंह मेरे अग्रज हैं पर उन्हीं के आस-पास मेरी भी शुरूआत हुई है, यह सौभाग्य समझता हूं। निराला निवेश में आयोजित एक गोष्ठी में डॉ0 बच्चन सिंह ने धूमिल से कहा था कि तुम जगूड़ी के प्रभाव से बचो, हम लोगों ने इस उक्ति का उस दिन खूब मजा लिया था। उसी तरह की व्यक्तिगत खुशी उस दिन भी हुई थी जब इमरजेंसी के दिनों में 'भेद' कविता 'आलोचना' के लिए स्वीकार करते हुए डॉ0 नामवर सिंह ने कहा था कि -'बाबू रघुवीर सहाय अब क्या खाकर कविता लिखेंगे'। उसके बाद रघुवीर सहाय ने एक से एक उम्‍दा कविताएं लिखीं। लेकिन दिल बहलाने को गालिब ये याल अच्छा है। रघुवीर सहाय से आज भी बहुत कुछ सीखा जाना चाहिए। हर कवि, अभिव्यक्ति के किसी न किसी अंग का पूरक होता है। अच्छी कविता और अच्छे कवियों की सोहबत व्यक्तित्व में तब्दीलियां लाती है। सोच और शब्दावली में फर्क पड़ता है। लेकिन उसके बाद एक ऐसी स्थिति आती है कि खुद को सब घेरों से बाहर करने की इच्छा होती है। प्रचलन से चिढ़ होने लगती है। परिवर्तन में पर परा की शाश्वतता दिखने लगती है। बदलाव और अभिव्यक्ति एक नया उपार्जन मांगने लगते हैं। कुछ लोग केवल कौशल, कुछ कौशल व कथ्य दोनों स्तरों पर संकट का अनुभव करते हैं। प्रतिष्ठित और प्रचलित दोनों के विरूद्ध अपना रास्ता निकालना हर बार चुनौतियों भरा होता है।

व्याधि और उपाधि की लालसा की तरह कविता भी परिवर्तन की आकांक्षा का पीछा नहीं छोड़ती। कवि के पास अच्छे लोगों के अलावा बुरे लोगों के बीच रहने के भी अच्छे खासे अनुभव होने चाहिएं। बुराइयों को जाने बगैर अच्छाइयों की पहचान और उनका पोषण संभव नहीं। कवि को गर्हित, निकृष्ट, वर्जित और निषिद्ध का भी पीछा करना चाहिए। कवि की संवेदना को अनुभव सिद्ध होना आवश्यक है वरना बिना कीमत चुकाये मुफत की कविताई यशस्वी नहीं हो सकती। कवि को दुश्चरित्रों, दुश्शीलों, पतितों, अटकों, भटकों और अपराधियों तक के प्रति मानवीय जिम्‍मेदारी और करुणा से भरा हुआ होना चाहिए। रवि की तरह कवि को भी सब जगह बिना घृणा के जाने, रहने और सहने का तजुर्बा और साहस होना चाहिए। लाचारी और मजबूरीवश ऐसा होना कवि की अयोग्यता है। सोच समझकर, जानबूझकर, जिज्ञासु भाव से ऐसा हो तो वह अपने कवि के निर्माण में बेहतर सहायक हो सकता है। चीजें स्वभावत: सब अच्छी नहीं होती, उन्हें अच्छा बनाना पड़ता है। यह तभी संभव है जब सबसे पहले अपनी खराबी और कमजोरी का बोध हो। साहित्य की जटिलता, ढांचे और प्रभाव दोनों स्तरों पर शुरू से ही मौजूद रही है, इसीलिए खासकर कविता की समझदारी के लिए अपने भीतर 'शीघ्र बोध' भी पैदा करने का ज्ञानात्मक अभ्‍यास विकसित करना पड़ता है। सरलीकरण और अतिरंजना से तभी छुटकारा पाया जा सकता है।

मैंने पहले कवि होने के बारे में नहीं सोचा था लेकिन मेरी परिस्थितियों ने मुझे इतना विपत्तिग्रस्त और अकेला बनाये रखा कि मुझे अपने चुप्पेपन में शब्दों और ध्वनियों के अर्थ समझने और बरतने की तलब सी हो गयी। अकेलापन साहित्य में व्यक्ति की मानसिक मरम्‍मत करता है। मेरे मन में अपार असफलताओं और असुरक्षाओं ने डेरा जमा लिया था। अगर मैं साहित्य के संपर्क में न आता तो मैं संभवत: एक अपराधी हो जाता। साहित्य ने और कुछ किया हो या न किया हो, कम से कम मुझे अपराधी होने से रोका है। मैंने खुद धोखे खाये, अन्याय झेले, उनका प्रतिकार किया मगर हर जगह मैं उन्हें न्याय में नहीं बदलवा पाया। साहित्य अच्छे आदमी का निर्माण संभवत: इसी तरह करता है कि वह अपने से जुड़ने वाले को अन्यायी, अपराधी और निरर्थक ईष्याओं का पात्र नहीं बनने देता। जो हों या होते होंगे वे कवि तो कतई नहीं हो सकते। मैं खुद को कवि होने का प्रमाणपत्र नहीं दे रहा हूं लेकिन मैं खुद को कविता से अलग भी नहीं कर सकता। न मैं बिना किसी भाषा के कविता की कल्पना कर सकता हूं।

मैं दृश्यों और आंतरिक अनुभवों को भी भाषा में सोचता हूं। भाषा के बिना मैं रंगों और आकृतियों के बारे में भी नहीं सोच सकता। मैं अनुभव और भाषा का आजाद गुलाम हूं। मैं पहले नये विचार का पीछा करता हूं और उसे अपने अनुरूप बनाने की कोशिश करता हूं अन्यथा वह अगर कोई नया रास्ता मुझे दिखाता है तो उसी पर चलकर मैं उसकी उपयोगिता के बारे में सोचता रहता हूं। मैंने बहुत सी कविताएं नींद में सपना देखते हुए सोची हैं और तुरंत जगकर उन्हें लिखा भी है। किसी मौके पर मैं बताऊंगा कि कौन-कौन सी कविताएं मैंने सपने में सोची और बोली हैं। मैं अपनी कविताएं उस तरह कण्ठस्थ ज्‍यादा दिन नहीं रख पाता हूं जिस तरह कुछ कवि सम्‍मेलनी कवि अपनी कविताओं को रट्टा मारकर याद रखते हैं। उनके साथ सुविधा यह है कि उन्हें वे ही कविताएं सुनानी हैं जो उन्हें अपने जीवन काल में सुनाते-सुनाते रट गयी हैं। मैं खुद को भुला देने के लिए फिर एक नयी कविता रचता हूं और फिर उससे आगे किसी और नयी कविता की ओर बढ़ जाता हूं। मैंने अब तक क्या-क्या सोचा, किया और लिखा, उसे याद रखता हूं पर दोहराता नहीं हूं । अगला जन्म अगर होता है तो मैं उसमें भी कवि होना चाहूंगा, सबसे बेहतर कवि।

लीलाधर जगूड़ी 











Saturday, January 14, 2012

समकालीन कविता


जैसा कि आप जानते हैं मुंबई के कुछ मित्रों ने चिंतनदिशा का प्रकाशन फिर से शुरू किया है. इसके पिछले अंक में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार के बीच कविता की चिंताओं को लेकर हुआ पत्राचार छपा है. पिछली पोस्‍ट में आपने विजय बहादुर का पत्र पढ़ा.अब पेश है विजय कुमार का पत्र

 
माननीय डॉक्टर विजय बहादुरजी,
आपके 157 और 317 के संयुक्त पत्र का उत्तर उसी समय मैंने आपको दे दिया था जो काफ़ी हडबडी में दिया गया उत्तर था। इसलिए जब भाई हृदयेश मयंक ने आपके इस पत्र और उस मेरे जवाब को 'चिंतन दिशा' में प्रकाशित करने की इच्छा प्रगट की तो मुझे यह आवश्यक लगा कि मैं अपने उस जवाब को थोडा व्यवस्थित करने के बाद ही छपवाऊं। उत्तर तो शायद यह भी व्यवस्थित नहीं है, पर कुछ मुद्दे ऐसे हैं जो चर्चा का एक ठोस आधार बना सकें तो अच्छा है। आपने ही कहा था कि हमारे इस पत्राचार का उद्देश्य एक दूसरे पर कुछ निजी तौर पर साबित करने के बजाय समकालीन समय में लिखी जा रही कविता पर कुछ चर्चा बिंदुओं को रेखांकित करनेवाला होना चाहिए। यह पत्र विशुद्धद उसी उद्देश्य से लिखा गया है।
आपने अपने पत्र में जिन मुद्दों को उठाया है, पत्र पतढते ही मैं समझ गया था कि मैं तो उस पत्र में महज एक निमित्त हूं, आपके निशाने पर कौन लोग हैं यह स्पष्ट था। पर पहले यह बात स्पष्ट कर दूं कि श्री राजेंद्र यादव के नाम 'रचना समय' के कविता विशेषांक में जो मेरा पत्र छपा है, वह बरसों से मेरे रद्दी काग़ज़ों में पडा हुआ था। हल्के-फुल्के अंदाज़ में लिखे गये उस पत्र को छपवाना उचित था या नहीं, यह मैं नहीं जानता पर अब जब छप गया तो छप गया। मुझे लगता है कि उसमें कुछ बातें हैं जिन पर कायदे से बहस हो सकती है। हिन्दी का हमारा यह वर्तमान दृश्य शायद अब संवाद-उन्मुख नहीं है। बहसें होती नहीं हैं। ज्यादातर तो एक आपसी सहमति का 'गुडी गुडी' संसार फैला हुआ है। फारसी की कहावत है कि 'मन तुरा हाजी ब गुयम, तू मरा हाजी ब गो'। (अर्थात् मैं तुझे हाजी कहता हूं, तू मुझे हाजी कह दे। और पता चला कि दोनों में से कोई हज करके नहीं आया है।) सभाओं और गोष्ठियों में आज एक भक्ति-रस की धारा बहती रहती है। बल्कि वह सही मायने में भक्ति और श्रद्धा भी नहीं, उसका एक 'मेलोड्रामा' है। शिखर आलोचक सुबह-शाम प्रवचन की मुद्रा में अपने पिट्ठुओं को आसमान पर चढाते रहते हैं। भक्तगण श्रद्धा विगलित होने का नाटक करते हुए उनकी धोती पकडकर भवसागर पार कर जाना चाहते हैं। गुरु जितने चतुर, चेले उनसे ज्यादा चतुर। कहां हैं बहसें? प्रश्नाकुलता का वह ताप जो अभी तीस-चालीस साल पहले तक दृश्य में बना रहता था, वह अब नज़र नहीं आता।
आपकी इस बात से एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है कि वर्तमान में समकालीन कविता की कुछ रुढि़यां बन गयी हैं। हमें पता नहीं कि कवियों की एक छोटी-सी बिरादरी के बाहर कविता के वास्तविक रसिक कितने हैं! पर इस मुद्दे पर आपके पत्र में एक भयावह सरलीकरण भी दिखाई पडता है। मैं आपकी अनेक बातों से सहमत होते हुए भी आपसे असहमत भी हूं। और यह अच्छा ही है कि आपके सुर में सुर मिलाने के बजाये अपनी कुछ बातें आपके सामने रखूं। आपके पत्र को ध्यान से पढने के बाद कई एक बातें ऐसी लगी हैं, जहां यह लगता है कि आप समकालीन कविता से असहमत तो हैं पर साथ ही एक बडी हद तक अपने बहुत सारे पूर्वाग्रह लेकर भी चल रहे हैं। आज की कविता का दायरा यदि इसलिए सीमित है कि वह पाठकों के हृदय के तारों को झंकृत नहीं कर पा रही तो यह एक बडा मुद्दा है। इसके अनेक पहलू हैं और उन पर गंभीरता से बात होनी चाहिए। कविता और पाठक के बीच की दूरी का मसला जितना साहित्यिक प्रतिभा की श्रेष्ठता या हीनता का है, उतना ही आधुनिक समाज की संरचना, संप्रेषण के साधनों की वर्तमान स्थिति, हिन्दी भाषी समाज के सांस्कृतिक हालात और सर्जनात्मक भाषा के सम्मुख उपस्थित तमाम तरह के संकटों का भी है। कम से कम ऐसा मैं तो मानता हूं और आगे भी इस पर अपनी बात को जारी रखना चाहता हूं। कवियों के आचरण में कथनी करनी के अंतर या उनके आपसी राग-द्वेष या उनकी सफलताकामी क्षुद्र दुनिया पर आपकी टिप्पणियां भी अपनी जगह पर सही हो सकती हैं पर वह एक बडी चर्चा का छोटा-सा हिस्सा मात्र है। आप हिन्दी कविता के पिछले कुछ दशकों की स्थिति से बेशक बहुत असंतुष्ट हो सकते हैं और आपको अपनी राय रखने का पूरा अधिकार भी है पर अजीब तब लगता है जब आप इस सारी स्थिति को 'विशुद्ध साहित्य' के दायरे में रखकर ही सोचना विचारना चाहते हैं। इसीलिए तो कहीं आप एक झटके में पूरी प्रगतिशील या प्रयोगवादी कविता को नकार दे रहे हैं। कहीं समूची आधुनिकतावादी और तथाकथित उत्तर आधुनिकतावादी बहसों के बारे में ये निष्कर्ष निकाल ले रहे हैं कि इनमें हमारी दो हजार साल की साहित्यिक विरासत और सृजनात्मक सिरे से अनुपस्थित है और कहीं आप पश्चिम से संपर्क से नाक-भौं सिकोडते हुए किसी 'आदर्श भारतीयता' की शरण में चले जाना चाहते हैं। नागार्जुन और भवानीप्रसाद मिश्र आपके पसंद के कवि हैं और आप कहते हैं कि ''नागार्जुन और भवानीप्रसाद मिश्र में तो परंपरागत सामूहिकता का बोध है और इनके यहां विचार हैं पर वे वादग्रस्तता से मुक्त हैं। इन्हें पढते हुए बार-बार अनुभव होता है कि हम अपने आस-पास की उन सच्चाइयों से रूबरू हो रहे हैं जो सिर्फ़ कवि-कल्पना या काव्य कौशल की मनगंढत सच्चाइयां नहीं है। ये विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई है।'' इसी संदर्भ में आप आगे कहते हैं कि ''रघुबीर सहाय को पढते हुए तबियत बैठ-सी जाती है। बेहद अकेलेपन और लाचारी से पाठक भर उठता है।'' ये अपने अपने इंप्रेशन हैं। इंप्रेशन भर। ये अंतिम सत्य नहीं कहलाते। आपको भवानी प्रसाद मिश्र पसंद हैं, किसी अन्य को उनमें कुछेक कविताओं को छोडकर बेहद सपाटपन भी नज़र आ सकता है। नागार्जुन की कविता को यदि आप कहते हैं कि वह 'विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई है' तो लगभग यही राय कोई दूसरा आदमी मुक्तिबोध, रघुवीर सहाय, चंद्रकांत देवताले, अरुण कमल, राजेश जोशी और नरेंद्र जैन की कविताओं के बारे में व्यक्त कर सकता है। बल्कि मुक्तिबोध और रघुबीर सहाय के यहां वह सब देख सकता है जो नागार्जुन, त्रिलोचन या भवानी प्रसाद के यहां सिरे से अनुपस्थित है। कवियों के अपने-अपने व्यक्तित्व और अनुभव संसार होते हैं। एक का आधार लेकर दूसरे को पछाडना मैं समझता हूं कि एकांगी दृष्टिकोण है। कोई भी एक रचनाकार किसी भी दौर में यह नहीं कह सकता कि सत्य की संपूर्ण अभिव्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ मेरे पास है। यदि ऐसा होता तो हम तुलसी के साथ सूर को न पढ रहे होते। सिर्फ़ कबीर से काम चल जाता, मीरा को पढने की आवश्यकता न रहती। माफ कीजिएगा डाक्टर साहब मुझे आपका दृष्टिकोण बहुत कुछ एकांगी लग रहा है और किसी हद तक दुराग्रही भी। वह सही तरीके की 'साहित्यिक पॉलिमिक्स' का आभास भी नहीं दे रहा।
समकालीन कविता पर आपसे चर्चा करते हुए मैं अपनी स्थिति को स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह सब लिखते हुए न तो मैं स्वयं को इस कविता का कोई प्रवक्ता या पैरोकार मान रहा हूं न उसकी कतिपय सीमाओं के बचाव में खडा होना चाहता हूं। मेरी वैसी क्षमता भी नहीं है। आज लिखी जा रही कविता और कवियों की तमाम सीमाओं को मैं गिना सकता हूं और बाज वक्त मेरा बहुत आलोचनात्मक रवैया भी रहा है पर साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि हर युग में कविता ही क्यों, हर कला की हर सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का मसला सर्जक के व्यक्तित्व की संरचना से जुडा रहता है। समय के बहुत सारे अंतर्विरोध सर्जक के व्यक्तित्व में होते हैं। हर कला का एक स्वप्न होता है कि वह मनुष्य के मन की किसी आदिम पवित्रता को संजोए पर अपने इस उपक्रम में उसकी राह तो अपने समय के इतिहास के तमाम भूलभुलैया से होकर ही है। रवींद्र नाथ टेगौर की पंक्तियां याद आती हैं कि ''साहित्य पर विचार करते समय दो चीज़ें देखनी होती हैं। पहली विश्व पर साहित्यकार के हृदय का अधिकार कितना है; दूसरी, उसका कितना अंश स्थायी आकार में व्यक्त हुआ है। यह जो मनुष्य का संसार है यही हम सबके हृदय-हृदय में बसता आ रहा है, यह प्रवाह पुरातन है और नित्य नूतन भी।'' कला में अपने समय के इतिहास बोध और एक सनातन पवित्रता के द्वंद्व को रवींद्र ने कितने अच्छे ढंग से व्यक्त किया है। मूल बात यही है कि साहित्य में जिस सनातन को हम रचना चाहते हैं वह हर बार बाहर के विश्व से ही विविध रसों, रंगों, सांचों में तैयार होता रहता है। हम बिना इतिहास के उस झंझावात से गुज़रे उस शाश्वत मूल्यवत्ता को कैसे हासिल कर सकते हैं। भक्तिकाल हो या रीतिकाल, प्रगतिवाद हो या प्रयोगवाद, आधुनिकता का बोध हो या उत्तर आधुनिक विमर्श - हर समय, झंझावात है।
आचार्य शुक्ल ने जब यह कहा था कि सभ्यता का ज्यों-ज्यों विकास होता जायेगा, कवि-कर्म उतना ही कठिन होता जायेगा और कविता की आवश्यकता भी उतनी ही बढती जायेगी तो एक प्रकार से वे इतिहास और सनातन दोनों की इस द्वंद्वात्मकता को ही सामने रख रहे थे। हम टेक्‍नोलोजी, बाज़ार, पूंजी, संचार और उपभोग की दुनिया में चाहे जितने धंसे हुए हों, पर प्रकृति का कोई अनुपम दृश्य, चांदनी रात की कोई नीरव शांति, नदी के कल कल बहते पानी की आवाज़, वृक्ष का झूमना या हवा का हल्के से देह को स्पर्श करना यह सब क्यों आज भी हमारे अंतर्मन को उसी तरह से सहसा मुक्त कर देते हैं? क्यों वह क्षण कविता का क्षण लगने लगता है? लेकिन यहीं आचार्य शुक्ल की वह बात ध्यान में आती हैं कि द्वंद्वात्मकता के बिना किसी चीज़ का कोई अर्थ नहीं है। हमारे चारों ओर घिराव और फंसाव हैं, इसीलिए अवकाश के क्षण मोहक लगते हैं। घुटन है तभी तो हवा का स्पर्श कोई मायने रखता है। मैं बस यही कहना चाहता हूं कि कला में 'आत्म के जिस साक्षात्कार' की बात आप अपने पत्र में कर रहे हैं वह इतिहास के तमाम दाग-धब्बों, कल्मष, अंतर्विरोधों, पाखंड और आडंबरों की भूल-भुलैया से गुज़र कर ही है। 'आत्म का साक्षात्कार' कोई 'फास्ट फूड' या 'रेडीमेड वस्त्र' नहीं है जिसे लपक कर हासिल कर लिया जाये। आप जब नागार्जुन की कविता में मनुष्य की जिजीविषा और बुनियादी रोमान का हवाला देते हैं तो मेरे सरीखे पाठक के लिए वह सबकुछ इसलिए मायने रखता है कि कवि अपनी समसामयिकता और तात्कालिकता, स्थितियों-प्रसंगों की समयबध्दता, क्षणिकता, क्षणभगुंरता, क्षुद्रता और साधारणता से गुज़रते हुए ही वहां तक पहुंच रहा है। उसकी कविता में विपरीत स्थितियों का 'जस्टापोजीशन' ही उसे एक बडा कवि बनाते हैं। चारों ओर के तमाम संदर्भों में उसकी संवेदना का सने होना, उसके दाग-धब्बे, उसका लिथडना, उसकी यह 'अशुध्दता' ही उसका मूल्य है। उसका यह स्वर-वह जैसे कि हर स्थिति में बध्द है और साथ ही उसका अतिक्रमण भी कर देना चाहता है। यह अतिक्रमण उसका रोमान है। और यदि आप एक बार इस बात को स्वीकार कर लेते हैं तो आगे दलील यह है कि नागार्जुन के इस ॠण को स्वीकार करते हुए भी अगली पीढी का कवि अपने ढंग से अपना वस्तुजगत और अपना रोमान 'डिस्कवर' करेगा। वह नागार्जुन से प्रभावित होते हुए भी उनका 'कॉपी कैट मॉडेल' नहीं हो सकता, न उसे होना चाहिए। उसे अपने तरीके से अपने इतिहास को पाना होगा। बल्कि एक नया कवि का रचना जगत सहसा पुराने के सृजन को एक नया अर्थ भी देगा। आख़िर यह कैसे हुआ कि आठवें दशक में जब युवा कवियों की एक नयी रचनाशीलता सामने आयी तो उनकी समवेत उपस्थिति ने समूचे परिदृश्य को बदल दिया। जिस प्रगतिशील कविता की परंपरा से ये जुडे, उस जुडाव ने ही आठवें दशक में नागार्जुन, केदार, त्रिलोचन को पुन:प्रांसगिक बनाया, उनकी उपेक्षा का दौर ख़त्म हुआ। मुक्तिबोध और शमशेर को एक नये तरीके से समझाने की कोशिशें हुईं। वह सब जो ओझल था, अचानक नयी और युवा रचनाशीलता के संदर्भ में केंद्र में आ गया। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि पीढि़यों के इस अंर्तसंबंध की अभिक्रियाएं दोनों ओर से चलती हैं। इलियट ने तो इस बात को बहुत अच्छे ढंग से प्रतिपादित किया है। और यहीं आकर मैं आपसे यह ज़िरह करना चाहता हूं कि -
जब इतिहास बोध की बात हम करते हैं, 'अशुद्ध्‍ा' कविता की बात करते हैं, समसामयिकता की बात करते हैं तो कविता की कोई भी अवधारणा अमूर्त, समाज निरपेक्ष, ठहरी हुई और 'यूनीफार्म' कैसे हो सकती है। जो किसी पुरखे ने लिखा, ठीक वही आज का युवक क्यों दोहरायेगा? एक दौर था जब एक पीढी ने अपना इतिहास बोध दो महायुद्धों के बीच के घटनाक्रमों से, राष्ट्रीय चेतना के उभार से, असहयोग आंदोलन, जलियांवाल बाग हत्याकांड, खिलाफ़त आंदोलन, तिलक की मृत्यु, भगतसिंह की फांसी, सांप्रदायिकता के उभार, विभाजन, परंपरा और आधुनिकता की बहसों और एक नये राष्ट्र के निर्माण के सपनों से पाया था। बीसवीं सदी बीत गयी। इसकी विराट उपलब्धियों और चिंताजनक असफलताओं का एक बोझ हम सब पर है। हमारे समय के अंतर्विरोध बहुत अलग तरह के हैं। एक तरफ़ टेक्‍नोलॉजी का इतना विकास और दूसरी तरफ़ जाति, धर्म, संप्रदाय और वर्ण की और भी सख्त होती जाती घेराबंदियां। चारों तरफ़ जानकारियों का इतना विशाल कूडेदान और अपने ही 'स्व' की कोई स्मृति नहीं। पूंजी, उपभोग और उन्माद की संस्कृति का आज मनुष्य के मनोजगत पर जितना नियंत्रण हो चुका है, क्या वह पिछले किसी भी दौर में था? समय की ऐसी तेज़ रफ्तार और मनुष्य का एक भयावह रूप से विस्थापित और स्मृतिविहीन अस्तित्व। क्या हम कभी इस पर विस्तार से बात नहीं करना चाहेंगे? सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक घेरेबंदियों का यह दौर और इस सबके बीच मध्यवर्ग से आता हुआ हमारा यह लेखक और कवि। आप ने अपने पत्र में टिपिकल मध्यवर्ग की हताश और किंकर्तव्यविमूढ मानसिकता का संदर्भ उठाया है। क्या यह मसला हमारी आधुनिकता के सारे झमेले से जुडा हुआ नहीं है? क्या इस पर आज बहुत 'डिस्पेशनेट' होकर एक बडे संदर्भ में बात करने की आवश्यकता नहीं है। हां, यह सच है कि हम एक हद तक आज पश्चिम से आक्रांत है, क्योंकि आधुनिकता बोध की वह ज़मीन ही हमने वहां से उठायी है। और यह एक ऐसी दुश्वार स्थिति है, जिसमें न हमारा पुराना जातीय बोध अक्षुण्ण रह गया है, न हम पश्चिमी आधुनिकता के वास्तविक लाभों को प्राप्त कर पाये हैं। बीसवीं सदी में एशियाई देशों, अफ्रीका, लातीनी अमरीका - क्या सभी जगह पर यह दुश्वारी नहीं है। अभी कल मैं चीन में खुली अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोधों पर बना एक मार्मिक वृत-चित्र देख रहा था। बाज़ार अर्थव्यवस्था में वहां नगरों का भीषण गति से विकास हो रहा है और पीछे छूट गये गांवों का उजाड जीवन और अशक्त और लाचार लोगों की बदहाली। वह आधुनिकता का तलघर है। यह फ़िल्म हाशिये के अस्तित्व की कथा को कहती है। लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स की चीनी छात्रा डॉ. ली पिंग किन ने यह वृत-चित्र बनाया है। तो यह एक नयी पीढी की सृजनात्मकता है, जो पुरानों के संसार से बहुत दूर चली आयी है। (आशा है इस उदाहरण के लिए आप मुझे पश्चिम से प्रभावित होने के सतही और हास्यास्पद आरोप से मुक्त रखेंगे।) शायद आपको जानकारी हो कि अभी चंद दिनों पहले विश्व बैंक की 'वर्ल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2009' में आयी है, जिसमें खुलेआम इस बात की वकालत की गयी है कि आबादी के गांवों से शहरों की ओर पलायन को बढावा दिया जाना चाहिए इसी से विकासशील देशों की ग़रीबी दूर होगी। यह रिपोर्ट कहती है कि देश के सभी हिस्सों में एक समान आर्थिक गतिविधियों का विस्तार करने के बजाय औद्योगिक शहरों के संकुलों को महत्व देना चाहिए। बाज़ार अर्थव्यवस्था पर केंद्रित हमारे देश की आगामी वर्षों की सोशियॉलॉजी क्या होगी, इसे हम समझ सकते हैं। ग्लोबलाइजेशन का अलग-अलग लोगों के लिए आज अलग-अलग अर्थ बन रहा है। ग़रीब और पिछडे हुए देशों के छोटे किसानों और ग्रामीण जनता के लिए भूमंडलीकरण का अर्थ वही नहीं है जो इन देशों के शासक वर्ग और नीति निर्माताओं के लिए। जो किसान कल तक अपनी और अपने परिवार की रोटी के लिए आत्म निर्भर था, वह अब बाहरी स्रोतों पर निर्भर हो गया है। भारत की ग्रामीण जनता का अपने जीवन पर अब कोई अख्तियार नहीं रहा। देश में हजारों किसान अब तक आत्महत्या कर चुके हैं। लाखों किसान अब विवश होकर मजदूरी करने शहरों की तरफ़ भाग रहे हैं। 90 के दशक में वैश्विक पूंजी, प्रत्यक्ष वित्त निवेश, मेगा प्रोजेक्टों, कारपोरेट कृषि, खुदरा व्यापार के क्षेत्र में बत्रडे औद्योगिक घरानों की घुसपैठ और उपभोगमूलक संस्कृति का सबसे बडा हमला हमारे ग्रामीण समाज और परंपरागत जीवन-स्रोतों पर हुआ है। निर्यात को बढावा देने के लिए देश में विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) बनाये जा रहे हैं। यह वही ज़मीन है जो किसानों से छीन कर बडे-बडे उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय निगमों को दी जा रही है। विस्थापन हमारे समय का सबसे बडा सच बन रहा है। क्या यह अनुभव क्षेत्र हमसे पिछली पीढी के पास था? हम किस परंपरा की बात कर रहे हैं? गांवों से उजडकर शहर की नारकीय झोपडपट्टियों में मनुष्य से एक दर्जा नीचे का जीवन बिताने वाले उस किसान के भीतर अब कितने तुलसीदास, कबीर, केशव या सूर बचे रह गये हैं? जीवंत मनुष्य की चेतना का बाज़ार जितनी तेज़ी से 'पदार्थीकरण' (कमोडीफिकेशन) कर रहा है उस सच को क्या कहेंगे आप? पिछली पीढी के किस कवि ने इस भयावह स्थिति को देखा था? किसी भी समाज में जीवनयापन की प्रणालियां विभिन्न घटकों के आपसी तालमेल से बनी होती हैं, जिनमें भौतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक सभी परिवेश एक दूसरे में घुले-मिले रहते हैं। हम साहित्य में परंपरा की जिस ठहरी और यांत्रिक अवधारणा के गीत गाते रहते हैं, क्या वह किसी भी तरह से हमें कोई राहत दे सकती है? मैं यह मानकर चल रहा हूं जब मैं यह सब लिख रहा हूं तो आप कम से कम इसे 'साहित्येतर' विषय या 'सुपरफीशियल' विवेचना के खाते में नहीं डाल देंगे। नागार्जुन की कविता में साधारण मनुष्य के चारों ओर के अमानवीय संसार और उसकी विडंबनाओं का जो चित्रण है, अरुण कमल उससे प्रेरित होते हुए भी आज उससे कितना आगे आ चुके हैं यह जानने में मेरी दिलचस्पी है। और जब मैं यह जानने की कोशिश करता हूं तो आज के रचनाकार का परिवेश और उसमें उसकी सृजनात्मक मुश्किलें, उसकी चुनौतियों पर बात करना मेरे लिए ज्यादा अनिवार्य हो जाता है। नागार्जुन या मुक्तिबोध या भवानीप्रसाद मिश्र मेरे लिए ठहरी हुई अवधारणाओं की तरह नहीं है कि मैं उनकी रचनाशीलता में निहित अंतर्धाराओं के विकास को अगली पीत्रढी में न खोजूं। आपने बडी आसानी से रघुवीर सहाय को ख़ारिज़ कर दिया है। काश! आप इस विवेचना में जाते कि शक्ति-संरचना और साधारण मनुष्य के जटिल संबंधों पर अमानवीयकरण की प्रक्रिया और उसके विभिन्न शेड्स पर जितना काम अकेले रघुवीर सहाय ने किया है, वह क्यों सहज ही उन्हें उस पीढी का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि बना देता है। किसी की कविता पढकर ऐसी प्रतिक्रिया देना कि उससे मेरे भीतर हताशा जागी या मेरा दिल बैठ गया एक लगभग हस्यास्पद प्रतिक्रिया है। शक्ति संरचना और साधारण मनुष्य के जटिल संबंधों की इसी समझ को जो रघुवीर सहाय ने हिन्दी कविता को दी, विनोद कुमार शुक्ल, विष्णु खरे, चंद्रकांत देवताले, लीलाधर जगूत्रडी, नरेश सक्सेना, भगवत रावत, ॠतुराज, राजेश जोशी, अरुण कमल, नरेंद्र जैन, विष्णु नागर, कुमार अंबुज, देवीप्रसाद मिश्र, आशुतोष दुबे या मोहन कुमार डहेरिया जैसे तमाम बाद के कवि अपनी रचनाओं में उसे आगे बत्रढाते हैं। और भी नाम हैं। नाम गिनाना मेरा उद्देश्य नहीं है। हमें उस विकास-यात्रा को देखना होगा, न कि हमारी विवेचना का विषय यह होना चाहिए कि ये कवि कितने 'पांखडी और बेइमान हैं, कितने सफलताओं के तात्कालिक गुणा-भाग से जुडे हुए हैं, कितने पश्चिम के नकलची हैं और अंध प्रतिबध्दतावादी हैं। आदि-आदि।'
समकालीन कवियों के ये ही सारे गुण-धर्म तो आप अपने पत्र में गिनवा रहे हैं। अच्छा है! पर काश आप इसके साथ यह भी बताते कि इन पिछले तमाम वर्षों में एक मध्यवर्गीय रचनाकार के विघटन की भीषण स्थितियां क्या रही हैं और समकालीन कविता किस हद तक बाहर से लादी जा रही छद्म चेतना के रूपों को अनावृत कर सकी है, उसकी प्रविधियां क्या रही हैं, उसका संघर्ष क्या रहा है। मुक्तिबोध ने एक समय 'अंधेरे में' कविता में शहर के माफिया डोमाजी उस्ताद के रात के अंधेरे में निकले जुलूस में शहर के बुध्दिजीवियों, कवियों, कलाकारों, चिंतकों को चुपचाप शामिल होते देखा था। पचास बरस बाद आज कवि देखता है कि ये बुध्दिजीवी, कवि, कलाकार, चिंतक अब खुले आम दिन के उजाल में माफियाओं के साथ मंच शेयर कर रहे हैं। पुरस्कार ले रहे हैं, अभिनंदन करवा रहे हैं, यात्राएं कर रहे हैं, वज़ीफे पा रहे हैं। पर यही अंतिम सच नहीं है। इसी सबके बीच कोई कवि यह भी तो लिख रहा है कि ''जो हत्यारों के इस जुलूस में शामिल नहीं होंगे वे मारे जायेंगे। सबसे बडा अपराध है इस वक्त निरपराधी होना।'' आप बताइये कि 'अंधेरे में' कविता से 'जो मारे जायेंगे' कविता तक की संवेदना-यात्रा रचनाकार की किस सोशियॉलाजी की यात्रा है और रचनाकार के मन पर किस तरह के दबाव हैं। जिस दौर में मनुष्य की नियति को बदलनेवाले विराट स्वप्नों और यूटोपिया को अप्रासंगिक कहा जा रहा हो, मनुष्य का विचार जगत स्वयं बाज़ार में बिकनेवाली एक जिंस बन गया हो और विचार का मतलब केवल सूचनाएं रह गया हो तब वर्चस्व की इस संस्कृति से रचना में मुठभेड की नयी सच्चाइयां क्या बिल्कुल गैर-हाजिर हैं? आपने अरुण कमल की कविता 'जिसने ख़ून होते देखा' पढी है? आम आदमी के चारों तरफ़ हिंसा का जो संसार बुन दिया गया है उसमें अपनी सारी निरूपायता के बावजूद उसमें बचे रहने की जो इच्छा शक्ति है, जो 'सर्वाइवल इंस्टिंक्ट है उसे कितने अभूतपूर्व ढंग से यह कविता उजागर करती है। जो बाहरी तौर पर कुछ भी अलग दिखाई नहीं देता उसी के बीच आख़िर किस तरह कोमलता का कोई चिह्न छिपा रहता है, कैसे आदमी अपने को बचाने के 'मैकेनिज्म' को ईजाद करता है यह कविता हमें उस अनुभव से दो-चार कराती है। क्या यह कविता नागार्जुन की कविता 'मंत्र' के बहुत आगे की कविता नहीं है? कवि यहां यथार्थ के सिर्फ़ ब्यौरे नहीं दे रहा है वहां यथार्थ की कतली है और उसके दूसरी तरफ़ गुंफित है सारे संकेत सूत्र। जो जितना व्यक्त है, उतना ही अव्यक्त है। यह कविता हमारी बदलती दुनिया की कविता है। यूटोपिया और सपनों के ध्वंस के बाद की दुनिया की कविता, जिसमें लोगों के जीने के प्रोसेस को दिखाया गया। हादसों, अपघातों, आशंकाओं और घिरावों के बीच जीते हुए लोगों की सांसों को - उसकी आवाज़ों को आप यहां सुन सकते हैं। आपको कविता में और कैसी मार्मिकता चाहिए? क्या कोई इससे इंकार कर सकता है कि 'चंपा काले अक्षर नहीं चीह्नती' के बाद 'सीलमपुर की लडकियां' जैसी कविता जब लिखी जाती है तो युवा कवि का संसार अपने पूर्वज के संसार और उसके यथार्थ बोध से बहुत आगे निकल आया है? 30-40 वर्षों में हुए बदलाव को समझने के बाद ही ऐसी कविता लिखी जा सकती है। बद्रीनारायण के कविता संग्रह 'खुदाई में हिंसा' में तमाम ऐसी कविताएं हैं जहां कोई मूलभूत सपना एक ऐसी काव्यात्मक इंटेसिटी बन कर प्रकट हो रहा है जिसे तमाम तरह के अंतर्विरोध घेरे हुए हैं। यहां अप्रचलित मिथकीय आख्यानों के पुनर्पाठ की कोशिश को नहीं, बल्कि ऐसी जातियों और मानव समूहों के आख्यानों और जन-इतिहास के चरित्रों को कविता में लाया गया है जो उत्पादन की गतिविधियों से जुत्रडे होने के बावजूद समाज की परिधि पर नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त हैं। मोहन कुमार डहेरिया जैसे एक युवा कवि की रचनाएं जिनमें स्त्री-पुरुष संबंधों के अनेक निहितार्थ बहुत समसामयिकता के साथ प्रकट हुए हैं। भय, असुरक्षा, आशंकाओं और दु:स्वप्नों से घिरा एक वर्तमान जिसमें रहकर अब भी कोमलता, उम्मीद, लगाव, उत्ताप, समर्पण और करुणा के रंगों को सजाने की कोशिश है वहां। एक ऐसी दुनिया जिसमें कोई आश्वासन नहीं, कोई सुरक्षा नहीं, वहां सिर्फ़ एक बावला मन है, एक उत्ताप है और जीवन-मृत्यु के मिलन बिंदु है।
पत्र काफ़ी लंबा हो गया है। आपके पत्र में जो बातें आयी हैं, उनसे असहमत होने और एक बुनियादी ज़िरह में उतरने के और भी तमाम मुद्दे हैं। आधुनिकता और परंपरा की बहस, पश्चिम से प्रभावित होने या न होने का मुद्दा, संप्रेषण की समस्याएं - इन तमाम चीज़ों पर विस्तार से बात होनी चाहिए। पत्र में बातें बहुत सीमित हो जाती हैं। आपका पत्र पाने के बाद तात्कालिक रूप से जो मैंने अपना पत्र आपको लिखा था, उसे लेकर मैं संतुष्ट नहीं था। तभी उसका जवाब देते हुए मुझे यह पत्र दोबारा लिखना पत्रडा है, हालांकि सच तो यह है कि संतुष्ट मैं अपने इस पत्र से भी नहीं हूं। लगता है कि बातें जिस तरह से उठानी चाहिए थीं, वैसा नहीं हो पाया है।
समकालीन कविता से मेरे अपने असंतोष कम नहीं हैं और यदा-कदा मैंने उन्हें लिखित रूप में भी व्यक्त भी किया है। पर समूची समकालीन कविता को एक सिरे से नकार देने की यह स्थिति मुझे अंग्रेजी के उस मुहावरे की याद दिलाती है कि ''कुछ लोग बच्चे को नहलाने के बाद टब के पानी के साथ बच्चे को भी फेंक आते हैं।'' ख़ैर...! मैं इतना ही कहूंगा कि मेरे लिए आज भी तमाम साथी रचनाकारों को एक गहरी सहानुभूति और तटस्थता के साथ पत्रढना, उनके अच्छे-बुरे पहलुओं को समझना, उनके अंतर्विरोधों को पकडना एक प्रकार से अपने समय को समझना है। इसके अलावा और कोई राह है भी कहां? जो है उससे बेहतर चाहिए पर साथ ही जो है उसी की तो 'संगत' करनी होगी। यही 'समकालीन कविता के रेगिस्तान होते जाते चेहरे' को लेकर मेरी चिंताएं और मेरी पक्षधरता है। अपनी पीढी के बहुत सारे कवियों से मेरे प्रशंसा और आलोचना के द्वंद्वात्मक संबंध रहे हैं और कवियों से नहीं, उनकी कविता से इस 'संगत' को मैं आज भी अपने लिए बहुत महत्वपूर्ण मानता हूं।
अंत में, यही कहूंगा कि आप वरिष्ठ हैं, अधिक जानकार हैं। मैं अपनी समझ की सीमाओं के कारण यदि कुछ आप्रांसगिक कह गया हूं तो उसे बिसार देंगे। मेरे लिए यह महत्वपूर्ण है कि मैं आपका सम्मान करते हुए भी जहां भी ज़रूरी हो आपसे पूरी तरह असहमत रहूं। यह इजाज़त तो आपको मुझे देनी ही पत्रडेगी।
आपने इतना लंबा पत्र मुझे लिखा उसके लिए आभारी हूं।
सादर,
विजय कुमार
 




 

Tuesday, January 10, 2012

समकालीन कविता



मुंबई के कुछ मित्रों ने चिंतनदिशा का प्रकाशन फिर से शुरू किया है. पिछले अंक में विजय बहादुर सिंह और विजय कुमार के बीच कविता की चिंताओं को लेकर हुआ पत्राचार छपा है. पहले पढि़ए विजय बहादुर जी का पत्र.


प्रिय विजय कुमारजी,
सप्रेम नमस्कार,
आज सुबह-सुबह कॉलोनी में श्रीहरि भटनागर अचानक प्रकट हुए और कवि नरेश सेक्सेना द्वारा संपादित 'रचना समय' का कविता-विशेषांक दे गए। हरि को चूंकि इस क्षेत्र की काफ़ी गहरी जानकारी है इसलिए अंक पहली ही निगाह में ख़ूबसूरत लगता है। अपने कथा-लेखन में वे जितने ऊबड-खाबड हैं, पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन में उतने ही सुरुचि संपन्न और निष्णात।
सबेरे के समय को मैं स्वाध्याय में ही गुजारता हूं। लिखना और सोचना भी। आज इसमें व्याघात पडा क्योंकि इस अंक को दरकिनार करना मेरे लिए संभव नहीं हो सका। यों श्री नरेश सक्सेना ने मुझसे भी सहयोग करने को कहा था पर तब मैं कोलकाता में वागर्थ के संपादन की जिम्मेदारियों से इतना वजन महसूस कर रहा था कि मेरे लिए समकालीन कविता पर कुछ सोचने और सोच कर लिखने का काम संभव नहीं था। 'समकालीन कविताएं भी अपनी शक्ल-सूरत में मुझे कभी-कभार ही खींच पाती हैं। मैं साथी लेखक अरविंदाक्षन से सहमत हूं कि 'कविता विशेषज्ञों की संपत्ति हो गई है'। वही लिख रहे हैं, वही पढ भी रहे हैं। और यह विशेषज्ञता इतनी निजी (कारोबार जैसी) हो चुकी है कि लिखने वाला लिख कर आत्ममुग्धता के नशे में चला जाता है। इसका एक बडा कारण यह कि उस जैसों की भी एक जमात है, उस जमात को भी इसका समर्थन चाहिए - परस्पर प्रशंसंति अहो रूपं अहो ध्वनि। संपादक-कवि नरेश सक्सेना ने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को उध्दृत करते हुए लिखा है - 'कवि ही अपनी कविताएं पढते हैं। यह भयानक सच है।' इसके आगे मेरे अत्यंत प्रिय अरुण कमल का भी एक कथन नरेश भाई ने उध्दृत किया है - 'मेरा एक पश्चाताप यह है कि मैंने खराब कविताओं की तारीफ़ की।'
विशेषांक के संपादक की इन चिंताओं से होकर जब मैं श्री राजेंद्र यादव को संबोधित आपकी 1996 में लिखी चिट्ठी की ओर मुडा तो आपकी गद्य-भंगिमा और वैचारिक तेवर देख मुग्ध रह गया। आपकी सोच से सहमत होना एक स्वतंत्र सवाल है पर आपकी भाव-मुद्रा और शैली मुझे रसलीन करते रहे। यादवजी की कविताओं को लेकर आपकी जो तीखी प्रतिक्रिया है, वह तो उसे पूरे समय की कविता पर कमोबेश लागू की जा सकती है। मैं जब दुष्यंत रचनावली पर काम कर रहा था, उनकी दो-तीन सौ गीतात्मक कविताओं को देख हैरान होता रहा कि इस आदमी ने कविता के इन छंदों में कितनी उठक-बैठक की है। आज़ादी के आस-पास एक ओर पश्चिम से आनेवाले ज्ञान और साहित्य-चिंतन का ज़ोर हिंदी में दिखने लगा था। प्रगतिशील, प्रयोगशील प्रवृत्तियां अपनी जगह, पर इन्हें 'वाद' में बांधना, एक ख़ास प्रकार की विचारधारा और कला-दर्शन के हवाले करने का काम भी चल ही रहा था। मार्क्सवाद और अस्तित्ववाद का काम बख़ूबी कर ही रहे थे, डार्विन और फ्रायड के आक्रामक प्रभाव भी कुछ कम नहीं थे। अगर आप प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के तत्काल बाद साथ आए कवियों की कविताएं देखें तो वे और भी सतही स्थूल और बाढ ग्रस्त बरसाती नदियों के पानी की तरह उफनती मिलेंगी। ऐसे में उसी वक्त में भवानी मिश्र की सन्नाटा, सतपुडा के जंगल आदि कविताएं चमत्कृत करती हैं। भवानी मिश्र प्रगतिशील संघ से बाहर थे। कहें तो गांधी के साथ थे, सुभद्रा कुमारी चौहान, नवीन वग़ैरह के साथ थे। माखनलालजी इस समूह के नेता जैसे थे। मुक्तिबोध के शब्दों में 'माखनलाल स्कूल' के कवि तार-सप्तक जिसकी कविताएं सन् चालीस-बयालीस के आस-पास लिखी जा रही होंगी क्योंकि तैंतालीस तक तो ज़रूर उसकी पांडुलिपि बन ही गई होगी। अगर आप तार-सप्तक की उन कविताओं को देखें तो उनमें से कोई एक भी कविता लोक-हृदय पर अपनी छाप छोड नहीं पाई है। यहां तक कि मुक्तिबोध और अज्ञेय की भी। पर यह कविता भी अपनी सोच और भाव-भंगिमा में न तो मैथिलीशरण आदि की विरासत का विकास लगती है, न छायावादियों की। ऐसा होना भी क्यों चाहिए? पर ऐसी भी उसे क्यों होना चाहिए कि उसमें अपनी ज़मीनी गंध भी न हो।
यह तो आप मानते ही होंगे कि समस्त कला-व्यापार और साहित्य-सृजन सांस्कृतिक व्यापार माने जाते हैं। मेरी अपनी समझ से ये अपने-अपने रचना-क्षेत्र में उस लोक-चित्त को बार-बार खो जाने, पहचानने और रचने की कोशिशें करते हैं जो हजारों सभ्यताओं के दबावों और हमलों की आक्रामकता के बीच कहीं खोता चला गया और प्रत्यक्ष जीवन-परिदृश्य से प्राय: लुप्त-सा हो उठा। कवि या कलाकार का काम सभ्यता की कलम लगाना नहीं है, बल्कि मनुष्यता के मूल प्रस्थानों और उनसे जुत्रडे सपनों की याद दिलाना है। अफसोस की बात यह कि प्रगतिशील लेखक संघ और प्रयोगवाद ने उस दौर में यह संदेश देने की कोशिश की कि संस्कृति की भी कलम लगाई जा सकती है। यह कोशिश आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के नाम पर आज भी जारी है। मैं यह भी देखकर परेशान हो उठता हूं कि समकालीन कवि आलोचक - जिनमें आप भी शामिल हैं जब किसी सैध्दांतिक बात को कहने की कोशिश करते हैं तो उसी तरफ़ जाते हैं जिस तरह प्रगतिवादी, प्रयोगवादी, आधुनिकतावादी, उत्तर आधुनिकतावादी जाते देखे जाते हैं। यह एक ऐसा हवाई अखाडा है जिसमें हमारी कम से कम दो हजार साल की साहित्यिक विरासत और सृजनात्मक सिरे से अनुपस्थित है। इस प्रकार के लेखनचिंतन से यह संदेश जाता है कि रामायण, महाभारत, कालिदास, भवभूति, भारवि, वाणभट्ट आदि ने - जिनको भुला पाना इस देश के लोगों के लिए अब भी असंभव है - कभी कोई काव्य-चिंतन अथवा कला-चिंतन किया ही नहीं। ग़ौर करें तो कबीर, जायसी, तुलसी, घनानंद, केशवदास आदि ने भी काफ़ी मार्के का काव्य-चिंतन किया है पर आज जैसे अनेक प्रौढ और युवा-लेखकों के लेखन में इस परंपरा की कोई गंध तक नहीं मिलती। छायावादियों में प्रसाद ने अत्यंत गंभीर कला-चिंतन किया है अपनी किताब 'काव्य-कला तथा अन्य निबंध' में। आपको पढते हुए लगा कि यादवजी को आप यह बताना चाहते हैं कि विश्व-साहित्य के अध्ययन में आप उन पर या तो भारी पडते हैं या फिर कहीं से कम नहीं हैं। जिस 'फ्यूडल किस्म' का आरोप हम परस्पर लगाया करते हैं, उसकी सच्चाई यह है कि भारत का पूंजीवाद, समाजवाद, उत्तर यथार्थवाद और उत्तर बुध्दिवाद भी अभी इससे बरी नहीं है। होता तो पिछडा और दलित कार्ड खेलने वाले श्री राजेंद्र यादव लालू और मुलायम सिंह से इतना सगापन भला क्यों महसूस करते? क्यों हमारे कई मठाधीश वामपंथी अपनी बेटियों-बेटों के विवाह - यदि वे अप्रत्याशित ढंग से प्रेमग्रस्त हो विवाह न कर बैठे हों - अपनी ही बिरादरी के भीतर तलाशते हैं। उन्होंने कब यह सामाजिक नेतृत्व किया कि वे सैध्दांतिक तौर पर जातिवाद को तोडने के लिए इन योजनाओं की शुरुआत करें। तथापि श्री राजेंद्र यादव की बातें अपनी जगह। मैं जो आप से कहना चाह रहा हूं वो बातें कुछ दूसरी हैं।
आपको याद होगा, अपन एक शाम नवी मुंबई (वाशी) में बैठे थे और आपने समकालीन कविता के रेगिस्तान होते जाते चेहरे को लेकर अपनी चिंताएं व्यक्त की थीं। उस बैठक में आपने मुझसे यह आत्मीय अनुरोध भी किया था कि मैं आगे बढकर अपनी चुप्पी तोडूं और इस छत्ते में हाथ डालने का साहस करूं। एक पाठक और आलोचक के रूप में किसी की भी यह जिम्मेदारी हो सकती है कि वह अपनी चिंताओं को प्रकट करते हुए कुछ ऐसी सर्जनाओं कृतियों को रेखांकित करे जिससे समकालीनों को दिशाएं मिल सकें। अब मुझे लगता है कि नागार्जुन और भवानी प्रसाद जैसे कवियों को चुनना, उनके काव्य की प्रभाव-शक्तियों पर विचार करना, मेरे इसी उद्देश्य के अंतर्गत था। मोटे तौर पर ये दोनों कवि अलग-अलग दीखते हैं। एक साफ़-साफ़ मार्क्सवादी लगता है, दूसरा दो टूक गांधीवादी। पर आलोचक का काम यहीं ख़त्म नहीं हो जाता। उसका पहला काम तो कवि की अनुभव-दृष्टि से संवाद करना है। मुझे हमेशा लगा कि इन दोनों कवियों में परंपरागत सामूहिकता का बोध है और दोनों मार्क्स और गांधी के बावजूद अपनी उस ज़मीन पर हैं जिसे हम प्रेमचंद, प्रसाद-निराला आदि की 'ज़मीन' कह सकते हैं। यहां विचार तो हैं पर वे वादग्रस्तता से मुक्त हैं और कवि के अनुभव किसी भी दायरे को अपना पिंजडा बना कर रह लेने के अभिशाप से मुक्त हैं। फिर इन कवियों को पत्रढते हुए हमें बार-बार अनुभव होता है कि हम अपने आस-पास की उन सच्चाइयों से रू-ब-रू हो रहे हैं जो सिर्फ़ कवि-कल्पना या काव्य-कौशल की मनगत्रढंत सच्चाइयां नहीं हैं। ये विशाल और व्यापक राष्ट्रीय जीवन के गर्भ से उपजी हुई हैं। एक और बात जो मुझे इन दोनों के पास ले जाती है वह यह कि ये दोनों टिपिकल, मध्यवर्ग की हताशा और किंकर्तव्यमूढ मानसिकता के कवि नहीं है। उदासी, निराशा, क्षोभ और ग़ुस्सा इनमें भी कोई कम नहीं हैं पर ये रघुवीर सहाय की तरह लाचारी और हताशा का बोध नहीं कराते। नागार्जुन की 'मंत्र कविता' तो आपको याद ही होगी 'अंधेरी कविताएं' (1968) में भवानी भाई ने कुछेक पंक्तियां ऐसी लिखीं - 'फूल को बिखरा देने वाली हवा कौन कहता है चलनी नहीं चाहिए  समूचा जंगल जला देनेवाली आग कौन कहता है लगनी नहीं चाहिए। आगे वे लिखते हैं - शायद ऐसे ही कुछ शब्दों में अरसे से एक ऐसी हवा मुझमें चल रही है  एक ऐसी आग मुझमें जल रही है। मंत्र कविता भी इसी अवधि की रचना है।
दोनों कवियों में यह जो ऊष्मा और ताप है, वह मुझे रघुवीर सहाय जैसे लाचारी और हताशा का बोध करानेवाले कवि में अनुभव नहीं हुआ। रघुवीर सहाय को पढते हुए तबीयत बैठ-सी जाती है। अकेलेपन और लाचारी से पाठक भर उठता है।
कहना मैं यह चाहता हूं कि तार-सप्तक के राहगीरों की 'स्वतंत्रता' अपनी-अपनी राहों पर चलना - देश के लिए फायदेमंद उसी तरह नहीं हुआ जैसे कि प्रगतिवादियों का संकरे राजनीतिक प्रकोष्ठों में तब्दील हो जाना। अस्सी और नब्बे के दशक में आई कवि-पीढी स्वयं को बहुत अधिक पढी-लिखी समझने के दंभ से बीमार रही और है। अगर कई एक चर्चित कवियों के जीवन-प्रवाह का अध्ययन किया जाये तो नतीजे बहुत दुखदायी निकलेंगे कि उन्होंने कविता को किस तरह चतुर फार्मूलों का गुलाम बना डाला। उनकी कविता में व्यक्त अनुभवों का चरित्र बेहद अकादामिक शास्त्रीय किस्म का रहा जिसमें जीवन की वे पहचानें लगभग नदारद दिखीं जिन्हें इनसे अधिक वह पाठक जानता है जिसने कोई कविता नहीं लिखी। कविता और जीवन का यह भारी अंतराल इस समकालीन रचनात्मकता का सबसे दुखद पक्ष है। इस प्रतिबध्दतावाद पर सबसे बडा प्रश्नचिन्ह भी कि क्यों होरी-धनिया, घीसू-माधव या श्रध्दा-इडा जैसा कोई भी एक यथार्थवादी अथवा आदर्शवादी चरित्र यह नहीं पैदा कर पाया अब तक? आप सोचना कि ऐसे चरित्र किस साधना के बलबूते आकार ले पाते हैं? 'कुकुरमुत्ता' का विकास तो 'मंत्र कविता' में दिखता है पर 'मंत्र कविता' का विकास कहां गायब-सा हो गया है?
कविता, मेरी अपनी दृष्टि में कवि के आत्मा की अभिव्यक्ति है। कबीर हों या सूर-तुलसी, प्रसाद हों निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध अथवा नागार्जुन, या फिर उनके बाद के धूमिल, दुष्यंत आदि अपनी सर्जना के बहाने वे अपने सार्वभौमिक आत्म की अभिव्यक्ति करते हैं। तुलसीदास इसी को 'स्वान्त:सुखाय' कहते हैं। अधिकांशों ने कवि के इस कथन का जो अर्थ ग्रहण किया वह यांत्रिक मानस से किया। 'स्व' को उन्होंने कवि-व्यक्तित्व न मान कवि-इकाई मान लिया। न 'पर' के बारे में विचार किया, 'अपर' और परंपरा के बारे में। अज्ञेय जैसे कवियों के इस कथन पर भी उनका ध्यान नहीं गया जब उन्होंने कहा - 'यह मेरा, यह मैं स्वयंविसर्जित'। कविता ही क्यों, नाटक, गल्प, आख्यान, निबंध, संस्मरण आदि में सर्जक स्वयं को ही तो विसर्जित करता है। इसके बिना तो सर्जन संभव ही नहीं। सच तो यह कि स्वयं को 'दलित द्राक्षा' की तरह संपूर्णत: निचोत्रड दिए बिना यह सुकर्म सुकर्म बन नहीं पाता। याद करें तो मुक्तिबोध कहते हैं कि एक कविता लिखने में लगता है जैसे उनके देह का एक पौंड ख़ून सूख गया। यह ख़ून जैविक ही नहीं, दैविक या चेतनागत भी है।
विचार करने पर यह अंतर साफ़ हो जाता है कि बीसवीं सदी के चौथे-पांचवे दशक से जो कविता आती है, वह एक ख़ास तरह का लोकोध्दारक बाना पहने आती है या फिर आत्मविसर्जन के विरुध्द आत्मस्थापन का दावा लिए आती है। तार-सप्तक में भी जो कविगण हैं, नेमिचंद जैन, गिरजा कुमार माथुर, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, इनका कोई जिक्रकर्ता आज नहीं है। ये इतिहास के हिस्से हो चुके हैं। लोकस्मृति में इन्हें जगह नहीं मिल सकी। रामविलास शर्मा की प्रातिभा शक्ति कहीं और चमकी। बचे केवल दो - मुक्तिबोध और अज्ञेय। अज्ञेय पहले तो अपने औपन्यासिक गल्प और कथा-प्रतिभा के बल पर, बाद में तार-सप्तक की अपनी विवृत्ति या कहें चिंतन को लेकर चर्चित हुए। उनकी वे प्रयोगधर्मी कविताएं जिनमें उन्होंने उभरते और द्वीप बनते चले जाते मध्यवर्ग को प्रतिबिंबित किया, अब सिर्फ़ स्कूलों और कालेजों के अध्यापकों और उनके अंध-आज्ञाकारी छात्र-छात्राओं के काम आती हैं। साहित्य-समाज ने तो उत्तरवर्ती अज्ञेय को ही महत्व दिया जिसका एक बत्रडा कारण असाध्यवीणा और अगल-बगल की कविताएं हैं। विडंबना यह कि इन्हीं उत्तरवर्ती अज्ञेय को परवर्ती नई पीत्रढी के कवि समूह ने नकार दिया। अज्ञेय ज़रूर उसे 'हां तू आ...' तू-तू-आ संबोधित कर पुकारते रहे पर उसने उन्हें अस्त हो चुके सूर्य की तरह नकारने की सार्वजनिक घोषणा कर दी। इतिहास का चमत्कार कहिए या विडंबना कि जिन सप्तकवादी कवि को स्वच्छंदतावादी आलोचकों ने तार-सप्तक काल में नकार दिया था। 'आंगन के पार-द्वार' की कविताओं में वही अज्ञेय एक अपवाद और एक संभावना लगने लगे। 'असाध्यवीणा' की मूल चेतना 'आत्मस्थापन' की नहीं 'आत्म विसर्जन' की है। अज्ञेय ख़ुद कविता में यह कहते चले गए हैं कि यह न तो पांडित्य से सधती है न कौशल से। अहमन्यता से तो ख़ैर यह सधती ही नहीं है। जिन बत्रडे-बत्रडे कलावंतों की ओर अज्ञेय ने इशारा कर उन्हें 'हारे हुए सब' कहा, वे हमारे ज़माने में भी तो होंगे। हर ज़माने में रहते रहे हैं। तुलसी के काल में केशवदास थे। घनानंद के काल में भी रहे न होते तो उस मर्मवेधी विदग्ध कवि को यह क्यों कहना ज़रूरी लगता कि वे इस तरफ़ न आएं जो कविता को जानकारियों का खेल समझते हैं। या फिर एक यांत्रिक भाषा-कारोबार।
कविता जहां स्वयं को अन्य समस्त भाषा-व्यापार ऐक्टिविटी से अलग करती है, वह जगह कौन-सी है, इसे आप जैसे सुविज्ञ नहीं जानते होंगे, ऐसा कैसे कहा जा सकता है। वह जगह वही है जहां हृदय का मौन भी घूंघट डाल बैठा रहता है। यह कोई राजनीतिक या धार्मिक हदय नहीं होता। अर्थशास्त्रीय अथवा वैज्ञानिक भी नहीं। यह वह हृदय होता है जो जानकारियों के तमाम पाखंडपूर्ण स्तूपों को दरकिनार करता हुआ, उस विश्व-हृदय का हिस्सा होता है, जहां बुनियादी तौर पर तमाम तरह की पहचानें तिरोहित हो उठती हैं। धर्म, जाति, वर्ण, कुल यहां तक कि अन्य भी। यह कोई रहस्यवाद नहीं है, आप चाहें तो इसे छायावादी विश्वात्मवाद ज़रूर कह सकते हैं जहां चर-अचर, मनुष्य और मनुष्येतर का भेद बेमानी हो उठता है। 'असाध्यवीणा' हमारे अपने समय में इसे असाधारण ढंग से बोध कराती है। यह वही 'हृदय' है, जहां काव्य-विवेक धरा रह जाता है। कलावंतता पानी भरती है और लोक व्यवहार निपुणता सबसे घिनौनी बात लगने लगती है।
आप मुक्तिबोध की उन पंक्तियों की याद करें जिनमें वे अत्यंत क्षुब्ध, आत्म और कातर हो, ग्लानि से भरे हुए स्वयं से पूछते हैं - ओ मेरे सिध्दांतवादी मन! ओ मेरे आदर्शवादी मन। अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया? यह केवल कवि का आत्मप्रश्न क्यों माना जाये हमारा अपना भी क्यों नहीं? पर यह कौन कह सकता है? कौन स्वयं को कटघरे में खत्रडा करने के आत्मबल से संयुक्त है? आप तो कवियों की 'संगत' में रहने का दावा ही करते रहे हैं, कृपया ज़रूर सूचित करिएगा कि कितने इस 'आत्म' का साक्षात्कार कर सके हैं? मेरी अपनी समझ से तो वे सब एक प्रायोजित और प्रदत्त संसार में रहते रहे हैं बगैर किसी ईमानदार पूर्ण लगाव या संलिप्ति के। उनके ज्ञानात्मक संवेदनों में इस 'आत्म' की उपस्थिति कहां है? अगर होती तो निश्चय ही वे संवादरत कहीं-न-कहीं ज़रूर दिखते।
जिन दिनों मैं 'वागर्थ' का संपादन देख रहा था, मुझे कुवंरनायारण जी की एक कविता परेशान करने लगी थी। बाद में मैंने उसे पत्रिका के अंदरूनी मुखपृष्ठ पर नवंबर 2010 में छापा था, आप भी पत्रढें। थोत्रडा मन-बहलाव तो आप का भी होगा।
फोन की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूं
    और करवट बदल कर सो गया।
दरवाज़े की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूं
    और करवट बदल कर सो गया।
अलार्म की घंटी बजी
मैंने कहा - मैं नहीं हूं
    और करवट बदल कर सो गया।
एक दिन
मौत की घंटी बजी...
मैं हूं - मैं हूं - मैं हूं
    मौत ने कहा -
    करवट बदल कर सो जाओ।

कविता स्वयं हमें अपनी चपेट में लिए चली जाती है, हम अनजाने ही अपने क़रीब होते जाते हैं और हमारा वह 'आत्म' जिससे हम प्राय: मुंह छिपाए फिरते हैं, सहसा हमें घेर लेता है। हमारे प्रिय मित्र और काव्य-सखा स्वर्गीय विनय दुबे की एक और कविता मुझे याद आती है 'शायद' जो मेरी प्रिय कविताओं में से एक है। वे यह सवाल उठाते हैं कि यह जो स्वयं को बचाने की चतुराई है, यह हमारे समय के लोगों के 'आम चरित्र' का हिस्सा बन चुकी है। दुनियावी सफलताओं में जीने का हुनर। विनय दुबे की असली चिंता यह है कि यह तो आत्मघाती हुनर है। हर बात पर शायद कहना, जानते-बूझते हुए भी सत्य को नकारना, शायद की शैली को जीवन-शैली बना लेना, झूठ नहीं तो और क्या है? कविता के अंतिम टुकत्रडे बेहद वेधक हैं - लेकिन इतना समझ लो कि बचने  और शायद बचने में फर्क है  ...तुम शायद  नहीं भी बच सकते हो। 'उदय प्रकाश की कहानी' और अंत में प्रार्थना में यही तो दिखाया गया है कि जो सबसे ज्यादा असुविधाकारक सच है, मानवता के पक्ष में जानेवाला सबसे बत्रडा सच तो वही है। अपनी निष्ठाओं को जीवन-व्यवहार के स्तर पर उतारना। गालिब ने भी ऐसा एक शेर लिखते हुए सच्चे बिरहमन को काबे में जगह देने की सिफारिश की है।
हमारे समय के कवियों की दिक्कत ही यही है कि उनके विचार उनके जीवन-व्यवहारों और अनुभवों से कोई वास्ता जैसे नहीं रखते। वे आपस में भी भीतर ही भीतर एक दूसरे को नीचा दिखाना और पछात्रड डालना चाहते हैं। जिन प्रतिबध्दताओं की बात वे करते हैं वे सफलताओं के तात्कालिक गुणा-भाग से जुत्रडी हैं। आप अनुमति दें तो कहूं पाखंडी और बेईमान चरित्र वाले कवियों का एक समय जो ऐसे ही आलोचकों, आधुनिक दरबारों जैसी अकादमियों, संघों और संस्थाओं के बल पर फूल-फल रहे हैं। इनमें से कितने हैं जिन्होंने ठहर-सी गई कविता को एक कदम भी आगे बत्रढाया है? आधे से ज्यादा तो पश्चिम के नकलची हैं और बहुतेरे अंध प्रतिबध्दतावादी जिनकी पदावली में उनके कवि व्यक्तित्व की कोई झलक तक नहीं है। कई एक घुरंधर तो सिर्फ़ चोरी करते हैं। हिन्दी का वह पाठक-समाज जिसे अपने कवियों पर हमेशा भरोसा रहा है, उनके कथनों में क्यों यक़ीन नहीं करता? क्यों इन से घबराहट अनुभव करता है? क्यों इन सबकी कविता उसे अपने कवि अपनी भाषा की कविता नहीं लगती? क्यों इनके प्रति वह बेहद विमुख हो उठा है? आप ज़रूर इस पर सोचना चाहेंगे?
एक और बात जो हम आलोचकों को आपस में करनी है वह यह कि क्या कविता अब भी कोई कला-व्यापार है, अथवा नहीं? अगर नहीं तो फिर तो कोई बात नहीं, चाहे जैसे उठे-बैठे, यह उसका अपना मामला है। अगर है, तो फिर उसमें आनंद, उद्भावना, उत्प्रेरणा और मार्गदर्शन का कोई भाव है कि नहीं। अंतत: कवि, हमारे अपने ज़माने का कवि भी, कवि ही क्यों कहलाना चाहता है और इस मुगालते में रहता है कि भले ही वह वाल्मीकि, वेद व्यास, कालिदास, कबीर-तुलसी का वंशज न हो पर निराला आदि का तो है और इसीलिए उसका कद और आसन उन सारे बहुस्वीकृत, बहुप्रतिष्ठित लेखकों से बत्रडा है जो काव्येतर विधाओं में अपना महत्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान कर चुके हैं। उसके इस थोथे मुगालते के पीछे कौन-सी मानसिकता काम कर रही है? मेरी जिज्ञासा है कि आप मुझे यह ज़रूर समझाएं?
कविता अगर कला-व्यापार नहीं, मात्र बुध्दि-व्यापार है और स्वयं को अब एक शास्त्र में परिणत कर, ऐसा ज्ञान-दान कर रही है, जिससे हमारी आंख खुले और हम अपने वर्ग-शत्रु की पहचान कर लें तो मेरी दूसरी जिज्ञासा यह है कि 1935-36 से आज 2011 तक यह पहचान कितनी असरकारी हुई? हिन्दी कविता का पाठक समाज कितना वर्ग-संवेदी हुआ और कितना सांप्रदायिक, कितना जातिवादी, कितना जुझारू और कितना समझौतापरस्त? जब यह कविता मनोरंजन को भी नकार चुकी, विचार - सो भी इंजेक्टेड - के बल को ही सबसे बत्रडा काव्य-बल मानती रही तब वे विचार भी क्यों नहीं फले-फूले जिन्हें सिर पर उठाए यह चल रही थी? कहीं सचमुच यह सब कुछ लोगों का बैठे-बिठाए का गोरखधंधा था? स्वयं नरेश सक्सेना जैसे कवि को यह तीखा सच क्यों उगलना ज़रूरी जान पत्रडा कि वहीं दिल्ली में केदारनाथ सिंह और कुंवर नारायण जैसे कवियों की उपस्थिति महसूस नहीं की जाती। यह उन्होंने वसुधा को दिए गए एक साक्षात्कार में कहा।
एक और बात जो मैं आप से शेयर करना चाहता हूं वो यह कि हमारे इन कवियों की कविता में वे अनुगूंजें क्यों नदारद हैं, जो आम पाठकों की चेतना में अब भी बाकायदा मौजूद हैं और उसे जब-तब उसकी अस्मिताओं का बोध कराती हैं? क्यों वे सब भी प्रायोजित और प्रदत्त यथार्थ के सामने स्वयं को घरेलू नौकरों (यह आपका ही मुहावरा है) की तरह पेश करते हैं? यह दिमागी बंधुआगिरी या बंधुआपन क्यों? क्या दुनिया सचमुच उतनी ही है जितनी मार्क्स ने समझी है? क्या वह नहीं जो हम सबकी छाती पर चढी नग्न-नृत्य कर रही है? इससे निपटने का रास्ता क्या है? सभ्यता, धर्म, राजनीति और विज्ञान प्रौद्योगिकी क्या इस रास्ते का कोई अता-पता हमें दे रहे हैं? इस अद्भुत अपूर्व बौध्दिक विकास की ये चरम अतियां अगर हमें त्रस्त कर चुकी हैं तो कथित प्रतिबध्द कविता अब क्या करनेवाली है, कृपया बताइएगा? क्या वह भाववादी आदर्शवाद की ओर लौटेगी, जिसके वह हमेशा विरुध्द रही है। क्या वह पूंजीवाद और उत्तर पूंजीवाद के पांवों को पकत्रड गित्रडगित्रडाएगी? या फिर वह नए सिरे से आत्मशोधन की राह पकत्रड आत्म संस्कार की प्रक्रिया से रू-ब-रू होने का संकल्प लेगी? क्या करेगी?
अक्ल की उसकी खेती तो उसके लिए भी काम नहीं आई। आप जैसे उसके प्रिय संगतकार क्या उसे कोई और परार्मश देना चाहेंगे?
अफसोस! आपके साथी संपादकगण भी यही मान बैठे हैं कि मानव-संस्कृति के बीच दरार डालने का काम 'पूंजी' ने किया है। मैं इस सोच को ही मानव-पुरुषार्थ के संदर्भ में अपमानजनक मानता हूं। ऐसी सोच तब पैदा होती है जब हम यह मानकर चलने लगते हैं कि पदार्थ ही चेतना को जन्म देता है। मेरे जैसे लोग, जो सिरफिरेपन से ग्रस्त हैं - यह मानने पर राजी नहीं। मानव-पुरुषार्थ हमारे लिए सर्वोपरि है। ज्ञान, विज्ञान, धर्म और राजनीति सब उसी पुरुषार्थ की उपज हैं। पूंजी भी। क्या अब हमारा बौध्दिक पुरुषार्थ नि:शेष हो चुका? क्या हम अपनी ही सभ्यताओं से लत्रडने लायक नहीं बचे? तब वो पागल कबीर क्यों कहता फिरा - 'तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आंखिन की देखी'। तुलसी ने क्यों लिखा - कि कोरे कागदों का सौंदर्य इसलिए बत्रढेगा क्योंकि इन पर मेरे कमाए हुए सच दर्ज हैं।
बंधुवर! क्या अब हम नए सिरे से अपना नया सच नहीं कमा सकते? क्या अपने कवि मित्रों से यह अनुरोध नहीं कर सकते कि वे अकादमिक यथार्थवाद से बाज आकर उस काव्य-यथार्थ से टकराएं जिसे मुक्तिबोध 'जीवनानुभव' कहते रहे हैं। मारिए गोली कथाकार संपादक राजेंद्र यादव को, याद करना ही हो तो उदय प्रकाश को याद कीजिए जिसे मंगल पांडे के कारतूस में वारेन हेस्टिंग्स के सांड की चर्बी की अनुगूंज सुनाई देती है। भारत को स्वाधीनता का एहसास कराना, उसका मूल्य बोध कराना हमारी सबसे बत्रडी चुनौती है।


   
सप्रेम
विजय बहादुर सिंह
29, निराला नगर, दुष्यंत कुमार मार्गभोपाल-462003
मो.: 09425030392

Friday, January 6, 2012

क्या करूं कोरा ही छोड़ जाऊं कागज?



क से लिखता हूं कव्वा कर्कश
क से कपोत छूट जाता है पंख फड़फड़ाता हुआ
लिखना चाहता हूं कला
कल बनकर उत्पादन करने लगती है
लिखता हूं कर्मठ पढ़ा जाता है कायर
डर जाता हूं लिखूंगा कायदा
अवतार लेगा उसमें से कातिल

कैसा है यह काल कैसी काल की रचना-विरचना
और कैसा मेरा काल का बोध
बटी हुई रस्सी की तरह
उलझते, छिटकते, टूटते-फूटते
पहचान बदलते चले जाते हैं
शब्द अर्थ विचार आचार और व्यवहार

क से खोलना चाहा अपने समय का खाता
क से ही शुरू हो गया क्लेश

क्या क्ष त्र ज्ञ तक पहुंचना होगा मुमकिन?

जब जुड़ेंगे स्वर व्यंजन
बनेंगे शब्द
फिर अर्थगर्भा शब्द
वाक्य और विचार
आचार और व्यवहार

तो किस किस तरह के खुलेंगे अर्थ
और कितना होगा अनर्थ

क्या करूं कोरा ही छोड़ जाऊं कागज?

(यह कविता वागर्थ के अक्‍तूबर 2011 अंक में छपी है)